शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

केदारताल- अलौकिक सौन्दर्य का अहसास

हिमालय प्रकृति की कई अदभुत संरचनाओं से भरा पडा है। केदारताल इन्हीं में से एक है। यहां का सफर थोडा मुश्किल बेशक सही, लेकिन एक प्रकृति प्रेमी के लिये आनंददायक है। इस बेहद रोमांचक लेकिन बेहद खूबसूरत सफर पर ले जा रहे हैं प्रेम एन. नाग:

हिमालय के सुन्दरतम स्थानों में से एक है केदारताल। मध्य हिमालय के गढवाल क्षेत्र में स्थित यह ताल न केवल प्रकृति की एक विशिष्ट रचना है बल्कि अनूठे नैसर्गिक सौन्दर्य का चरम है। जोगिन शिखर पर्वत श्रंखला के कुछ ग्लेशियरों ने अपने जल से पवित्र केदारताल को निर्मित किया है। यह समुद्र तल से 15 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर स्थित है। पास ही हैं प्रसिद्ध भृगुपंथ और थलयसागर पर्वत जो अपनी चोटियों के प्रतिबिम्ब से ताल की शोभा में चार चांद लगाते हैं।

केदारताल से केदारगंगा निकलती है जो भागीरथी की एक सहायक नदी है। कहीं शान्त और कहीं कलकल करती यह नदी विशाल पत्थरों और चट्टानों के बीच से अपना रास्ता बनाती है। अपने आप को पूर्णरूपेण गंगा कहलाने के लिये गंगोत्री के समीप यह भागीरथी में मिल जाती है।

यात्रा का आरम्भ

केदारताल को देखने की चाहत में कुछ समय पहले हमारा एक तीन सदस्यीय दल दिल्ली से ऋषिकेश और उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री पहुंचा। गंगोत्री में शाम होने वाली थी। गौरीकुण्ड के पास बने पुल से भागीरथी के दूसरी ओर जाकर हमने एक बडी कुटिया में प्रवेश किया। ठहरने की व्यवस्था महज पचास रुपये प्रति व्यक्ति में हो गयी। गंगोत्री लगभग दस हजार दो सौ फुट की ऊंचाई पर है। एक छोटे से होटल में रात का खाना खाकर हम कुटिया में चले गये। अगले दिन सुबह साढे छह बजे आंखें खुली। निवृत्त हो हम पिछली रात वाले होटल पहुंचे। चाय पीते-पीते होटल वाले रामप्रकाश ने एक कुली-कम-गाइड की हमसे बात करवा दी। ढाई सौ रुपये और भोजन प्रतिदिन देना तय करके हमने अपना टेंट और राशन आदि कमल सिंह कुली के हवाले कर दिया।

एक्लीमेटाइजेशन

पहाड में किसी भी ऊंचाई वाले इलाके में जाने के लिये एक्लीमेटाइजेशन यानी शरीर को आबोहवा के अनुकूल बनाने की कवायद बहुत जरूरी है। आगे के मुश्किल सफर से पहले अपने शरीर को वातावरण का अभ्यस्त बनाने के लिहाज से भी हमारा गंगोत्री में रुकना जरूरी था। इसके लिये हम आसपास के ऊंचे क्षेत्रों में लगभग चार घण्टे चढते-उतरते और विश्राम करते रहे। दोपहर एक बजे हमने गंगा स्नान किया और भोजन के उपरान्त विश्राम और फिर वही एक्लीमेटाइजेशन की क्रिया।

केदारताल के लिये ट्रेकिंग

गंगोत्री में दूसरी रात बिताकर सवेरे हम जल्दी उठे। पांच बजे कमल सिंह हमारे पास पहुंच गया। हल्का नाश्ता लेकर साढे पांच बजे हमने यात्रा प्रारम्भ कर दी। अक्सर ट्रेकिंग करने वालों के लिये भी प्रारम्भ में केदारताल का रास्ता कठिन है। परन्तु 8-10 किलोमीटर चलने के उपरान्त व्यक्ति रास्ते की कठिनाइयों का अभ्यस्त होने लगता है और मार्ग भी सुगम होने लगता है। हालांकि ऊंचाई वाले इलाकों में ऑक्सीजन की कमी जैसी समस्याओं को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। ऐसे क्षेत्रों में चलने का मूलमन्त्र है धीरे चलना, ऑक्सीजन की कमी को पूरा करने के लिये अधिक से अधिक पानी पीना, ग्लूकोज लेना और कभी भूखे नहीं रहना। आप कितने भी होशियार हों, सुरक्षित चलने में ही समझदारी है। ऊंचाई पर अज्ञानतावश लोग संकट में पड जाते हैं।

केदार खडक

गंगोत्री से केदारताल की दूरी तय करते हुए 12 किलोमीटर के बाद केदार खडक में पहला पडाव डाला जाता है। बिना टेण्ट लगाये हमने एक बडी चट्टान के नीचे बनी गुफा में रात बिताई। दूसरे दिन भोज खडक पहुंचते हैं। यह स्थान केदार खडक से लगभग दस किलोमीटर दूर है। तीसरे दिन आठ किलोमीटर चलने के पश्चात भव्य ताल पर पहुंच जाते हैं। तीसरे दिन ही हमें 6772 मीटर (लगभग 22213 फुट) ऊंचे भृगुपथ शिखर और ऊंचे थलय सागर शिखर के दर्शन हुए। कुछ समय बाद भव्य केदारताल हमारे सामने था। कुछ लोग इस मार्ग को दो दिन में तय करते हैं।

वनस्पति व जडी बूटियां

इस यात्रा में गंगोत्री और ऊपर की ओर चलते हुए प्रचुर मात्रा में भोजपत्र के वृक्ष और अन्य कई प्रकार के पेड-पौधे मिलते हैं। सारे क्षेत्र में ‘शिवजी की धूप’ नामक एक बूटी फैली हुई है। इसकी घासनुमा पत्तियों को जलाने पर गुग्गल धूप जैसी सुगन्ध से वातावरण महक उठता है। स्थानीय लोग इसे बडा पवित्र मानते हैं। बिच्छू बूटी भी यहां बहुत है। ऊंचाई के साथ-साथ वनस्पति भी लुप्त प्रायः होने लगती है। केवल घास, पहाडी पौधों के झुरमुट, झाडियां और छोटे-छोटे पौधे मिलते हैं। वन्य प्राणियों में प्रायः भरल हिरण छोटे-बडे झुंडों में दिखाई दे जाते हैं। एक विशेष प्रजाति का बाज (फाल्कन) यहां पाया जाता है जो बर्फीले क्षेत्रों में रहता है। इसके अतिरिक्त कौवे के आकार के पीली चोंच और काले रंग के पक्षी प्रायः दिखाई देते हैं।

ताल पर पहली शाम

केदारताल के किनारे बैठे-बैठे शाम हो चली थी। हर ओर सन्नाटा ही सन्नाटा था। दिल्ली से चलते समय मां ने जो मेवे युक्त लड्डू बनाकर दिये थे वह पोटली मेरे पास थी। हमने एक-एक लड्डू खाया ही था कि पोर्टर कमल काफी दूर लगे कैम्प से हमारी ओर आता दिखाई दिया। उसने आवाज लगाई, साहब चाय तैयार है। चाय पीकर हम सब रात्रि भोजन पकाने की तैयारी में लग गये। ऊंचाई के कुप्रभाव से सभी को हल्की सी बेचैनी थी, अतः ठण्ड के होते ही सभी खुली हवा में बैठे। देखते-देखते रात हो गयी। दिन में अत्यन्त स्वच्छ नीले आकाश में रात्रि को इतने सितारे दिखाई देने लगे कि उनकी शोभा का वर्णन सम्भव नहीं। उसे खुद ही महसूस किया जा सकता है।

पन्द्रह हजार फुट की ऊंचाई पर रात

अगस्त मास था। शुक्ल पक्ष की हल्की चांदनी में हम एक-दूसरे का चेहरा थोडा-थोडा देख पा रहे थे। कमल ने अपने पर्वतारोहण के अनुभव और गांव की कुछ घटनाएं सुनाईं। रात के निर्मल चन्द्रमा की शीतल चांदनी और समस्त तारामंडल को देखकर एक अलौकिक अनुभूति होती है। दूसरे दिन सूर्योदय से पहले हम जाग गये थे। शून्य से नीचे के तापमान से बर्तनों और बोतलों में रखा पानी जम चुका था। कमल चूल्हा जलाने की तैयारी में लग गया। और मैंने ट्राइपोड और कैमरा तैयार किया। अब तक मैं 11 फिल्में खींच चुका था। बारहवीं फिल्म अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षणों को समेटने में लग गई। भोर की प्रथम किरणों का स्वर्णिम प्रकाश जब पर्वत शिखरों पर पडा तो ऐसा लगा कि सब ओर सोना ही सोना बिखरा पडा हो। मैंने वह सब सोना बटोर कर कैमरे में बन्द कर लिया। सफर में साथ देने के लिये मैं मौसम का भी शुक्रिया अदा करता रहा। अच्छा मौसम देख हम केदारताल पर एक दिन और रुके। दूसरी रात को कुछ देर हमने तारों का अध्ययन किया। जितना साफ आकाश पहाडों में होता है इतना साफ और कहीं दिखाई नहीं देता और सितारे बहुत समीप लगते हैं। एक साथी के पास ट्रांजिस्टर था जिसका अभी तक प्रयोग नहीं किया था। उसे ऑन करने पर बहुत स्पष्ट आवाज में समाचार और गाने सुने। उस ऊंचाई पर ट्रांजिस्टर पर गाने सुनने का आनंद निराला ही था। विशेष बात यह भी थी कि न तो कोई अखबार पढने की चिंता थी और न टेलीविजन कार्यक्रम देखने-सुनने की चाहत।

वापसी का सफर

सवेरे जल्दी उठ हमने हिमशिखरों व केदारताल को आखिरी बार निगाहों में भर लिया। हमारे चेहरों की चमडी सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण झुलस चुकी थी। नाक सबसे अधिक प्रभावित हुई थी। हमें नीचे जाना था, इसलिये एक ही दिन में सारा रास्ता तय करना था। राशन इस्तेमाल हो चुका था, इसलिये बोझ भी कम था। शाम होते-होते हम गंगोत्री पहुंच चुके थे। अगले दिन सवेरे फिर गंगा के दर्शन करके हम दिल्ली के लिये लौट चले। केदारताल की यादों के अतिरिक्त यदि हमारे पास कुछ था तो वो था ताल का पवित्र जल और चमचमाते पत्थरों के टुकडे।

कैसे पहुंचें

ऋषिकेश या उससे पहले हरिद्वार तक उत्तर भारत के सभी प्रमुख शहरों से रेल व बस, दोनों से पहुंचा जा सकता है। निकट के शहरों से टैक्सी से भी जा सकते हैं। दिल्ली से ऋषिकेश का सफर लगभग छह घण्टे का है। ऋषिकेश से उत्तरकाशी केवल सडक द्वारा लगभग 8 से 9 घण्टे में पहुंचा जा सकता है। उत्तरकाशी में कम से कम एक दिन ठहरना उचित रहता है। यहां सस्ते होटल उपलब्ध हैं। उत्तरकाशी से गंगोत्री की दूरी 99 किलोमीटर है। इस सफर में 5 से 6 घण्टे लगते हैं। गंगोत्री में ठहरने के लिये गढवाल मंडल विकास निगम का होटल, साधुओं की धर्मशालाएं और अन्य छोटे होटल उपलब्ध हैं।

बाकी तैयारी

ट्रेकिंग के लिये कुली-कम-गाइड 250 रुपये व भोजन आदि सहित प्रति कुली प्रतिदिन के हिसाब से या कभी कभी इससे कम खर्च में भी मिल जाता है। राशन व रसोई का सामान सभी कुछ अपने कार्यक्रम की अवधि के अनुसार लें। इस विषय में कुली सहायता कर देते हैं। जैसे बर्तन, मिट्टी का तेल व चूल्हे का प्रबन्ध आदि। उत्तरकाशी में ही यह प्रबंध करके चलना उचित रहता है। हालांकि गंगोत्री में भी सभी कुछ मिल जाता है।

जरूरी सामान

यात्रियों की संख्या के हिसाब से टेण्ट, गर्म कपडे, स्लीपिंग बैग, रकसैक (यानी पिट्ठू बैग), पानी की बोतल, टॉर्च, चश्मा, कैमरा व फिल्में, मजबूत लेकिन चलने में आरामदायक जूते, विंडचीटर और वर्षा से बचने के लिये प्लास्टिक शीट और आवश्यक दवाएं आदि। पहाड का नियम है- जरुरत का हर सामान हो लेकिन जरुरत से ज्यादा कुछ नहीं। दिल्ली से महज ढाई-तीन हजार रुपये के प्रति व्यक्ति खर्च पर पूरी यात्रा की जा सकती है। हालांकि अप्रत्याशित खर्च का ध्यान जरूर रखें।

लेख: प्रेम नाथ नाग (दैनिक जागरण यात्रा)


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1 टिप्पणी:

  1. photo hi sath mein hota to maja duna ho jaata..
    sundar prasuti...Joshimath tak to gaye hain ham lekin kedarnath nahi jaa paaye abhi tak..dekhiye kab tak hota hai jaana..aaj yaatra ka anand to aa hi gaya.aabhar!!

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