गुरुवार, अप्रैल 07, 2011

लाहौल-स्पीति प्रकृति का अछूता नजारा

यह लेख 25 जून 2006 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।

हिमाचल की लाहौल व स्पीति घाटियां साल के ज्यादातर समय देश के बाकी हिस्सों की पहुंच से दूर होती हैं। शायद यही बात इनकी प्राकृतिक सुन्दरता को अभी तक बरकरार रखे हुए है। इनके अप्रतिम सौन्दर्य का बखान कर रहे हैं गुरमीत बेदी:

चारों तरफ झीलों, दर्रों और हिमखंडों से घिरी, आसमान छूते शैल-शिखरों के दामन में बसी लाहौल-स्पीति घाटियां अपने जादुई सौन्दर्य और प्रकृति की विविधताओं के लिये विख्यात हैं। हिन्दू और बौद्ध परम्पराओं का अनूठा संगम बनी इन घाटियों में प्रकृति विभिन्न मनभावन परिधानों में नजर आती है। कहीं आकाश छूती चोटियों के बीच झिलमिलाती झीलें हैं तो कहीं बर्फीला रेगिस्तान दूर तक फैला नजर आता है। कहीं पहाडों पर बने मन्दिर व गोम्पा और इनमें बौद्ध मन्त्रों की गूंज के साथ-साथ वाद्ययन्त्रों के सुमधुर स्वर एक अलौकिक अनुभूति से भर देते हैं तो कहीं जडी-बूटियों की सौंधी-सौंधी महक और बर्फ-बादलों की सौन्दर्य-रंगत देखते ही बनती है।

लाहौल और स्पीति एक दूसरे से सटी अलग-अलग घाटियों के नाम हैं लेकिन प्रकृति की विविधताओं के बावजूद इनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि काफी हद तक समान है। लाहौल को चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ‘लो-यू-लो’ के नाम से सम्बोधित किया था और राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘देवताओं का देश’ कह कर पुकारा था। तिब्बती भाषा में लाहौल को ‘दक्षिण देश’ कहा जाता है। लाहौल अगर हरा-भरा है तो इसके एकदम विपरीत बर्फीला रेगिस्तान है स्पीति घाटी। दूर तक निगाहें हरियाली को तरस जाती हैं लेकिन इसके बावजूद इस बर्फीले रेगिस्तान का सौन्दर्य नयनाभिराम है।

स्पीति को ‘मणियों की घाटी’ भी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में ‘सी’ का अर्थ है मणि और ‘पीति’ का अर्थ है स्थान, यानी मणियों का स्थान । इस घाटी में चूंकि कई कीमती पत्थर व हीरे आज भी मिलते हैं, अतः इसे ‘मणियों की घाटी’ का खिताब मिलना स्वाभाविक ही है। ऐसी धारणा भी है कि इस घाटी के शैल-शिखरों में सैकडों वर्षों तक बर्फ की मोटी तहें जमी रहती हैं और इतनी लम्बी अवधि में बर्फ मणियों में बदल जाती है।

लाहौल-स्पीति घाटियों ने अनेक उतार-चढाव देखे हैं। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लद्दाख साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहौल कुल्लू के मुखिया के हाथों में चला गया। सन 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौल और कुल्लू को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1846 तक उस पर राज किया। सन 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन 1941 में लाहौल-स्पीति को एक उपतहसील बनाकर कुल्लू उपमण्डल से सम्बद्ध कर दिया गया। 1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहौल-स्पीति को पूरे जिले का दर्जा प्रदान कर दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहौल-स्पीति जिले का हिमाचल प्रदेश में विलय हो गया।

लाहौल-स्पीति जाने का एक रास्ता कुल्लू जिले के रोहतांग दर्रे से होकर जाता है। रोहतांग पहुंचने के लिये पहले मनाली जाना पडता है जो कुल्लू से लगभग 40 किलोमीटर आगे है। मनाली से व्यास नदी के किनारे-किनारे चलकर 13050 फुट की ऊंचाई पर स्थित है रोहतांग दर्रा। समूचा रास्ता प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है और सर्पीली, बलखाती सडकों से 51 किलोमीटर का सफर बेहद खूबसूरत तो है ही, मैदानी इलाके के लोगों के लिये बेहद रोमांचक भी है। रोहतांग को लाहौली भाषा में ‘लाश का घर’, संस्कृत में ‘भृगुतुंग’ और हिन्दी में ‘मौत का मैदान’ भी कहते हैं। ‘रोह’ शब्द से रूह और ‘तांग’ कहते हैं मैदान को। जब से रोहतांग दर्रे पर आदमी के कदम पडे हैं, उसने इसे विश्व का सर्वाधिक खतरनाक दर्रा माना है। लेकिन अगर धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया जाये तो हमारे ऋषि-मुनियों की नजर में यह दुनिया का सबसे शान्त स्थल रहा है।

महर्षि वेदव्यास ने यही तपस्या की थी और संसार की प्रथम पुस्तक ‘वेद’ की रचना की थी। महाभारत काल में अर्जुन ने भी यही इन्द्रकील पर्वत की गोद में तपस्या की थी, जिस पर भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे पाशुपत अस्त्र दिया था। यही नहीं, रोहतांग पांडवों के स्वर्गारोहण का पथ भी रहा है। कुछ लोगों की मान्यता है कि अपनी अन्तिम यात्रा के दौरान पांडवों व द्रौपदी ने यही पर अन्तिम श्वास ली थी। पौराणिक महाकथाओं में जिन विशाल पर्वतों- भृगुतुंग, इन्द्रासन और देव टिब्बा का उल्लेख आया है, वे सभी यही यहीं पर स्थित हैं। रोहतांग दर्रा प्रति वर्ष मई या जून महीने में खुलता है व अक्टूबर-नवम्बर तक यहां सैलानियों की खूब चहल-पहल रहती है। इन्हीं दिनों रोहतांग दर्रा लांघ कर लाहौल-स्पीति जाया जाता है।

रोहतांग दर्रे को पार करते ही लाहौल-स्पीति जिले की सीमा शुरू हो जाती है। रोहतांग से सात किलोमीटर नीचे उतरकर कई घुमावदार मोडों को तय करते हुए ‘ग्रामफू’ नामक स्थल आता है। यहां से स्पीति घाटी के लिये दायीं और से ओर लाहौल घाटी के लिये बायीं ओर रास्ता जाता है। यहां से जब हम लाहौल घाटी के लिये पहले सफर शुरू करते हैं तो चन्द्रा नदी हमारी पथ प्रदर्शक बन जाती है। तांडी नामक स्थान पर केलांग से आती ‘भागा’ नामक एक अन्य नदी इस नदी में आ मिलती है और इनका नाम ‘चन्द्रभागा’ पड जाता है।

इन नदियों के इकट्ठे होने के बारे में लाहौल घाटी में एक रोमांचक लोकगाथा प्रचलित है। इस लोकगाथा के अनुसार- चन्द्रा और भागा दो प्रेमी थे। चन्द्रा ‘चन्द्र देवता’ की लडकी थी और भागा ‘सूर्य देवता’ का लडका। उनका प्रेम जब प्रगाढ हो चला तो उन्होंने परिणय सूत्र में बंधने का निर्णय लिया। लेकिन स्वर्ग में रह रहे देवताओं ने इस विवाह पर आपत्ति जताई। इस पर दोनों प्रेमियों ने धरती पर आकर विवाह करने का निर्णय लिया और स्वर्ग से जलधाराओं के रूप में बहने लगे। मनाली से लेह के रास्ते में आने वाले बारालाचा दर्रे पर उतनी इन धाराओं ने विपरीत दिशाओं से होते हुए लाहौल घाटी के किसी विहंगम स्थल पर सन्धि का निश्चय किया। तांडी नामक स्थल पर पहुंच कर दोनों जलधाराएं एक-दूसरे में समा गई और इस तरह चन्द्र और भागा का विवाह सम्पन्न हुआ। यहीं से ये दोनों नदियां मिलकर ‘चन्द्रभागा’ कहलाने लगीं। चन्द्रभागा नदी लाहौल तक ही सीमित नहीं रहती। लम्बे सफर के बाद जब यह नदी कश्मीर पहुंचती है तो इसका नाम बदलकर चिनाब हो जाता है और फिर यह नदी अखनूर से होती हुई पाकिस्तान जाकर दरिया-ए-सिन्ध में मिल जाती है।

यह रास्ता कुंजम दर्रे से होता हुआ काजा तक जाता है। दूसरा रास्ता शिमला से है जो नारकंडा, जांगी, पुह, सुमडो होते हुए काजा पहुंचता है। स्पीति घाटी को बर्फीला रेगिस्तान के नाम से भी जाना जाता है। यहां वर्षा नाममात्र के बराबर होती है और बस बर्फ ही गिरती है। बर्फ भी इतनी कि कई-कई फुट मोटी तहें जम जाती हैं। स्पीति घाटी में कहीं चमचमाते ग्लेशियर, आकाश को छूते हिमशिखर हैं तो कहीं बिल्कुल खुश्क मटियाली चट्टानें जिन्हें देखकर भ्रम होने लगता है, जैसे अब गिरीं, तब गिरीं और कहीं बिल्कुल सपाट मैदान।

समुद्र तल से 10 हजार फुट की ऊंचाई पर स्पीति घाटी में स्थित ताबो गांव को दुनिया का सबसे प्राचीनतम और सबसे ऊंचा गांव व हिमालय की अजन्ता भी कहा जाता है। यह गांव स्पीति घाटी के मुख्यालय काजा से 46 किलोमीटर दूर है और इसे बौद्ध धर्म का एक मुख्य केन्द्र भी माना जाता है। कहा जाता है कि इस गांव की स्थापना 948 में लामा रिन-छेन-जंग-पो ने की थी। गांव की ऊंची पहाडी पर स्थित यहां के गोम्पा में अत्यन्त प्राचीन भित्तिचित्र हैं। ये चित्र परियों, देवताओं, बौद्ध गुरुओं, प्रणय भंगिमाओं, जातक कथाओं व राक्षसों पर बने हैं।

सूरजताल, चन्द्रताल, मणि यंग छोह और ढंकर छोह लाहौल-स्पीति की चार प्रमुख झीलें हैं जो बर्फीले शैल शिखरों के बीच में स्थित हैं। इन झीलों का सौन्दर्य नयनाभिराम है। लेकिन ये अत्यन्त दुर्गम स्थलों पर स्थित हैं। जिनके पांवों में दमखम है और सीने में एडवेंचर, वह इन झीलों के सौन्दर्य को आत्मसात कर सकते हैं। यहां के गांव, झीलें, बर्फीले दर्रे, बौद्ध मठ देखने लायक हैं। स्पीति घाटी में पिन नदी के दोनों ओर पिन घाटी है। यह घाटी अपने शानदार घोडों के लिये प्रसिद्ध है। यह इलाका कितना निर्जन है और यहां रहना कितना मुश्किल है, इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लाहौल व स्पीति जिलों की कुल आबादी महज 33 हजार है। यहां कोई शहर नहीं, पूरी आबादी ग्रामीण है और कुल 521 गांवों में से आधे में ही लोग बसते हैं। इलाका जितना दुर्गम है, उसमें तो पन्द्रह हजार फुट की ऊंचाई तक बस से रास्ता तय करने की कल्पना ही अदभुत और रोमांचक है। गर्मियों में बडी संख्या में रोमांच प्रेमियों और विदेशी सैलानियों को इन झीलों के किनारे तम्बू लगाये देखा जा सकता है। लाहौल-स्पीति घाटी पहले विदेशी सैलानियों के लिये प्रतिबन्धित थी लेकिन अब ये सीमांत क्षेत्र विदेशी सैलानियों के लिये भी खोल दिये जाने से यहां पर्यटन को नये आयाम मिले हैं और यहां नई हवाओं ने भी दस्तक दी है।

कैसे पहुंचे:

-लाहौल घाटी का मुख्यालय केलांग मनाली से (रोहतांग, ग्रामफू व तांडी होते हुए) 115 किलोमीटर है। मनाली से बसें और टैक्सी उपलब्ध हैं। यह रास्ता मई-जून से अक्टूबर-नवम्बर तक खुला रहता है।

-लाहौल घाटी में केलांग से स्पीति घाटी में काजा (कुंजम दर्रा होते हुए) 185 किलोमीटर है। यह रास्ता जून-जुलाई के बाद से केवल तीन महीने खुला रहता है। इसके लिये केलांग से बसें व टैक्सी मिलती हैं।

-मनाली से काजा (रोहतांग, बटाल व कुंजम दर्रा होते हुए) 200 किलोमीटर।

-शिमला से काजा का रास्ता किन्नौर में सुमडो से होता हुआ स्पीति घाटी में घुसता है- कुल 412 किलोमीटर की यात्रा 20 घण्टे लेती है लेकिन बीच में एक रात रुकना होता है। शिमला से बसें व टैक्सी उपलब्ध हैं। यह रास्ता साल के ज्यादातर समय खुला रहता है।

जाने का समय:

इन घाटियों तक ले जाने वाले दर्रे साल में ज्यादातर बर्फ से ढके रहते हैं। आमतौर पर रास्ते गर्मियों में मई-जून के बाद खुलते हैं और अक्टूबर-नवम्बर में सर्दी बढने के साथ बन्द हो जाते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें