मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

गया- पितरों की स्मृति का तीर्थ

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 अगस्त 2007 को प्रकाशित हुआ था।

हिंदू मान्यताओं में श्राद्ध व तर्पण का काफी महत्व है। बात पिण्डदान की हो तो गया का नाम सबसे ऊपर आता है। गया के महत्व के बारे में बता रहे हैं डॉ. राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’:

‘पुरातन प्रज्ञा के प्रदेश- बिहार’ की राजधानी पटना से तकरीबन 92 किलोमीटर दूरी पर स्थित और मोक्ष तोया फल्गु के किनारे शोभायमान गया भारत का प्राचीन, ऐतिहासिक व समुचन तीर्थ है। पांचवां धाम, मोक्ष स्थली, पिण्डदान भूमि, विष्णुधाम, प्राच्य युगीन तीर्थ, स्वर्गारोहण्य द्वार आदि कितने ही नामों से सम्बोधित गया नगरी में हर साल पितृपक्ष के दौरान विशाल मेला लगता है। श्राद्ध, पिण्डदान व तर्पण जैसे धार्मिक कर्म भारत में कई जगह किये जाने का विधान है पर पितरों के नाम पर विशाल मेले का आयोजन गया में ही होता है। जिसे श्रद्धालु आदरस्वरूप गयाजी कहते हैं। यूं तो गया में सालों भर भक्तों का आगमन बना रहता है पर साल में 15 दिन का पितृपक्ष पितरण कार्य के लिये सर्वथा उपयुक्त है। यही कारण है कि न केवल देश बल्कि विदेश में रह रहे हिंदू भी उस दौरान गया अवश्य आते हैं।

भारत के प्राचीन नगरों में एक

गया को दुनिया के प्राचीनतम नगरों में एक माना जाता है। विद्वजनों की राय में किसी स्थान की प्राचीनता का सर्वप्रमुख प्रमाण वहां की मिट्टी, नदी, जंगल, पहाड आदि में निहित होता है। गया के चारों ओर सप्त पर्वत- रामशिला, प्रेतशिला, ब्रह्मयोगी, नागकूट, भस्मकूट, मुरली व धेनुतीर्थ और लगभग 42 किलोमीटर दूरी पर स्थित ऐतिहासिक ‘बराबर पर्वत’ में पाषाण युग में मानव निवास के चिन्ह हैं। सोनपुर, ककोलत व हसराकोल का इतिहास भी इस तथ्य का मूक गवाह है कि अति प्राचीन काल से ही यहां इंसानी बसावट रही। आदिम युग में कोल जनजाति का देशभर में जहां-जहां निवास रहा उनमें गया के अरण्यादि क्षेत्र प्रमुख हैं।

गया की फल्गु नदी भी इसकी प्राचीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। भूगोलवेत्ताओं की मानें तो फल्गु का काल सरस्वती का समकालीन है। गया के अक्षयवट को संसार का सबसे पुराना जीवित पेड कहा जाता है। वायु पुराण, अग्निपुराण, गरुडपुराण व महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पितरणों के तरन तारण के लिये इसका रोपण और उद्धार ब्रह्मा जी ने यहां किया था। गया की प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण यहां के तीन प्रधान देव स्थल भी हैं। श्री विष्णु पद में चरण की पूजा, शक्तिपीठ मां मंगला गौरी में मां के पंचपयोधन (स्तन द्वय) की और भैरव स्थान मन्दिर में भैरोंनाथ के कपाल की पूजा की जाती है। गया में भोले-भण्डारी शंकर एक नहीं चार-चार पीढी के रूप में निवास करते हैं। यह अति प्राचीन तीर्थ में ही सम्भव है जो हरेक कल्प में मौजूद रहा हो। गया में शंकर जी के इन चार पीढियों में क्रमानुसार वृद्ध परपिता महेश्वर, परम पिता महेश्वर, परमिता महेश्वर और पितामहेश्वर प्राच्य काल से पूजित हैं जो अक्षयवट, लखनपुरा, फल्गुनतट और पितामहेश्वर मोहल्ले में विद्यमान हैं।

गया के मूल निवासी ‘गयापाल’ या ‘गयावाल’ कहे जाते हैं जिन्हें ब्रह्मकल्पित बताया गया है। ये अपने को प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं और अपने आप को सभी तीर्थ विप्रों में सबसे आगे मानते हैं। उनका मत है कि ब्रह्मा जी ने सबसे पहले इसी तीर्थ की स्थापना व विकास किया। इस कारण इस तीर्थ के ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से पुराने हुए। भैरवी चक्र पर अवस्थित गया को प्राच्य काल में आदि गया कहा गया है जो इसकी प्राचीनता का प्रमाण है।

गयासुर और गया

देवासुर संग्राम की कथा प्रायः हरेक युग, हर काल में मिलती है। गयासुर देवप्रवृत्ति से महिमामण्डित विष्णु का परम भक्त था। असुर वंश में उत्पन्न गय जाति से भले ही असुर था पर स्वभाव से देवताओं जैसा। माना जाता है कि इसमें राक्षसी भाव के तत्व पूर्णतया गौण हो गये थे। धर्मग्रंथों के अनुसार गयासुर सवा सौ योजन ऊंचा और साठ योजन मोटा था, जिसके पिता त्रिपुरासुर और माता प्रभावती थीं। विवरण मिलता है कि गयासुर के पिता त्रिपुरासुर के आतंक से भगवान शंकर ने उसका वध कर दिया था। अब इस बात की जानकारी युवावस्था आते आते गयासुर को मिली तो उसने अपने पिता के कृत्य और उसके परिणाम को जान-समझ करके ठीक विपरीत आचरण धारण किया। इस प्रकार जन कल्याण, मानव सहायता, पूजा-पाठ, धर्म-कर्म गयासुर के जीवन का अंग बन गया। गयासुर ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पर लगातार हजार वर्षों तक निराहार खडे रहकर दुर्गम कोलाहल पर्वत पर तपस्या कर विष्णु का दिल जीत लिया।

गयासुर के तेज से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। अब विष्णु को अपने भक्त को दर्शन देना ही पडा। जैसे ही गयासुर ने अपने समक्ष भगवान को खडा देखा, भावविभोर हो मस्तक झुका लिया। परम्परागत विष्णु भगवान ने उससे वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने प्रसन्न भाव से कहा- ‘प्रभु, आप प्रसन्न हैं तो यह आशीर्वाद दीजिये कि जो कोई प्राणी मेरा शरीर स्पर्श कर ले, वह शान्ति-विश्रान्ति को प्राप्त हो मोक्षाधिकारी बने।’ विष्णु के तथास्तु कहने के साथ ही गयासुर का शरीर परम पवित्र हो गया और उसके स्पर्श मात्र से ही जीवधारी कल्याण को प्राप्त होने लगे। स्वर्गलोक में खलबली मच गयी। देवताओं में सहमति बनी कि अगर गयासुर के शरीर को स्थिर कर दिया जाये तो सृष्टि का क्रम यथावत बना रहेगा। ब्रह्मा जी को इस यज्ञ का प्रधान पुरुष बनाया गया, जिसमें सभी देवों का आगमन हुआ। निर्णयानुसार ब्रह्मा जी गयासुर से बोले- ‘भम्रराज! मैंने कोटि-कोटि भूमि का भ्रमण व निरीक्षण किया पर तुम्हारे शरीर की तरह पवित्र कोई भूमि नहीं। समस्त देवताओं की इच्छा है कि तुम्हारी पुण्यकारी काया पर ही सृष्टि के सफल संचालनार्थ होने वाले यज्ञ का आयोजन हो, तेरा क्या विचार है?’ ब्रह्मा के मुख से इन बातों को सुन गयासुर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि हमारे शरीर पर यज्ञ किया जाये। गयासुर उत्तर की ओर सिर और दक्षिण की तरफ पैर करके लेट गया और उस पर समस्त देवी-देवता आरूढ हो गये। यज्ञ पूर्णाहूति की ओर अग्रसर था पर गयासुर का शरीर स्थिर होने का नाम ही नहीं ले रहा था। शरीर के कम्पायमान रहने से यज्ञ में बाधा आ रही थी। ऐसे में समस्त देवताओं ने विष्णु का आह्वान किया। विष्णु धर्म-शिला और गदा लेकर जैसे ही गयासुर के वक्ष स्थल पर विराजमान हुए कि गयासुर उठ खडा हुआ। उसने कहा-‘प्रभु! आपने इतना कष्ट क्यों किया? आप कह देते तो मैं हमेशा के लिये प्राण शून्य हो जाता।’ गयासुर के इस भक्ति-भाव को देखकर विष्णु ने उससे फिर वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने मांगा कि यह पांच कोस की भूमि मेरे नाम से जानी जाये। साथ ही जो कोई प्राणी यहां श्राद्ध-पिण्डदान करे, उसका व उसके समस्त पूर्वजों का उद्धार हो। कहते हैं तभी से विष्णु भगवान के आशीर्वाद से गया में श्राद्ध पिण्डदान का आरम्भ हुआ जो आज भी निर्बाध रूप से जारी है।

कैसे जायें

गया जाने के लिये आप हवाई, रेल और सडक तीनों मार्गों का उपयोग कर सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बोधगया में है। वहीं गया जंक्शन देश के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग से जुडा है। गया से नई दिल्ली, नागपुर, पटना, हावडा, रांची, मुम्बई आदि जाने की गाडी उपलब्ध हैं। बस से यहां से अम्बिकापुर, राउरकेला, देवघर, भागलपुर, वाराणसी जाने की आरामदायक सुविधा है। गया में बिहार राज्य पथ परिवहन निगम का पुराना डिपो है जहां से लम्बी दूरी की बसें चलती हैं। नगर में आंतरिक परिवहन के साधनों में रिक्शा, टेम्पो व टमटम प्रमुख हैं। यात्रियों को चाहिये कि गन्तव्य स्थान का उचित भाडा जान समझ कर ही उसका उपयोग करें। पितृपक्ष के दिनों में गया नगर में स्थान-स्थान पर प्रशासनिक और स्वयंसेवी संस्थाओं के सहायता केन्द्र बने होते हैं जिनमें यात्रीगण सहायता प्राप्त कर सकते हैं।

गया के दर्शनीय स्थल

विष्णु पद मन्दिर, मंगला गौरी मन्दिर, बगला स्थान, राजेन्द्र टावर, गौडीय मठ मन्दिर, जामा मस्जिद, दुखहरणी मन्दिर व तोरण द्वार, भैरो स्थान मन्दिर, रविन्द्र सरोवर, ब्रह्मयोनि पर्वत, मगध सांस्कृतिक केन्द्र व संग्रहालय, आकाशगंगा, रामशिला और ठाकुरबाडी, सेंट डेविड चर्च, पीर मंसूर, गुरू सिंह सभा गुरुद्वारा, प्राचीन जैन मन्दिर, रामकृष्ण आश्रम, वैष्णव श्मशान, गौरक्षणी (गया गोशाला), फल्गु नदी पर बने घाट

आसपास के ऐतिहासिक-पौराणिक स्थल

बोधगया- 11 किलोमीटर, बौद्ध मन्दिर व ज्ञान प्राप्ति स्थल डुगेश्वरी- 14 किलोमीटर, तपस्या गुफा धर्मारण्य- 14 किमी, त्रिनद संगम सुजातागढ- 13 किमी, प्राचीन विशाल टीला व स्तूप बराबर पर्वत- 42 किमी, सात-सात गुफा कोंच- 32 किमी, कोचेश्वर महादेव मन्दिर कुर्किहार- 33 किमी, पुरास्थल व मन्दिर ककोलत जलप्रपात- 76 किमी, प्राकृतिक झरना गुनेरी- 42 किमी, तथागत का ठहराव स्थल अपसढ- 61 किमी, उत्तर गुप्तकालीन राजधानी टिकारी किला- 30 किमी, मध्यकालीन विशाल किला कश्यपा- 32 किमी, तारा मन्दिर व कश्यप ऋषि का स्थान मानपुर- 6 किमी, राजा मानसिंह स्मृति भूमि देव- 71 किमी, विशाल सूर्व मन्दिर राजगीर- 72 किमी, जलकुण्ड, विश्व शान्ति स्तूप नालन्दा- 83 किमी, विश्वविद्यालय व संग्रहालय पावापुरी- 78 किमी, महावीर निर्वाण स्थल

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