शुक्रवार, मई 17, 2013

श्रद्धा की त्रिवेणी रिवालसर की ओर

हिमालय प्रदेश की खूबसूरत गोद में पसरी एक झील है पद्मसंभव। लेकिन कोई कहे कि पद्मसंभव झील चलें तो पता नहीं चलेगा, हां कहा जाए कि रिवालसर चलें तो बनेगी बात। पद्मसंभव व रिवालसर अब एक-दूसरे का पर्याय हैं। रिवाल गांव अब कस्बा हो चुका है, सर यानी जलस्त्रोत, मिलाकर कहें तो रिवालसर।
कभी हर बरस कुछ इंच बर्फ ओढ़ने वाला रिवालसर हिमाचल में मंडी से 15 किमी. पहले, नेरचौक कस्बे से बाएं जाती सड़क पर नौ किमी. फासले पर है। बीच में कई छोटी-छोटी सुंदर जगहें हैं। एक जगह पड़ती है कलखड़। यहां से दाएं जाती सड़क सीधे रिवाल पहुंचाती है। रिवाल से सीधे मंडी भी जा सकते हैं। शिमला से रिवालसर वाया भराड़ीघाट घाघस 135 किलोमीटर है। यूं तो रिवालसर सरकारी व प्राइवेट गाडि़यां जाती हैं मगर अपने वाहन विशेषकर दुपहिया से जाने का लुत्फ ही निराला है।
रास्ता जंगली फूलों की मादक खुशबू व चीड़ की स्वास्थ्यव‌र्द्धक हवा से लबरेज है। सुंदर पहाडि़यां, उन पर बने स्थानीय शैली व कलात्मकता लिए घरौंदे। कलखड़ से सड़क सीधी हो जाती है। रिवालसर पहुंचकर लगता है सिरमौर स्थित रेणुका झील के भाई के घर आ गए।
तिब्बतियों का महत्वपूर्ण व धार्मिक आस्था स्थल
तिब्बतियों के लिए यह स्थल बहुत महत्वपूर्ण व धार्मिक आस्था का है। उनके दो गोम्पा यहां हैं। निंगमापा संप्रदाय के गुरु पद्मसंभव का पैगोडा शैली में निर्मित प्राचीन मंदिर यहां है। झील के साथ जुड़ी दंतकथाएं कहती हैं कि कश्मीर नरेश राजा इंद्रबोधी के पुत्र त्रिकालदर्शी बौद्धगुरु पद्मसंभव साधना के लिए यहां आए थे। तत्कालीन मंडी नरेश अर्राधर की पुत्री मंधर्वा उनकी शिष्या बनी और बाद में पत्नी भी। राजा ने इसे अपमान समझा और पद्मसंभव को जला देने का हुक्म जारी किया, मगर आग की लपटें चमत्कारिक ढंग से जलरूप में तब्दील हो झील बन पड़ी, जिसका नाम हुआ पद्मसंभव। बौद्ध मतावलंबी रिवालसर को सो-पेमा भी कहते हैं।
बताया जाता है कि तांत्रिक व महान शिक्षक पद्मसंभव यहीं से तिब्बत गए। यहां के गोम्पा में पद्मसंभव की विशाल मूर्ति है। दो बड़े दीपक जिनमें कई किलो घी समा जाता है दर्शनीय है। मंदिर में बाह्य हिस्सा तिब्बती शैली में निर्मित है। साथ के कमरे में विशालाकार पेरू है जिसे बच्चे शौक से घुमाते हैं। बौद्ध धर्म से संबंधित एक ऐतिहासिक गुफा पड़ोस में है जिसके अंदर चट्टान पर बौद्ध लिपि में मंत्र उकेरे गए हैं।
महर्षि लोमेश से संबंध
दिलचस्प यह है कि भूटान वालों की भी एक मोनेस्ट्री यहां हैं। रिवालसर का एक संबंध महर्षि लोमेश से भी बंधा है। पुराण संदर्भ है कि उन्हें एक तपस्या स्थल की खोज थी जो उन्हें यहां मिला। झील के किनारे उनका मंदिर है। साथ में नागर शैली में निर्मित एक शिवालय भी व कृष्ण मंदिर भी है। असंख्य सुंदर मंदिरों के प्रदेश में जाने क्यूं श्रद्धालु अटपटे ढंग से पूजालयों का निर्माण करते रहते हैं जबकि ऐसे पुराने मंदिरों का रख-रखाव करना ज्यादा पुनीत कार्य है।
गुरु गोविंद सिंह से भी जुड़ाव
एक और संदर्भ जो सिख इतिहास से है रिवालसर से जुड़ा है। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह हिमाचल प्रवास के दौरान वर्ष 1758 में यहां आए थे। बाइस धाराओं के राजाओं से मिलकर मुगल सम्राट औरंगजेब से टक्कर लेने के बारे में यहां मंत्रणा व युद्ध योजनाएं परवान चढ़ाने पर भी विचार-विमर्श हुआ। गुरु यहां लगभग एक महीना रहे। बताते हैं जब गुरु ने झील की प्रदक्षिणा की तो पद्मसंभव ने प्रकट हो गुरु को कार्य सिद्धि का आशीर्वाद दिया। मंडी के राजा जोगेन्द्र सेन द्वारा सन् 1930 में बनवाया गुरुद्वारा रिवालसर काफी ऊंचाई पर निर्मित है। एक सौ ग्यारह सीढि़यां चढ़कर या फिर संकरी पक्की सड़क से भी वहां पहुंच सकते हैं। गुरुद्वारे में मेहनत से गढ़े सुंदर पत्थरों का खूबसूरती से प्रयोग किया गया है जो अंदरूनी कक्ष को सरलता व कलात्मकता भरी भव्यता प्रदान करते हैं। गुरुद्वारा परिसर काफी खुला है जिसमें लगभग एक हजार श्रद्धालु एक समय में ठहर सकते हैं। यहां हमेशा ठंडी बयार चलती है।
झील और बौद्घ गुफा
रिवालसर से तीन किलोमीटर दूर एक और झील है और बौद्घ गुफा भी। हर वर्ष यहां भी हजारों बौद्घ धर्मावलंबियों का आना होता है। एक और नजदीकी पहाड़ी चोटी पर माता का आराधना स्थल है साथ में प्राकृतिक स्थल भी है। झील की प्रदक्षिणा हिंदू, बौद्घ व सिख समान रूप व श्रद्धा से कर धार्मिक सामंजस्य स्थापित करते हैं। झील में मछलियां हैं जिन्हें कोई नही मारता। पर्यटक झील के किनारे बैठकर फुदकती मछलियों को आटा, मक्की के दाने, बिस्कुट खिलाते हैं। शिमला के जाखू मंदिर की तरह यहां बंदर भी खूब हैं। इनके लिए अलग से इलायची दाना व चने उपलब्ध हैं।
सीसू मेला
झील में घास के बेड़े भी तैरते देखे जा सकते हैं जो अपना आकर्षण आप हैं। सीसू मेला के अवसर पर बौद्ध श्रद्धालु इन पर ‘परना’ चढ़ाते हैं। कहते हैं जब लामा पूजा करते हैं तो यह बेड़े स्वत: मंदिर के सामने झील के किनारे लग जाते हैं। श्रद्धालु इनमें पद्मसंभव की आत्मा का वास मानते हैं। झील की परिक्रमा में अनेक आकार व प्रकार के ‘मनी’ घुमाते मंत्र पढ़ते तिब्बती श्रद्धालु घूमते दिखते हैं। कुछ ‘मनी’ बहुत कलात्मक दिखते हैं व पुराने भी। तिब्बती कलाकार छैनी से सपाट सलेटनुमा पत्थरों पर ‘पूजा’ माने जाते मंत्र खूबसूरती से उकेरते देखे जा सकते हैं। रिवालसर में कोरिया, जापान, मंगोलिया, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, तिब्बत व लद्दाख से भी श्रद्धालु आते हैं। झील के पानी में गाद बढ़ रही है। पानी कम होता जा रहा है। झील के अंदर क्या, बाहर भी पालीथीन बैग काफी आराम से मुंह चिढ़ाते हैं।
रिवालसर के शांत माहौल व सुखद पर्यावरण में रात बितानी हो तो हिमाचल पर्यटन की टूरिस्ट इन में ठहर सकते हैं। यहां सौ रुपये में डॉर्मेटरी से लेकर नौ सौ रुपये में चार बिस्तर वाले कमरे तक, सबकुछ है। खाने-पीने के लिए कई अन्य आउटलेट्स भी हैं।

गणेश बाग- मराठों का मिनी खजुराहो

राजश्री टंडन जैसे लोगों ने खजुराहो, उसके वास्तु, उसके दर्शन का जमकर विरोध किया किन्तु खजुराहो का दर्शन और उसका शिल्प भारतीय कला पर अपनी छाप छोड़ता गया। बुंदेलखंड और उसके बाहर अनेक ऐसे मंदिर मिल जाएंगे जिन पर खजुराहो के दर्शन और वास्तु का स्पष्ट प्रभाव है। मराठे भी इस प्रभाव से अछूते न रहे। राजा छत्रपाल से पेशवा बाजीराव प्रथम को बुंदेलखंड का तिहाई भाग उपहार में मिला तो मराठों ने यहां अपनी जड़े जमानी शुरू कीं। मराठों ने बुंदेलखंड में अनेक किलों, बावडि़यों और मंदिरों का निर्माण कराया किंतु बुंदेलखंड में जिस निर्माण के लिए मराठों को सबसे ज्यादा याद किया जाता है- वह है कर्वी मुख्यालय से पांच किमी दूर बना गणेश बाग का मंदिर। इस मंदिर को खजुराहो की शैली में बनाने की कोशिश की गई है इसीलिए गणेश बाग को मिनी खजुराहो कहा जाता है।
मिनी खजुराहो की विशेषता
एक खूबसूरत बावड़ी के किनारे बनाए गए इस दो मंजिला मंदिर की विशेषता इसकी बाहरी दीवारों पर की गई पच्चीकारी है। इस पच्चीकारी में कहीं अपने सात अश्वों के रथ पर सवार सूर्य, कहीं विष्णु हैं तो कहीं अन्य देवसमूह। अगर कुछ नहीं तो मैथुन प्रतिमाएं। संभवत: वास्तुकार खजुराहो की मैथुन प्रतिमाओं के दर्शन से अज्ञात रहा है, अन्यथा उसकी भी नकल करता।
अपनी भव्यता और आकर्षण के बावजूद यह मंदिर पर्यटकों से अछूता है। केवल कुछ धार्मिक अवसरों पर भक्तगण इसकी उपासना करते हैं। खेत-खलिहानों के बीच खड़े इस मंदिर से संपूर्ण परिवेश जीवंत हो जाता है। आसपास की हरियाली इसके सौंदर्य में चार चांद लगाती है। यहां का निर्जन वातावरण पंडों-पुरोहितों के खौफ से भी दूर है। आश्चर्य है कि कर्वी का जिला प्रशासन अभी तक इस अमूल्य धरोहर से अनजान क्यों हैं?
कर्वी जिला मुख्यालय से इसकी दूरी महज 4 किलोमीटर है। गणेश बाग से धार्मिक नगरी चित्रकूट दस किलोमीटर है। पर्यटक चित्रकूट के साथ कालिंजर किले का भी आनंद ले सकते हैं जो यहां से 50 किलोमीटर है।
कैसे पहुंचे
कर्वी दिल्ली, झांसी और वाराणसी रेलमार्ग पर स्थित है। गणेश बाग के लिए कर्वी या चित्रकूट रेलवे स्टेशन पर उतरा जा सकता है। चित्रकूट अब हवाई मार्ग से भी जुड़ गया है। कर्वी इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली से बस सेवा भी जुड़ा है। गणेश बाग आने वाले पर्यटक रात्रि विश्राम धार्मिक नगरी चित्रकूट में करना अधिक पसंद करते हैं। वैसे अब कर्वी में भी स्तरीय होटल बन गए हैं।

कालजयी कालिंजर

कालिंजर को कालजयी यूं ही नहीं कहा जाता है। इसने कालखंड के प्रत्येक प्रसंग को, चाहे वो प्रागैतिहासिक काल के पेबुल उपकरण हों, पौराणिक घटनाएं हों या 1857 का विद्रोह हो, सबको बहुत ही खूबसूरती से अपने आंचल में समा रखा है। वेदों में उल्लेख के आधार पर जहां इसे विश्व का प्राचीनतम किला माना गया है, वहीं इसके विस्तार और विन्यास को देखते हुए आधुनिक एलेक्जेंड्रिया से भी श्रेष्ठ। वेदों में इसे रविचित्र और सूर्य का निवास माना गया है। पद्म पुराण में इसकी गिनती नवऊखल अर्थात सात पवित्र स्थलों में की गई है। मत्स्य पुराण में इसे उज्जैन और अमरकटंक के साथ अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है। जैन ग्रंथों और बौद्ध जातकों में इसे कालगिरि कहा गया है।
पौराणिक महत्व
कालिंजर का पौराणिक महत्व शिव के विष पान से है। समुद्र मंथन में मिले कालकूट के पान के पश्चात शिव ने इसी कालिंजर में विश्राम करके काल की गति को मात दी थी। महाभारत के युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर ने यहां के कोटतीर्थ में स्नान किया था। मध्यकालीन इतिहास में कालिंजर भोरखां की मौत का कारण बना। मेवाड़ विजय के बाद भोरखां की महत्वाकांक्षाएं उफान पर थी। वह कालपी, खजुराहो होता हुआ सीधे कालिंजर पहुंचा, किन्तु सात माह के घेरे के पश्चात भी चंदेल हथियार डालने को तैयार नहीं थे। अत: भोरखां ने किले के सामने कालिंजरी पहाड़ी पर तोपों को चढ़ाया और गोलाबारी कराई, किन्तु एक गोला फटने के बाद कालिंजर भोरखां की कब्रगाह बन गया। उसके पुत्र इस्लाम खां ने चंदेल नरेश कीरत सिंह को उसके 70 सहयोगियों के साथ कत्ल करके अपने पिता को श्रद्धांजलि दी।
कालिंजर अपने शिल्प के कारण अद्वितीय है। यह समुद्र तल से 375 मीटर ऊंचाई पर है। 90 डिग्री पर खड़ी इसकी दीवारें आज भी कारीगरों को विस्मित करती हैं। किले के सात द्वार- गणेश, चंडी, बुद्ध, हनुमान, आलमगीर, लाल व बड़ा दरवाजा आज भी पूरी तरह महफूज हैं। आलमगीर दरवाजे का निर्माण कार्य औरंगजेब ने करवाया था।
पर्यटकों के लिए आकर्षण
किले के परिसर में फैली मूर्तियां पर्यटकों और दर्शकों के जबरदस्त आकर्षण का केंद्र हैं। सर्वाधिक मूर्तियां भौव धर्म से संबंधित है। काल भैरव की प्रतिमा सर्वाधिक भव्य है। 32 फीट ऊंची और 17 फीट चौड़ी इस प्रतिमा के 18 हाथ हैं। वक्ष में नरमुंड और त्रिनेत्र धारण किए यह प्रतिमा बेहद जीवंत है। झिरिया के पास गजासुर वध को वर्णित करती मंडूक भैरव की प्रतिमा दीवार पर उकेरी गई है। उसके समीप ही मंडूक भैरवी है। मनचाचर क्षेत्र में चतुर्भुजी रुद्राणी काली, दुर्गा, पार्वती और महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाएं हैं।
कालिंजर के वास्तुकारों ने क्षेत्र की दुर्गम स्थिति को देखते हुए पेयजल की सुगम व्यवस्था की और इसके लिए जलाशय का निर्माण किया। काल भैरव की प्रतिमा के बगल में चट्टान काटकर ‌स्वर्गारोहण तालाब बनाया गया जिसका उल्लेख अबुल फजल ने किया है। पाताल गंगा, पांडु तालाब, बुढि़या ताल कुछ अन्य जलाशय हैं जिनका पौराणिक महत्व है। कहा जाता है कि इसी में स्नान करने से कीर्तिवर्मन का कुष्ठ रोग समाप्त हुआ था।
कालिंजर के किले पर जिन राजवंशों ने शासन किया उसमें दुष्यंत- शकुंतला के पुत्र भरत का नाम सर्वप्रथम उल्लिखित है। कर्नल टॉड के अनुसार उसने चार किले बनाए जिसमें कालिंजर का सर्वाधिक महत्व है। 249 ई. में यहां हैहय वंशी कृष्णराज का शासन था, तो चौथी सदी में नागों का जिनसे सत्ता गुप्तों को हस्तांतरित हुई। इसके पश्चात यहां चंदेलों का यशस्वी शासन रहा जिसका विनाश 1545 ई. में भोरशाह (भोरखां) सूरी ने किया। मुगल काल में कालिंजर कविराज बीरबल की जागीर था।
नीलकंठ मंदिर
जो मंदिर कालिंजर के प्रांगण में सर्वाधिक पूज्य हैं उनमें नीलकंठ मंदिर प्रमुख है जिसका निर्माण नागों ने कराया। कोटितीर्थ के पश्चात वैष्णव मंदिर है। किले में जगह-जगह फैले मुख लिंग प्रतिहारों की देन हैं। कालिंजर के अन्य दर्शनीय स्थलों में सीतासेज, राजा अमान सिंह महल, राजकीय म्यूजियम प्रमुख है। इस म्यूजियम में लकुलेश, चतुर्मुखी शिव लिंग सहस्त्र लिंग के अतिरिक्त गुप्त, प्रतिहार, चंदेल काल की अनेक अमूल्य धरोहरें मौजूद है।
कैसे जाएं
कालिंजर बांदा से 50 किलोमीटर की दूरी पर है। बांदा और सतना निकटतम रेलवे स्टेशन हैं। दिल्ली से बांदा के लिए कई रेलगाडि़यां हैं। खजुराहो, चित्रकूट और कालिंजर पर्यटकों के लिए नया त्रिकोण बना रहे हैं। खजुराहो के लिए मुंबई, दिल्ली व वाराणसी से सीधी उड़ानें भी हैं। सैलानी वहां से भी कालिंजर पहुंचते हैं। बांदा प्रशासन हर साल कालिंजर महोत्सव का भी आयोजन करता है, उस समय वहां सैलानियों की खासी भीड़ रहती है। पर्यटकों की आमद को देखते हुए कालिंजर में अब अलग-अलग बजटों के कई बढि़या होटल भी खुल गए हैं।