यह लेख 28 जनवरी 2007 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।
खजुराहो का नाम इसलिये पडा क्योंकि यहां खजूर के पेडों का विशाल बगीचा था। खजिरवाहिला से नाम पडा खजुराहो। लेकिन यह अपने आप में अदभुत बात है कि यहां कोई भी खजूर के लिये नहीं आता। यहां आने वाले इसके मन्दिरों को देखने आते हैं। भारतीय मन्दिरों की स्थापत्य कला व शिल्प में खजुराहो की जगह अद्वितीय है। इसकी दो वजहें हैं- एक तो शिल्प की दृष्टि से ये बेजोड हैं ही, दूसरी तरफ इन पर स्त्री-पुरुष प्रेम की जो आकृतियां गढी गई हैं, उसकी मिसाल दुनिया में और कहीं नहीं मिलती। यही कारण है कि खजुराहो को यूनेस्को से विश्व विरासत का दर्जा मिला हुआ है। भारत आने वाले ज्यादातर विदेशी पर्यटक खजुराहो जरूर आना चाहते हैं। वही हम भारतीयों के लिये ये मन्दिर एक हजार साल पहले के इतिहास का दस्तावेज हैं।
खजुराहो के मन्दिरों का निर्माण चंदेल वंश के राजाओं ने किया था। इनके निर्माण के पीछे की कहानी भी बडी रोचक है। कहा जाता है कि हेमवती नाम की एक ब्राह्मण कन्या थी। एक रात जब वह रति में स्नान कर रही थी तो चंद्रमा उस पर मोहित हो गये। दोनों का प्रेम परवान चढा और एक देव व स्त्री के मिलन की परिणति पुत्र के जन्म में हुई। बिनब्याही मां होने के कारण हेमवती को जमाने भर के ताने सुनने पडे।उसने घर छोडा और खजुराहो के आसपास के जंगलों में शरण ली। यही उसका बेटा बडा हुआ। वह अपने बेटे की मां भी थी और गुरू भी। उसी बेटे ने आगे जाकर चंद्रवर्मन नाम से चंदेल वंश की स्थापना की। चंद्रमा का पुत्र होने के कारण ये राजा चंद्रवंशी कहलाए। जब चंद्रवर्मन राजा के रूप में स्थापित हो गया तो उसने अपनी मां के सपने को पूरा करने के लिये इन मन्दिरों का निर्माण करवाया। अपनी इच्छाओं को पूरी करने पर समाज से अपमानित हुई हेमवती ऐसे मन्दिर बनवाना चाहती थी जो इंसान की काम इच्छाओं को उजागर करता हो। ऐसा करके वह मानवीय इच्छाओं के खालीपन के अहसास को भी रेखांकित करना चाहती थी। इन मन्दिरों का निर्माण तो चंद्रवर्मन ने शुरू करवाया था लेकिन पूरा बाद के शासकों ने कराया। मन्दिरों के निर्माण में लगभग सौ साल लगे- सन 950 ईस्वी से लेकर 1050 ईस्वी तक।
उस समय कुल 85 मन्दिरों का निर्माण चंदेल राजाओं ने कराया था। समय व इतिहास के थपेडों से बचते-बचाते अब इनमें से केवल 22 नजर आते हैं। लेकिन इन 22 में भी पूरी तरह सलामत मन्दिरों की संख्या और कम है।चंद्रवर्मन ने मन्दिरों के निर्माण के लिये खजुराहो को क्यों चुना होगा, इसका कोई ठोस कारण इतिहास में नहीं मिलता। खजुराहो इस समय भी बेहद छोटा सा कस्बा है और हजार साल पहले भी एक गांव से बडा न रहा होगा। मान्यतएं यह हैं कि चंदेल राजा यहां धर्म व ज्ञान की पीठ बनाना चाहते थे। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि चंदेल राजाओं का रिश्ता तंत्र-मंत्र से भी था जिसमें भौतिक जरुरतों के जरिये शक्ति हासिल करने को अहमियत दी जाती है। लेकिन इन दोनों ही दलीलों के बारे में कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं मिलते। मूर्तियों का कोई केंद्रीय बिंदु खोजा जाये तो वह महिला है –जो अपने हर रूप में वहां मौजूद है। तत्कालीन समाज के आम जीवन चक्र को भी मन्दिरों की दीवारों पर जगह दी गई है।
खजुराहो का मुख्य आकर्षण पश्चिमी समूह के मन्दिर में ही है। यहीं ज्यादातर मन्दिर हैं- कंदारिया महादेव, लक्षमण मन्दिर, वराह मन्दिर, चित्रगुप्त मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर, नंदी मन्दिर, मतंगेश्वर मन्दिर। पश्चिमी समूह का ही चौसठ योगिनी मन्दिर परिसर के बाहर थोडा अलग जाकर है। लेकिन इस मन्दिर से योगिनी की सारी मूर्तियां गायब हैं। ज्यादातर कालांतर में नष्ट हुईं तो बाकी को हटाकर संग्रहालयों में रख दिया गया। पूर्वी समूह लगभग तीन किलोमीटर गांव में थोडा अन्दर जाकर है। यहां समकालीन हिंदू मन्दिर तो तीन ही हैं- ब्रह्मा, वामन और जावरी। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ, आदिनाथ, घंटाई मन्दिर हैं। जैन मन्दिर बाद के दौर में बनाये गये। हिंदू मन्दिरों में भी मिथुन मूर्तियां उस भव्यता के साथ नहीं हैं, जैसी पश्चिमी समूह में हैं। मुख्य परिसर से पांच किलोमीटर दूर दक्षिणी समूह है जिसमें दूल्हादेव और चतुर्भुज मन्दिर हैं। ये मन्दिर भी बाद के दौर में चंदेल वंश के आखिरी राजाओं ने बनवाये। सभी मन्दिरों की शैली, बनावट, शिल्प, मंडप अनूठे हैं, जिनके बारे में विस्तार से जानकारी यहां जाकर पाई जा सकती है।
तेरहवीं सदी के बाद ये मन्दिर खो से गये। रखरखाव के अभाव और वक्त की मार से इनमें से कई नष्ट भी हो गये। अंग्रेजों के शासनकाल में एक अंग्रेज घुडसवार अफसर ने इधर से गुजरते हुए इनको खोजा। लेकिन मन्दिरों को दुरुस्त करने और इन्हें दुनिया के सामने फिर से पेश करने का सारा काम पिछली सदी के उत्तरार्ध में ही हुआ।
मिथुन मूर्तियां
खजुराहो की प्रसिद्धि दुनियाभर में अपनी मिथुन मूर्तियों के लिये है। वे मूर्तियां जिन्होंने वात्स्यायन को कामसूत्र लिखने की प्रेरणा दी। पुरुष व स्त्री के बीच शारीरिक संसर्ग की मूर्तियों को इतने विस्तृत तरीके से मन्दिरों की दीवारों पर उतारना यकीनन उस दौर के सामाजिक जीवन का खाका खींचता है। यह बताता है कि उस समय का समाज कितना कुंठारहित था। मौजूदा दौर का समाज जिन तस्वीरों को चोरी-छिपे देखने में यकीन करता है, यह आधुनिक होते हुए भी उस समय के समाज से ज्यादा पिछडा हुआ था जिसने मानव प्रेम को देवालयों में सजाने की हिम्मत की। तब यौन सम्बन्ध वर्जना का विषय नहीं थे बल्कि सामान्य जीवन का एक हिस्सा थे। मूर्तियां यह भी बताती हैं कि प्रेम की शारीरिकता के जिन तत्वों को हम पश्चिम की देन मानते हैं, वे बहुत पहले से हमारे यहां मौजूद हैं। यह बात केवल खजुराहो के बारे में नहीं है। समकालीन भारत के कई जगहों पर इसी तरह की मूर्तियां मन्दिरों में देखने को मिल जाती हैं। कोणार्क व पुरी के मन्दिर इसके उदाहरण हैं। वही सुदूर चम्बा (हिमाचल प्रदेश) के मन्दिरों में काम की मूर्तियों को देखा जा सकता है। चम्बा अस्तित्व में लगभग उसी समय आया जब खजुराहो में चंदेल वंश स्थापित हो रहा था। वहीं कोणार्क के मन्दिर बारहवीं सदी में बने, खजुराहो के गुमनामे में खोने से कुछ ही पहले।
हर स्थान के अनुसार शिल्प व मानवाकृतियों में अंतर देखने को बेशक मिल जाता था। हालांकि ख्याति ज्यादा खजुराहो की मिथुन मूर्तियों को मिली। इसकी वजह यह है कि यहां मन्दिरों और उन पर बनी मूर्तियों की संख्या और उन मूर्तियों में भाव-भंगिमाओं, यौन-क्रीडाओं का विस्तार काफी ज्यादा है। यही कारण है कि आज जब आप खजुराहो जाकर वहां से कुछ यादगार लेकर आना चाहें तो कामसूत्र पर लिखी दुनियाभर की किताबें और मिथुन मूर्तियों के चित्र व उनकी मिट्टी, लकडी, पत्थर, धातु की बनी छोटी-बडी अनुकृतियां ही सबसे ज्यादा मिलती हैं। मन्दिरों की मिथुन मूर्तियों के बारे में एक धारणा यह भी सुनने को मिलती है कि उनका एक खास मकसद था। उस समय चूंकि छात्र ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुलों में ही रहते थे, इसलिये इन मूर्तियों के जरिये उन्हें काम का ज्ञान दिया जाता था जो उन्हें गृहस्थ जीवन के लिये तैयार करता था। चूंकि तमाम मिथुन मूर्तियां मन्दिरों की बाहरी दीवारों पर हैं, भीतरी हिस्से में नहीं, इसलिये यह भी कहा जाने लगा कि ऐसा यह दिखाने के लिये है कि लोगों को कामवासनायें बाहर ही छोड देनी चाहिये। कारण जो भी रहे हों, इतनी बात जरूर तय है कि ये मन्दिर एक परिपक्व सभ्यता को प्रतिबिंबित करते हैं।
कैसे पहुंचें
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो आगरा से 395 किलोमीटर, सतना से 117, झांसी से 175 किलोमीटर, भोपाल से 350 किलोमीटर दूर है। खजुराहो के लिये दिल्ली (35 मिनट की उडान), आगरा (40 मिनट) व वाराणसी (45 मिनट) से सीधी विमान सेवा है। खजुराहो रेल मार्ग से जुडा हुआ नहीं है। दिल्ली या उत्तर भारत में अन्य जगहों से आने वालों के लिये झांसी (175 किलोमीटर) ज्यादा उपयुक्त स्टेशन है। जबकि मुम्बई, कोलकाता या वाराणसी से आने वालों के लिये सतना (117 किलोमीटर) स्टेशन पर उतरना ठीक रहेगा। सतना, हरपालपुर (94 किलोमीटर), झांसी व महोबा (61 किलोमीटर) से खजुराहो के लिये लगातार बसें उपलब्ध हैं।
(अब खजुराहो रेल मार्ग से जुड गया है। झांसी-इलाहाबाद रेलखण्ड पर स्थित महोबा से खजुराहो के लिये रेल लाइन जाती है। झांसी व दिल्ली से नियमित गाडियां उपलब्ध हैं। –नीरज जाट)
कैसेट गाइड
पश्चिमी समूह के मन्दिरों में प्रवेश के लिये दस रुपये प्रति व्यक्ति शुल्क देना होता है। पूर्वी व दक्षिणी समूह के मन्दिरों के लिये ऐसा कोई शुल्क नहीं है। शाम को मन्दिरों के बन्द हो जाने के बाद पश्चिमी समूह के मन्दिरों में रोजाना एक साउंड व लाइट शो होता है। इसमें प्रवेश के लिये पचास रुपये प्रति व्यक्ति शुल्क है। बच्चों के लिये यह शुल्क आधा है। पचास मिनट का शो पहले अंग्रेजी में होता है और उसके बाद हिंदी में। इसमें आकर्षक रोशनी व कमेंट्री की मदद से खजुराहो मन्दिरों के निर्माण और चंदेल राजाओं के इतिहास को समेटने की कोशिश की गई है। जब आप खजुराहो जायें तो इस शो को देखना न भूलें।
दिन में मन्दिर घूमने के लिये गाइड तो मिल ही जाते हैं। लेकिन यहां की एक और मजेदार व्यवस्था कैसेट गाइड है। इसे आप बाकी भारत में शायद ही कहीं और पायें। मुझे तो यह कहीं देखने को नहीं मिला। इसमें आपको मामूली जमानत राशि लेकर एक वाकमैन व हैडफोन दे दिया जाता है। वाकमैन में एक कैसेट लगी होती है जो मन्दिर घूमने के निर्देश देती रहती है और जरूरी जानकारी भी बताती है। कैसेट से घूमने वालों की मदद के लिये समूचे मन्दिर परिसर में संकेत चिन्ह लगे हैं। कैसेट सुनते रहें, संकेत देखते रहें और आपको मन्दिर के बारे में हर जानकारी मिल जायेगी। कैसेट, हिंदी व अंग्रेजी दोनों में उपलब्ध रहती है। इसमें कोई तथ्य बार-बार सुनने-समझने का भी मौका रहता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें