रविवार, फ़रवरी 12, 2012

गन्धर्वसेन मन्दिर- चूहा करता है नाग की परिक्रमा

मध्य प्रदेश के देवास के नजदीक प्राचीन और ऐतिहासिक नगरी है- गन्धर्वपुरी। गन्धर्वसेन की इस नगरी में एक मन्दिर है जिसे गन्धर्वसेन मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इसका अपना अलग ही ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। इससे कई चमत्कार भी जुडे हुए हैं। मन्दिर के गुम्बद के नीचे एक ऐसा स्थान है, जिसके बीचोंबीच पीले रंग का एक इच्छाधारी नाग अपना स्थान ग्रहण करता है। इसके चारों ओर ढेर सारे चूहे परिक्रमा करते हैं। ऐसा क्यों होता है, इसका रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया। गांव के लोग इसे नागराज का चूहापाली स्थान कहते हैं। इस स्थान को हजारों वर्ष पुराना बताते हैं। लोगों का कहना है कि नाग और चूहे को एक साथ आज तक किसी ने नहीं देखा लेकिन परिक्रमा पथ पर चूहों के मल-मूत्र और और उसके बीचोंबीच नाग का मलमूत्र प्रायः देखा गया है। गांव वाले उस स्थान को कई बार साफ करते हैं लेकिन फिर से वहां मल-मूत्र दिख जाता है। 

प्राचीन मन्दिर में राजा गन्धर्वसेन की मूर्ति भी स्थापित है। वैसे तो राजा गन्धर्वसेन के बारे में कई किस्से-कहानियां प्रचलित हैं लेकिन इस स्थान से जुडी उनकी कहानी अजीब ही है। वहां के लोगों का कहना है कि यहां पर राजा गन्धर्वसेन का मन्दिर सात-आठ खण्डों में था। बीच में राजा की मूर्ति स्थापित थी लेकिन अब सारे खण्ड खत्म हो चुके हैं और सिर्फ राजा की मूर्ति वाला मन्दिर ही बचा है। यहां आसपास जंगल और नदी होने की वजह से कई नाग देखे गये हैं, पर इस मन्दिर में चूहों को किसी ने नहीं देखा। फिर भी वहां चूहों का मल-मूत्र प्रकट हो जाता है। वहां के बुजुर्गों के अनुसार, यहां हजारों वर्षों से एक इच्छाधारी पीला नाग रहता है जिसकी लम्बी-लम्बी मूछें हैं। वह बारह से पन्द्रह फीट लम्बा है। किस्मत वालों को ही नागराज दिखाई देता है। कहते हैं, मन्दिर की रक्षा यही इच्छाधारी नाग करता है। कभी कभी काफी सुबह मन्दिर से घण्टियों की आवाज सुनाई देती है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन अक्सर ऐसा होता है कि जब मन्दिर का ताला खोला जाता है तो पूजा-आरती के पहले ही मन्दिर अन्दर से साफ-सुथरा मिलता है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने अभी अभी पूजा की हो। 

जिस तरह से इस मन्दिर में चूहे नाग की परिक्रमा करते हैं, वैसे ही यहां की सोमवती नदी भी इस मन्दिर का गोल चक्कर लगाते हुए कालीसिंध में जा मिलती है। गन्धर्वसेन मन्दिर में आने वाले हर इंसान का दुख दूर होता है। जो भी यहां आता है, उसको शान्ति का अनुभव होता है। इसका गुम्बद परमार काल में बना है, लेकिन नींव और मन्दिर के स्तम्भ और दीवारें बौद्ध काल की मानी जाती हैं। 

कैसे पहुंचें 

इंदौर से बस या ट्रेन से देवास पहुंचें। देवास से बस द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। देवास की सोनकच्छ तहसील में गन्धर्वपुरी स्थित है। 

लेख: अनिता घोष (राष्ट्रीय सहारा में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित)

शनिवार, फ़रवरी 11, 2012

सूर्य मन्दिर, कोणार्क

भारत में सूर्य की आराधना सदियों से होती रही है लेकिन यह अलग बात है कि कोणार्क का सूर्य मन्दिर भारत का इकलौता सूर्य मन्दिर है, जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिये जाना जाता है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इस मन्दिर के पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया है कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोडों का पता न चले। 

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर दूर यह मन्दिर सूर्य देव के रथ के रूप में विद्यमान है। माना जाता है कि गंग वंश के राजा नृसिंहदेव ने इसका निर्माण 1236-1264 ई. पू. में किया था। बलुआ पत्थर और काले ग्रेनाइट पत्थर से बने इस भव्य मन्दिर स्थल को 12 जोडी चक्रों वाले, सात घोडों से खींचे जाते सूर्यदेव के रथ के रूप में बनाया गया है। हालांकि अब इनमें से सिर्फ एक घोडा ही बचा है। कहा जाता है कि इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 सालों तक लगातार काम किया था। मन्दिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। मुख्य मन्दिर तीन मण्डपों में बना है, जिसमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में मूर्ति थी, जिसे अंग्रेजों ने रेत और पत्थर से भरवाकर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बन्द करवा दिया था। 

मन्दिर के प्रवेश द्वार पर नट मन्दिर है। मूल मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं- उदित सूर्य, मध्याह्न सूर्य और अस्त सूर्य। इसके प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रमण होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाए गये है। दोनों हाथी एक-एक मानव की मूर्ति पर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनी हैं। मन्दिर के दक्षिण भाग में दो सुसज्जित घोडे बने हुए हैं। पूरे मन्दिर में जहां-तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की भी नक्काशी की गई है, वहीं इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की आकृतियां भी ऐंद्रिक मुद्राओं में दर्शाई गई हैं। 

माना जाता है कि वास्तु दोष होने के कारण यह मन्दिर 800 सालों में ही ध्वस्त हो गया। वास्तुशास्त्री के मुताबिक, मन्दिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा के साथ आग्नेय और ईशान कोण खण्डित हो गया। पूर्व से देखने पर पता लगता है कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य और नैऋत्य कोणों की ओर बढ गया है। प्रधान मन्दिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्य शाला है, जो पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होती है। नैऋत्य कोण में छायादेवी के मन्दिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋत्य भाग में मायादेवी का मन्दिर और नीचा है। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मन्दिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई है। 16वीं सदी के मध्य में मुगल आक्रमणकारी कालापहाड ने इसे काफी नुकसान पहुंचाया और कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। मुगलकाल में इस मन्दिर में पूजा-अर्चना बन्द हो गई। 

कोणार्क यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च तक सर्दियों के दौरान है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये यहां कोणार्क नृत्य महोत्सव आयोजित किया जाता है। पुरी और भुवनेश्वर से कोणार्क आसानी से जाया जा सकता है और दोनों शहर वायुमार्ग और रेलवे द्वारा जुडे हुए हैं। 

लेख: विनीत (राष्ट्रीय सहारा में 30 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

मांडू- खुशियों का शहर

मांडू मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित खूबसूरत एवं ऐतिहासिक पर्यटन स्थल है। यह इंदौर से लगभग 100 किलोमीटर दूर है, जो विन्ध्य पहाडियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलतः मालवा के परमार राजाओं की राजधानी हुआ करता था। तेरहवीं सदी में मालवा के सुल्तानों ने इसका नाम शादियाबाद यानी ‘खुशियों का शहर’ रख दिया था। वास्तव में, यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहां के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिंडोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। परमार शासकों द्वारा निर्मित इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं, जिनकी वास्तुकला देखने लायक है। मांडू की छोटी छोटी पहाडियों पर बने किलों को देखकर प्रतीत होता है जैसे जादुई विन्ध्य पर्वतमालाएं इनकी जादू की झप्पी ले रही है। मांडू का मनोहर नजारा सैलानियों के साथ साथ ऐतिहासिक धरोहरों व इमारतों को देखने, इन्हें नजदीक से देखने की इच्छा रखने वालों को भी खासा आकर्षित करता है। ऐसी जगह जहां के वातावरण में आनन्द, शान्ति व प्यार का आभास होने के साथ खूबसूरती के कई पहलुओं का मजा भी लिया जा सकता है। 

मांडू अपने भीतर इतिहास के कई राज समेटे हुए है। यहां की बडी बडी इमारतें जो अब खंडहर में तब्दील हो गई हैं, इन्हें देखने पर आज भी एहसास दिलाती हैं जैसे वृहद साम्राज्य आंखों के सामने दिखाई दे रहा हो। हरियाली की चादर ओढे छोटी छोटी पहाडियां, झरने, मवेशी व गहनों से सजे-धजे रंग-बिरंगे कपडे पहने धार के आदिवासी बरबस ही पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। यदि आप बस से यहां आयेंगे तो रास्तों के दोनों तरफ छोटी-बडी कई जर्जर इमारते नजर आयेंगी। इन इमारतों पर उगी घास व जर्जरता इन्हें और खूबसूरत बनाते हैं। इनमें से एक रानी रूपमति का महल पहाडी की ऊंचाई पर है। कहते हैं कि रानी रूपमति सुबह में यहां से नर्मदा नदी के दर्शन करती थीं। यहां की इमली, कमलगट्टे और सीताफल बहुत प्रसिद्ध हैं। स्वाद, आकार व बनावट में यह इमली काफी अलग सी होती है। 

आकर्षण 

दरवाजे: 45 किलोमीटर लम्बी दीवारों की मुंडेर मांडू को घेरे हुए है, मांडू में प्रवेश करने के लिये उसमें 12 दरवाजे हैं। मुख्य रास्ता दिल्ली दरवाजा कहलाता है। दूसरे दरवाजे में रामगोपाल, जहांगीर और तारापुर दरवाजा शामिल है। 
जहाज महल: सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित जहाज महल को दो मानवनिर्मित तालाबों के बीच बनाया गया है। देखने में यह जहाज के आकार का है, शायद इसीलिये इसका नाम जहाज महल पडा। यह दोमंजिला महल संगमरमर से बना है, जिसे देखकर प्रतीत होता है कि यह पानी के ऊपर तैर रहा है। 
हिंडोला महल: टेढी व एक तरफ झुकी हुई दीवारों के कारण इस महल को हिंडोला महल कहते हैं। इसका निर्माण 1425 में होशंगशाह के शासन के दौरान हुआ था। इसे दर्शक कक्ष के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 
जामी मस्जिद: दमिश्क की बेहतरीन मस्जिद से प्रेरित यह मस्जिद अपनी विशालकाय संरचना, सादगी और वास्तुकला के लिये मशहूर है। इसमें मौजूद बडा सा आंगन और भव्य प्रवेश द्वार भी लोगों को लुभाता है। जामी मस्जिद की सीढियां उस समय की वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इसके अलावा होशंगशाह की मस्जिद, नहर झरोखा, बाज बहादुर महल, रानी रूपमति महल, रेवा कुण्ड और नीलकंठ महल भी देखने लायक जगहें हैं। यहां सितम्बर-अक्टूबर में गणेश चतुर्थी भी बडी धूमधाम से मनाई जाती है। 

कब जायें 

मांडू में सालभर उष्णकटिबंधीय जलवायु रहती है, इसलिये गर्मी हो या सर्दी, आप कभी भी यहां अपनी छुट्टियां बिता सकते हैं। सर्दियों में यहां का तापमान 22 डिग्री होता है। जुलाई से मार्च यहां जाना चाहिये। 

कैसे जायें 

सडक मार्ग: अलग-अलग शहरों से यहां आसानी से बस से पहुंच सकते हैं। मांडू और इंदौर के लिये धार से होते हुए, मांडू और रतलाम तथा मांडू और भोपाल से बसें चलती हैं। 
हवाई मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा इंदौर है। इंदौर हवाई अड्डे से मुम्बई, दिल्ली, ग्वालियर और भोपाल तक कई हवाई जहाज उडान भरते हैं। 
रेल मार्ग: दिल्ली-मुम्बई मुख्य लाइन पर रतलाम सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। ट्रेन से इंदौर पहुंचकर मांडू की यात्रा टैक्सी या बस से कर सकते हैं। 

लेख: अंशुमाला (राष्ट्रीय सहारा में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित)

गुरुवार, फ़रवरी 09, 2012

महाबलेश्वर

महाबलेश्वर अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, आकर्षक नजारों और पहाडों के चलते मशहूर है। यहां से आप समुद्र की झलक भी पा सकते हैं। 

समुद्र तल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित महाबलेश्वर महाराष्ट्र के सतारा जिले में सहयाद्रि पर्वतों के बीच स्थित है। इस जगह के नाम पर कई तथ्य प्रचलित हैं, जैसे शीर्षक ‘महाबलेश्वर’ भगवान महादेव के मन्दिर से उत्पन्न हुआ है और संस्कृत के तीन शब्द महा (बढिया), बल (शक्ति) और ईश्वर (भगवान) इसके नाम को बनाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि महाबलेश्वर का अर्थ शक्तिशाली ईश्वर है, जो पौराणिक अतीत का भी सर्वेसर्वा है। मैदानी इलाके की गर्मी से बचने के लिये अक्सर मुम्बई के आसपास के इलाकों व अन्य राज्यों से भी लोग यहां वीकेंड पर आते हैं। यहां घूमने और मस्ती-मनोरंजन करने के लिये उम्दा स्थान हैं। 

महाबलेश्वर अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, आकर्षक नजारों और सुन्दर दिखते पहाडों के लिये मशहूर है। यहां से आप समुद्र की झलक भी पा सकते हैं। महाबलेश्वर की गलियों में टट्टू की सवारी का मजा लेना रोमांचक अनुभव है। कई तरह के मन को लुभाते हिल रिसॉर्ट इन पहाडों में बनाये गये हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि यह सभी कोलोनियल एरा से यहां मौजूद हों। महाबलेश्वर को महाराष्ट्र के छुट्टियों में घूमने लायक उम्दा व सबसे बेहतरीन माना गया है।, फिर चाहें मौसम, एडवेंचर, घूमने-फिरने के नजरिये से ही क्यों न हो। यहां देखने लायक प्रतापगढ किला काफी भव्य है। इसके अलावा यहां पर ट्रेकिंग, बोटिंग और हॉर्स राइडिंग भी कर सकते हैं। 

कब जायें 

सभी हिल स्टेशनों की तरह महाबलेश्वर भी मानसून (मध्य जून से मध्य सितम्बर) के समय बन्द रहता है। गर्मी के दिनों में यहां अधिक संख्या में पर्यटक आते हैं। अप्रैल से मई के बीच, क्रिसमस (दिसम्बर) और दिवाली (अक्टूबर से नवम्बर) पर आसपास के लोग त्यौहार को डिफरेंट तरीके से इंजॉय करने के लिये यहां आना पसन्द करते हैं। हालांकि अक्टूबर से दिसम्बर के बीच घूमना काफी रोमांचक अनुभव है। 

कैसे जायें 

सडक मार्ग: मुम्बई से होते हुए पुणे यहां की दूरी 290 किलोमीटर है और महाड से 247 किलोमीटर। मुम्बई-पुणे से महाबलेश्वर के बीच प्रतिदिन बसें चलती हैं। बारिश में बसें कम चलती हैं। 
रेल मार्ग: नजदीकी रेलवे स्टेशन वथार है, जो 62 किलोमीटर दूर है। 120 किलोमीटर दूर पुणे सबसे सुविधाजनक रेलवे मार्ग पर पडता है। 
हवाई मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा पुणे है।
कहां ठहरें: यहां कई अच्छे होलीडे रिसॉर्ट और मोटल हैं, जहां उचित दर पर ठहरने की व्यवस्था है। 

लेख: अंशुमाला (राष्ट्रीय सहारा में 30 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

बुधवार, फ़रवरी 08, 2012

कटारमल- उत्तराखण्ड का सूर्य मन्दिर

सूर्य मन्दिर का नाम आते ही लोगों के जेहन में कोणार्क कौंध जाता है जबकि कोणार्क सूर्य मन्दिर के अलावा उत्तराखण्ड के अल्मोडा जिले में भी एक सूर्य मन्दिर है। यह सूर्य मन्दिर कटारमल गांव में है, इसलिये इसे कटारमल सूर्य मन्दिर भी कहा जाता है। 

बारहवीं सदी में बना यह मन्दिर उत्तराखण्ड के इतिहास का प्रमाण है और सूर्य के प्रति लोगों की आस्था का भी। अल्मोडा में बना यह मन्दिर अपनी खूबसूरती के लिये भी उतना ही प्रसिद्ध है। इसकी बनावट और चित्रकारी बेहद खूब है। दीवारों पर भी खूबसूरत प्रतिमाएं दिख जाती हैं। मन्दिर में भगवान सूर्य की प्रतिमा एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौडी है, जो भूरे रंग के पत्थर को काटकर बनाई प्रतीत होती है। यहां सूर्य भगवान पदमासन की मुद्रा में बैठे हुए हैं। लोगों की आस्था है कि प्रेम और श्रद्धा से यहां मांगी हर इच्छा पूरी होती है। इस मन्दिर के दर्शन से ही भक्तजनों की बीमारियां और दुख दूर हो जाते हैं। इस मन्दिर को बारादित्य भी कहा जाता है, जो कुमाऊं का सबसे ऊंचा मन्दिर है। 

कहा जाता है कि मन्दिर का निर्माण कत्यूरी वंश के राजा कटारमल ने करवाया था, एक इस वजह से इसे कटारमल सूर्य मन्दिर भी कहा जाता है। लोगों का मानना है कि राजा कटारमल ने इस मन्दिर का निर्माण एक रात में करवा लिया था। कोणार्क सूर्य मन्दिर की तरह ही यह भी कॉम्प्लेक्स के समान ही है यानी यहां 45 छोटे-छोटे मन्दिरों की श्रंखला है। मुख्य मन्दिर में सूर्य की प्रतिमा के अलावा विष्णु, शिव और गणेश की मूर्तियां भी हैं। अन्य देवी-देवता भी यहां विराजमान हैं। लोगों का यह भी मानना है कि सभी देवी-देवता यहां मिलकर भगवान सूर्य की पूजा करते हैं। यहां सूर्य की प्रतिमा कई मायनों में अलग है, भगवान सूर्य यहां बूट पहने दिखते हैं। मन्दिर की इस प्रमुख बूटधारी मूर्ति की पूजा विशेष तौर पर शक जाति करती है। 

कहा तो जाता है कि यह मन्दिर बारहवीं सदी में बना है, फिर भी इसकी स्थापना को लेकर लोगों में एक मत नहीं है। इतिहासकारों का मानना है कि अलग-अलग समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है। हां, वास्तुकला की दृष्टि से देखा जाये तो यह मन्दिर 12वीं सदी का प्रतीत होता है। मन्दिर की मुख्य प्रतिमा 12वीं सदी में निर्मित बताई जाती है। सूर्य के अलावा विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, कुबेर, महिषासुरमर्दिनी आदि की मूर्तियां भी गर्भ-गृह में रखी हुई हैं। मुख्य मन्दिर के द्वार पर एक पुरुष की धातु की प्रतिमा है, जिसके बारे में राहुल सांकृत्यायन ने कहा है कि यह मूर्ति कत्यूरी काल की है। इस ऐतिहासिक मन्दिर को सरकार ने पुरातत्व स्थल घोषित कर दिया है। अब यह राष्ट्रीय सम्पत्ति हो गई है। मन्दिर की अष्टधातु की प्राचीन मूर्तियां काफी पहले चुरा ली गई थीं लेकिन अब इन्हें राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय में रखा गया है। मन्दिर के लकडी के खूबसूरत दरवाजे भी यहीं रखे गये हैं। 

एक साल पहले तक इस मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार का पता नहीं था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मन्दिर की पूर्व दिशा में कुछ सीढियों के अवशेष मिले हैं। उडीसा के कोणार्क मन्दिर का भी प्रवेश द्वार पूर्व में है। वैदिक पुस्तकों के अनुसार भी सूर्य मन्दिरों का प्रवेश द्वार पूर्व में ही होता है लेकिन कटारमल मन्दिर का प्रवेश द्वार आश्चर्यजनक रूप से एक कोने में है, जो इस स्थापत्य से मेल नहीं खाता। इस मन्दिर समूह के सभी मन्दिरों का प्रवेश समूह के पीछे छोटे से प्रवेश द्वार से है, जो सूर्य मन्दिर को भी जोडता है। 

यह मन्दिर करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर है, जहां पहुंचने के लिये पैदल चलना पडता है। यहां पहुंचने के लिये पहले अल्मोडा आना होगा। अल्मोडा से रानीखेत के रास्ते 14 किलोमीटर के बाद 3 किलोमीटर पैदल चलना पडता है। वैसे अल्मोडा से कटारमल मन्दिर की दूरी करीब 20 किलोमीटर है। 

लेख: राष्ट्रीय सहारा में 26 जून 2011 को प्रकाशित

मंगलवार, फ़रवरी 07, 2012

पुदुचेरी

चेन्नई से 162 किलोमीटर दूर पांडिचेरी 1954 में भारत का हिस्सा बना। इसके तहत चार मध्यकालीन बस्तियां पांडिचेरी, कराईकल, माहे और यनम शामिल हैं। कोरोमण्डल तट पर स्थित इस नगर ने कई उतार-चढाव के साथ साथ अलग-अलग साम्राज्यों को भी देखा है। वहां कभी पल्लव वंश का तो कभी चोल वंश का शासन रहा। अंत में वहां फ्रांसीसियों की सरकार बनी। 492 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले इस नगर और यहां के लुभावने घर, बगीचे और फ्रांसीसी शैली में बने होटल इस बात के गवाह हैं कि फ्रांस की संस्कृति यहां कितनी रची बसी हुई है। यहां की खूबसूरत हवेलियों पर हाथीदांत के रंग की दीवारों पर झूलते बोगनवेलिया दिखाई देते हैं। यह ऐसा अदभुत नगर है जहां 55 भाषाएं बोली जाती हैं। यहां चर्च के साथ मन्दिर भी बडी संख्या में हैं। पांडिचेरी में अंतर्राष्ट्रीय योग उत्सव, पोंगल, मासिमगम, विलयानूर मन्दिर का कार उत्सव, वैस्टाइल डे, खाद्योत्सव आदि काफी धूमधाम से मनाये जाते हैं। फ्रांसीसी कालोनी होने के कारण यहां फ्रेंच भाषा प्रमुख तौर से बोली जाती है। यहां की खास साइकिल संस्कृति है जो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर पर्यटन तक अपनी खास जगह रखती है। अगर सही मायने में पांडिचेरी की रौनक और खूबसूरती का लुत्फ उठाना हो तो कार में बैठकर नहीं बल्कि एक बार साइकिल पर बैठकर देखिये। सभी मुख्य सडकों पर और खासकर अरबिंदो आश्रम के पास ऐसी कई दुकानें हैं जो किराये पर साइकिलें देती हैं। 

श्री अरबिंदो आश्रम: पांडिचेरी का मुख्य आकर्षण श्री अरबिंदो आश्रम है। 1910 से 1950 तक रहे अरबिंदो ने फ्रांसीसी महिला की सहायता से यहां आश्रम की स्थापना की थी। यहां श्री अरबिंदो और श्री मां की संगमरमर की समाधि बनी हुई है। फ्रांसीसी महिला द मदर ने पांडिचेरी के उत्तर में दस किलोमीटर दूर ओरोविल में 1968 में उषा नगरी नाम से विश्व नगरी बसाई, जो देखने योग्य है। इसे सिटी ऑफ डॉन (सूर्योदय का नगर) कहा जाता है। यहां की सैर का आनन्द लेने के लिये साइकिल सबसे अच्छी सवारी है। 

मातृमन्दिर: ओरोविल के मुख्य आकर्षण का केन्द्र मातृमन्दिर है। यह गोल गुम्बद के आकार का है। इसके अन्दर एक ध्यान कक्ष है जिसमें बडा सा क्रिस्टल बॉल रखा गया है। यह सूर्य की रोशनी में खूब चमकता है। 

फ्रेंच इंस्टीट्यूट: इस संस्थान की शोहरत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है जो यहां के डूमास स्ट्रीट पर है। यहां विज्ञान, भारतीय संस्कृति आदि से सम्बन्धित कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। 

संग्रहालय: बीच के सामने स्थित संग्रहालय में कई तरह के ऐतिहासिक सिक्के देखने को मिलते हैं। ड्यूप्ले द्वारा इस्तेमाल की गई पालकी और बिस्तर भी यहां प्रदर्शन के लिये रखे गये हैं। पांडिचेरी का सागरतट बहुत ही खूबसूरत है। महात्मा गांधी और यहां पांडिचेरी के पूर्व गवर्नर ड्यूप्ले की मूर्ति सहित वार मेमोरियल आकर्षण का मुख्य केन्द्र हैं। 

आयी मंडप: यहां का जाना-माना स्मारक है यह। इसे फ्रांस में नेपोलियन द्वितीय के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। इसका नाम 16वीं शताब्दी की एक वेश्या ‘आयी’ के नाम पर पडा। 

आनंद आश्रम: आनंद आश्रम को अंतर्राष्ट्रीय योग शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र के नाम से जाना जाता है। पांडिचेरी सरकार हर वर्ष चार से सात जनवरी तक अंतर्राष्ट्रीय योग उत्सव मनाती है। 

बोट हाउस: चुन्नाम्बर पांडिचेरी से 8 किलोमीटर दूर चुन्नाम्बर नदी पर बोटिंग की सुविधा उपलब्ध है। कल-कल बहता पानी और नदी के दोनों छोरों पर बिखरी हरीतिमा के बीच जल में सैर करना अलग ही अनुभव देता है। बोट सप्ताह में किसी भी दिन किराये पर ली जा सकती है। 

इसके अलावा 27 मीटर ऊंचा लाइट हाउस जो 150 साल पुराना है, देखने योग्य है। साथ ही, पांडिचेरी में जॉन ऑफ आर्क की प्रतिमा, प्रथम विश्वयुद्ध का स्मारक, राजभवन उद्यान, वनस्पति उद्यान, भरतियार मन्दिर के अलावा कई गिरजाघर दर्शनीय हैं। 

राष्ट्रीय सहारा में 10 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित

सोमवार, फ़रवरी 06, 2012

51 शक्तिपीठ

पुराणों में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। देश-विदेश में स्थित इन शक्तिपीठों में वर्षभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है लेकिन नवरात्रों के दौरान इन शक्तिपीठों की मान्यता और ज्यादा बढ जाती है। 51 शक्तिपीठों से सम्बन्धित प्रचलित कथा के अनुसार सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन सती और उनके पति भगवान शिव को इसमें शामिल होने के लिये निमंत्रण नहीं भेजा, जिससे बमभोले इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए लेकिन सती जिद कर यज्ञ में शामिल होने चली गईं। वहां वह शिव का अपमान सहन न कर सकीं और यज्ञकुण्ड में कूद पडीं। इससे भगवान शिव ने सती के वियोग में उनका शव अपने शिर पर धारण कर लिया और सम्पूर्ण भूमण्डल का भ्रमण करने लगे। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए नृत्य भी करते रहे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड करने का विचार किया। जब जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकडे पृथ्वी पर गिराते जाते। इस प्रकार जहां जहां सती के अंग, वस्त्र और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का उदय हुआ। 1. 

1. किरीट कात्यायनी: पश्चिमी बंगाल में हुगली नदी के तट पर लालबाग कोट स्थित शक्तिपीठ, जहां सती का किरीट यानी मुकुट गिरा था। 
2. कात्यायनी वृंदावन: मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृंदावन शक्तिपीठ, जहां सती के केशपाश गिरे थे। 
3. नैनादेवी: पाकिस्तान के सक्खर स्टेशन के निकट शर्कररे और हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर स्थित नैनादेवी मन्दिर स्थलों पर सती के नेत्र गिरे थे। 
4. श्रीपर्वत शक्तिपीठ: इस शक्तिपीठ को लेकर लोगों में मतांतर है। कुछ लोग मानते हैं कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ कहते हैं कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती की कनपटी गिरी थी। 
5. विशालाक्षी शक्तिपीठ: वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्थित इस शक्तिपीठ पर माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। 
6. गोदावरी तट शक्तिपीठ: आन्ध्र प्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित इस शक्तिपीठ में माता का गाल गिरा था। 
7. शुचीन्द्रम शक्तिपीठ: कन्याकुमारी के त्रिसागर संगम स्थल पर है शुचि शक्तिपीठ, जहां सती के दांत गिरे थे।  
8. पंच सागर शक्तिपीठ: इस शक्तिपीठ का कोई तय स्थान ज्ञात नहीं है। यहां माता के नीचे के दांत गिरे थे। 
9. ज्वालादेवी शक्तिपीठ: हिमाचल प्रदेश के कांगडा स्थित शक्तिपीठ, जिह्वा गिरी थी। 
10. भैरव पर्वत शक्तिपीठ: मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित इस शक्तिपीठ में माता का ऊपर का होंठ गिरा था। 
11. अट्टहास शक्तिपीठ: यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। यहां माता का निचला होंठ गिरा था। 
12. जनस्थान शक्तिपीठ: महाराष्ट्र में नासिक स्थित पंचवटी के इस शक्तिपीठ में माता की ठुड्डी गिरी थी।
13. कश्मीर शक्तिपीठ: जम्मू कश्मीर के अमरनाथ स्थित इस शक्तिपीठ में माता का कंठ गिरा था। 
14. नन्दीपुर शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के सैन्थया स्थित इस पीठ में देवी की देह का कंठहार गिरा था। 
15. श्रीशैल शक्तिपीठ: आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल के पास है श्रीशैल शक्तिपीठ, जहां माता का गाल गिरा था। 
16. नलहरी शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के बोलपुर में माता की उदरनली गिरी थी। 
17. मिथिला शक्तिपीठ: भारत और नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के पास बने इस शक्तिपीठ में माता का वाम स्कंध गिरा था। 
18. रावली शक्तिपीठ: चेन्नई में कहीं स्थित है रावली शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण स्कंध गिरने का जिक्र आता है। 
19. अम्बाजी शक्तिपीठ: गुजरात जूनागढ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अम्बिका का विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। 
20. जालंधर शक्तिपीठ: पंजाब के जालंधर में स्थित है माता का जालंधर शक्तिपीठ। यहां माता का बायां स्तन गिरा था। 
21. रामागिरि शक्तिपीठ: कुछ लोग इसे चित्रकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। 
22. बैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ: झारखण्ड के देवघर स्थित शक्तिपीठ में माता का हृदय गिरा था। मान्यता है कि यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था। 
23. बक्रेश्वर: बीरभूम, पश्चिम बंगाल के पापहर नदी से सात किलोमीटर दूर स्थित इस शक्तिपीठ में सती का भ्रूमध्य गिरा था। 
24. कण्यकाश्रम: तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों- हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाडी के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता की पीठ गिरी थी।
25. बहुला शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता की बायीं भुजा गिरी थी। 
26. उज्जयिनी शक्तिपीठ: उज्जैन की पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ, जहां माता की कुहनी गिरी थी।
27. मणिवेदिका शक्तिपीठ: राजस्थान के पुष्कर में स्थित है यह शक्तिपीठ, इसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यहां माता की कलाईयां गिरी थीं। 
28. ललितादेवी शक्तिपीठ: प्रयाग (इलाहाबाद) स्थित ललितादेवी शक्तिपीठ में माता के हाथ की अंगुलियां गिरी थीं। 
29. उत्कल पीठ: उडीसा के पुरी में है, जहां माता की नाभि गिरी थी। 
30. कांची शक्तिपीठ: तमिलनाडु के कांचीवरम में माता का कंकाल गिरा था। 
31. कमलाधव: अमरकंटक, मध्य प्रदेश के सोन तट पर बायां नितम्ब गिरा था।
32. शोण शक्तिपीठ: मध्य प्रदेश के अमरकंटक का नर्मदा मन्दिर ही शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। 
33. कामरूप कामाख्या: असम, गुवाहाटी के कामगिरि पर योनि गिरी थी। 
34. जयंती शक्तिपीठ: मेघालय के जयंतिया पर वाम जंघा गिरा था। 
35. मगध शक्तिपीठ: पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है। यहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। 
36. त्रिस्तोता शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के जलपाईगुडी के शालवाडी गांव में तीस्ता नदी पर माता का वाम पाद गिरा था। 
37. त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ- त्रिपुरा पीठ: त्रिपुरा के राधकिशोर गांव में स्थित है त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। 
38. विभाष शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक गांव में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। 
39. देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र: हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है यह शक्तिपीठ। इसे श्रीदेवीकूप (भद्रकाली पीठ) भी कहा जाता है। यहां माता का दाहिना चरण गिरा था। 
40. युगाद्या शक्तिपीठ (क्षीरग्राम शक्तिपीठ): पश्चिम बंगाल के बर्दमान में क्षीरग्राम स्थित शक्तिपीठ, जहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। 
41. विराट का अम्बिका शक्तिपीठ: जयपुर के वैराट ग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां माता की बायें पैर की अंगुलियां गिरी थीं। 
42. काली शक्तिपीठ: कोलकाता के कालीघाट नाम से यह शक्तिपीठ, जहां माता के दायें पांव का अंगूठा छोडकर चार अन्य अंगुलियां गिरी थीं। 
43. मानस शक्तिपीठ: तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता की दाहिनी हथेली गिरी थी। 
44. लंका शक्तिपीठ: लंका शक्तिपीठ, जहां माता की पायल गिरी थी। 
45. गंडकी शक्तिपीठ: नेपाल में गंडक नदी के किनारे कपोल गिरा था। 
46. गुहेश्वरी शक्तिपीठ: नेपाल के काठमांडू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुहेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता सती के दोनों घुटने गिरे थे। 
47. हिंगलाज शक्तिपीठ: पाकिस्तान के बलूचिस्तान में माता का सिर गिरा था। 
48. सुगंध शक्तिपीठ: बांग्लादेश के खुलना में नासिका गिरी थी। 
49. करतोयतत शक्तिपीठ: बांग्लादेश भवानीपुर के बेगडा में करतोयतत के तट पर माता की बायीं पायल गिरी थी। 
50. चट्टल शक्तिपीठ: बांग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता की दाहिनी भुजा गिरी थी। 
51. यशोरेवरी शक्तिपीठ: बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसिद्ध यशोरेवरी शक्तिपीठ, जहां माता की बायीं हथेली गिरी थी। 

राष्ट्रीय सहारा में 10 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित