सोमवार, अक्तूबर 31, 2011

सांगला- नैसर्गिक सौन्दर्य स्थल

सांगला का सौन्दर्य अब तक इसलिये सुरक्षित रहा क्योंकि यहां बाहरी लोग नहीं आ सके। पर्यटकों के लिये भी सांगला घाटी 1992 में ही खोली गई। यहां बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और बौद्ध लामाओं की परम्परा से मठ चलाते हैं।

हिमाचल की किन्नौर घाटी में एक ओर वस्पा नदी के अंचल में स्थित सांगला वास्तव में दुर्गम स्थल है। किन्नर देश में संस्कृति और सौन्दर्य का मिलन और समन्वय यदि कहीं देखना है तो वह सांगला की घाटी है। 2700 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ से आच्छादित पर्वत के बीच अभी तक जो स्थल अनछुआ सा प्रतीत होता है, वही सांगला है। शिमला की चकाचौंध में रुचि रखने वाला पर्यटक सांगला नहीं पहुंचता है। यहां तो वही प्रकृति प्रेमी जाने का साहस करता है, जिसे वास्तविक प्राकृतिक सौन्दर्य की चाह हो और कुछ शान्ति में रहकर हिमाचल की संस्कृति और प्रकृति का आनन्द लेने का इच्छुक हो।

सराहन से सांगला लगभग 94 किलोमीटर दूर है। सराहन से ज्यूरी आकर वापस राष्ट्रीय मार्ग पर आना होता है और वहां से भावानगर, टापरी और करछम तक इसी राजमार्ग पर चलना पडता है। करछम से 18 किलोमीटर एक घाटी में चलने के बाद सांगला के दर्शन होते हैं। करछम में ही सतलुज और वस्पा का मिलन है। करछम तो कुल 1850 मीटर ही ऊंचा है और सांगला यहां से काफी ऊंचाई पर है। वस्पा नदी के किनारे किनारे एक संकरी सी सडक ही सांगला मार्ग है। नदी दो घाटियों के बीच बहुत तंग है। यहां दोनों ओर घाटियों में ढाक के घने वृक्ष हैं, उससे यहां अन्धेरा सा हो जाता है।

11 किलोमीटर की यात्रा के बाद डरावने किन्तु मनमोहक वृक्षों की छटा दिखाई देती है। फिर एक मन्दिर के दर्शन होते हैं, जिससे कुछ राहत सी मिलती है। नदी घाटी गहरे मार्ग में हो जाती है। फिर आगे कुछ मैदान सा आता है और फिर सांगला के एकमात्र बडे विश्राम गृह पर पहुंचा जाता है।

सांगला घाटी 1992 में ही पर्यटकों आदि के लिये खोली गई है। यहां से भारत-चीन या तिब्बत की सीमा कुल 40 किलोमीटर है इसलिये आम लोगों के लिये यहां की यात्रा बन्द सी थी। फिर पहले आवागमन के साधन भी पूरे नहीं थे। पांच हजार वर्ष प्राचीन इस घाटी का सौन्दर्य इसीलिये बना रहा क्योंकि यहां बाहरी लोग कोई नहीं आ सके। बताया गया है कि प्राचीन काल में यह घाटी वनों और प्राकृतिक सम्पदा से इतनी घनी थी कि अज्ञातवास के दौरान पाण्डव यही छिपे थे और उन्हें यहां कोई दुश्मन भी तलाश नहीं कर सकता था।

यह स्थान एक अत्यन्त मनोरम शान्ति का टापू सा है- जहां अखबार भी चार दिन बाद पहुंचते हैं। इस स्थान को प्रसिद्ध घुमक्कड विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने किन्नर देश से अलंकृत किया है। यहां जलवायु प्रदूषित नहीं है, वातावरण खुला और निर्मल है। सांगला के लोक नृत्य प्रसिद्ध हैं और यह लोक नाट्यों की भूमि है। यहां के मेले त्यौहार भी प्रसिद्ध हैं। यहां सितम्बर-अक्टूबर में फूलों का मेला होता है। सांगला घाटी में ट्राउट मछली के लिये काफी पर्यटक आते हैं। अब यहां पर्यटक वर्ष भर आने लगे हैं।

वैसे सांगला में तहसील कार्यालय है। यहां 1500 लोगों की आबादी है, ग्राम पंचायत है, यहां सेब, आलू, मटर की उपज काफी होती है। यहां के चारों ओर 15000 फीट तक की ऊंचाई की बर्फीली चोटियां हैं। यहां डाकघर है और विश्राम गृह भी है। शिमला व रिकांग पीयो से बसें भी आती-जाती हैं। यहां साधारण सा बाजार भी है। समीप में ही कामरू का किला और ग्राम है। वैसे यह रामपुर शहर की जागीर थी। कामरू के प्राचीन किले और उसमें बने भवनों का सौन्दर्य आश्चर्यजनक है। कामरू की ऊंचाई लगभग 3000 मीटर है। इसके मुख्य गांव में एक प्रवेश द्वार है और वहां भगवान बुद्ध की प्रतिमा है। यहां गांव में, घरों में गौशालाएं हैं।

सांगला घाटी में भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और बौद्ध लामाओं की परम्परा से मठ चलते हैं। कहीं कहीं यहां ब्राह्मण भी हैं। यहां लोक देवी-देवताओं की भी मान्यता है और बेरिंग नाग पहली श्रेणी का देवता है, जिसका अपना रथांग है। किन्नौर में महायान बौद्ध धर्म ही प्रचलित है। किन्नौर में ठाकुरों की जो लडकियां विवाह नहीं करती, वे अपना सारा समय अध्ययन में लगाकर जोमो यानी भिक्षुणी बन जाती हैं। वे मठों में रहती हैं। इसी तरह जो लडके विवाह नहीं करते वे भी पूरी उम्र बौद्ध साहित्य पढने में लगा देना चाहते हैं, वे भिक्षु बन जाते हैं। यहां सभी गांवों में मुख्य देवता के मन्दिर के साथ एक मठ भी है।

हिमाचल की सीमा का एक अत्यन्त रमणीक ग्राम छितकुल है, जो लगभग दस हजार फीट की ऊंचाई पर है। इस ग्राम के तीन ओर बर्फीले पहाड हैं और बीच में कलकल बहती बर्फीली नदी वस्पा है। सांगला तहसील से ग्राम छितकुल की दूरी 22 किलोमीटर है। यहां सडक है और वहां पहुंचने पर वहां के नैसर्गिक सौन्दर्य की भावना में प्रत्येक पर्यटक खो जाता है, रम जाता है। इस अन्तिम गांव में भी चहल-पहल है। यहां दुकान, स्कूल, मन्दिर, मठ और कुछ दुकानें हैं।

लेख: कमल किशोर जैन

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

डोडरा क्वार- प्रकृति ही प्रकृति बिखरी है चारों ओर

हिमाचल प्रदेश में अनेक रूपों में बिखरी पडी है प्रकृति। यहां स्थित डोडरा क्वार नामक क्षेत्र में प्रकृति ने अपनी जादुई छटा बिखेरी है। हिमाचल के शिमला जनपद के उत्तर में तथा उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जनपद की सीमा से सटे इस जनजातीय क्षेत्र की प्रकृति का आनन्द हर कोई नहीं उठा पाता क्योंकि दुर्गम मार्गों के कारण यहां पहुंचना आसान नहीं। इस क्षेत्र में दूर-दूर तक 9 गांव बसे हुए हैं।

हिमाचल प्रदेश के दुर्गम इलाकों में बसा एक स्वप्निल और दर्शनीय क्षेत्र है- डोडरा क्वार। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के बीच यहां प्रकृति ने जादुई सौन्दर्य बिखेरा है। कठोरता और मधुरता का ऐसा अदभुत संयोग कम ही क्षेत्रों में दिखाई देता है। कहीं आकाश को छूती ऊंची चोटियां और बर्फीले दर्रे हैं तो कहीं गहराई में धंसती हुई घाटियां। यह सौन्दर्य सिर्फ पर्वत, झरनों, चरागाहों, मखमली बादल व फूलों में ही नहीं पसरा है बल्कि यहां के मानवीय जीवन में भी भरपूर आकर्षण के साथ उतरा है। ऐसे सौन्दर्य में आकर आगन्तुक को ऐसा लगता है जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गये हों।

यह जनजातीय क्षेत्र शिमला जनपद के उत्तर में उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी, गढवाल क्षेत्र से सटा है। यह क्षेत्र समुद्र तल से आठ हजार फीट से लेकर पन्द्रह हजार फीट ऊंचाई तक फैला है। इस क्षेत्र में दूर-दूर तक 9 गांव बसे हुए हैं, ये हैं- डोडरा, पजेली, दम्दवाडी, कितरवाडी, कोटोल, क्वार, जिसकुण्ड, जाखा और पण्डार। यातायात सुविधा की घोर कमी के कारण यह खूबसूरत क्षेत्र बेहद पिछडा रह गया है। यही कारण है कि यह क्षेत्र प्रकृति प्रेमी व पर्यटकों की निगाहों से छुपा रह गया।

डोडरा क्वार इलाके में पहुंचना ही एक बडे साहसिक रोमांच का काम है। पर यह रोमांच प्रकृति के अदभुत सौन्दर्य के कारण सदा यादों में रच-बस जाता है। एक-दो नहीं, पूरे चार रास्ते हैं यहां पहुंचने के। सभी पैदल और बहुत लम्बे हैं। इन रास्तों में कहीं विकट दर्रे हैं तो कहीं मीलों फैले खूबसूरत ढलान। कहीं घने सन्नाटेदार जंगल हैं तो कहीं नदी-नाले, झरने व फूलों के कुंज।

यहां पहुंचने के लिये पहला रास्ता उत्तरकाशी गढवाल के नैतवाड नामक कस्बे से है। रूपिन और सूपिन नदियों के संगम में स्थित इस कस्बे में यक्ष व राजा कर्ण के कलात्मक दुर्लभ मन्दिर हैं। यहां से एक मार्ग विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हर की दून की ओर जाता है।

नैतवाड से पैदल यात्रा शुरू होती है डोडरा क्वार के लिये, जिसकी दूरी 35 किलोमीटर है। रास्ता काफी सुगम है। रूपिन नदी के किनारे 15 किलोमीटर चलने के बाद लोग दोणी गांव पहुंचते हैं। फिर 20 किलोमीटर चढाई व उतार भरे थकाऊ मार्ग के बाद डोडरा पहुंचते हैं। यह अन्य मार्गों की अपेक्षा ज्यादा सुविधाजनक व निरापद है। यह मार्ग बारहों महीने खुला रहता है। डोडरा क्वार गांव के लोग ज्यादातर इसी मार्ग का उपयोग करते हैं।

दूसरा मार्ग शिमला से रोहडू, चीडगांव, टिक्करी से है। टिक्करी तक बस सुविधा है। यहां से फिर डोडरा क्वार तक पहुंचने में पूरे दो दिन लग जाते हैं। इस मार्ग पर जडी-बूटियों व दुर्लभ भोजपत्र के वृक्षों का जमघट भी मिलता है। हिरण भी यहां यदा-कदा विचरण करते दिखाई देते हैं।

तीसरा रास्ता शिमला से धरवाडी व दिऊदी होकर है। यह काफी दुर्गम मार्ग है। वहां पहुंचने के लिये सत्रह हजार फीट ऊंचाई पर एक दर्रे को पार करना पडता है। इसे बीघू पर्वत भी कहते हैं। इस मार्ग में घनघोर जंगल है, जहां भालू बहुतायत में रहते हैं। यहां लोग समूह में शोर मचाते चलते हैं जिससे भालू डरकर छिप जाते हैं। यह मार्ग बहुत ज्यादा लम्बा तो नहीं पर विकट है।

इसी तरह चौथा मार्ग किन्नौर जनपद के सांगला नामक कस्बे से है। यह मार्ग भी प्रकृति के विविध सौन्दर्य से आच्छादित है। इस मार्ग पर छोटे-छोटे गांव मिलते हैं।

डोडरा क्वार के गांव भी अजीब कशिश रखते हैं। यहां के मकान व मन्दिरों में लकडियों व पत्थरों पर की गई अनूठी नक्काशी विशेष दर्शनीय हैं। इस परम्परागत विशिष्ट लोककला के लुप्त होने या संकट में पडने का खतरा नहीं है। भले ही भौतिक विकास यहां नहीं पहुंचा हो पर उत्कृष्ट लोककलाएं यहां विद्यमान हैं। छत्रशैली व किलेनुमा आकृति के मन्दिर बेहद लुभाते हैं।

यहां की महिलाएं सौन्दर्य के लिहाज से किसी तरह के परिचय की मोहताज नहीं हैं। सिर पर किन्नौरी टोपी, गले व कानों में लटकते आभूषण, कमर पर बंधी रस्सी, ऊन के कोट, पजामे पहने महिलाएं किसी देवलोक की अप्सराएं सी लगती हैं। कुदरत ने इन महिलाओं को ऐसा मीठा स्वर दिया है कि इनकी बोली भले ही समझ में न आये पर सुनने वालों अन्दर तक झंकृत कर देती है।

इस क्षेत्र में होने वाले विवाह भी कम विचित्र नहीं हैं। यहां दुल्हन अपनी ससुराल में घोडे पर सवार होकर जाती हैं। विवाह भी पण्डित के मन्त्रोच्चार व सात फेरे लेने से नहीं होते। दूल्हे को ससुराल पक्ष के लिये एक तयशुदा धनराशि (जिसे शशौंग कहा जाता है) अदा करनी पडती है। यहां विवाह की एक रस्म है- धाडा। इसके अनुसार जब कोई युवक किसी युवती पर मोहित हो जाता है, तो उसे वह अपने कुछ मित्रों द्वारा अगवा करवा लेता है। यदि युवती सहमत होती है तो शादी कर दी जाती है अन्यथा उसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती न कर सम्मानपूर्वक उसे वापस भेज दिया जाता है। एक अन्य विवाह परम्परा के अनुसार दूल्हे या उसके परिवार द्वारा एक निश्चित धनराशि वधूपक्ष को देनी पडती है। फिर विवाह सम्पन्न हो जाता है।

लेख: प्रकाश पुरोहित जयदीप

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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