गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

देलवाडा मन्दिर- शिल्प-सौन्दर्य का बेजोड खजाना

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 30 सितम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ था।

लेख: गोपेन्द्र नाथ भट्ट

समुद्र तल से लगभग साढे पांच हजार फुट ऊंचाई पर स्थित राजस्थान की मरुधरा के एकमात्र हिल स्टेशन माउण्ट आबू पर जाने वाले पर्यटकों, विशेषकर स्थापत्य शिल्पकला में रुचि रखने वाले सैलानियों के लिये इस पर्वतीय पर्यटन स्थल पर सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र वहां मौजूद देलवाडा के प्राचीन जैन मन्दिर हैं। 11वीं से 13वीं सदी के बीच बने संगमरमर के ये नक्काशीदार जैन मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। पांच मन्दिरों के इस समूह में विमल वासाही टेम्पल सबसे पुराना है। इन मन्दिरों की अदभुत कारीगरी देखने योग्य है। अपने ऐतिहासिक महत्व और संगमरमर पत्थर पर बारीक नक्काशी की जादूगरी के लिये पहचाने जाने वाले राज्य के सिरोही जिले के इन विश्वविख्यात मन्दिरों में शिल्प सौन्दर्य का ऐसा बेजोड खजाना है, जिसे दुनिया में अन्यत्र और कहीं नहीं देखा जा सकता।

दिल्ली-अहमदाबाद बडी लाइन पर आबू रेलवे स्टेशन से लगभग 20 मील दूर स्थित देलवाडा के इन मन्दिरों की भव्यता और उनके वास्तुकारों के भवन निर्माण में निपुणता, उनकी सूक्ष्म पैठ और छेनी पर उनके असाधारण अधिकार का परिचय देती है। देलवाडा में पांचों मन्दिरों की विशेषता यह है कि उनकी छत, द्वार, तोरण, सभा-मण्डपों पर उत्कीर्ण शिल्प एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। हर पत्थर और खम्भे पर नई नक्काशी संगमरमर पर जादूगरी की अनूठी मिसाल है, जिसे पर्यटक अपलक देखता ही रहता है। यहां की कला में जैन संस्कृति का वैभव और भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं।

पांच मन्दिरों के समूह में दो विशाल मन्दिर हैं और तीन उनके अनुपूरक मन्दिर हैं। सभी मन्दिरों का शिल्प सौन्दर्य एक से बढकर एक है। मन्दिरों के विभिन्न प्रकोष्ठों की छतों पर लटकते, झूमते गुम्बज, स्थान स्थान पर गढी गई सरस्वती, अम्बिका, लक्ष्मी शंखेश्वरी, पदमावती, शीतला आदि देवियों की दर्शनीय छवियां, शिल्पकारों की छेनी की निपुणता के साक्ष्य हैं। यहां उत्कीर्ण मूर्तियों और कलाकृतियों में शायद ही कोई ऐसा अंश हो जहां कलात्मक पूर्णता के चिन्ह न दिखते हों।

शिलालेखों और ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार 600-800 ई.पू. में आबू नागा जनजाति का केन्द्र था। महाभारत में आबू का महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के रूप में उल्लेख है। जैन शिलालेखों के अनुसार जैन धर्म के प्रतिष्ठापक भगवान महावीर ने भी इस प्रदेश को अपना दर्शन लाभ और यहां के वासियों को अपना आशीर्वाद दिया। देलवाडा के जैन मन्दिरों में सबसे बडा मन्दिर विमल वासाही है। इस मन्दिर का निर्माण गुजरात के चालुक्य राजा भीमदेव के मन्त्री और सेनापति विमल शाह ने 1031 ई. में पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूरी होने पर करवाया था। तीन हजार शिल्पियों ने 14 वर्षों में इसे मूर्त रूप दिया। इस मन्दिर में कुल 57 देवरियां हैं जिनमें तीर्थंकरों व अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मन्दिर की प्रत्येक दीवार, स्तम्भ, तोरण, छत, गुम्बद आदि पर बारीक नक्काशी और प्रस्तर शिल्प का सौन्दर्य बिखरा हुआ है। मन्दिर का सबसे उत्कृष्ट कला से भरपूर भाग रंग मंडप है जिसके बारह अलंकृत स्तम्भों और तोरणों पर आश्रित एक विशाल गोल गुम्बज है जिसमें हाथी, घोडे, हंस, वाद्य यंत्रों सहित नर्तकों के दल सहित शोभायात्राओं की ग्यारह गोलाकार पंक्तियां हैं। प्रत्येक स्तम्भ के ऊपर वाद्य वादन करती ललनाएं और ऊपर की ओर कई प्रकार के वाहनों पर आरूढ सोलह विद्या देवियों की आकर्षक प्रतिमाएं हैं।

98 फीट लम्बे और 42 फीट चौडे विमल वासाही मन्दिर के निर्माण पर उस दौर में भी लगभग 19 करोड रुपये खर्च हुए थे। देलवाडा मन्दिर समूह के दूसरे मुख्य मन्दिर लूणावसाही का निर्माण वस्तुपाल और गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय के मन्त्री और उनके भाई तेजपाल ने 1230 ई. में करवाया। इस अद्वितीय मन्दिर में जैनियों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ जी की मूर्ति स्थित है। इस देवालय में देवरानी-जेठानी के गोखडे निर्मित हैं जिनमें भगवान आदिनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाएं विराजमान हैं। दोनों ही गोखडे शिल्पियों की बेजोड कला के जीवंत प्रतीक हैं। इस मन्दिर की परिक्रमा में 50 देवरियां हैं। प्रत्येक देवरी की कला अद्वितीय है।

देलवाडा मन्दिर परिक्षेत्र में ही पीतलहर आदीश्वर मन्दिर, खरतरसाही पार्श्वनाथ मन्दिर और भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर स्थित है। महावीर स्वामी मन्दिर सबसे छोटा और बहुत ही सादा मन्दिर है। इसका निर्माण 1582 ई. में करवाया गया। इसी प्रकार पीतलहर मन्दिर का निर्माण गुजरात के भीमशाह ने संवत 1374 ई. से 1433 ई. के मध्य करवाया। बाद में सुन्दर और गदा नामक व्यक्तियों ने इसका जीर्णोद्धार करवा इसमें ऋषभदेव की पंच धातु की मूर्ति स्थापित करवाई। पीतल से बनी इस मूर्ति का वजन 108 मन (एक मन में 40 किलो) और ऊंचाई 41 इंच है। इसके अलावा यहां एक चौमुखा मन्दिर भी है, जिसे खरातावसाही मन्दिर कहा जाता है। इसमें पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति विराजमान है। तीन मंजिले इस मन्दिर का निर्माण 15वीं सदी के आसपास माना जाता है। भूरे पत्थर से बना यह मन्दिर अपने शिखर सहित देलवाडा के सभी मन्दिरों में सबसे ऊंचा है। देलवाडा मन्दिर समूह के पांच श्वेताम्बर मन्दिरों के साथ ही यहां भगवान कुंथुनाथ का दिगम्बर जैन मन्दिर भी है। सन 1449 में मेवाड के महाराणा कुम्भा ने यहां काले पत्थर का एक ऊंचा स्तम्भ बनवाया था। देलवाडा के मन्दिर विस्मयकारी सुकोमलता, सुन्दरता और उत्कृष्टता से अलंकृत भारतीय शिल्पकला का मानव जाति को एक अनूठा उपहार है।


आप भी अपने यात्रा वृत्तान्त और पत्र-पत्रिकाओं से यात्रा लेख भेज सकते हैं। भेजने के लिये neerajjaatji@gmail.com का इस्तेमाल करें। नियम व शर्तों के लिये यहां क्लिक करें


2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा जी, खुद हो केदारनाथ में हमें पढवा रहे हो दिलवाडा के मंदिर?

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर पर्यटन सामग्री।

    जवाब देंहटाएं