शनिवार, अप्रैल 02, 2011

लद्दाख- हिमालय पार की धरती

लद्दाख हिमालयी दर्रों की धरती है। उत्तर में कराकोरम पर्वत श्रंखला और दक्षिण में हिमालय से घिरे इस इलाके में आबादी का घनत्व बहुत कम है। इसकी दुर्गमता का आलम यह है कि इसके पूर्व में दुनिया की छत कहा जाने वाला तिब्बत, उत्तर में मध्य एशिया, पश्चिम में कश्मीर और दक्षिण में लाहौल-स्पीति घाटियां हैं। अपने अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य के लिये लद्दाख बेमिसाल है। यहां बौद्ध संस्कृति की स्थापना दूसरी सदी में ही हो गई थी। इसीलिये इसे मिनी तिब्बत भी कहा जाता है। लद्दाख की ऊंचाई कारगिल में 9000 फुट से लेकर कराकोरम में 25000 फुट तक है।

कैसे जायें:

वायु मार्ग से: लेह के लिये दिल्ली, जम्मू व श्रीनगर से सीधी उडानें हैं। दिल्ली से लेह का वापसी किराया 7195 रु. और जम्मू व श्रीनगर से वापसी किराया क्रमशः 4480 रु. व 3960 रु. है।

सडक मार्ग से: लेह जाने के दो रास्ते हैं। एक श्रीनगर से (434 किलोमीटर) और दूसरा मनाली से (473 किलोमीटर)। दोनों रास्ते जून से नवम्बर तक ही खुले रहते हैं। साल के बाकी समय में वायु मार्ग ही एकमात्र रास्ता है। दोनों ही रास्ते देश के कुछ सबसे ऊंचे दर्रों से गुजरते हैं। लेकिन जहां मनाली से लेह का रास्ता बर्फीले रेगिस्तान से होता हुआ जाता है, वहीं श्रीनगर का रास्ता अपेक्षाकृत हरा-भरा है। थोडा कम रोमांचक लेकिन ज्यादा खूबसूरत। दोनों ही रास्तों पर राज्य परिवहन निगमों की बसें चलती हैं जो दो-दो दिन में सफर पूरा करती हैं। श्रीनगर से लेह के रास्ते में कारगिल में रात्रि विश्राम होता है तो मनाली से लेह के रास्ते में सरछू या पांग में। बसें ही लेह जाने का सबसे किफायती तरीका हैं। बसें सामान्य भी हैं और डीलक्स भी। वैसे श्रीनगर व मनाली, दोनों ही जगहों से टैक्सी भी ली जा सकती हैं।

कहां ठहरें:

लेह में ठहरने के लिये हर तरह की सुविधा है। ज्यादातर होटल चूंकि स्थानीय लोगों द्वारा चलाये जाते हैं इसलिये इनकी सेवाओं में पारिवारिक लुत्फ ज्यादा होता है। यहां गेस्ट हाउसों में तीन सौ रुपये दैनिक किराये के डबल बेडरूम से लेकर बडी होटल में 2600 रुपये रोजाना तक के कमरे मिल जायेंगे। लेकिन यहां घरों से जुडे गेस्ट हाउसों में रहना न केवल किफायती है बल्कि लद्दाखी संस्कृति व रहन सहन से परिचित भी कराता है। नुब्रा घाटी के इलाकों मं हालांकि अभी पर्यटकों के रहने की व्यवस्था की जानी बाकी है। जून से सितम्बर तक के टूरिस्ट सीजन में होटल बुकिंग पहले से करा लेना सुरक्षित रहता है। सर्दियों में जाने वालों के लिये भी बेहतर होगा कि वे जाने की पूर्व इत्तिला कर दें ताकि हीटर आदि के इंतजाम किये जा सकें।

कपडे व बाकी सामान:

सुबह व शाम के समय तो यहां पूरे सालभर गरम कपडे पहनने होते हैं। जून से सितम्बर तक दिन में थोडी गरमी होती है। हालांकि अगस्त से ही दिन के तापमान में भी गिरावट आने लगती है। गर्मियों में भी दिन का तापमान यहां कभी 27-28 डिग्री से ऊपर नहीं जाता। सर्दियों में तो लेह तक में न्यूनतम तापमान शून्य से बीस डिग्री तक नीचे चला जाता है। इतनी ऊंचाई वाले इलाके होने से वहां हवा हल्की होती है। लिहाजा उसके लिये शरीर को तैयार करना होता है। ध्यान देने बात यह है कि हवा हल्की होने की वजह से सूरज की रोशनी भी यहां ज्यादा घातक होती है। लेकिन आप छाया में रहें तो ठण्ड पकडने का खतरा भी उतनी ही तेजी से रहता है। कहा जाता है कि लद्दाख ही अकेली ऐसी जगह है जहां अगर कोई व्यक्ति पांव छाया में करके धूप में लेटा हो तो उसे सनस्ट्रोक और फ्रॉस्टबाइट, दोनों एक साथ हो सकते हैं। अगर आप वहां रोमांचक पर्यटन के इरादे से जा रहे हो तो जरूरी सामान साथ रखें। पर्याप्त भोजन भी साथ रखें क्योंकि पहाडों में आपको गांव काफी दूर-दूर मिलेंगे। रात में रुकने के लिये कपडे, स्लीपिंग बैग व टॉर्च आदि जरूर अपने साथ रखें।

रोमांचक पर्यटन:

यह इलाका ट्रैकिंग, पर्वतारोहण और राफ्टिंग के लिये काफी लोकप्रिय है। यूं तो यहां पहुंचना ही किसी रोमांच से कम नहीं लेकिन यहां आने वालों के लिये उससे भी आगे बेइंतहा रोमांच यहां उपलब्ध है। दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित सडकों (मारस्मिक ला व खारदूंग ला) के अलावा इस इलाके में सात हजार मीटर से ऊंची कई चोटियां हैं जिन पर चढने पर्वतारोही आते हैं। ट्रैकिंग के भी यहां कई रास्ते हैं। ट्रैकिंग व राफ्टिंग के लिये तो यहां उपकरण व गाइड आपको मिल जायेंगे लेकिन पर्वतारोहण के लिये भारतीय पर्वतारोहण संस्थान से सम्पर्क करना पडेगा। स्थानीय भ्रमण के लिये आपको यहां मोटरसाइकिल भी किराये पर मिल सकती है।

मेले व त्यौहार:

लद्दाख क्षेत्र में मूलतः बौद्ध धर्म की मान्यता है। इसलिये यहां की संस्कृति और तीज-त्यौहार इसी के अनुरूप होते हैं। पूरे इलाके में आपको हर तरफ बौद्ध मठ देखने को मिल जायेंगे। इनमें से ज्यादातर इतिहास की धरोहर हैं। ज्यादातर बडे मठों में हर साल अपने-अपने आयोजन होते हैं। तिब्बती उत्सव आमतौर पर काफी जोश व उल्लास के साथ मनाये जाते हैं। मुखौटे और अलग-अलग भेष बनाकर किये जाने वाले नृत्य-नाटक, लोकगीत व लोकनृत्य यहां की संस्कृति का प्रमुख अंग हैं। यहां की बौद्ध परम्परा का सबसे बडा आयोजन हेमिस का होता है। गुरू पदमसम्भव के सम्मान में होने वाला यह आयोजन तिथि के अनुसार जून या जुलाई में होता है। इस साल (2006) यह 6-7 जुलाई को है। इसी तरह ज्यादातर मठ सर्दियों व गर्मियों में अपने-अपने जलसे करते हैं। लद्दाखी संस्कृति को संजोये रखने और पर्यटन को बढावा देने के लिये पर्यटन विभाग भी अपने स्तर पर हर साल सितम्बर में पंद्रह दिन का लद्दाख उत्सव आयोजित करता है।

क्या देखें:

प्रकृति की इस बेमिसाल तस्वीर के नजारे आपकी आंखों को कभी थकने नहीं देते लेकिन उसके अलावा भी बौद्ध संस्कृति की अनमोल विरासत यहां मौजूद है। यहां देखने की ज्यादातर चीजें इसी से जुडी हैं। चाहें वह पुराने राजमहल हों, मठ हों, मन्दिर या फिर संग्रहालय।लेह के आसपास के कई गांवों में इस तरह के मठ मिल जायेंगे। इस तरह का ज्यादातर निर्माण 14वीं सदी से 16वीं सदी के बीच लद्दाख के धर्मराजाओं ने कराया। हालांकि अधिकतर मठ व महल जर्जर अवस्था में हैं और उनके मूल निर्माण का कुछ हिस्सा ही आज सलामत है लेकिन फिर भी वे इतिहास के एक दौर की पूरी कहानी कहते हैं। यहां के जनजीवन में देखने लायक सबसे अनोखी बात द्रोगपा गांव हैं। भारतीय क्षेत्र में कुल पांच द्रोगपा गांव हैं जिनमें से केवल दो ही में विदेशी पर्यटकों को जाने की इजाजत है। धा व मियामा गांवों में पूरी तरह दार्द लोगों के बचे-खुचे वंशजों की बसावट है। इन दार्द लोगों को सिंधु घाटी में आर्यों की आखिरी नस्ल माना जाता है। जाहिर है कि मानवविज्ञानियों के लिये इन गांवों की खासी अहमियत है। इनके सालाना त्यौहार भी बडे आकर्षक होते हैं जब सारे लोग अपनी पारम्परिक वेषभूषा में नाचते-गाते घरों से निकलते हैं। इस इलाके में अभी पर्यटन ढांचा पूरी तरह विकसित नहीं है। द्रोगपा गांव लेह से 150 से 170 किलोमीटर आगे हैं। वहां रुकने के लिये कुछ गेस्टहाउस हैं और साथ ही आसपास के कुछ गांवों में भी कैंपिंग साइट बनाई गई हैं।

लेख: उपेन्द्र स्वामी (दैनिक जागरण यात्रा, 25 जून 2006)

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1 टिप्पणी:

  1. भाई बडा सूना सूना लग रहा था इसलिये लद्दाख पे इक दे मारी बडा मजा आया दुनिया की छत देख कर.....

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