मंगलवार, नवंबर 15, 2011

किन्नौर- धरती पर एक स्वर्ग

हिमाचल प्रदेश की खूबसूरत घाटी है किन्नौर, जिसके नयनाभिराम सौन्दर्य से कोई भी पर्यटक सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता। एक जानकारी:

पांच हजार से आठ हजार मीटर ऊंची पर्वत श्रंखलाओं से घिरी किन्नौर घाटी धरती पर स्वर्ग से कम नहीं। घुमक्कड इसे बर्फ और झरनों की घाटी के साथ-साथ सौन्दर्य की खान तक कह देते हैं। यहां का सौन्दर्य नयनाभिराम है। प्रकृति के विभिन्न रूप यहां परिलक्षित होते हैं। आसमान छूते हिमशिखर, बादलों में लिपटे वृक्ष, सेब और केसर की सौंधी सौंधी महक, फूलों का परिधान ओढे घाटियां, बर्फीले झरनें, संगीत गुनगुनाती नदियां... सैलानी अभिभूत सा हो उठता है... प्रकृति के समक्ष नतमस्तक।

किन्नौर हिमाचल प्रदेश का कबायली इलाका है जिसका जिक्र महाभारत काल में भी मिलता है। कुछ इतिहासकारों के मत में अर्जुन ने जिस ‘इमपुरुष’ नामक स्थान को जीता था, वह वास्तव में किन्नौर ही था। कुछ विद्वानों की राय में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का आखिरी समय यहीं गुजारा था। यह भी मान्यता है कि किन्नौर ने इसी क्षेत्र में महाभारत से बहुत पहले हनुमान के साथ राम की उपासना की थी।

कुछ समय पहले तक इस जनजातीय क्षेत्र में सैलानियों का बिना परमिट लिये प्रवेश वर्जित था जिससे इसकी सुन्दरता बरकरार थी। लेकिन गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी करके यह घाटी सैलानियों के लिये खोल दी है और अब वांगतू से शुरू होने वाली इनर लाइन से आगे प्रवेश करने के लिये परमिट लेने की जरुरत नहीं पडती। सिर्फ विदेशी सैलानियों को सुरक्षा की दृष्टि से किन्नौर की कल्पा और सांगला घाटियों से आगे जाने के लिये अनुमति लेनी पडती है।

इस अनूठी घाटी की यात्रा हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से शुरू होती है और कहीं सुरम्य तो कहीं खतरनाक, ढलानदार पहाडी सडकों पर गुजरती गाडी कभी मस्ती तो कभी रोमांच भर देती है। कहीं संकरे रास्ते किसी गुफा से गुजरने का भ्रम पैदा कर देते हैं तो कहीं सतलुज नदी पछाडें मारती साथ चलती सी लगती है। शिमला से छह घण्टे का सफर तय करने के बाद रामपुर बुशैहर नामक एक खूबसूरत और ऐतिहासिक स्थल आता है। हिन्दुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय मार्ग पर स्थित रामपुर के राजमहल पहाडी वास्तुकला के अनुपम उदाहरण हैं। रामपुर बुशैहर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के व्यापारिक मेले ‘लवी’ के लिये भी मशहूर है। यह मेला हर साल 11 से 14 नवम्बर तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस मेले का शुभारम्भ 1681 में बुशैहर रियासत के राजा केहरी सिंह और तिब्बत के बीच हुए व्यापारिक समझौते के परिणामस्वरूप हुआ था। इस समझौते को नमग्या अभिलेख के नाम से जाना जाता है जिसके अनुसार जब तक कैलाश पर्वत पर बर्फ जमी रहेगी और मानसरोवर में पानी रहेगा तब तक दोनों राज्यों में दोस्ती रहेगी।

रामपुर के बाद आता है ज्योरी और यहां तक का सफर बडा रोमांचकारी है। फिर अगला पडाव सराहन है जो शिमला की सीमा कुछ आगे खत्म होने की घोषणा करता है। सराहन भले ही एक खूबसूरत रमणीय गांव है लेकिन कभी यह बुशैहर रियासत की राजधानी था। यहां सुप्रसिद्ध भीमाकाली मन्दिर और चांदी पर अंकित देवप्रतिमाएं पर्यटकों पर जादू सा असर करती हैं।

पहाडों का वक्ष चीरकर जिस तरह सडकें बनाई गईं हैं, इंजीनियरों के अथक परिश्रम और कार्यकुशलता का नमूना हैं। रास्ते में झर-झर झरते झरनों को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। ऐसा ही सफर तय करके आता है भावनगर। हिमाचल की मशहूर संजय विद्युत परियोजना यहीं है। पूरी तरह से भूमिगत यह परियोजना उच्च स्तरीय तकनीक का जीवंत उदाहरण है। यहां से करीब दस किलोमीटर आगे वांगतू पुल है। पहले यहां पुलिस चौकी पर परमिट चैक किये जाते थे लेकिन अब यह क्षेत्र सैलानियों के लिये खोल दिये जाने के कारण ऐसा नहीं होता। लेकिन औपचारिकता निभाने के लिये पुलिसकर्मी अपनी तसल्ली जरूर करते हैं। वांगतू से आगे आता है टापरी और फिर कडछम। कडछम इस जिले की दो प्रमुख नदियों सतलुज और वास्पा का संगम कहलाता है। वास्पा नदी यहां सतलुज के आगोश में समा जाती है। यहां से एक मार्ग इस घाटी के एक खूबसूरत स्थल सांगला को जाता है।

सांगला किन्नौर की सर्वाधिक प्रसिद्ध और रमणीय घाटी है। समुद्र तल से करीब ढाई हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित सांगला घाटी को पहले वास्पा घाटी भी कहा जाता था। ऐसी भी मान्यता है कि पूरी सांगला घाटी कभी एक विशालकाय झील थी, लेकिन कालान्तर में इस झील का पानी वास्पा नदी में तब्दील हो गया और बाकी क्षेत्र हरियाली से लहलहा उठा। भले ही यह मात्र किंवदंती ही हो लेकिन रंगीन फसलों, फूलों का परिधान ओढे सांगला घाटी स्वर्ग से कम नहीं लगती। अनेक घुमक्कडों ने अपने संस्मरणों में इस घाटी के नैसर्गिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। सांगला में बेरिंग नाग मन्दिर और बौद्ध मठ दर्शनीय है। सांगला में ही कृषि विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय अनुसंधान उपकेन्द्र स्थित है। सांगला के ऊपर कामरू गांव है। यहां का पांच मंजिला ऐतिहासिक किला कला का उत्कृष्ट नमूना है। गांव के बीच में ही नारायण मन्दिर और बौद्ध मन्दिर स्थित हैं और दोनों मन्दिरों का एक ही प्रांगण है। नारायण मन्दिर की काष्ठकला देखती ही बनती है। सांगला घाटी से किन्नर कैलाश के दर्शन भी किये जा सकते हैं। वास्तव में किन्नर कैलाश के पृष्ठ भाग में ही यह घाटी फैली हुई है। यहां पर आप किन्नौरी शालें और टोपियां खरीद सकते हैं।

यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य की तरह यहां के लोग भी सुन्दर हैं। किन्नर बालाएं फूलों से सुसज्जित अपनी परम्परागत टोपियां पहनती हैं। टोपियों के दोनों ओर पीपल पत्र नामक चांदी का एक गहना बना होता है और चांदी के ही एक नक्काशीदार कडे पर कसा रहता है। अपने शरीर को ये ऊनी कम्बल से साडी की भांति लपेटे रखती हैं। इस ऊनी कम्बल को स्थानीय भाषा में ‘दोहडू’ कहा जाता है।

किन्नरियों में मेहमानों के आदर-सत्कार की भावना भी बहुत होती है। मेहमानों का स्वागत वे अपने हाथों से शराब पेश करके करती हैं। ऐसा करते समय उन्हें कोई संकोच नहीं होता, क्योंकि शराब को किन्नर समाज में महत्व प्राप्त है, लेकिन ताज्जुब की बात यह भी है कि जहां किन्नरियां शराब को बनाने से लेकर पेश करने तक का कार्य अपने हाथों से करती हैं, वहीं वे स्वयं शराब को मुंह तक नहीं लगातीं। शाल बुनने में तो उनका कोई सानी नहीं है। उनकी बनाई शालों में प्रकृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं। सर्दियों में जब भारी बर्फबारी के कारण किन्नौर का सम्पर्क शेष दुनिया से कट जाता है तो किन्नरियां ऊनी कपडे, कालीन और अन्य चीजें बुनने का काम करती हैं। उनके बनाये ऊनी वस्त्रों में डोहरियां, पट्टू, गुदमा आदि उल्लेखनीय हैं।

सांगला से 14 किलोमीटर आगे रकछम गांव है। समुद्र तल से करीब तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित रकछम का नामकरण रॉक और छम के मिलन से हुआ है। रॉक अर्थात चट्टान या पत्थर और छम यानी पुल। कहते हैं कभी यहां पत्थर का पुल हुआ करता था, जिस वजह से गांव का नाम ही रकछम पड गया। रकछम से 12 किलोमीटर दूर किन्नौर जिले का आखिरी गांव है- छितकुल। लगभग साढे दस हजार फीट की ऊंचाई पर चीन की सीमा के साथ सटा है यह गांव। आबादी होगी कोई पांच सौ के करीब। साठ-सत्तर घर हैं। एक ओर वास्पा नदी बहती है तो दूसरी ओर दैत्याकार नंगे पहाड दिखते हैं। साल में चार माह से ज्यादा यह हिमपात के कारण दुनिया से कटा रहता है। उत्तराखण्ड के गंगोत्री और चीन के तिब्बत इलाके से सटे इस गांव में आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी, पशु चिकित्सालय, ब्रांच पोस्ट ऑफिस, पुलिस पोस्ट और स्कूल जैसी आधुनिक सुविधाएं हैं।

सांगला के बाद दूसरी खूबसूरत घाटी कल्पा है, लेकिन कल्पा पहुंचने के लिये पहले फिर से करछम लौटना पडता है। करछम से करीब 20 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद आता है- पियो और यहां से 15 किलोमीटर आगे कल्पा है। दुर्गम चढाई तय करने के बाद जब सैलानी कल्पा पहुंचता है, तो एक शहर सरीखा कस्बा देख उसकी बांछें खिल जाती हैं। यही कल्पा किन्नौर घाटी का मुख्यालय है और यहां सभी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं। कहते हैं कि यहां मूसलाधार बरसात नहीं होती बल्कि हल्की हल्की सी फुहारें पडती हैं। यहां के झरनों की छटा निराली है। ये गुनगुनाते झरने यहां सैलानी को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, वही यहां के खेतों और बागों को सींचते भी हैं।

किन्नौर घाटी वर्ष में तकरीबन छह मास बर्फ की सफेद चादर से ढकी रहती है। अगस्त से अक्टूबर तक का मौसम यहां खुशगवार होता है। इन्हीं दिनों यहां सैलानियों और घुमक्कडों का सैलाब उमडता है। सेब, खुबानी, चूली, बग्गूगोशे, चिलगोजे और अंगूर यहां उम्दा किस्म के होते हैं। अंगूर की शराब भी यहां बडे चाव से पी जाती है। किन्नौर में वर्ष भर त्यौहारों का सिलसिला चलता रहता है। ‘फूलैच’ किन्नौर घाटी का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार को ‘उख्यांग’ के नाम से भी जाना जाता है। ‘उख्यांग’ दो शब्दों ‘ऊ’ और ‘ख्यांग’ से मिलकर बना है। ‘ऊ’ का अर्थ है फूल और ‘ख्यांग’ फूलों को देखना। यह त्यौहार फूलों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।

लेख: गुरमीत बेदी

संदीप पंवार के सौजन्य से

आप भी अपने यात्रा वृत्तान्त और पत्र-पत्रिकाओं से यात्रा लेख भेज सकते हैं। भेजने के लिये neerajjaatji@gmail.com का इस्तेमाल करें। नियम व शर्तों के लिये यहां क्लिक करें

मुसाफिर हूं यारों- नीरज जाट का यात्रा ब्लॉग

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

पांगी घाटी- रोमांचकारी अनुभव

पहाडों की सुन्दरता एवं विशालता के विषय में बातें करना या उनके बारे में कोई तस्वीर बनाना वास्तविकता से कहीं भिन्न है। पहाडों की विशालता व दुर्गम घाटियों की वास्तविकता को जानने का अवसर उन्हीं की गोद में जाकर या उनके सीने पर चलकर मिलता है। हमारी छोटी सी टीम को भी इसी प्रकार का अवसर मिला, जब हमने कुछ अरसे पूर्व पांगी घाटी (साच पास) से साक्षात्कार किया। हमारी भेल (बी.एच.ई.एल.) टीम अभी भी उस सुखद यात्रा के आनन्द से वशीभूत है।

पांगी घाटी हिमाचल प्रदेश का वह हिस्सा है, जो जम्मू कश्मीर की सीमा को छूता हुआ चलता है। पांगी घाटी की अपनी अलग सभ्यता और मनमोहकता है, जो पर्यटन के लिये एक विशेषता है। पांगी साल में नौ महीने बर्फ से ढकी रहती है।

हमने पांगी को क्यों चुना, यह कहना कठिन है परन्तु हमने किसी भी ऐसी कठिनाई का सामना नहीं किया जो हमारी इस यात्रा को कोई दुखद अनुभव देता। दिल्ली से रात को चलकर सुबह-सुबह पठानकोट पहुंचकर हमने चम्बा की बस लेकर 125 किलोमीटर का सफर हंसते हंसते तय किया। एक शाम चम्बा में रहकर सुबह फिर अपने ट्रैकिंग पाइण्ट पर पहुंचने के लिये बस ली और तरेला पहुंचे। तरेला ही हमारा वह प्रारम्भिक स्थान था, जहां से हमें पैदल यात्रा प्रारम्भ करनी थी। हमने अपने साथ कुछ खाने की सामग्री ले ली थी जिसके लिये हमने चम्बा से ही भरमौर के दो वासी साथ ले लिये थे। जो अन्त तक हमारे साथ रहे। वे वहीं के वासी थे और हमें उनका काफी सहारा रहा। हमारे सभी नौ साथियों के पास रकसैक (पिट्ठू) थे, जिनमें वस्त्र व अन्य आवश्यक वस्तुएं थीं।

तरेला से हमारी चढाई का क्रम आरम्भ हो गया। पहला पडाव हमने उसी दिन भनौडी में एक नेपाली ढांचे में किया। भनौडी की ऊंचाई लगभग 2744 मीटर है।

भनौडी से चढाई के क्रम को जारी रखते हुए हम सतरुंडी पहुंचे। यह रास्ता बडा ही दुर्गम पर मनोरम था। चढाई ऐसे आती थी, मानों खत्म ही नहीं होगी परन्तु प्रकृति का स्वस्थ व मनमोहक वातावरण हमें थकान से उबार रहा था। सतरुंडी 3658 मीटर ( 12000 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। जहां से हमें ट्रैकिंग का सबसे ऊंचा स्थान ‘साच पास’ पार करना था। हमने एक रात वहीं पर काटी। अगले दिन प्रातः पांच बजे ही हम सभी चल पडे साच पास की ओर। कुछ ही घण्टों में हमने अपनी ट्रैकिंग के सबसे ऊंचे स्थान पर जाकर 14500 फीट की ऊंचाई का आनन्द लिया। यहीं से हमने अगले दो पडाव तक बर्फ व बर्फ की नदियों (ग्लेशियर) का सामना किया और अपने अगले पडाव बगोटू पर जाकर ही दम लिया। ग्लेशियर जो सितम्बर के महीने में पिघलने लगते हैं, थोडे से खतरनाक हो जाते हैं। परन्तु सावधानी व साहस से उनका मुकाबला किया जा सकता है।

ग्लेशियर पर चलने का आनन्द ही अलग है। उन ग्लेशियर का सामना हमने अपने अगले पडाव बिंद्रावनी तक किया। बिंद्रावनी में बर्फ से पीछा छूटा। इस पडाव के बाद आगे का रास्ता आसान ही रहा। हम चंद्रभागा पुल से होते हुए चंद्रभागा नदी के किनारे-किनारे परन्तु लगभग 1000 फीट ऊपर चलते-चलते किलाड पहुंचे। यहां पर पी.डब्ल्यू.डी. के बंगले में कुछ वक्त गुजारा। यहां पर कुछ कश्मीरी आतंकवादियों की घुसपैठ से छोटी सी तहसील आतंकित थी। अतः हमने खाना खाकर बंगले में ही सो जाना उचित समझा। किलाड के बाद हमने अपने पडाव चेरी बंगला व पूर्थी में डाले । ये सभी जगहें पांगी में ही आती हैं।

पांगी में ट्रैकिंग एक अलग ही अनुभव है। अलग संस्कृति, अलग भाषा, अलग पहनावा, अलग प्रकृति, यह सब पांगी घाटी की ट्रैकिंग की विशेषताएं हैं, जो वहीं पर अनुभव की जा सकती हैं। पांगी घाटी ट्रैकिंग में हमने पूरे दस दिन पैदल यात्रा की और पूर्थी से बस लेकर उदयपुर, लाहौल-स्पीति होते हुए मनाली आये। यहां से दिल्ली की बस लेकर वापस लौटे।

लोग अक्सर ट्रैकिंग के नाम से भयभीत होते हैं परन्तु पांगी जैसे दुर्गम रास्ते में भी ट्रैकिंग को एक खेल की तरह किया जा सकता है। बशर्ते आपके अन्दर प्रकृति को देखने और समझने की चाह हो। हमारे जैसे मानव वहां भी बसते हैं और पूरा जीवन उन्हीं वादियों में हर तरह के मौसम में काटते हैं। दरअसल ट्रैकिंग का अनुभव प्रकृति व मानव के निकटतम सम्बन्धों को जानने का बहुत ही सुन्दर साधन है। यदि कुछ समय निकालें तो ट्रैकिंग पर अवश्य जायें। इससे प्रकृति की आवश्यकता को समझने और पर्यावरण की जरूरत महसूस करेंगे।

पांगी घाटी (साच पास) ट्रैकिंग के लिये विस्तृत ब्यौरा हिमाचल पर्यटन कार्यालयों से लिया जा सकता है।

यात्रा वृत्तान्त: सुनील चौधरी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, नवंबर 07, 2011

भंगाल घाटी- इक्के दुक्के पर्यटक ही जहां का लुत्फ उठा पाते हैं

हिमाचल की कांगडा घाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिये ही नहीं मशहूर है, अपितु हिमशिखरों पर बने देवालयों, भोले-भाले लोगों, अनूठी धार्मिक परम्पराओं, रीतिरिवाजों और अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये भी विख्यात है। यहां एक बार आया सैलानी बार-बार आने को लालायित रहता है। वैसे तो इस घाटी में ऐसे अनेक स्थल हैं जो सैलानियों को मोह लेते हैं लेकिन जहां तक भंगाल घाटी का सवाल है, यहां का सौन्दर्य दैवीय है और यहां एक बार की गई यात्रा की स्मृतियां उम्र भर के लिये मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं।

भंगाल कांगडा जिले की सबसे दुर्गम घाटी है और सरकारी कर्मचारी इसे कालापानी तक कह देते हैं क्योंकि यहां अधिकतर क्षेत्रों में न तो सडक मार्ग हैं और न ही जीवन की भौतिक सुविधाएं। वैसे भी बर्फबारी के कारण साल में पांच महीने इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कटा रहता है। घाटी में यातायात के साधन नाममात्र के हैं, अतः सैलानियों का सैलाब तो यहां नहीं उमडता लेकिन रोमांच प्रेमी पर्यटक, घुमक्कड और पर्वतारोहण के शौकीन यहां अक्सर दस्तक देते रहते हैं।

पोलिंग, रूलिंग, नलौता, राजगुंदा, कुकडगुंदा, बडाग्राम और प्लाचक इस घाटी के दर्शनीय स्थल हैं। आकाश का सीना नापते हिमशिखर, झर-झर करते झरने, शीतल हवा के झौंके, तोष, कैल और रई के गगनचुम्बी वृक्ष बरबस ही मन मोह लेते हैं। सभी स्थल छह से दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और यहां का अस्सी फीसदी क्षेत्र जंगल से घिरा है। इन जंगलों से गुजरते हुए भेड बकरियों के झुण्ड के साथ गुजरते गडरिये भी मिलेंगे और दूर कहीं से उठती बांसुरी की मधुर तान भी सुनने को मिलेगी। जडी बूटियां और लकडी चुनने आई हिमबालाओं के लोकगीतों के बोल भी पल भर के लिये ठिठकने को मजबूर कर देंगे।

इस घाटी के विवाह संस्कार निराले हैं। पचास फीसदी विवाह प्रेम-विवाह होते हैं जिन्हे ‘झंझराडा’ कहा जाता है। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रेमी अपनी प्रेमिका को घर ले जाता है और घरवालों को इस शादी के लिये मान्यता प्रदान करनी पडती है। तयशुदा शादियां भी दूर-दराज नहीं होतीं अपितु साथ लगते गांवों में ही तय हो जाती हैं। आमतौर पर लडके या लडकी की शादी इक्कीस वर्ष की उम्र तक हो जाती है। बिरले ही ऐसे युवक-युवतियां मिलेंगे जो पच्चीस वर्ष के हो जाने पर कुंवारे बैठे हों।

‘झंझराडा’ के अलावा विवाह की एक प्रथा ‘बट्टा-सट्टा’ नाम से है। इसके अन्तर्गत विवाह में लडका पत्नी प्राप्त करने के लिये अपनी चचेरी या फुफेरी बहन को अपनी पत्नी के भाई से ब्याहता है। एक अन्य प्रथा ‘चोली-डोरी’ संस्कार है, जिसके अन्तर्गत अपने पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री अपने जेठ या देवर (अगर वह कुंवारा हो) से विवाह कर लेती है। एक अन्य परम्परा ‘बरमाना विवाह’ है। ऐसे विवाह में कन्या का पिता लडके से या फिर उसके मां-बाप से कुछ रुपये ले लेता है और निश्चित राशि मिलने पर अपनी कन्या उस घर में ब्याह देता है।

देवी-देवताओं की इस समाज में बहुत मान्यता है और हर महत्वपूर्ण काम यहां तक कि फसल की बिजाई भी देवता की अनुमति से होती है। ‘अजय पाल’ और ‘गोहरी’ इस घाटी के प्रमुख ग्रामीण देवता हैं। ये देवता प्रतीकात्मक रूप से मन्दिरों में विराजमान हैं और अपने चेलों, जिन्हें गुर कहा जाता है, के माध्यम से जनता को आदेश सुनाते हैं। गुर को देवता का प्रवक्ता माना जाता है और उसकी हर बात को गांववासी सिर मत्थे लेते हैं। उपरोक्त देवताओं के अलावा ‘कैलू’ देवता के प्रति यहां के लोगों की अगाध आस्था है। लेकिन यह देवता आदेश नहीं सुनाता। वास्तव में कैलू शब्द कुल अर्थात वंश का अपभ्रंश है यानी कुल का देवता। इस देवता से सम्बन्धित एक विचित्र बात यह है कि केवल स्त्रियां ही इस देवता की पूजा-अर्चना कर सकती हैं। पुरुषों का देवता के स्थान पर प्रवेश वर्जित है। कैलू देवता की आराधना भी केवल शादीशुदा स्त्रियां ही करती हैं। स्थानीय परम्पराओं के अनुसार जब युवती की शादी हो जाती है, तो उस दिन से वह कैलू देवता की पूजा अर्चना शुरू कर देती है। अगर शादी के बाद लडकी कैलू देवता को अपने ससुराल भी ले जाना चाहे तो उस पर कोई रोक नहीं है। कैलू देवता की स्थापना तब ससुराल पक्ष के घर से कुछ ही दूरी पर कर दी जाती है। यदि ऐसा न हो पाये तो देवता की आराधना के लिये लडकी को अपने मायके आना पडता है।

घाटी के गांवों में किसी के यहां जन्म और मौत पर लोग खेतों पर काम नहीं करते। अगर कोई ऐसा करता है तो उसे जुर्माने के रूप में बकरे या भेडू की बलि देवता को चढानी पडती है। जन्म या मृत्यु की सूचना देने के लिये गांव का एक व्यक्ति पूरे गांव में आवाज लगाता है- जूठ, जूठ। गांववासी इसका अर्थ समझ जाते हैं। घाटी के 95 फीसदी लोग मांसाहारी हैं और शराब के भी शौकीन होते हैं। हर त्यौहार को ये बडे चाव से मनाते हैं और लोकनृत्यों में भी पूरी उमंग से हिस्सा लेते हैं।

इस घाटी के भ्रमण के लिये अप्रैल से मई तक और फिर सितम्बर से नवम्बर तक का मौसम सर्वाधिक उपयुक्त है। जून-जुलाई में भारी वर्षा से भूस्खलन का खतरा हर पल बना रहता है। और दिसम्बर में बर्फबारी से इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कट जाता है। कई बार तो नवम्बर माह के शुरू में ही बर्फबारी से सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं। यहां के रमणीय स्थलों का अस्सी फीसदी सफर पैदल ही तय करना पडता है। अतः केवल रोमांच प्रेमी, घुमक्कड व पर्वतारोही ही इस घाटी के अछूते सौन्दर्य से साक्षात्कार कर सकते हैं।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, नवंबर 05, 2011

पांगी- अब कालापानी नहीं है

हिमशिखरों के बीच पसरा एक जादुई लोक, रहस्य और रोमांच का अनूठा मेल। कभी कालापानी कहा जाता था इसे लेकिन अब यह धारणा बदल रही है। हिमाचल प्रदेश की दुर्गम, जनजातीय घाटी पांगी में जाने वाले सैलानी जब इस जादुई लोक से लौटते हैं तो यहां बार-बार आकर घूमने का सपना उनकी आंखों में झिलमिलाता दिखता है। पहाड, बर्फ, पेड, जडी बूटियों की महक, सरसराती हवाएं, संकरी चट्टानों से बहती नदियों का नाद, हरियाली घाटियां, चरागाहें ही सैलानी को यहां आने का न्यौता नहीं देती, अपितु यहां की समृद्ध संस्कृति, निराली बोलियां, भोले भाले ग्रामीण, अनूठा पहनावा-खानपान और सबसे बढकर जिन्दादिल मेहमानबाजी सैलानी के मन पर इस खूबसूरती से दर्ज हो जाती है कि वह बार-बार यही लौटना चाहता है।

आज का पर्यटक महानगरों की चकाचौंध संस्कृति और फाइवस्टार होटलों से निकल, एकदम शान्त और अछूते स्थलों में जाना चाहता है। जहां चारों ओर प्रकृति ही प्रकृति बिखरी पडी हो, पुरानी सभ्यताओं के अवशेष हों, वन्य प्राणियों का अस्तित्व हो। पांगी घाटी सैलानियों की उम्मीदों पर खरी उतरती है। लेकिन केवल उन्हीं सैलानियों को यह रास आ सकती है जो निजी वाहन को छोड कर पैदल सैर का रोमांच लेना चाहते हों। साहसिक पर्यटन के शौकीनों के लिये तो सचमुच स्वर्ग है यह घाटी।

पांगी घाटी आठ दर्रों से घिरी है और ये सभी दर्रे तेरह हजार फीट की ऊंचाई से सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं। दर्रा साच, दर्रा मध, दर्रा चनैनी, दर्रा द्राटी, दर्रा काली छोह, दर्रा कुगति, दर्रा चोमिया और दर्रा रोहतांग नाम के ये दर्रे हैं। लेकिन पांगी पहुंचने के लिये ये सभी दर्रे नहीं लांघने पडते। क्योंकि ये सब अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं। पांगी पहुंचने के लिये रास्ते भी अलग-अलग हैं। एक रास्ता चम्बा से, दूसरा जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड से और तीसरा लाहौल घाटी के त्रिलोकनाथ से जाता है। इनमें से पांगी के लिये चम्बा और लाहौल से जाने वाले रास्ते तो सर्दियों में भारी बर्फबारी से बन्द हो जाते हैं लेकिन किश्तवाड से होकर जाने वाला रास्ता सर्दियों में भी चालू रहता है। पहले पांगी घाटी पहुंचने के लिये सडक नहीं थी लेकिन अब पांगी घाटी के मुख्यालय किलाड तक सडक पहुंच जाने से यह जादुई लोक सैलानियों के लिये कल्पनालोक नहीं रहा।

चम्बा जिले में करीब चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर पांगी घाटी 1650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। आमतौर पर धारणा है कि यहां पहले बस्तियां नहीं थीं और एक तरह से इसे कालापानी कहा जाता था। जिस तरह अंग्रेज सरकार गुलामी के दौर में आजादी की मशाल उठाने वालों को कालापानी की सजा दे देती थी, उसी तरह दूरवर्ती राज्यों के शासकों द्वारा जिन अपराधियों और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाना होता था, उन्हें यहां धकेल दिया जाता था। कुछ विद्वान यहां के निवासियों को पडोसी क्षेत्रों के उन लोगों का वंशज मानते हैं जो मुस्लिम हमलावरों के बार-बार के हमलों से उकताकर, चैन से अपनी जिन्दगी बिताने के लिये यहां भाग आये थे और यही हिमशिखरों के आगोश में उन्होंने अपने बसेरे बनाकर एक नई दुनिया रच ली। ऐसी मान्यताएं और भी हैं और इनसे जुडी किंवदंतियां भी। अपने नैन-नक्श के हिसाब से यहां के लोग दो श्रेणियों में बंटे हैं। एक वे जिनके नैन-नक्श मंगोलों की तरह हैं और दूसरे वे जिनके नैन-नक्श आर्यों से मिलते जुलते हैं। इन सभी लोगों को पंगवाले कहा जाता है यानी पांगी घाटी के खूबसूरत निवासी। जो प्रकृति के रंग में भी रंगे हैं और मेहमाननवाजी का सलीका भी जानते हैं।

पांगी के लोगों ने अपनी संस्कृति और परम्पराओं को मूल रूप से सहेजकर रखा है। हालांकि आजादी से पहले और बाद में भी मिशनरी पांगी जाते रहे, लोगों को धर्म परिवर्तन की प्रेरणा देते रहे लेकिन भावुक होकर या पैसों के लालच में आकर पंगवालों ने अपनी संस्कृति नहीं छोडी। पांगी के समाज में जागायें (धार्मिक यात्राएं), मेले, सामाजिक त्यौहार और देवीपूजन की परम्पराएं उतना ही महत्व रखती हैं जितनी कि वनस्पतियों के फलने-फूलने में ऋतु चक्र का महत्व है। पांगी में आमतौर पर संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है और घर के बुजुर्ग की आज्ञा की तौहीन करना पंगवालों की फितरत में नहीं है। ऐसे सामाजिक संस्कार हैं इनके। इन संस्कारों के चलते बुजुर्ग भी स्वयं को उपेक्षित महसूस नहीं करते और न ही उनमें कोई हीन भावना पनपती है। पंगवालों में भ्रातृत्व की भावना इतनी बुलन्द होती है कि एक परिवार का सुख-दुख पूरे गांव का साझा होता है।

पांगी घाटी के विवाह संस्कार भी निराले हैं। एक ही गांव में शादियां नहीं की जाती क्योंकि सामाजिक मर्यादा के तहत गांव के युवक-युवतियां भाई-बहन माने जाते हैं। पहले गांव में अपहरण के जरिये अपनी पसंदीदा युवती से शादी की जा सकती थी। लेकिन अब गांववासी जागरुक हो गये हैं, प्रशासन तो सजग है ही। घाटी की लडकियों को जबरन अपना बनाना अब आसान काम नहीं है। पंगवाला समाज में शादियां तीन चरणों में होती हैं जिन्हें पीलम, फरबी और चरबी के नाम से जाना जाता है। शादी में लडकी की सहमति सर्वोपरि मानी जाती है। पहले चरण में लडके-लडकी के अभिभावक अपने बच्चों की शादी तय करते हैं। दूसरे चरण में लडकी परम्परा और कानून की नजर में लडके की जीवनसंगिनी बन जाती है लेकिन लडके के घर नहीं जाती। उसे इंतजार रहता है शादी के तीसरे चरण यानी ‘चरबी’ संस्कार के सम्पन्न होने का, जब दूल्हा बारात लेकर उसे लिवाने आता है। उस रात समूह भोज और नृत्यों का आयोजन होता है।

नाचगाने के तो पंगवाले बहुत शौकीन हैं। सामूहिक नृत्य को घुरेई कहा जाता है। इसमें मर्द-औरतें एक दूसरे का हाथ पकडकर, कदम से कदम मिलाकर नृत्य करते हैं। नृत्यों के दौरान गीतों की तर्ज भी अपनी ही किस्म की होती है और यह नृत्य बडी धीमी गति से किया जाता है। पांगी घाटी के लोकगीतों में पंगवालों का दुख दर्द, घाटी की खूबसूरती, झरने, नाले और बर्फीली ढलानें सजीव होती दिखती हैं। पंगवालों के सजने संवरने का ढंग भी निराला है। महिलाओं का पहनावा तो देखते ही बनता है। चूडीदार पायजामा और ऊपर रंग-बिरंगी चादर, सिर पर जोजी (एक किस्म का आभूषण), कानों में दर्जनों मुरकियां, नाक के लौंग, बाहों में टोके और बंगे, गले में डोडमाला और तबीत की सजावट... भीड में खडी पंगवालिनें दूर से ही दिख जाती हैं। गजब का हुनर भी है पंगवालिनों के हाथ में। रंग बिरंगे डिजाइनदार ऊनी कम्बल, ऊनी पट्टियां, शालें, गुदमें और चटाईयां बनाने में इनका कोई सानी नहीं।

पांगी घाटी में भोट जनजाति के लोक भी रहते हैं लेकिन इनके ठिकाने जांस्कर पर्वत श्रंखला से सटी ऊंची उपत्यकाओं में हैं। ये लोग बौद्ध मत के अनुयायी हैं और गोम्पाओं में जाकर पूजा अर्चना करते हैं। गोम्पाओं में की गई बौद्ध चित्रकला और काष्ठकला देखते ही बनती है। भोट बस्तियों को यहां बोलचाल की भाषा में ‘भुटोरियां’ कहा जाता है। इन भुटोरियों में सुराल भुटोरी, कुमार भुटोरी, हिल्लोटवान भुटोरी, चस्क भुटोरी, हुडान भुटोरी और परमार भुटोरी प्रमुख हैं। ये तमाम भुटोरियां अपनी प्राकृतिक छटा के लिये मशहूर हैं लेकिन यहां पहुंचने के लिये टांगों में खूब दमखम चाहिये। बिना शारीरिक कसरत के प्रकृति के अनूठे सौन्दर्य से तो साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। पांगी घाटी के कुछ गांवों से जुडा एक अजूबा यह भी है कि यहां खेतों में जौं, गेहूं, फुल्लज और भरेस की फसलें एक साथ लहलहाती देखी जा सकती हैं।

पांगी के दर्शनीय स्थलों में धरवास, मिंघल, साच, किलाड, लुज, पुर्थी, सुराल व हुडान प्रमुख है। यहां ठहरने की व्यवस्था वन विभाग के विश्राम गृहों में हो सकती है। अब तो दूसरंचार सुविधाओं से भी जुड गया है पांगी। किलाड-पठानकोट और किलाड-भुन्तर (कुल्लू) हवाई मार्ग से निर्धारित तिथियों को उडानें भरी जाती हैं। सरकारी कर्मचारियों को यहां जनजातीय क्षेत्र की सुविधाएं प्राप्त हैं। अब अत्यन्त दुर्गम और कालापानी नहीं रहा पांगी। धौलाधार, जांस्करधार और पांगीधार की हिमानी श्रंखलाओं से घिरी पांगी घाटी अब गर्मियों के मौसम में सैलानियों की बाट जोहती दिखती है।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, नवंबर 04, 2011

भंगाल- कुदरत की गोद में

धौलाधार की हिममण्डित पर्वत श्रंखलाओं से घिरे कांगडा जिले का एक सुरम्य स्थल है- भंगाल। समुद्र तल से आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रावी नदी के किनारे बसा भंगाल धरती पर प्रकृति का स्वर्ग कहा जा सकता है। तोष, देवदार और कैल के गगनचुम्बी पेडों से सुशोभित इस स्थल में प्रकृति झूमती, गाती, इठलाती प्रतीत होती है।

भंगाल चूंकि सडक मार्ग से नहीं जुडा है, अतः घुमक्कड और रोमांच प्रेमी सैलानी ही यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को आत्मसात कर सकते हैं। इस दुर्गम स्थल का राहुल सांकृत्यायन ने भी भ्रमण किया था। अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है- ‘यहां चार-पांच दर्जन कनैत लोगों के घर हैं। जाडों में हिमपुंज यहां गिरते रहते हैं, जिसके कारण कितने ही घर बह जाते हैं। उपत्यका की तीन दिशाओं में रावी के करीब करीब किनारे कितने ही शिखर हैं, जिनकी ऊंचाईयां 17000 फीट से 20000 फीट है। निचले भागों में कितने ही बहुत सुन्दर देवदार के जंगल हैं और ऊपर कितनी ही हिमानियां हैं।’ भंगाल तालुके का आधा भाग छोटा भंगाल कहा जाता है जो धौलाधार के दक्षिण की ओर फेंकी 10000 फीट ऊंची एक पर्वत श्रेणी द्वारा दो हिस्सों में बांट दी जाती है। यह पर्वत श्रेणी बीड और कोमन्द के ऊपर से फताकाल होती मण्डी की ओर जाती है। इस पर्वत श्रेणी के पूर्व के भूभाग को कोठीसोवार अथवा अन्दरला और बाहिरला बाढ गढ कहते हैं। इसी में अहल नदी का स्रोत है। इस इलाके में कनैत आदि लोगों के 18-19 गांव हैं जो उपत्यका के निचले भाग में बिखरे हुए हैं। इसकी ढलानें बहुत तीखी हैं।

भंगाल की भौगोलिक स्थिति भी बडी दिलचस्प है। इसके उत्तर में लाहौल-स्पीति, उत्तर-पश्चिम में चम्बा और उत्तर पूर्व में कुल्लू जिला स्थित है। यहां तक पहुंचने के भी तीन रास्ते हैं। अगर कांगडा जिले के बीड से जाना हो तो 71 किलोमीटर पैदल चलना पडता है। रास्ते में 15546 फीट ऊंचा थमसर दर्रा भी नापना पडता है। दूसरा रास्ता चम्बा होते हुए है और 45 किलोमीटर का पैदल सफर है। तीसरा रास्ता कुल्लू जिले के पतलीकुहल से है। रास्ते में कालीहनी दर्रा लांघना पडता है। इतना कठिन और दुर्गम सफर तय करने के बाद जब सैलानी भंगाल पहुंचता है तो उसे प्रकृति का एक बिल्कुल नया और अछूता रूप दिखता है। सारी थकावट पल भर में छूमन्तर हो जाती है। ढलानों पर बने यहां के लोगों के रैन-बसेरे और जडी बूटियों की महक सैलानी को किसी स्वप्नलोक में ले जाती है।

भंगाल दो भागों में बंटा है। ऊपर के क्षेत्र को स्थानीय लोग ‘ग्रां’ कहते हैं और नीचे बसा गांव ‘फाली’ कहलाता है। ‘ग्रां’ की प्राचीनता निर्विवाद है। फाली बाद में आबाद हुआ है। क्षेत्र के वयोवृद्ध पूर्व प्रधान दानू राम बताते हैं- भंगाल का पूरा क्षेत्र 204 वर्गमील है। यहां के सभी वाशिंदे कनैत राजपूत हैं। अलग-अलग आठ खानदानों के ये राजपूत अलग-अलग स्थानों से यहां आकर बसे हैं। भंगालिये राजपूत सबसे पहले बंगाल से यहां आकर बसे। उसके बाद लाहौर से हुदिये राजपूत आये।

भंगाल में रावी नदी के साथ कालीहाण की सहायक नदी मिलती है। इस नदी का उदगम ‘रई गाहर’ नामक स्थान से हुआ है और रावी नदी का नाद दूसरी नदियों से अधिक है। रई गाहर को सात बहनों का निवास स्थान माना जाता है। भंगाल क्षेत्र में इस बारे में एक प्राचीन गाथा प्रचलित है। इसके अनुसार रई गाहर में एक प्राचीन दुर्ग था, जिसे हनुमान का किला कहा जाता था। इस किले में ‘सत भाजणी’ (सात भगनियां) रहा करती थीं। इनमें आपस में बहुत स्नेह था। किसी अनकहे कारण या घटनावश एक रात छह बडी बहनें छोटी बहन को सोया छोड रई गाहर से दूर विभिन्न स्थानों को चली गईं। बेचारी छोटी बहन जब जागी, स्वयं को अकेला पाकर रोने लगी। उसके नेत्रों से इतने आंसू बहे कि उन्होंने नदी का रूप धारण कर लिया और स्वयं रावी नदी बन गई। अपने उदगम क्षेत्र में काफी दूर तक रावी का बहाव बहुत तेज, भयंकर आवाज करता है। यह आवाज उसके करुण क्रंदन की है। उसकी बहनों के कान में भी यह घोर ध्वनि पहुंची। वे जान गईं कि उनकी लाडली बहन निराश, हताश, असहाय पडी रो रही हैं। वे भी रो पडी और रोते रोते नदियां बन गईं। इस प्रकार वे सात बहने, सात भजणियां, विभिन्न उदगमों से प्रवाहित होने लगीं। उनका नाम पडा- गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलुज, व्यास और चिनाब।

रावी भले ही आज देश की अन्य नदियों की भीड-भाड में खोई-खोई लगे, किन्तु वैदिक काल में इस नदी ने समाज तथा राष्ट्र के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऋग्वेद में रावी, जिसे तब ‘परुष्णी’ कहा जाता था, काफी चर्चित थी। इसकी गणना सप्त सिन्धु अथवा सप्त नदों में होती थी। शायद यही वैदिक कालीन विश्वास की ही प्रतिच्छाया है कि भंगाल के लोग सतभाजणी को देवी रूप में पूजते हैं। इसके अलावा लोग यहां अजयपाल, केलंग वीर, शिवशक्ति, इलाके वाली भगवती, डंगे वाली भगवती और मराली देवी के उपासक हैं। गांव में इन सभी देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। गांववासी इन देवताओं की रहनुमाई में ही सारा कामकाज करते हैं। यहां तक फसल की बिजाई व कटाई भी।

सर्दियों के दिनों में भंगाल कई-कई फीट बर्फ से ढक जाता है। इन दिनों यहां के अधिकतर वाशिंदे बीड और बैजनाथ क्षेत्र में आ बसते हैं। कुछ लोग चम्बा चले जाते हैं। यहां इन्होंने अपने घर बनाये हैं और कृषि योग्य भूमि भी खरीद रखी है। भंगाल पंचायत के प्रधान श्री प्रेमदास ने तो बीड में बहुत खूबसूरत घर डाला है और जीप रखी है। गर्मियां वह भंगाल में ही गुजारते हैं।

भंगाल के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय भेड बकरी पालन है और जडी बूटियों की भी इन्हें खासी पहचान है। भंगाल में आजादी के इतने सालों बाद भी बिजली नहीं पहुंची लेकिन आयुर्वेदिक औषधालय, गार्डखाना, पटवारखाना, प्राइमरी स्कूल, आंगनबाडी केन्द्र और राशन का डिपो जैसी सुविधाएं लोगों को मुहैया हैं। यहां किसी तरह अगर सडक बन जाये तो जालसू दर्रे के रास्ते भंगाल तक साल में सात-आठ महीने आवागमन बना रह सकता है।

भंगाल के लोगों की वेशभूषा भी निराली है और आगन्तुक को सहज ही आकर्षित करती है। पुरुष ऊनी चोला, कमर पर काला डोरा और सिर पर पगडी पहनते हैं। महिलाएं गद्दिनों की तरह चादरु ओढती हैं और ‘लुआंचडी’ भी लगाती हैं। लुआंचडी यहां की महिलाओं के परम्परागत परिधान का नाम है।

लेख: इकबाल

सन्दीप पंवार के सौजन्य से