सोमवार, सितंबर 26, 2011

भरमौर- गद्दियों का देश

भरमौर पहुंचने का रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। चम्बा से खडामुख तक करीब पचास किलोमीटर की दूरी बस द्वारा तय की जा सकती है। खडामुख से भरमौर जीप या बस द्वारा भी जाया जा सकता है। खडामुख और भरमौर के बीच रावी नदी बहती है।

चम्बा से करीब 65 किलोमीटर दूर एक खूबसूरत घाटी है- भरमौर। इसे ‘शिव की भूमि’, ‘गद्दियों का देश’ और ‘मन्दिरों की घाटी’ भी कहा जाता है। भरमौर का प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। आज से एक हजार वर्ष पूर्व यह ब्रह्मपुर नामक रियासत थी जिसकी नींव सन 550 में मारू वर्मा ने रखी थी। मारू वर्मा का सम्बन्ध भगवान राम के सूर्यवंश से जोडा जाता है। एक ऐतिहासिक कथा के अनुसार मारू वर्मा ने यहां ब्रह्मपुर रियासत की स्थापना करने के बाद अपने बेटे जयप्रकाश को गद्दी पर बिठाया था।

पाणिनी (600-700 ई.पू.) ने इस क्षेत्र के लोगों के लिये ‘गब्दिक’ और घाटी के लिये ‘गब्दिका’ शब्द प्रयुक्त किये हैं। गब्दिक का अर्थ गद्दियों की बस्ती कहा जाता है। समुद्र तल से करीब सात हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित भरमौर आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक चम्बा की राजधानी भी रही। कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भरमौर ‘ब्राह्मौर’ से अपभ्रंश होकर बना है। ब्राहमौर का नाम ब्राह्मणी देवी से जोडा जाता है जिसकी यहां बहुत मान्यता है। कहा जाता है कि ब्राह्मणी देवी के नाम से ही यहां का नाम पहले ब्राह्मौर पडा जो फिर धीरे धीरे बिगडता हुआ भरमौर हो गया। स्थानीय लोक कथाओं के अनुसार ब्राह्मणी देवी के इस स्थल पर कभी पुरुष का रात्रि विश्राम करना वर्जित था। ऐसा करने पर देवी नाराज हो जाती थी। लेकिन इसके बाद एक ऐसी घटना घटी जिससे न केवल इस स्थल की ख्याति दूर-दराज तक फैल गई अपितु यह स्थान ‘सिद्ध’ स्थल के रूप में विख्यात हो गया।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एक बार चौरासी सिद्ध जोकि मणिमहेश जा रहे थे, रात होने पर इस रमणीक स्थल में रुक गये। तभी एक अत्यन्त रूपवती कन्या उनके समक्ष प्रकट हुई और उसने उनसे यह स्थान तत्काल छोड देने का विनम्र अनुरोध किया। कन्या ने सिद्धों को बताया कि इस स्थल पर पुरुषों का रात्रि ठहराव वर्जित है, अतः उन्हें यह परम्परा नहीं तोडनी चाहिये। कन्या के चेहरे से इतना तेज फूट रहा था कि चौरासी सिद्ध उसके अनुरोध के आगे नतमस्तक हो उठे और वहां से चलने की तैयारी करने लगे। उसी समय भगवान शिव वहां प्रकट हुए और उन्होंने ब्राह्मणी देवी को कहा कि उनके भक्त इतनी रात में भला कहां जायेंगे। अतः तुम ही अपना निवास कहीं और स्थानान्तरित कर लो। यह आदेश देकर भगवान शिव लोप हो गये। उनका आदेश मान ब्राह्मणी देवी सिद्धों को आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गईं।

सुबह जब भरमौर के तत्कालीन नरेश साहिल वर्मन ने इस वर्जित स्थल पर साधुओं को समाधिस्थ देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। ये सिद्ध अवश्य ही कोई देवपुरुष होंगे- यह सोचकर साहिल वर्मन ने हर उस स्थान पर मन्दिर बनाने का आदेश दिया जहां वे लोग बैठे थे। इन सिद्धों में एक चरपटनाथ भी थे, जिसका साहिल वर्मन हमेशा के लिये अनुयायी बन गया। सिद्ध चरपटनाथ के आदेश पर ही साहिल वर्मन ने अपनी राजधानी को भरमौर से चम्बा स्थानान्तरित कर लिया।

भरमौर पहुंचने का रास्ता खडामुख से होकर जाता है। चम्बा से खडामुख तक करीब पचास किलोमीटर की दूरी बस द्वारा तय की जा सकती है। खडामुख से भरमौर जीप या मिनी बस द्वारा भी जाया जा सकता है। खडामुख और भरमौर के बीच रावी नदी बहती है। भरमौर कई तरह के फूलों के वृक्षों से सजी ऐसी खूबसूरत घाटी है जहां कदम रखते ही सारी थकान पलभर में छू-मन्तर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढकी रहती है।

इसी दिलकश घाटी में रहते हैं गद्दी लोग। छल कपट से कोसों दूर इन लोगों का परिश्रम स्तुतीय है और सौन्दर्य बेमिसाल। गद्दिनों को तो कुछ घुमक्कड ‘हिम कन्याओं’ की संज्ञा भी देते हैं। स्त्रियां प्रायः सूती कमीज पहनती हैं, जिसे कुर्ती कहा जाता है। नीचे यह घाघरा पहनती हैं जो विशेष प्रकार का बना होता है और जिसके साथ पूरे बाजू का चोलीनुमा कुर्ता सिला होता है। घाघरे और कुर्ते के ऊपर कमर में वे काले रंग का डोरा बांधती हैं। काली भेडों की ऊन से बना यह डोरा पन्द्रह से बीस मीटर लम्बा होता है और चोले पर इस ढंग से बांधा जाता है कि इस पर असंख्य सिलवटें बन जाती हैं। इस डोरे को गात्री कहा जाता है। यह गात्री गद्दियों के वस्त्रों को यथास्थान रखने के अलावा उनको चुस्त-दुरुस्त भी रखती है। सिर को नंगा रखना गद्दिनें अपशकुन समझती हैं। सिर ढकने के लिये ये लम्बी चौडी ओढनी ओढती हैं जिसे स्थानीय भाषा में घुंडू कहा जाता है। चांदी के आभूषणों से गद्दिनों को बहुत लगाव होता है। शरीर के विभिन्न अंगों पर पहने ये आभूषण गद्दिनों के सौन्दर्य को चार चांद लगा देते हैं।

गद्दियों का पहनावा भी काफी आकर्षक है। मर्द कमीज के ऊपर पट्टू से बना हुआ कलीदार चोगा पहनते हैं। यह चोगा घुटनों तक लम्बा होता है और कडकती ठण्ड से उनका बचाव करता है। सर्दियों में यह लोग ऊनी पाजामा पहने हैं। गद्दिनों की तरह गद्दी भी कमर में काला रस्सा लपेटते हैं। गद्दियों का यह चोगा बहुत काम का है और आडे मौसम में वे दो-चार नवजात मेमने भी इसमें रख सकते हैं।

यहां के लोगों का व्यवसाय खेती-बाडी व पशुपालन है। खेती-बाडी के लिये चूंकि यहां जमीन कम है, अतः पशुपालन विशेषकर बकरी व भेड-पालन पर ही ये लोग ज्यादातर निर्भर हैं। अपनी बकरियों व भेडों के रेवडों के साथ ये सारा वर्ष घूमते रहते हैं। सितम्बर-अक्टूबर में ये लोग निचले इलाकों में आ जाते हैं और गर्मियों में अपने ठिकानों को लौट पडते हैं।

सुनसान, दुर्गम और खतरनाक रास्तों में गद्दियों के अंगरक्षक उनके कद्दावर कुत्ते होते हैं जो जंगली जानवरों से भेडों-बकरियों और यहां तक कि अपने मालिक की रखवाली भी करते हैं। ये कुत्ते बहुत खूंखार होते हैं और जंगली भालू तक को आसानी से धूल चटा देते हैं।

गद्दी लोग प्रकृति के सबसे करीब रहते हैं। रात को खुले आकाश तले जब और जहां भी चाहें, पडाव डाल लेते हैं। स्वभाव से मस्त-मौला और फक्कड ये गद्दी लोग विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते।

यहां का गद्दी नृत्य विशुद्ध परम्परागत है और अनूठा वैशिष्ट्य लिये है। मैदानों के लोग भी गद्दी नृत्यों को बडे चाव से देखते हैं। मुखौटा लगाकर स्वांग करना भी यहां के लोगों को बखूबी आता है। मैदानों से जब गद्दी लोग अपने रेवडों सहित ठिकानों पर लौटते हैं, तो खूब नाच-गाना होता है, गीत संगीत की महफिलें जुटती हैं।

भरमौर को मन्दिरों की घाटी भी कहा जाता है। यहां के चौरासी मन्दिर काष्ठकला और शिल्प का अद्वितीय नमूना है। गद्दियों की इन मन्दिरों के प्रति गहन आस्था है। उनके मत में इन मन्दिरों में शीश झुकाने से भोले शंकर प्रसन्न हो जाते हैं। भोले शंकर के अगाध उपासक ये गद्दी सचमुच में इस घाटी में देव उपस्थिति के प्रतीक हैं। ये अलमस्त प्राणी निश्चय ही इस घाटी में गूंजता एक धार्मिक संगीत है।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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बुधवार, सितंबर 21, 2011

नैना देवी- 52 शक्तिपीठों में एक

माता नैना देवी का प्रसिद्ध शक्तिस्थल पंजाब के प्रसिद्ध स्थान श्री आनन्दपुर साहिब से 9 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में एक तिकोनी पर्वतमाला पर स्थित तारालय नामक चोटी पर स्थित है। इस पावन स्थान पर माता नैना देवी के वर्ष भर में तीन मेले चैत्र, श्रावण तथा आश्विन मास में जुडते हैं। श्रावण मास के मेले में सबसे अधिक संख्या में श्रद्धालु आते हैं। श्रावण मेला श्रावण शुक्ल एकम से नवमी तक चलता है। यह स्थान विश्व के कुल 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मां सती के नयन इसी स्थान पर गिरे थे। इसीलिये इस स्थान का नाम नैना देवी पडा।

नैना देवी मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि लगभग 1240 वर्ष पहले चंदोही (राजस्थान) के राजा वीर चन्द को स्वप्न में दिखाई दिया कि यदि वह इस स्थान पर देवी की पूजा अर्चना करेगा तो एक बडे राज्य का राजा बनेगा। अनेक कठिनाईयों के बावजूद राजा वीरचन्द ने यह स्थान खोज निकाला और इस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया।

माता नैना देवी के भवन के भीतर तीन मूर्तियां हैं जो दर्शनीय हैं। विशेषता उस अन्दर वाली मूर्ति की मानी जाती है जिसके मात्र दो स्वर्ण नयन ही दिखाई देते हैं। मन्दिर के साथ ही एक हवन कुण्ड भी बना हुआ है जिसकी विशेषता यह है कि इसमें डाली गई सारी सामग्री जलकर उसके बीच में ही समा जाती है। भवन से कुछ ही दूरी पर एक प्राचीन गुफा भी है। श्रद्धालुजन उसके भी श्रद्धा भाव से दर्शन करते हैं।

भवन से 100 मीटर की दूरी पर एक सरोवर है जिसमें स्नान करने का अत्यन्त महत्व माना जाता है। पहले तो श्रद्धालुओं को आनन्दपुर साहिब से ही पैदल चलकर जाना पडता था मगर अब नैना देवी की यात्रा काफी आसान हो गई है क्योंकि पहले कीरतपुर साहिब से बसें चलती थीं और भवन से दो किलोमीटर पीछे ज्यूना मोड की समाधि तक जाती थीं मगर अब यहां से ट्राली सिस्टम शुरू हो चुका है जिससे यात्री गुफा के पास तक पहुंच जाते हैं।

अनेक श्रद्धालु आज भी आनन्दपुर साहिब से और कुछ कोला वाला टोला से पैदल चढते हैं। अनेक श्रद्धालु सारा रास्ता दण्डवत करते हुए भी तय करते हैं।

लेख: सत प्रकाश सिंगला

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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मंगलवार, सितंबर 20, 2011

अजब-गजब, पर है बडा कूल... चिन्दी

चिन्दी के मन्दिर पर छत बनाने की सारी कोशिशें नाकामयाब हो जाती हैं, तो करसोग के एक मन्दिर में पांडवों के समय का 40 सेंटीमीटर लम्बा और 250 ग्राम वजन वाला गेहूं का दाना नजर आता है। नैसर्गिक खूबसूरती के बीच बसी इन दोनों घाटियों पर गुलशन निर्वाण की नजर:

हिमाचल में इतनी सैरगाहें हैं कि वह समूचा राज्य अपने आप में सैरगाहों का पर्याय बन गया है। शिमला, कुल्लू-मनाली, धर्मशाला, डलहौजी, खजियार आदि न खत्म होने वाली सैरगाहों की फेहरिस्त है वहां। पर वहां की दो ऐसी घाटियां हैं, जो पर्यटकों के दिलो दिमाग में दर्ज नहीं हैं, बावजूद इसके कि प्रकृति ने उन्हें भी उतनी ही खूबसूरती बख्शी है, जितनी बाकी सैरगाहों को। यह हैं चिन्दी और करसोग की घाटियां।

6 हजार फीट की ऊंचाई पर बसा चिन्दी सेबों की सरजमीं है। अप्रैल के महीने में पेड पूरी तरह फूलों से लदे होते हैं। हरित चादरों से ढके मैदानों के बीच अलसाये से गांव एक अजीब सा सुकून देते हैं।

चिन्दी जाने वाली सडकें काफी संकरी हैं पर भीड कम होने के कारण इनका संकरापन ज्यादा अखरता नहीं। नालदेहरा की बगल से होते हुए आप सतलुज नदी के तट पर जा पहुंचते हैं, जिसे आप 32 किलोमीटर दूर तत्तापानी जाकर पार करते हैं। यहां पर गरम पानी के झरने हैं, जिनमें स्नान किये बिना आगे बढना नामुमकिन है। यहीं से दर्शनीय स्थलों की श्रंखला शुरू होती है। कस्बे से बाहर निकलते ही शिवजी की गुफा के बोर्ड पर नजर जा ठहरती है। उस ओर करीब दो किलोमीटर आगे बढने पर उस गुफा की ओर रास्ता जाता है। इस गुफा को 1986 में खोजा गया था। इसमें एक बहुत बडा शिवलिंग और उसके साथ अन्य देवताओं के प्रतीक के रूप में बने अनेक शिवलिंग स्थापित हैं।

वापस आने पर अब सडक ऊपर की ओर चढती है। करीब 30 किलोमीटर आगे धारमौर से करीब 1 किलोमीटर आगे बढने पर एक सडक मूल महूनाग मन्दिर की ओर जाती है। घने जंगलों के दस किलोमीटर मार्ग पर बाखेडा आता है, जहां सुप्रसिद्ध महुनाग के मन्दिर हैं। ये मन्दिर ‘कर्ण’ को समर्पित हैं।

मेन रोड पर वापस आने पर चिन्दी केवल 10 किलोमीटर दूर रह जाता है। वहां के गांव में चिन्दी माता का मन्दिर है। ट्रेकिंग करने के शौकीन यहां स्थित शिकारी देवी तक 22 किलोमीटर की ट्रेकिंग कर सकते हैं।

यह मन्दिर बीहड जंगलों से अटी पहाडियों से घिरा हुआ है, जिनमें जडी-बूटियों का खजाना छिपा है। यहां से कुल्लू और लाहौल पर्वतीय श्रंखला की बरफ से ढकी पहाडियां नजर आती हैं। यहां के मन्दिर के बारे में एक अजीब बात यह है कि इसकी छत बनाने की कई बार कोशिश की गई, पर हर बार किसी कारणवश यह कोशिश नाकामयाब रही। लोगों का कहना है कि देवी प्रकृति को समर्पित है और इसलिये इसे अपने और प्रकृति के बीच में कोई रुकावट पसन्द नहीं। चिन्दी से 22 किलोमीटर दूर पंगाना है, जो कभी सुकेत राजाओं की राजधानी था। यहां पर एक किला भी है।

जिन सैलानियों में प्रबल धार्मिक भावनाएं होती हैं, उनके लिये चिन्दी से 13 किलोमीटर दूर करसोग घाटी एक वरदान साबित होती है। कटोरे के आकार की इस घाटी के साथ कई अंधविश्वास और किंवदंतियां प्रचलित हैं। आसपास की पहाडियों पर चिन्दी माता, शिकारी देवी और महूनाग का निवास स्थान है। यहां के भूतेश्वर मन्दिर और ममलेश्वर मन्दिर के बारे में मान्यता है कि इन्हें पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान बनवाया था। करसोग शब्द, कर्तव्य और सोग यानी दुख से मिलकर बना है।

भूतेश्वर मन्दिर में पांच मुंह वाले शिवजी की प्रतिमा है, जिनके पीछे महाकाल की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के बारे में यह मान्यता है कि इसे जो भी देखता है, उसकी मौत हो जाती है। इसलिये वहां के पुजारी तक आरती करते समय अपना मुंह फेरकर पूजा करते हैं। करसोग के बाजार से दो किलोमीटर दूर ममलेश्वर मन्दिर के अहाते में शिवलिंगों का अनूठा संग्रह है और भीतर पार्वती और शिव की खूबसूरत प्रतिमाएं हैं, जिनकी नाभि में हीरा जुडा है। यहां के लोग एक ढोलक को भीम की ढोलक बताते हैं और वहां के पुजारी गेहूं का एक दाना दिखाकर कहते हैं कि यह पांडवों के काल का है। गेहूं का यह दाना 40 सेंटीमीटर लम्बा है और इसका वजन 250 ग्राम है।

घाटी से 5 किलोमीटर आगे बढने पर एक छोटा सा गांव आता है ‘काओ’। यह कामाक्षा देवी की भूमि है। इसमें पहाडी वास्तुकला और नक्काशी के साथ-साथ पगौडा स्टाइल का अभूतपूर्व संगम नजर आता है। इसकी मूर्ति लाल रंग के ब्रोकेड और आभूषणों से सुसज्जित है। माना जाता है कि नवरात्र के दिनों में यह देवी अपने भक्तों पर जरूर कृपा करती है। यह मन्दिर गुवाहाटी के सुप्रसिद्ध कामाख्या देवी मन्दिर का प्रतीक माना जाता है।

कैसे जायें

चिन्दी शिमला से 90 किलोमीटर दूर है। आप विश्राम करने के लिये वहां या नालदेहरा में ठहर सकते हैं।

कहां ठहरें

यहां ठहरने के लिये हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम (एचपीटीडीसी) का होटल ममलेश्वर है। यह होटल सेब के बगीचे के बीच बना है। यहां आरामदायक सस्ते बजट के कमरे और अच्छा भोजन उपलब्ध है।

यह लेख हिन्दुस्तान में 25 नवम्बर 2006 को छपा था।

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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मुसाफिर हूं यारों- नीरज जाट का यात्रा ब्लॉग

गुरुवार, सितंबर 15, 2011

धर्मशाला घाटी- सैलानियों का सदाबहार आकर्षण

धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की एक खूबसूरत घाटी है जहां वर्ष भर सैलानियों का तांता लगा रहता है। यहां कांगडा जिले का मुख्यालय भी है। धर्मशाला के दो भाग हैं। एक समुद्र तल से साढे छह हजार और दूसरा चार हजार फीट पर स्थित है। दोनों भागों में अनेक दर्शनीय पर्यटन स्थल हैं। इस घाटी को ‘वर्षा नगरी’, ‘मिनी तिब्बत’ व ‘पहाडों की मलिका’ भी कहा जाता है। प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं से भी यह घाटी सम्पन्न है।

देवदार व चीड के पेडों से सुसज्जित, अथाह नैसर्गिक सौन्दर्य, समृद्ध पुरावैभव और इतिहास समेटे धर्मशाला घाटी हिमाचल प्रदेश की एक ऐसी खूबसूरत घाटी है जहां वर्ष भर सैलानियों का तांता लगा रहता है। धर्मशाला को जिला कांगडा का मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त होने के साथ-साथ ‘वर्षा नगरी’, ‘मिनी तिब्बत’, ‘पहाडों की मलिका’ जैसी अनेक उपमाएं दी जाती हैं। बेहद वर्षा होने के कारण सैलानियों ने इसे ‘वर्षानगरी’ कहना ही शुरू कर दिया। तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय, भव्य बौद्ध मन्दिर और महामहिम दलाई लामा का निवास भी यही होने के कारण यहां बौद्ध धर्म के अनुयायियों का तांता लगा रहता है और इसी वजह से इसे ‘भारत में मिनी तिब्बत’ का खिताब भी मिल गया। सांप सी बलखाती सडकें, धौलाधार की नयनाभिराम श्रंखलाएं, खुशगवार हवा के झौंके इसे ‘पहाडों की मलिका’ की उपमा से सुशोभित करते हैं।

धर्मशाला एक ऐसा स्थान है जिसमें आदिकाल से लेकर वर्तमान काल तक गिगर्त अंचल की प्राचीन विरासत, संस्कृति और परम्पराओं को पूरा सम्मान और संरक्षण मिला है। धर्मशाला के दो भाग हैं- ऊपरी भाग और निचला भाग। ऊपरी भाग समुद्र तल से साढे छह हजार फीट ऊंचा है और निचला भाग चार हजार फीट पर है। दोनों ही भागों की ऊंचाई में दो से ढाई हजार फीट का अन्तर है। मैक्लोडगंज, भागसूनाग, धर्मकोट, त्रियुण्ड, डल झील, करेरी झील, इलाका, कालीकुण्ड और लमडल झील अगर ऊपरी भाग के खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं तो निचले भाग के पर्यटन स्थलों में कुनाल पथरी, चैतडू, पठियार, श्री चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम, चिलया तपोवन प्रमुख हैं। ऊपरी भाग में मैक्लोडगंज और भागसूनाग तक तो सडक सुविधा है लेकिन प्राकृतिक सुषमा से भरपूर बाकी स्थानों पर पहुंचने के लिये टांगों में दमखम चाहिये। घुमक्कडों और पर्वतारोहण के शौकीनों के लिये यह स्थल सचमुच स्वर्ग है।

धर्मशाला पहुंचने के लिये सैलानी को कोई दिक्कत पेश नहीं आती। दिल्ली, चण्डीगढ, हरिद्वार, देहरादून, शिमला, लुधियाना, जालन्धर, पठानकोट और अम्बाला से यहां के लिये सीधी बस सेवाएं उपलब्ध हैं। पठानकोट से छोटी पटरी पर चलने वाली रेलगाडी में सफर का भी निराला ही लुत्फ है। कांगडा या ज्वालामुखी रेलवे स्टेशन पर उतरकर धर्मशाला के लिये बस पकडी जा सकती है। निकटतम हवाई अड्डा गगल है और यहां से टैक्सी करके या बस द्वारा धर्मशाला पहुंचा जा सकता है।

धर्मशाला घाटी घूमने के लिये कम से कम दो-तीन दिन का कार्यक्रम बनाना जरूरी है। ठहरने की कोई दिक्कत नहीं है। पर्यटन विभाग के होटलों के अलावा ढेरों होटल व सराय यहां पर हैं। धर्मशाला के ऊपरी भाग की सैरगाहों में घूमने के बाद आप वहां तम्बू कालोनी, वन विभाग के विश्रामगृह व अन्य छोटे-छोटे होटलों में टिक सकते हैं।

मैक्लोडगंज: धर्मशाला नगर से 9 किलोमीटर दूर स्थित मैक्लोडगंज तिब्बतियों की एक बस्ती का नाम है। इस बस्ती में बौद्ध धर्म की गहरी छाप है। तिब्बतियों का भव्य बौद्ध मन्दिर भी यहीं है और निर्वासित तिब्बती सरकार का मुख्यालय भी। तिब्बतियों के धार्मिक व आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा का निवास भी यहीं है। यहां के बौद्ध मन्दिर में बौद्ध इतिहास की कई दुर्लभ पुस्तकें संग्रहीत हैं और देश-विदेश से बौद्ध भिक्षु यहां इन पुस्तकों का अध्ययन करने भी आते हैं। एक तरह से मैक्लोडगंज बौद्ध धर्म का वैसा ही केन्द्र बन गया है जैसा कभी तक्षशिला था। मन्दिर में हर समय लामा लोग पूजा-पाठ में तल्लीन रहते हैं और बौद्ध मन्त्र ‘ॐ मणि पद्मे हुमं’ का जाप करते रहते हैं। मैक्लोडगंज में यत्र-तत्र चट्टानों पर बौद्ध मन्त्र अंकित हैं। मैक्लोडगंज में तिब्बती होटल भी हैं जहां तिब्बती भोजन का आनन्द उठा सकते हैं।

मैक्लोडगंज का सेंट जॉन चर्च भी दर्शनीय है। यह चर्च लंदन के सेंट पॉल चर्च के नमूने पर अभियन्ता क्रिस्टोफर रे की दिमागी सूझबूझ का एक सजीव उदाहरण है। इस चर्च के शीशों पर जो चित्र उकेरित हैं, उस प्रकार के चित्र हमें वेटिकन सिटी के चर्च में ही मात्र दिखाई देते हैं। इसी चर्च के प्रांगण में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड एल्गिन का स्मारक है जिनकी वर्ष 1862 में यहां मृत्यु हो गई थी। चर्च के प्रांगण में एक कब्रिस्तान है।

भागसूनाग: मैक्लोडगंज से तीन किलोमीटर दूर भागसूनाग के प्राकृतिक दृश्य चश्मे, जलधाराएं बडे मनोहारी लगते हैं। यहां भागसू नामक राजस्थान के एक राजा का जल की प्राप्ति के लिये एक नाग देवता से युद्ध हुआ था। यहां भागसू एक मन्दिर भी है जो शिल्प का बेजोड नमूना है। इस मन्दिर में वर्ष भर तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहता है और राधाष्टमी को लोग डल झील और भागसूनाग के जल स्रोतों में स्नान करके मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। नवरात्रों और श्रावण के महीनों में श्री नैना देवी, चिन्तपूर्णी, ज्वालामुखी और चामुण्डा देवी के दर्शनों के लिये आने वाले हजारों श्रद्धालु भागसूनाग के मन्दिर की यात्रा को भी एक सुफल मानते हैं। इसके अतिरिक्त बैसाखी और शिवरात्रि के दिनों में भी यहां बहुत बडा मेला लगता है।

डल झील: मैक्लोडगंज से तनन गांव के रास्ते में पडने वाली डल झील प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर होने के साथ-साथ धार्मिक आस्था का केन्द्र भी है। इसके किनारों पर ऊंचे-ऊंचे देवदार के वृक्षों की घनी कतारें तथा उनके ऊपर पहाडियों पर ओक व वन वृक्ष के जंगल स्वर्गीय शान्ति व आनन्द का सुखद वातावरण प्रस्तुत करते हैं। यह झील अब सिकुड रही है लेकिन कभी इसका मूल कई मीटर गहरा था। अंग्रेजों के शासनकाल में यहां नौकाएं चलती थीं तथा कई अन्य जल क्रीडाओं का आयोजन भी किया जाता था। इस अण्डाकार झील के किनारे दुर्वेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर भी है। इस मन्दिर की प्राचीनता का भाव इससे भी होता है कि इसका वर्णन शिव पुराण में भी किया गया है।

करेरी झील: भागसूनाग की यात्रा करने के बाद ऊपरी भाग में ही समुद्र तल से साढे छह हजार फीट की ऊंचाई पर एक अन्य झील भी है। करेरी गांव से 14 किलोमीटर आगे स्थित इस झील को करेरी झील के नाम से जाना जाता है। यह झील चारों ओर से बुरांश, चीड और देवदार के वन से घिरी है। इस झील के जल में यह विशेष गुण है कि अगर किसी उच्च रक्तचाप के रोगी को इसका सेवन कुछ माह तक करवाया जाये तो वह स्वस्थ हो जाता है।

करेरी झील की प्राकृतिक आभ, हिमाचल की खजियार (चम्बा) और रिवालसर (मण्डी) की झीलों की तरह है लेकिन प्रदेश सरकार व पर्यटन विभाग इस झील की सुन्दरता बरकरार रखने के प्रति उदासीन की दिखता है और यही कारण है कि सिकुडकर इस झील का आकार निरन्तर छोटा होता जा रहा है। सर्दियों में जब इस क्षेत्र में बर्फ की चादर बिछ जाती है तो यह झील पूरी तरह जम जाती है। करेरी झील में एक बडी शिला पर शिवजी का मन्दिर है। शिव भक्तों ने यहां सैंकडों त्रिशूलें गाड रखी हैं। करेरी में वन विभाग का एक विश्रामगृह है जो 1922 में अंग्रेजों ने बनवाया था।

त्रियुण्ड: धर्मकोट के ऊपर समुद्र तल से 9300 फीट की ऊंचाई पर त्रियुण्ड नामक स्थान है। इस स्थल से हम बर्फ से आच्छादित धौलाधार श्रंखलाओं और सम्पूर्ण कांगडा घाटी का सौन्दर्यावलोकन कर सकते हैं। यहां पर उगते और डूबते सूर्य का दृश्य देखकर यूं लगता है मानों धरती और आसमान मिल गये हों। धर्मकोट से त्रियुण्ड तक का पूरा रास्ता घने वृक्षों से होकर जाता है और रंग-बिरंगे पक्षी यात्रियों का मन मोह लेते हैं।

शहीद स्मारक: धर्मशाला नगर में स्थित शहीद स्मारक भी दर्शनीय है। चीड के घने व खूबसूरत पेडों से घिरा यह स्थल सात एकड भूमि पर फैला है। इस शहीद स्मारक की काली संगमरमर की दीवारों पर हिमाचल के उन 1042 शहीद सैनिकों के नाम अंकित हैं जिन्होंने आजादी के बाद से 1971 की लडाई तक मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति दी थी। इस स्मारक की बगिया में खिले गुलाबी, लाल व सफेद गुलाब जन्म, जीवन और मृत्यु के प्रतीक हैं।

कुनाल पथरी: धर्मशाला के कोतवाली बाजार से तीन किलोमीटर दूर माता कुनाल पथरी का भव्य मन्दिर है जो एक पत्थर पर बना है। बौद्ध काल में इस स्थान पर सम्राट अशोक का एक सेनापति रहता था। अशोक की मृत्यु के बाद स्थानीय घन्यारा गांव के एक राणा ने उसका इस स्थान पर वध किया था।

चामुण्डा धाम: चामुण्डा धाम को भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। बैजनाथ-पठानकोट मार्ग पर मलां नामक स्थान से करीब पांच किलोमीटर दूर बाणगंगा नदी के एक छोर पर स्थित यह स्थल चारों तरफ से खूबसूरत धौलाधार पहाडियों से घिरा है।

यह मन्दिर मुख्य रूप से शिव व दुर्गा का है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पहले मां चामुण्डा का मन्दिर पडता है, इसमें मां चामुण्डा की एक भव्य मूर्ति स्थापित है।

मन्दिर की परिक्रमा के मुख्य द्वार के निकट कोने में दबी एक विशाल शिला पर मां चामुण्डा के चरण व शिवलिंग के चिह्न अंकित हैं। यात्रियों के ठहरने के लिये सराय व मुफ्त लंगर का प्रबन्ध है।

लेख: इकबाल

5 अक्टूबर 1994 उमंग

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मुसाफिर हूं यारों- नीरज जाट का यात्रा ब्लॉग

बुधवार, सितंबर 14, 2011

धर्मशाला- बारिश का एक शहर

धर्मशाला को सिटी ऑफ रेन यानी पावस की नगरी कहा जाता है। यों तो भारत में सबसे अधिक वर्षा चेरापूंजी में होती है। दूसरा नम्बर धर्मशाला का है। जुलाई के शुरू होते ही आकाश में बादल घुमडने लगते हैं। सफेद पर सलेटी, सलेटी पर सुरमई पर्तें बिछने लगती हैं। और बिजली की चमक तो थमती ही नहीं। बरसात के दिनों में बिजली लगातार चमकती रहती है। आसमान का उजाला धरती को अवलोकित किये रहता है। धर्मशाला में 269.41 सेमी बरसात होती है। यही वे दिन होते हैं जब मौसम सुहावना होता है वर्ना गर्मियों में धर्मशाला का अधिकतम तापमान 32.6 डिग्री सेल्शियस और न्यूनतम 22.2 डिग्री सेल्शियस होता है। मैदान में इतना तापमान गर्म नहीं माना जाता पर इस तापमान में धर्मशाला में घर से बाहर निकलते नहीं बनता। सवेरे नौ बजे धूप चिलचिलाने लगती है।

हिमाचल पर्यटन निगम धर्मशाला को हिल स्टेशन के रूप में प्रचारित करता है पर हिल स्टेशन के रूप में इस शहर का विकास नहीं हुआ है। यहां होटल बहुत महंगे हैं। सरकारी होटलों में एकमात्र सस्ती जगह होटल भागसूनाग है या छोटे-मोटे प्राइवेट गेस्ट हाउस हैं। होटल भागसूनाग और गेस्ट हाउस मैक्लोडगंज में हैं जो धर्मशाला से नौ किलोमीटर दूर ऊंचाई पर है। होटल भागसूनाग हरे-भरे देवदारों के बीच में टेकडी पर बना हुआ है। ज्यादातर विदेशी यहां अड्डा जमाये रहते हैं।

समुद्रतल से धर्मशाला की ऊंचाई 1250 मीटर है। जुलाई और अगस्त (जो भयंकर बरसात के दिन होते हैं) को छोडकर अप्रैल से नवम्बर तक यहां रहा जा सकता है। दिसम्बर में सर्दी पडने लगती है। सर्दियों में अधिकतम तापमान 14.7 डिग्री और न्यूनतम 6.5 डिग्री होता है। मैक्लोडगंज को अपर धर्मशाला कहा जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 1768 मीटर होने के कारण यहां सर्दियों में बर्फ पड जाती है। लोवर धर्मशाला और मैक्लोडगंज के बीच में धर्मशाला छावनी है।

कोतवाली बाजार यहां का मुख्य बाजार है। पर धर्मशाला शहर खासा तंग है और सफाई की भी कमी है। दुकानों के सामने दुकानदार और तो और कई बार ग्राहक अपने स्कूटर पार्क कर देते हैं जिससे रास्ता और भी तंग हो जाता है।

पावस की नगरी कहलाने के बावजूद लोवर धर्मशाला में उतनी हरियाली नहीं है। ऊपर छावनी और मैक्लोडगंज का इलाका बहुत हरा भरा है। देवदार, ओक तथा रोडोडेंड्रन के घने जंगल हैं।

मैक्लोडगंज को ‘लामानगर’ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। यहां दुकानों की चार कतारों वाला छोटा सा बाजार है। जिनके पास दुकानें नहीं, वे पटरियों पर सामान फैलाए बैठे रहते हैं। किरियाने के सामान से लेकर आयातित स्लीपिंग बैग, कन्धे पर लटकाने वाले झोले और तिब्बती हैण्डीक्राफ्ट तक सबकुछ मिल जाता है। एक खास तरह के तिब्बती जूते भी मिलते हैं जिन्हें पहनकर लामा मुखौटा नृत्य करते हैं।

मैक्लोडगंज बाजार के अन्त में एक टेकडी है। यहां सडक दो हिस्सों में बंट गई है। दाहिनी ओर जाने वाली सडक का नाम है खडा डण्डा मार्ग। यहां एक बोर्ड लगा हुआ है जिसपर लिखा हुआ है- वेलकम टू लिटल ल्हासा बट बाइकाट चाइनीज गुड्स। लिटल ल्हासा में छोटे-बडे स्कूल, लाइब्रेरी और तिब्बत मेडिकल इंस्टीट्यूट के अलावा खंचिंग किशुंग यानी केन्द्रीय तिब्बती सचिवालय भी है। यहां से ‘तिब्बत बुलेटिन’ और ‘तिब्बतन रिव्यू’ नाम से पत्र और ‘डायलोमा’ और ‘तिब्बतन जर्नल’ नाम से दो पत्रिकाएं निकलती हैं।

खडा डण्डा मार्ग पर एक गोम्पा है जिसके सामने दलाई लामा रहते हैं। उनका आवास सुन्दर और बडा है। गोम्पा और उनके आवास के बीच में एक बाग है। दलाई लामा से मिलने के लिये भारत सरकार से इजाजत लेनी पडती है।

गोम्पा (बौद्ध मन्दिर) का पण्डाल काफी बडा और सजा हुआ है। दीवारों पर कपडे पर ‘पेण्ट’ की हुई महात्मा बुद्ध के जीवन की झलकियां लटकी हुई हैं जिन्हें तिब्बती भाषा में थांगा कहते हैं। अलमारियों में कंजु यानी लामा धर्म की शिक्षाओं की पोथियां सुन्दर जिल्दों में बंधी हुई हैं।

लिटल ल्हासा में स्त्री लामाओं के रहने की जगह गोम्पा से काफी हटकर नीचे बस्ती में है। बडे आश्चर्य की बात है कि अधिकांश जम्मो (स्त्री लामा) निरक्षर होती हैं जबकि लामा साक्षर होते हैं। परम्परा के अन्तर्गत बौद्ध लामाओं के लिये सबसे ऊंची डिग्री गीशे है जो डाक्ट्रेट के बराबर होती है। गीशे चार होते हैं- हरम्पा गीशे, थोकरम्पा गीशे, धोरम्पा गीशे और लिंग्शे गीशे।

धर्मशाला में सैलानियों के लिये दर्शनीय डल झील और करेरी झील, भागसूनाग और सेण्ट जॉन चर्च हैं। डल और करेरी झील धर्मशाला से बहुत दूर हैं। रास्ता जंगल से होकर है। सेण्ट जॉन चर्च दूरी के हिसाब से धर्मशाला छावनी और मैक्लोडगंज के बीच में सडक से कुछ हटकर बना हुआ है। पास का बस स्टॉप पल्सेटगंज है। चर्च की ऊंची खिडकियों के कांच पर बडी सुन्दर रंगीन चित्रकारी की हुई है।

सेण्ट जॉन चर्च के बाहर खुले में मोटे, मजबूत लकडी के चौखटे के सहारे अष्टधातु का बना एक विशाल घण्टा लटका हुआ है। बजाने पर उसकी मीठी अनुगूंज बहुत देर तक सुनाई देती है। यह घण्टा सन 1915 में लंदन में ढाला गया था। इस पर अंग्रेजी में एक सन्देश लिखा हुआ है- ईसा मसीह के सैनिक, उठो और शस्त्र धारण करो। सेण्ट जॉन चर्च के कब्रिस्तान में लॉर्ड एल्गिन की कब्र है जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण करता है। लॉर्ड एल्गिन अंग्रेजों के शासनकाल में भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल थे। उनका देहान्त धर्मशाला में 20 नवम्बर 1863 को हुआ।

भागसूनाग के लिये मैक्लोडगंज से रास्ता अलग होता है। यहां भागसूनाग जलकुण्ड और एक शिव मन्दिर है। भागसूनाग तक पक्की सडक है। टैक्सियां यात्रियों को धर्मशाला से भागसूनाग लाती हैं। मैक्लोडगंज से पैदल भी जा सकते हैं। रास्ता आसान है और पहाडों के ख्याल से अधिक दूर भी नहीं है। भागसूनाग का जलकुण्ड काफी बडा है। पानी निकलकर नीचे एक दूसरे कुण्ड में जाता है जिसमें लोग तैरते हैं। बहुत ठण्डा होने के कारण तैराक दो चार हाथ मारकर बाहर आ जाते हैं और चट्टानों पर पसर कर धूप सेंकते हैं। थोडी देर बाद फिर नहाने चल पडते हैं।

धर्मशाला से शिला के रास्ते कांगडा जाओ तो खनियारा गांव रास्ते में पडता है। इस गांव में खरोष्ठी लिपि में शिलालेख देखे जा सकते हैं। ये लेख महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं हैं।

धर्मशाला से नौ किलोमीटर ट्रेकिंग करके त्रिउण्ड जा सकते हैं। पहाड की चोटी पर एक डाक बंगला है। यहां पहुंचकर रात में धर्मशाला की जगमगाती रोशनी को देखना बहुत अच्छा लगता है। घना जंगल होने के कारण रात में यहां जंगली जानवर घूमते रहते हैं। त्रिउण्ड की ऊंचाई समुद्र तल से 9382 फीट होने के कारण यह बडी ठण्डी और सुहावनी जगह है।

लेख: जगन सिंह

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मंगलवार, सितंबर 13, 2011

पांगी- अद्वितीय सौन्दर्य

हमारे भारत का सौन्दर्य असीम है। एक ही देश में बर्फीले पहाड, वन्य जीवों से भरे घने जंगल, विशाल समुद्र, सुनहरे रेगिस्तान और तरह-तरह के त्यौहार सिर्फ भारत में ही देखने को मिलते हैं। इसी भारत के कुछ स्थल इतने दुर्गम हैं, जहां साल के कुछ महीनों में ही पहुंचा जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में ऐसा ही एक स्थल है पांगी घाटी। यदि आप लीक से हटकर हिमालय की आत्मा को टटोलना चाहते हैं, तो निश्चित ही आपको पांगी घाटी जाना चाहिये।

पांगी चम्बा जिले की एक तहसील है, लेकिन यहां जाने के लिये आपको या तो मनाली से जाना होगा या जम्मू से किश्तवाड होते हुए। वैसे, सरकार साचपास होते हुए पांगी को सीधे चम्बा से जोडने के लिये सडक बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन साचपास पर अत्यधिक बर्फ होने के कारण इस काम में काफी दिक्कत आ रही है। (साचपास से होकर सडक बन चुकी है और गर्मियों में बर्फ पिघलने पर बसें भी चलती हैं। -नीरज जाट)

मनाली से पांगी घाटी जाने के लिये बस या जीप सुविधा उपलब्ध है। यहां से रोहतांग पास, केलोंग और उदयपुर होकर पांगी पहुंचा जा सकता है। इस रास्ते से जून से अक्टूबर तक ही जाया जा सकता है, यानी यह रास्ता साल में सिर्फ चार महीनों के लिये खुलता है। यह पूरी यात्रा प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। एक तरफ बर्फ से ढके पहाड, तो दूसरी तरफ चन्द्रभागा नदी, जो बाद में चिनाब के नाम से जानी जाती है। पांगी के पूर्व में लाहौल घाटी, उत्तर में लद्दाख की जांस्कर और पदम घाटी पश्चिम में जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले की किश्तवाड तहसील (अब किश्तवाड जिला) और दक्षिण में चम्बा जिला है। दुर्गम रास्तों के कारण यहां सैलानी कम ही आते हैं। इस वजह से यहां खाने व रहने के अच्छे होटलों की कमी है, लेकिन यहां पीडब्ल्यूडी ने लगभग सभी जगह जीप के लायक सडक बना दी है। साथ ही इसी विभाग के रेस्ट हाउसों में रहा भी जा सकता है। वैसे जब आप ऐसी किसी दुर्गम जगह की यात्रा करें तो हर परिस्थिति के लिये खुद को तैयार रखें।

पांगी घाटी का हेडक्वार्टर किलाड में है। यह एक छोटा सा शहर है लेकिन यहां कई सरकारी कार्यालय हैं, जिस वजह से यहां आधुनिक सुविधाएं भी मिल जाती हैं। पांगी घाटी में सैलानियों के देखने लायक कई जगहें हैं। यदि आप कश्मीर की ओर जायें तो रास्ते में किलाड से दस किलोमीटर दूर धारवास नामक बेहद खूबसूरत जगह है। यहां पास ही सुराल नाला है, जिसके कुछ ऊपर पानी का एक स्रोत है, जिसे तिलमिल पानी कहते हैं। यहां के लोगों का मानना है कि इस पानी में कई औषधीय गुण हैं और यह तपेदिक जैसे असाध्य रोगों को भी ठीक कर सकता है। वैसे इस पर कई देशी-विदेशी संस्थाओं द्वारा रिसर्च की जा रही है। आप धारवास से 15 किलोमीटर दूर सुराल घाटी में जा सकते हैं, जो उत्तर में कश्मीर की जांस्कर घाटी से मिलती है। किलाड से आप हुडान घाटी की भी सैर कर सकते हैं, जो यहां से मात्र 13 किलोमीटर दूर स्थित है। वहां से आप भोटोरी होकर शिव चोटी के आधार तक जा सकते हैं। भोटोरी से कुछ आगे ही सुजाट नामक एक छोटी सी झील है, जहां हर साल 16 और 17 जुलाई को एक मेला लगता है, जहां इस घाटी के लोग बडे हर्षोल्लास से सम्मिलित होते हैं।

किलाड से ही आप सैंचू व पाटन घाटियों का भ्रमण कर सकते हैं। यहां का नैसर्गिक सौन्दर्य निश्चय ही आपका मन मोह लेगा। हिमाचल रोडवेज की छोटी बसों अथवा जीपों से यहां पहुंचा जा सकता है। ट्रेकिंग के शौकीनों के लिये भी यहां बहुत कुछ है। किलाड से आप साचपास पार करके चम्बा घाटी में प्रवेश कर सकते हैं। सुराल घाटी से आप शिव शंकर जोत (सरसंक पास) पार करके जांस्कर घाटी में जा सकते हैं। हुडान घाटी से तिंगलोट जोत पार करके सुराल घाटी में आया जा सकता है व यही से परमार जोत पार करके सैंचू घाटी में जाया जा सकता है। यहां ट्रेकिंग का मौसम जुलाई से सितम्बर के बीच होता है। इन रास्तों पर जाने के लिये यहां के लोकल गाइड, रहने के लिये टेंटों और खाने के लिये अपनी व्यवस्था होनी बहुत जरूरी है।

भोटोरी शब्द का इस्तेमाल यहां भोटिया लोगों के गांवों के लिये किया जाता है। वैसे पांगी घाटी में ज्यादातर हिन्दू हैं, जिन्हें पांगवाल कहते हैं, लेकिन यहां सुराल, हुडान, सैंचू व पाटन घाटियों में ऊंचाई पर भोटिया लोगों के घर हैं, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी होते हैं। इनका पहनावा व भाषा घाटी के अन्य लोगों से अलग होती है। ये मुख्य रूप से खेती करते हैं व भेड, बकरी, गाय व याक भी पालते हैं। यहां खेती के लिये सिर्फ पांच महीने ही मिल पाते हैं, इसलिये ये साल में सिर्फ एक फसल ही ले पाते हैं। इन्हीं पांच महीनों में ये घर के लिये लकडी, राशन आदि इकट्ठा करते हैं। अधिकतर पांगवाल लोगों को किलाड में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी मिली हुई है, लेकिन भोटिया लोग सर्दियों में जम्मू, पठानकोट, बिलासपुर, दिल्ली जैसी जगहों पर जाकर काम करते हैं और गर्मियां आने पर अपने गांव वापस आ जाते हैं। इतने कठिन वातावरण में रहने के बावजूद इनके चेहरे हमेशा मुस्कराते मिलेंगे।

पांगी के लोग बहुत ही सुन्दर होते हैं। शायद इसी कारण पांगी को सुन्दर चेहरों की घाटी (वैली ऑफ ब्यूटीफुल फेसेज) कहा जाता है। यदि आप थोडा साहस कर सकते हैं, तो वापसी में मनाली से न आकर गुलाबगढ, किश्तवाड होकर जम्मू के रास्ते से आइये। यकीनन आपकी यह यात्रा और भी अविस्मरणीय हो जायेगी। यह रास्ता सालभर खुला रहता है।

पांगी जाने का सबसे अच्छा समय जून के मध्य से अक्टूबर के मध्य तक है।


लेख: सोमनाथ पाल

28 फरवरी 2007 नवभारत टाइम्स

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सोमवार, सितंबर 12, 2011

नैना देवी- सती के नयनों से जुडा पावन शक्तिपीठ

नयना देवी जो जन सामान्य में नैना देवी के नाम से भी प्रसिद्ध है, हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जनपद में एक त्रिकोणाकार पहाडी की चोटी पर अवस्थित प्रख्यात पुरातन शक्तिपीठ है। यह पंजाब की सीमा के भी काफी समीप है। नैना देवी के लिये नंगल से भी बसें चलती हैं और बिलासपुर से भी। बिलासपुर से नैना देवी 80 किलोमीटर दूर है। जिन दिनों मोटर की सुविधा नहीं थी, लोग आनन्दपुर साहिब से पैदल ही कौलां टोबा होते हुए माता के चरणों में पहुंचते थे। उस पैदल मार्ग से नैना देवी स्थल मात्र 9-10 किलोमीटर पडता था।

नैना देवी के चरणों से बहने वाला जल चरण-गंगाके नाम से ख्यात है। यह जलधारा आनन्दपुर साहिब के उत्तर की ओर से बहती हुई सतलुज में जा मिलती है। आज भी कुछ श्रद्धालु इसका अभिषेक करके कौलां वाला टोबाकी ओर बढते हैं, जिसका पुरातन नाम कौलसर है। कभी यहां कमल के फूल खिलते थे जिस कारण ऐसा नाम पडा।

नैना देवी बस स्टैण्ड से मां के मन्दिर तक पहुंचने के लिये 761 पक्की सीढियां हैं। ऊपर की अनेक सीढियों पर संगमरमर लगी हैं। नीचे से देखें तो ऊंचाई पर स्थित मन्दिर का दृश्य बडा भव्य दिखता है। आधे रास्ते में पुजारियों के घर आते हैं। अब मन्दिर की व्यवस्था सरकार के अधीन है। किंवदंती है कि देवी के मन्दिर की मूल स्थापना पांडवों द्वारा द्वापर युग में सम्पन्न हुई थी। पर वर्तमान स्वरूप में इसका निर्माण बिलासपुर नरेश राजा वीरचन्द द्वारा आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व संवत 697-730 विक्रमी में हुआ था। मन्दिर में भगवती के दर्शन पिण्डीरूप में होते हैं जिस पर नेत्र के निशान हैं। यह श्री विग्रह स्वयंभू है- किसी के द्वारा निर्मित या स्थापित नहीं है।

यह पावन शक्ति स्थल सती प्रसंग से भी जुडा बताते हैं। दक्ष यज्ञ विध्वंस जगजाहिर प्रकरण है। कहते हैं कि शिवजी सती के विरह से व्याकुल होकर उसके मृत शरीर को कन्धे पर उठाये जब तीनों लोकों में उन्मत्त घूमने लगे तो भगवान विष्णु से उनकी यह दुर्दशा सही न गई। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से सती की देह के टुकडे-टुकडे कर दिये। वे अंग 52 स्थानों पर गिरे जहां पर कालान्तर में शक्तिपीठ स्थापित हुए। सती के नेत्र (नयन) नैना देवी में गिरने से इसका यह नाम पडा। ऐसा भी प्रसिद्ध है कि भगवती की प्रेरणा से ही 14वीं सदी में नैना नामक गूजर ने इस स्थान की खोज की थी। उसकी अनब्याही एक गाय इस पिण्डी पर आकर खडी हो जाती और उसके स्तनों से स्वतः दूध निकल पडता। कहलूर (बिलासपुर) के इतिहास के सर्वप्रथम ग्रंथ शशि-वंश विनोदमें भी यह प्रकरण वर्णित है। भगवती ने अपने अन्वेषक नैना गूजर को अपने नाम से जोडकर सदा के लिये अमर कर दिया।

एक पुरातन पुस्तिका श्री नयना महिषमर्दिनी महिषालय पीठ महात्म्यके अनुसार भगवती दुर्गा ने महिषासुर का वध इसी पर्वत पर किया था। उन्होंने अपने त्रिशूल से उसकी आंखें (नयन) निकालकर अपनी पीठ के पीछे जैसे ही फेंकी तो समस्त देवता और ऋषि मुनि जय नयने’ ‘जय नयनेका घोषनाद करने लगे। इस तरह भी मां महिषमर्दिनी दुर्गा यहां नयना महिषमर्दिनीनाम से विख्यात हुईं।

गुरु गोविन्दसिंह ने भी नयना पीठ में शक्ति उपासना की थी। कहते हैं कि जगदम्बा ने प्रसन्न होकर उनको खड्ग प्रदान किया था जिसके बल पर उन्होंने आततायी मुगलों से लोहा लिया था। यहीं उन्होंने चण्डी चरित्रचण्डी की वारकी रचना की थी। यह हवन कुण्ड आज भी विद्यमान है जहां उन्होंने सवा लाख मन हवन सामग्री से होम किया था। भक्तजन इसे आश्चर्य ही मानते हैं कि इस हवन कुण्ड में भी लाखों मन सामग्री हवन किये जाने पर भी भस्मी आदि निकालने की आवश्यकता नहीं होती। शनैः शनैः सबकुछ इसी में समा जाता है। यही नहीं, वर्ष में एक-दो बार ऐसा अलौकिक दृश्य होता है कि मन्दिर के शिखर पर, पीपल के पत्ते पत्ते पर, कलश, ध्वजा, लोहे के जंगले, यहां तक कि श्रद्धालु भक्तजनों के हाथों पर स्वतः ज्योतियां जगमगा उठती हैं। परन्तु न वस्त्र जलता है और न शरीर पर उष्णता ही अनुभव होती है।

मन्दिर के पास में ब्रह्म कपाली कुण्डव एक प्राचीन गुफा भी अवलोकनीय है। गोविन्द सागर झील का मीलों लम्बा दृश्य यहां से दूर नहीं है। इस चोटी से प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा मनमोहक है- एक ओर पंजाब का मैदानी भू-भाग और दूसरी ओर हिमाचल की पर्वत श्रंखलाएं। बरसात में कई दफा घनी धुंध छाई होती है। यहां का श्रावण शुक्ल अष्टमी मेला विशेष प्रसिद्ध है। मां नयना देवी अपने भक्तों की सब मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। आंखों के कई रोगी यहां चांदी की आंखेंभी चढाते हैं। वाम-मार्ग के प्रचलन से कभी यहां पशु-बलि भी बहुतायत में थी। खुशी की बात है कि ऐसे घृणित पाशविक कृत्य अब लुप्तप्रायः हैं।

लेख: गिरिधर योगेश्वर

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रविवार, सितंबर 11, 2011

सदाबहार मौसम का राजा- नाहन

बर्फीले पर्वतों के आंचल में सिमटा हिमाचल प्रदेश अनगिनत प्राकृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों का स्वामी है। शहर की भीड, प्रदूषण व तेज आवाजाही से दूर। आइये, आज हिमाचल प्रदेश के 3647 मीटर ऊंचे चूडधार पर्वत की गोद में बसे नाहन की सैर करें। नाहन की समृद्ध प्राकृतिक सम्पदा व खूबसूरती से प्रभावित होकर 1621 में राजा करण प्रकाश ने इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया था। अपने सदाबहार मौसम के कारण आज भी नाहन देश-विदेश के पर्यटकों को सम्मोहित करता है।

जगन्नाथ मन्दिर: वर्षा ऋतु के अन्तिम चरण में बावन द्वादशी महोत्सव के लिये प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर की स्थापना 1681 में राजा बुध प्रकाश ने की थी। इस अवसर पर शहर के सभी प्रमुख मन्दिरों की मूर्तियों की शोभा यात्रा का आयोजन किया जाता है। बाद में भगवान जगन्नाथ की नमस्क्रिया स्वरूप की इन मूर्तियों को इसी मन्दिर में निर्मित कुण्ड में विसर्जित कर दिया जाता है।

बाला सुन्दरी मन्दिर: आदि शिवलिंग सदृश्य देवी बाला सुन्दरी की पिण्डी की पूजा केवल इसी जगह होती है। मन्दिर के प्रांगण में दो अन्य छोटे मन्दिर भी स्थापित हैं। वर्ष में दो बार यहां पारम्परिक मेले का आयोजन भी किया जाता है।

शिवालिक जीवाश्म पार्क साकेति: मध्ययुगीन काल में इस धरती पर पाये जाने वाले अनेकानेक जीव-जन्तुओं के अवशेष इस स्थान की खुदाई के दौरान प्राप्त हुए जोकि मानव विज्ञान में अब तक की गई खोजों में प्रमुख है। नाहन से करीब 22 किलोमीटर दूर साकेति में ही इन जीवाश्मों के वास्तविक आकार के फाइबर ग्लास से निर्मित मॉडल स्थापित किये गये हैं जिन्हें देखकर रोमांच व आश्चर्य की मिलीजुली अनुभूति होती है।

कैसे जायें

वायु मार्ग: नाहन पहुंचने के लिये दिल्ली से देहरादून व चण्डीगढ तक वायुदूत द्वारा हवाई सेवा का प्रबन्ध किया गया है। हिमाचल में स्थित शिमला तक भी वायुसेवा उपलब्ध है। हवाई यात्रा के इच्छुक पर्यटकों को इन तीनों पडावों के बाद सडक मार्ग द्वारा अपनी यात्रा जारी रखनी पडेगी।

रेल सेवाएं: नाहन से 100 किलोमीटर की दूरी पर अम्बाला जंक्शन व 65 किलोमीटर की दूरी पर पौण्टा साहब रेलवे स्टेशन हैं। इन दोनों स्थानों के लिये कई रेल सेवाएं उपलब्ध हैं। (पौण्टा साहिब में कोई रेल सेवा नहीं है। हां, चण्डीगढ व देहरादून भी पास ही हैं। -नीरज जाट)

सडक मार्ग: इस पर्यटन स्थल तक पहुंचने के लिये दिल्ली मुख्यद्वार लांघकर ही पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से नाहन जाने के लिये शाहबाद, नारायणगढ, काला अम्ब से होते हुए नाहन पहुंचा जा सकता जा सकता है या फिर दिल्ली, पीपली, यमुनानगर, कालेसर से पौण्टा साहिब और वहां से 45 किलोमीटर दूर नाहन की दूरी तय की जा सकती है। नाहन से साकेति पार्क की दूरी 22 किलोमीटर है।

लेख: सिमरन

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शनिवार, सितंबर 10, 2011

हुडान घाटी- हिमाचल का अद्वितीय सौन्दर्य

हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे स्थान हैं, जहां आप साल में चार-पांच महीने ही जा सकते हैं। चम्बा जिले की पांगी तहसील में स्थित हुडान घाटी ऐसे ही स्थानों में से एक है।

हुडान घाटी तक जाने का मार्ग पांगी के मुख्यालय किलाड से होकर है। सडक मार्ग द्वारा किलाड जाने के दो रास्ते हैं, पहला मनाली, रोहतांग पास, केलोंग, उदयपुर होकर व दूसरा जम्मू से किश्तवाड, गुलाबगढ होकर। हालांकि गुलाबगढ मार्ग को सालभर खुला रखने का प्रयास किया जाता है, लेकिन यह मार्ग केवल स्थानीय लोगों द्वारा ही प्रयोग किया जाता है। पर्यटक कश्मीर में आतंकवाद की समस्या के कारण आमतौर पर इस मार्ग का प्रयोग नहीं करते। हम बारह लोगों के ग्रुप ने भी जब हुडान घाटी जाने का कार्यक्रम बनाया तो मनाली वाले मार्ग का ही प्रयोग करने का निश्चय किया।

दिल्ली से हम लोग एक एसी बस द्वारा मनाली पहुंचे। यहां हमने एक दिन आराम कर रास्ते की थकान उतारने का निर्णय लिया व मनाली के हिडिम्बा माता के मन्दिर में दर्शन किये। यहां से केलोंग व उदयपुर हिमाचल रोडवेज की बस द्वारा भी जा सकते हैं लेकिन हमने जीप द्वारा जाने का निर्णय लिया ताकि हम रास्ते में अपनी मर्जी के अनुसार प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द ले सकें। अगले दिन सुबह हमारी जीप यात्रा शुरू हुई व कोठी, गुलाबा व मढी होते हुए हम रोहतांग पास पर पहुंच गये। यहां चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी, सफेद बर्फ को काली सडक चीरती हुई जा रही थी। यह देखकर हमें एहसास हुआ कि हर साल गर्मियों में बर्फ काटकर उसके नीचे से सडक निकालकर उसे यातायात के लायक बनाने में सीमा सडक संगठन यानी बीआरओ को कितनी मेहनत करनी पडती होगी। मन ही मन हमने उनके निर्भीक व समर्पित कर्मचारियों को नमन किया। इसके बाद हमने केलोंग के लिये प्रस्थान किया। कोकसर, तांदी होते हुए हम मनाली से 115 किलोमीटर का सफर तय कर लगभग साढे छह घण्टों में लाहौल घाटी के मुख्यालय केलोंग पहुंच गये। भागा नदी के किनारे बसा यह छोटा सा शहर है।

यहां के रहने वाले अधिकतर निवासी जनजातीय हैं व बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। शायद यही कारण था कि यहां तीन प्रसिद्ध बौद्ध मोनेस्ट्री भी हैं- कारदांग, शैशूर व तायल, जोकि दूर से ही बहुत मनमोहिनी दिखती थीं। कुछ देर केलोंग घूम कर हम किलाड के लिये रवाना हो गये। यहां से एक बार पुनः हम तांदी आये व उदयपुर, शौर होते हुए देर शाम तक किलाड पहुंच गये। सारी राह चन्द्रभागा नदी के साथ-साथ थी। तांदी के निकट भागा नदी का संगम चन्द्रा नदी से हो जाता है व यहां से यह नदी चन्द्रभागा यानी चिनाब नदी के नाम से जानी जाती है। किलाड एक छोटा सा शहर है व पर्यटकों के रहने के सीमित साधन हैं। वैसे तो यहां कुछ ढाबेनुमा होटल हैं, जहां रहने की व्यवस्था हो जाती है, लेकिन रहने का सर्वोत्तम साधन तो पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस ही है।

अगले दिन सुबह हमने हुडान घाटी की यात्रा शुरू की। वैसे तो हुडान घाटी में स्थित टकवास गांव तक हिमाचल पथ परिवहन निगम की जीप जा रही थी, लेकिन हमने छोटे मार्ग से पैदल जाने का निर्णय लिया ताकि हम घाटी के प्राकृतिक सौन्दर्य को आराम से देख सकें। कुछ दूर पैदल चलने पर हमें दूर से पवित्र शिव चोटी के दर्शन हुए। रास्ते में आने वाले कवास व भटवास गांवों को लांघते हुए हम एक झरने के समीप आकर फिर मुख्य मार्ग पर आ गये। यहां का शीतल जल पीने के बाद हमने फिर छोटे मार्ग की चढाई की व टकवास गांव पहुंच गये।

गांव के सभी लोग अपनी छतों पर खडे हुए बडी उत्सुकता से हमें देख रहे थे। शायद इस गांव में सैलानी कभी-कभी ही आते हैं इसलिये हमारा यहां आना उन्हें अटपटा लगा। दोपहर हो चली थी व आसमान में बादल घिरने लगे थे। इसलिये हमने टकवास में ही रहने का निर्णय लिया। यहां रहने के लिये कोई होटल नहीं हैं, लेकिन गांव वाले पर्यटकों को जरुरत पडने पर अपने घरों में ठहरा लेते हैं व उनके भोजन की व्यवस्था भी कर देते हैं। इस गांव के सभी लोग हिन्दू धर्म के मानने वाले थे व उनके घरों की सजावट व महंगे फर्नीचर को देखकर लगता था कि ये लोग काफी समृद्ध थे। हर घर में बिजली व पानी की व्यवस्था थी व घरों में कलर टीवी भी थे। यहां पूछने पर पता लगा कि यहां के हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को योग्यता के अनुसार किलाड में नौकरी मिली हुई है। खेती के अतिरिक्त यह अतिरिक्त आय ही इनकी सम्पन्नता का मुख्य कारण है। सच है कि ग्रामीणों का अपने मूल निवास स्थान पर ही रोजगार मिल जाये तो वे अपना घर छोडकर महानगरों में नौकरी की खोज में क्यों जायें?

अगले दिन सुबह हम अपनी आगे की यात्रा पर चल दिये। राह में एक टुण्डरू नामक गांव को पार कर लगभग चार किलोमीटर की यात्रा करने के उपरान्त हम भोटोरी पहुंचे। यहां छोटे-छोटे तीन गांव थे- गुरशुरू, भानू व अन्तरो। हमने कयास लगाया कि भोटोरी का नाम शायद भोटिया लोगों के कारण पडा हो। यहां के भानू गांव के निवासी देशराज से मालूम हुआ कि यहां के निवासी शताब्दियों पूर्व भूटान से आये थे, इसी के चलते इनकी भाषा भी घाटी के अन्य निवासियों से भिन्न है।

देशराज ने हमें बताया कि यहां से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर सजोट नामक एक छोटी सी झील है। हम अपने आप को वहां जाने से नहीं रोक पाये। लगभग 40 मिनट पैदल चलने के उपरान्त हम झील पर पहुंच गये। यहां पत्थरों की सीमा से एक गोल अहाता सा बनाया हुआ था जिसके सामने पत्थरों की सीढियां थीं। श्री देशराज ने हमें बताया कि हर साल 16-17 जुलाई को यहां एक मेला लगता है व पूरी हुडान घाटी के लोग इसमें शामिल होते हैं। इस गोल अहाते में लोकगीतों व लोक नृत्यों का कार्यक्रम होता है व उस समय यह झील भी पानी से लबालब भर जाती है। यहां से एक रास्ता इलिटवान होकर शिव चोटी की तरफ जाता है, दूसरे रास्ते से तिंगलोट जोत पार कर सुराल घाटी में जाया जा सकता है व तीसरे रास्ते से परमार जोत पारकर सैन्चू घाटी में जाया जा सकता है। अभी ये सारे रास्ते जबरदस्त बर्फ से ढके थे। वैसे यहां से कश्मीर की पदम घाटी जाने का रास्ता भी है। यह जानकारी हम जैसे घुमक्कडों के लिये बहुत उपयोगी थी। सुजोट झील में झलकती हुई बर्फ से पहाडों की परछाई बहुत ही मनभावन लग रही थी। एक तरफ से तो हम सबकी परछाई भी झील के पानी में झलकने लगी।

इन सब मोहक दृश्यों का आनन्द लेते हुए हम झील के किनारे बैठ गये। तभी एक छोटी सी बालिका अंजली हम सबके लिये एक बडे थर्मस में चाय लेकर आई। बारह हजार फीट की ऊंचाई पर यह चाय हमें अमृत से कम न लगी व हमने इसके लिये अंजलि को अनेकों आशीर्वाद दिये। यहां के लोगों की सादगी व अपनत्व देखकर हमारी आंखें नम हो गईं। हममें से कितनों ने अपने शहर में किसी अनजान लोगों को चाय या पानी के लिये पूछा होगा। यह प्यार तो ऐसी ही किसी निर्जन जगह पर मिल सकता है। यहां की कठिन जिन्दगी को जी रहे लोग ही किसी के दर्द और जरुरत को समझ सकते हैं। हम जिस अछूती सुन्दरता व मानवता को तलाशने इस स्थान पर आये थे, वह सपना साकार हो गया था। यहां की न भूलने वाली यादों को लिये हुए हम वापस आ गये। लेकिन अभी भी रह-रहकर वहां की यादें मन मस्तिष्क में भर जाती हैं।

कैसे पहुंचें:

· नजदीकी हवाई अड्डा- कुल्लू में भुन्तर जम्मू।

· नजदीकी रेलवे स्टेशन- चण्डीगढ व जम्मू।

· सडक मार्ग- मनाली व जम्मू दोनों तरफ से किलाड जा सकते हैं।

· मनाली से किलाड की दूरी लगभग 240 किलोमीटर है। किलाड से हुडान घाटी में स्थित भोटोरी लगभग 13 किलोमीटर दूर है, जिसमें से 9 किलोमीटर की यात्रा जीप द्वारा भी की जा सकती है।

कब जायें

मिड जून से मिड अक्टूबर तक। लेकिन यात्रा का सम्पूर्ण आनन्द लेना है तो जुलाई में लगने वाले मेले का आनन्द अवश्य लेना चाहिये।

यात्रा वृत्तान्त: सोमनाथ पाल

5 जुलाई 2006 नवभारत टाइम्स

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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