यह लेख 30 जुलाई 2006 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।
यह बडी रोचक बात है बारिश के मौसम में जब पहाडों पर जाना खतरनाक माना जाता है, वहीं भारत में शिव के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्वतीय स्थानों- कैलाश, छोटा कैलाश, मणिमहेश, अमरनाथ आदि के लिये सालाना यात्राएं इसी बारिश के मौसम में होती हैं। देवेन्द्र शर्मा का आलेख:
यूं तो देश की ज्यादातर पहाडियों में कहीं न कहीं शिव का कोई स्थान मिल जायेगा, लेकिन शिव के निवास के रूप में सर्वमान्य कैलाश पर्वत के भी एक से ज्यादा प्रतिरूप पौराणिक काल से धार्मिक मान्यताओं में स्थान बनाये हुए हैं। तिब्बत में मौजूद कैलाश मानसरोवर को सृष्टि का केन्द्र कहा जाता है। वहां की यात्रा आर्थिक, शारीरिक व प्राकृतिक, हर लिहाज से दुर्गम है। उससे थोडा ही पहले भारतीय सीमा में पिथौरागढ जिले में आदि-कैलाश या छोटा कैलाश है। इसी तरह एक और कैलाश हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में है। ये दोनों कैलाश भी बडे कैलाश की ही तरह शिव के निवास माने जाते हैं और इनका पौराणिक महात्म्य भी उतना ही बताया जाता है। धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत श्रंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से प्रसिद्ध है और हजारों वर्षों से श्रद्धालु इस मनोरम शैव तीर्थ की यात्रा करते आ रहे हैं। यहां मणिमहेश नाम से छोटा सा पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इसके गगनचुम्बी हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 18564 फुट है।
मणिमहेश-कैलाश क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में चम्बा जिले के भरमौर में आता है। चम्बा के "गजटियर- 1904" में उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन 550 ईस्वी में भरमौर शहर सूर्यवंशी राजाओं के मरु वंश के राजा मरुवर्मा की राजधानी थी। भरमौर में स्थित तत्कालीन मन्दिर समूह आज भी उस समय के उच्च कला-स्तर को संजोये हुए अपना चिरकालीन अस्तित्व बनाये हुए है। इसका तत्कालीन नाम था ब्रह्मपुरा जो कालान्तर में भरमौर बना। भरमौर के एक पर्वत शिखर पर ब्रह्माणी देवी का तत्कालीन मन्दिर है। यह स्थान ब्रह्माणी देवी की पर्याय बुद्धि देवी और इसी नाम से स्थानीय पर्याय नाम से प्रसिद्ध बुद्धिल घाटी में स्थित है। मणिमहेश-कैलाश भी बुद्धिल घाटी का ही एक भाग है।
मरु वंश के राजाओं का शासनकाल बहुत लम्बा रहा। वैसे तो कैलाश यात्रा का प्रमाण सृष्टि के आदिकाल से ही मिलता है। फिर 550 ईस्वी में भरमौर नरेश मरुवर्मा के भी भगवान शिव के दर्शन पूजन के लिये मणिमहेश-कैलाश आने-जाने का उल्लेख मिलता है। लेकिन मौजूदा पारम्परिक वार्षिक मणिमहेश-कैलाश यात्रा का सम्बन्ध ईस्वी सन 920 से लगाया जाता है। उस समय मरु वंश के वंशज राजा साहिल वर्मा (शैल वर्मा) भरमौर के राजा थे। उनकी कोई सन्तान नहीं थी। एक बार चौरासी योगी ऋषि इनकी राजधानी में पधारे। राजा की विनम्रता और आदर-सत्कार से प्रसन्न हुए इन 84 योगियों के वरदान के फलस्वरूप राजा साहिल वर्मा के दस पुत्र और और चम्पावती नाम की एक कन्या को मिलाकर ग्यारह सन्तान हुई। इस पर राजा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 मन्दिरों के एक समूह का निर्माण कराया, जिनमें मणिमहेश नाम से शिव मन्दिर और लक्षणा देवी नाम से एक देवी मन्दिर विशेष महत्व रखते हैं। यह पूरा मन्दिर समूह उस समय की उच्च कला-संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है। राजा साहिल वर्मा ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए चम्बा (तत्कालीन नाम- चम्पा) बसाया और राजधानी भी भरमौर से चम्बा में स्थानांतरित कर दी।
उसी समय चरपटनाथ नाम के एक योगी भी हुए। चम्बा गजटियर में वर्णन के अनुसार योगी चरपटनाथ ने राजा साहिल वर्मा को राज्य के विस्तार के लिये उस इलाके को समझने में काफी सहायता की थी। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में छपे एक लेख के अनुसार मणिमहेश-कैलाश की खोज और पारम्परिक वार्षिक यात्रा आरम्भ करने का श्रेय योगी चरपटनाथ को जाता है। तभी से लगभग दो सप्ताह के मध्य की जाने वाली यह वार्षिक यात्रा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) से श्री राधाष्टमी (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) के मध्य आयोजित की जाती है। हालांकि इस यात्रा के अलावा भी यहां जाया जा सकता है। निस्संदेह ही लगभग 15 किलोमीटर की खडी पहाडी चढाई कठिन है लेकिन रोमांच व रास्ते की प्राकृतिक सुन्दरता इसमें आनन्द जोड देते हैं। यह यात्रा शुरू होती है हडसर (प्राचीन नाम हरसर) नामक स्थान से जो सडक मार्ग का अन्तिम पडाव है। यहां से आगे पहाडी मार्ग ही एकमात्र माध्यम है जिसे पैदल चलकर या फिर घोडे-खच्चरों की सवारी द्वारा तय किया जाता है। किसी समय में पैदल यात्रा चम्बा से ही आरम्भ की जाती थी। सडक बन जाने के बाद यह यात्रा भरमौर से आरम्भ होती रही और अब यह साधारण तौर पर श्रद्धालुओं के लिये यह यात्रा हडसर से आरम्भ होती है। लेकिन यहां के स्थानीय ब्राह्मणो-साधुओं द्वारा आयोजित पारम्परिक छडी यात्रा तो आज भी प्राचीन परम्परा के अनुसार चम्बा के ऐतिहासिक लक्ष्मीनारायण मन्दिर से ही आरम्भ होती है।
हडसर से मणिमहेश-कैलाश की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है जिसके मध्य में धन्छो नामक स्थान पडता है। जहां भोजन व रात्रि विश्राम की सुविधा उपलब्ध होती है। धन्छो से आगे और मणिमहेश-सरोवर से लगभग डेढ-दो किलोमीटर पहले गौरीकुण्ड है। पूरे पहाडी मार्ग में गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा यात्रियों के लिये निःशुल्क लंगर सेवा उपलब्ध कराई जाती है। गौरीकुण्ड से लगभग डेढ-दो किलोमीटर पर स्थित है मणिमहेश-सरोवर। आम यात्रियों व श्रद्धालुओं के लिये यही अन्तिम पडाव है।
ध्यान देने की बात है कि कैलाश के साथ सरोवर का होना सर्वव्यापक है। तिब्बत में कैलाश के साथ मानसरोवर है तो आदि कैलाश के साथ पार्वती कुण्ड और भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर। यहां पर भक्तगण सरोवर के बर्फ से ठण्डे जल में स्नान करते हैं। फिर सरोवर के किनारे स्थापित श्वेत पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति (जिसे छठी शताब्दी का बताया जाता है) पर अपनी श्रद्धापूर्ण पूजा-अर्चना अर्पण करते हैं। इसी मणिमहेश सरोवर से पूर्व दिशा में स्थित विशाल और गगनचुम्बी नीलमणि के गुणधर्म से युक्त हिमाच्छादित कैलाश पर्वत के दर्शन होते हैं। हिमाचल पर्यटन विभाग द्वारा प्रकाशित प्रचार-पत्र में इस पर्वत को "टरकोइज माउण्टेन" लिखा है। टरकोइज का अर्थ है वैदूर्यमणि या नीलमणि। यूं तो साधारणतया सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छाती है और उसके साथ प्रकाश की सुनहरी किरणें निकलती हैं। लेकिन मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है तो सारे आकाशमण्डल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती हैं जिनसे पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश से ओतप्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस कैलाश पर्वत में नीलमणि के गुणधर्म मौजूद हैं जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली रंग जाती हैं।
कैलाश पर्वत के शिखर के ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा शिखर पिंडी रूप में दृष्यमान होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार यह भारी हिमपात होने पर भी हमेशा दिखाई देता रहता है। इसी को श्रद्धालु शिवरूप मानकर नमस्कार करते हैं।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार वसन्त ऋतु के आरम्भ से और वर्षा ऋतु के अन्त तक छह महीने भगवान शिव सपरिवार कैलाश पर निवास करते हैं और उसके बाद शरद ऋतु से लेकर वसन्त ऋतु तक छह महीने कैलाश से नीचे उतरकर पतालपुर (पयालपुर) में निवास करते हैं। इसी समय-सारणी से इस क्षेत्र का व्यवसाय आदि चलता था। शीत ऋतु शुरू होने से पहले यहां के निवासी नीचे मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर जाते थे। और वसन्त ऋतु आते ही अपने मूल निवास स्थानों पर लौट आते थे। श्री राधाष्टमी पर मणिमहेश सरोवर पर अन्तिम स्नान इस बात का प्रतीक माना जाता है कि अब शिव कैलाश छोडकर नीचे पतालपुर के लिये प्रस्थान करेंगे। इसी प्रकार फागुन मास में पडने वाली महाशिवरात्रि पर आयोजित मेला भगवान शिव की कैलाश वापसी के उपलक्ष्य में आयोजित किया जाता है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह स्थान अत्यधिक मनोरम है। इस कैलाश पर्वत की परिक्रमा भी की जा सकती है लेकिन इसके लिये पर्वतारोहण का प्रशिक्षण व उपकरण अति आवश्यक हैं।
कैसे पहुंचे
सालाना मणिमहेश यात्रा हडसर नामक स्थान से शुरू होती है जो भरमौर से लगभग 17 किलोमीटर, चम्बा से लगभग 82 किलोमीटर और पठानकोट से लगभग 220 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पंजाब में पठानकोट मणिमहेश-कैलाश यात्रा के लिये निकटतम रेलवे स्टेशन है जो दिल्ली-ऊधमपुर मुख्य रेलमार्ग पर है। निकटतम हवाई अड्डा कांगडा है। हडसर हिमाचल राज्य परिवहन की बसों द्वारा भलीभांति जुडा है। पडोसी राज्यों व दिल्ली से भी चम्बा तक की सीधी बस सेवा उपलब्ध है।
ट्रैकिंग
पैदल मार्ग भी शिव के पर्वतीय स्थानों के साथ जुडी हुई शर्त है। कैलाश, आदि कैलाश या मणिमहेश कैलाश- सभी दुर्गम बर्फीले स्थानों पर हैं। इसलिये यहां जाने वालों के लिये एक न्यूनतम सेहत तो चाहिये ही। जरूरी गरम कपडे व दवाएं भी हमेशा साथ होनी चाहिये। मणिमहेश झील के लिये सालाना यात्रा के अलावा भी जाया जा सकता है। मई, सितम्बर व अक्टूबर का समय इसके लिये उपयुक्त है। रोमांच के शौकीनों के लिये धर्मशाला व मनाली से कई ट्रैकिंग रास्ते भी मणिमहेश झील के लिये खोज निकाले गये हैं।
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