यह लेख 29 अक्टूबर 2006 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।
उत्तराखंड के पवित्र चार धामों में से गंगोत्री न केवल तीर्थ स्थल है बल्कि प्रकृति प्रेमियों के भ्रमण और ट्रेकिंग पर जाने वालों के लिये आदर्श शुरूआती स्थान भी है। एक रोमांचक अभियान का वर्णन कर रहे हैं प्रेम नाथ नाग:
मध्य हिमालय के गढवाल क्षेत्र में गंगोत्री से यदि दक्षिण की ओर चलें तो बेहद सुन्दर रुद्रगेरा, जोगिन और गंगोत्री पर्वत श्रंखलाओं के अलौकिक दर्शन होते हैं। यहां की सभी पर्वत चोटियों पर चढने के लिये आधार शिविर रुद्रगेरा पर्वत के नीचे खुले स्थान पर लगाया जाता है। शिविर के मैदान के दूसरी ओर जोगिन पर्वत और सामने तीनों गंगोत्री शिखर नंबर 1,2 और 3 हैं। रोमांच भरी इस यात्रा पर जाने के लिये मैं और ट्रेकिंग करने वाले मेरे कुछ मित्र काफी समय से लालायित थे। कुछ दिन पहले हमारा छह सदस्यों का दल ऋषिकेश होते हुए गंगोत्री के लिये रवाना हुआ। रास्ते में एक रात हम उत्तरकाशी में रुके।
अगले दिन हम गंगोत्री की ओर बढे। उत्तरकाशी से गंगोत्री का सफर 99 किलोमीटर का है। रास्ते में पहाडों पर और कभी सडक पर भेड-बकरियों के झुंड मनमोहक दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। गंगोत्री पहुंचने पर शाम हो चुकी थी। समुद्रतल से अब हम लगभग 10200 फुट की ऊंचाई पर पहुंच गये थे। बस से उतरे तो कडाके की ठण्ड ने हमारा स्वागत किया। हमें दो दिन गंगोत्री में रुकना था क्योंकि सभी साथी दो वर्ष बाद इतनी ऊंचाई पर ट्रेकिंग के लिये निकले थे। कम ऑक्सीजन वाले स्थान में वातावरण के अनुकूल (एक्लीमेटाइज) होना हमारे लिये आवश्यक था।
हम गंगोत्री में दो दिन ठहरे हमने बचन सिंह नामक एक कुली-कम-गाइड और भोजन सामग्री का प्रबन्ध कर लिया था। किचन का सामान और गैस चूल्हा हमारे पास था। दो दिन बाद सुबह छह बजे हमने रुद्रगेरा घाटी की ओर प्रस्थान किया। देवदार के वृक्षों के उपरान्त अब हम भोजपत्र के वृक्षों के बीच से गुजर रहे थे। इन वृक्षों की छाल को आज के कागज की तरह प्रयोग करके हमारे ऋषियों ने शाश्वत ग्रंथों की रचना की थी।
हल्की-हल्की चढाई चढते हुए हम रुद्रगंगा के समीप आ पहुंचे। यह नदी आगे चलकर भागीरथी में समा जाती है। लगभग 12000 फुट की ऊंचाई थी। भूख लग आई थी। यह सोचकर कि बैठने से शरीर ठंडा हो जायेगा, हमने धीरे-धीरे चलते हुए ही कुछ खानपान किया। गंगोत्री की ओर मुडकर देखने से विशाल चट्टानों वाले हिमरहित पहाडों का भयावह नजारा दिखाई दे रहा था। सुबह से दो बार हल्की बारिश हो चुकी थी। दिन के तीसरे पहर तक हमने अपना डेरा डाल दिया। गंतव्य स्थान तक का आधा रास्ता तय हो चुका था। शाम को तेज हवाएं चलने लगीं। ठंड बढ गई। एक्लीमेटाएजेशन के विचार से हम खुली हवा में समय बिता रहे थे। टेंट लगाने के लिये हमने ठीक स्थान का चयन किया था इसलिये हवाओं का विशेष प्रभाव नहीं पडा। प्रदूषण रहित आकाश में घने तारों की अदभुत रोशनी देख-देखकर हम थक नहीं रहे थे। पक्षियों की चहचाहट ने हमें सुबह जगा दिया। बचा-खुचा खाना, सब्जी के छिलके आदि एक जगह डालने के लिये हमने पास ही एक गड्ढा खोदा था। ये पक्षी वहां बैठे थे। वास्तव में हिमालय को गंदगी से बचाने के लिये विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी स्तरों पर एक जागरुकता अभियान ‘कीप द हिमालया क्लीन’ कुछ वर्षों से चल रहा है। इसी के अन्तर्गत राज्य सरकार ने कुछ प्रबन्ध किये हैं। गंगोत्री से आगे किसी भी ओर प्लास्टिक, पोलीथीन, बोतलें आदि ले जाने पर रोक है। यदि ले जायें तो वापिस लाना आवश्यक है।
सात बजे हम गन्तव्य स्थान की ओर बढ चले। ऊंचाई बढने के साथ-साथ हमारी चाल भी धीमी हो रही थी। कुछ किलोमीटर और चलने के पश्चात हम नाश्ते के लिये रुके। ट्रेकिंग के दौरान हमारी खाने-पीने की नीति यही थी कि सुबह चाय के साथ हल्का आहार लेकर जल्दी चल पडे। ज्यादा से ज्यादा रास्ता तय करके जहां भी नाश्ता तैयार करें और खाने के लिये रुके वहीं विश्राम भी करें।
दो बजे हम उस स्थान पर पहुंच चुके थे जहां 19000 फुट ऊंची रुद्रगेरा पर्वत चोटी और गंगोत्री पर्वत श्रंखला पर चढने के लिये आधार शिविर लगाया जाता है। यहां का प्राकृतिक वैभव देखकर हम स्तब्ध थे। सब ओर पर्वत शिखर और हमाने सिवा वहां कोई भी नहीं। आधार शिविर स्थल पर रहकर हमें अगले दिन ग्लेशियर के मुख (स्नाउट) तक जाना था। यह स्थान हिमालय से निकलने वाली किसी भी नदी का उदगम स्थल होता है। नींबू का रस ग्लूकोज में मिलाकर हमने पेट भर पानी पीया। कुछ देर बाद हमने सामान खोला, टेंट लगाए और शाम का भोजन पकाने की तैयारी शुरू कर दी। रोटी सब्जी न बनाकर हमने दाल व चावल बनाये। वास्तव में पहाडों में पसीना निकलने से शरीर में डीहाइड्रेशन (पानी की कमी) होने लगती है। चावलों में पानी अधिक होने से क्षतिपूर्ति होती है।
रात हो चुकी थी। आसमान बेहद पास लग रहा था मानो कुछ नीचे उतर आया है। आकाश में टिमटिमाते तारों की सुंदरता का बखान करना उनकी खूबसूरती को घटाना होगा। असंख्य तारों में कभी न दिखाई देने वाले तारे भी थे। ऐसे मनोहारी दृश्य को देखते रहने की लालसा कहां से कम हो सकती थी मगर थकान और भरपेट भोजन ने हमें 8 बजे ही सुला दिया। रात को अचानक नींद खुली। साढे तीन बजे थे। मैं टेंट से बाहर निकला तो कुछ क्षणों के लिये स्तब्ध रह गया। रात्रि को मैंने उसकी इस सुन्दरतम अवस्था में पहले कभी नहीं देखा था। जोगिन पर्वत शिखर के समीप अत्यंत घने सितारों के बीच चमकता आधा चन्द्रमा सुन्दरता की चरम सीमा का आभास करा रहा था। जोगिन शिखर का आकार भी उसके नाम के अनुरूप ही है। वह अद्वितीय दृश्य ऐसा लग रहा था मानो शिव भगवान तपस्या कर रहे हों। आधा चन्द्रमा उनकी जटाओं पर सुशोभित हो रहा हो। चारों ओर एक रहस्यमयी रात्रि की अलौकिक छटा! एक अद्वितीय अनुभव!
तडके के सवा चार बजे थे। पर्वत शिखरों पर सूर्य देवता की प्रथम किरणों का बर्फीली चोटियों पर स्पर्श होने वाला था। मैंने कैमरा तैयार किया और बैठ गया उस घडी की प्रतीक्षा करने जब पृथ्वी के हजारों फुट ऊंचे शिखरों को सूर्य की किरणें स्वर्णिम रूप देती हैं। ऐसा रूप कि मानो सब ओर सोना ही सोना बिखरा पडा हो। वो घडी आ गई। लगभग 20 मिनट तक मैंने चोटियों को उनके स्वर्णिम आभा में देखकर कैमरे में कैद किया। यह मेरा सौभाग्य ही था कि बादल नहीं थे।
सवेरे लगभग दो घण्टे बाद हम गंगोत्री पर्वत श्रंखला की ओर ग्लेशियर तक पहुंचे। लेकिन सबकुछ इतना सरल नहीं था। मीलों तक सब ओर फैले कल्पना से बडे विशालकाय पत्थर और टूटी चट्टानें (ग्लेशियल डिपॉजिट्स) थीं मानो शिव तांडव से विनाश हुआ हो। हमारे रास्ते में सारी धरती पत्थरों के छोटे-बडे टुकडों से मीलों तक ढकी पडी थी। पर्वतारोहण की भाषा में इन्हें मोरैंस कहते हैं। आगे चलकर हमने पाया कि इन पत्थरों के नीचे सैकडों फुट बर्फ ही बर्फ है जो हिमालय की संरचना के समय से मौजूद है। प्रकृति के अनोखे रूप को देखते-देखते तीन घण्टे और बीत गये। 17000 फुट की ऊंचाई से अब हम कैम्प की ओर लौट चले थे। हिमालय के रहस्यों को देखते हुए हमारे साथ और कोई नहीं था। यदि कुछ था तो हमारा दृढ संकल्प। हम सुरक्षित लौट आये थे एक चिरस्मरणीय अनुभव के साथ। हिमालय के विकराल रूप के समक्ष मानव के नगण्य अस्तित्व का हमें बोध हो रहा था। ज्ञान और विज्ञान की हर शाखा का अनुभव हमें हिमालय मौन रहकर करा रहा था। लगभग दो घण्टे कैम्प में पहुंचकर हमने विश्राम किया।
गंगोत्री लौटते हुए हम एक रात के लिये आधे रास्ते में वहां ठहर गये जहां पहला कैम्प लगाया था। अगले दिन हम गंगोत्री पहुंचे। उस दिन हम वहीं रुके। घर लौटने के लिये अगली सुबह पहली बस हमें मिल गई थी।
एक नजर में
-रुद्रगेरा घाटी में जाने का उपयुक्त समय अगस्त से लेकर बर्फ गिरने से पहले।
-दिल्ली अंतर्राज्यीय बस अड्डे से ऋषिकेश पहुंचे। बसें 24 घंटे उपलब्ध हैं। 225 किलोमीटर की दूरी तय करने में बस से लगभग छह घण्टे का समय लगता है। साधारण बस का किराया 213/-, डीलक्स बस 230/- है। इनके अलावा प्राइवेट कार टैक्सी अथवा रेलगाडी से भी जा सकते हैं।
-ऋषिकेश से उत्तरकाशी तक बस से 7-8 घंटे में पहुंचा जाता है। पहाडी रास्ता है। इच्छानुसार प्राइवेट कार से जा सकते हैं। टैक्सियां भी उपलब्ध। दूरी 148 किलोमीटर। साधारण बस का किराया 143 रुपये।
-उत्तरकाशी से गंगोत्री की दूरी 99 किलोमीटर है। पहाडी मार्ग है। बस द्वारा 5-6 घंटे में पहुंचते हैं। साधारण बस का किराया लगभग 100 रुपये है। यहां भी टैक्सियां उपलब्ध होती हैं।
-ऋषिकेश, उत्तरकाशी और गंगोत्री में ठहरने के लिये सस्ते और महंगे होटल और धर्मशालाएं उपलब्ध हैं।
- ऋषिकेश: गढवाल मण्डल विकास निगम (जीएमवीएन) मुनि की रेती होटल का किराया 1400/- एसी कमरा, 800/- डीलक्स, 750/- फैमिली सुवीट, 600/- इकॉनोमी, 250/- साधारण और डोरमिटरी 100/- अन्य कई अच्छे व सस्ते होटल और धर्मशालाएं भी उपलब्ध हैं।
- उत्तरकाशी में जीएमवीएन होटल का किराया 990/- में सुपर डीलक्स, 850/- डीलक्स, 990/- फैमिली सुवीट, 700/- इकॉनोमी और 150/- में डोरमिटरी। अन्य कई अच्छे और सस्ते होटल भी उपलब्ध हैं।
- गंगोत्री में जीएमवीएन होटल का किराया 990/- डीलक्स रूम, 1800/- फैमिली सूट, 400/- साधारण और 150/- में डोरमिटरी है।
-अन्य कई अच्छे व सस्ते होटल, साधुओं की धर्मशालाएं और तीन तीर्थ पर रहने वाले पण्डितों के डेरे भी उपलब्ध हैं।
-कुली कम गाइड भोजन आदि के साथ 250/- प्रतिदिन या कुछ कम ज्यादा पर उपलब्ध हो जाता है।
-सभी आवश्यक राशन सामग्री कार्यक्रम की अवधि के अनुसार पानी भरने के लिये जरीकेन या प्लास्टिक की बडी बोतल लें। चूल्हा, मिट्टी का तेल, बर्तन आदि जो अपने पास न हों उनका प्रबन्ध कुलियों के माध्यम से हो जाता है। वैसे ट्रैवल एजेंसियां कुली गाइड, रसोइया, सामान आदि सभी चीजों का प्रबंध कर देती हैं।
-अपने टेंट, गर्म कपडे, स्लीपिंग बैग, रकसैक, पानी की बोतल, टॉर्च, चश्मा, कैमरा, मजबूत और चलने में आरामदायक जूते, विंडचीटर, वर्षा से बचने के लिये प्लास्टिक शीट, आवश्यक दवाएं आदि लेकर चलें।
-ऊंचे पहाडी क्षेत्रों में होने वाली कठिनाइयों और बीमारियों का ज्ञान रखना लाभप्रद रहता है। हाई एल्टीट्यूड सिकनेस में सिर में दर्द होता है। उबकाई महसूस होती है लेकिन उल्टी अक्सर होती नहीं और खाने-पीने को मन नहीं करता। अधिक से अधिक पानी और कभी कभी ग्लूकोज मिलाकर लें। कभी भूखे न रहें। धीरे-धीरे चलें, फिर भी कुछ समय बाद आराम न आये तो नीचे चले आयें वरना पलमोनरी एडिमा (फेफडों में पानी आ जाना) और ब्रेन एडिमा जैसी तकलीफें हो सकती हैं। केवल स्वास्थ और साधारण अवस्था में यात्रा करना आनंददायक रहता है।
-सीमित खर्चा करते हुए एक दल के एक सदस्य का खर्च दो से तीन हजार रुपये के बीच आता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें