यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 29 जुलाई 2007 को प्रकाशित हुआ था।
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करना बडी संख्या में भारतीयों के लिये सपने जैसा है। कई के लिये यह आस्था का सवाल है तो बाकियों के लिये प्रकृति के इन नायाब तोहफों को नजर भर देखने का। भारत के रास्ते सीधे कैलाश जाने का विकल्प बहुत सीमित है। एक ही यात्रा है जो सरकारी देखरेख में होती है। लेकिन नेपाल के रास्ते भी कैलाश-मानसरोवर जाने का रास्ता है जिसे आसानी से आजमाया जा सकता है। नेपाल के रास्ते हुई ऐसी ही एक यात्रा का अनुभव बता रहे हैं डॉ. एन. के. सफाया:
मानसरोवर यात्रा के बारे में मैं काफी समय से सोच रहा था। डाक्टरी पेशे में होने के कारण रोज आने वाले मरीजों के प्रति जिम्मेदारी और कुछ घरेलु कारणों से चाहकर भी अपनी सोच को अमली जामा नहीं दे सका। पिछले साल इंटरनेट पर मानसरोवर के बारे में कुछ जानकारी ली। तब से इस यात्रा को करने की इच्छा और बलवती हो गई। मैंने मन ही मन तय किया कि इस बार फुर्सत निकाल इस यात्रा को कर ही लिया जाये। मैंने इस बारे में पत्नी सरोजनी से बात की। पहले तो उसने अजीब निगाहों से घूरा, फिर बोली, ‘जायेंगे तो तब, जब मरीजों से फुर्सत मिलेगी। नोयडा में रहकर दिल्ली जाने के लिये 10-10 दिन इंतजार करना पडता है।’ पत्नी के उलाहने ने मेरे इरादे को और दृढता प्रदान की। मैं उसी दिन से यात्रा सम्बन्धी जानकारी व ट्रैवल एजेंसियों के बारे में अता-पता करने में जुट गया।
सारी पडताल के बाद आखिरकार मैंने इकोट्रेक ट्रैवल एंड टूर, नेपाल से मानसरोवर यात्रा की बुकिंग करवाई और निश्चिंत हो गया। 21 जून को हम हवाई जहाज से नेपाल के लिये रवाना हो गये। इस रोमांचकारी यात्रा को लेकर मन हर्षित था। काठमांडू हवाई अड्डे पर ट्रैवल एजेंसी के कर्मचारी ने हमारा स्वागत किया व हमें कार में बिठाकर होटल ले गया। 21 व 22 जून को हम काठमांडू में ही रुके। इन दो दिनों में मानसरोवर यात्रा पर जाने के लिये अन्य सहयात्री भी विभिन्न स्थानों से आ गये। हमारे ग्रुप में 46 लोग थे। मैं और सरोजनी नोएडा से, एक ज्वेलर दिल्ली से, एक व्यक्ति चण्डीगढ से, कोलकाता से एक वृद्ध दम्पत्ति, गुजरात-सोमनाथ से एक सन्यासी व शेष 39 सदस्य चेन्नई, मदुरै, केरल से थे।
ट्रैवल कम्पनी के टूर गाइड सहित 10 लोग हमारे साथ थे जिनमें शेरपा, खाना बनाने के लिये शेफ व उनके सहायक शामिल थे। 12 टोयटा, लैंड क्रूजर व 2 ट्रक, 23 जून को नेपाल से मानसरोवर यात्रा के लिये रवाना हुए। एक टोयटा में 4 यात्री थे। यात्रियों का सामान एक ट्रक में, दूसरे में खाना बनाने की सामग्री व अन्य सामान रखा गया था। सभी यात्री 1000 किलोमीटर की इस यात्रा को लेकर बहुत उत्साहित थे।
टोयटा लैंड क्रूजर का यह कारवां लगभग एक घण्टे की यात्रा के बाद फ्रेंडशिप ब्रिज (मैत्री पुल) पर पहुंचा। यह पुल नेपाल-चीन सीमा पर है और मानसरोवर यात्रियों की इस स्थान पर कस्टम क्लियरेंस व अन्य आवश्यक प्रपत्रों की चीनी अधिकारी जांच करते हैं। सभी कागजात की जांच होने के बाद यात्रा आगे रवाना हुई। मैत्री ब्रिज से होकर हम नायलम पहुंचे। नायलम तिब्बत में है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 3700 मीटर है। टोयटा, लैंड क्रूजर का यह कारवां प्रतिदिन 260-270 किलोमीटर की दूरी तय करने का लक्ष्य लेकर चला था। दोपहर के भोजन के लिये कारवां रुकता था। साथ आये कुक ट्रक से सामान उतारकर यहीं खाना बनाते और सभी यात्री गर्मागर्म खाना खाते थे। मैं हैरान था ‘रूफ ऑफ द वर्ल्ड’ पर फैले लम्बे-चौडे पठार को देखकर। कहीं धूल इतनी कि गाडियों के चलने पर धूल का गुबार सा उठ जाता तो कहीं रास्ता पथरीला हो जाता। दूर-दूर तक फैला सन्नाटा व वीरानी, खामोशी का ऐसा मंजर पैदा कर रही थी कि हर यात्री खुद-ब-खुद खामोश हो जाता। सिर्फ टोयोटा गाडियों के चलने की घरघराहट से यह एहसास हो रहा था कि यात्रा अनवरत जारी है।
शाम को हम सागा पहुंचे। सभी यात्री दिनभर की थकान से चूर थे। सागा का होटल छोटा, पर तिब्बती साज-सज्जा से परिपूर्ण था। कमरे छोटे थे लेकिन साफ-सुथरे थे। सभी यात्रियों ने डिनर होटल में ही किया और जल्द सोने की कोशिश करने लगे। टूर गाइड ने डिनर टेबल पर ही बता दिया था कि सुबह 7.30 बजे से यात्रा फिर से शुरू हो जायेगी। 26 जून की सुबह सभी यात्री समय पर तैयार हो अपनी-अपनी टोयटा लैंड क्रूजर में आ बैठे और कारवां फिर चल पडा प्रयाग की ओर। सागा से प्रयाग की दूरी 270 किलोमीटर के करीब है। हमारा कारवां दस घण्टे की यात्रा के बाद प्रयाग पहुंचा। यहां भी एक होटल में सभी के रुकने और खाने की व्यवस्था थी। टूर गाइड ने बताया कि हम कल मानसरोवर पहुंच जायेंगे।
27 जून की सुबह जब सभी यात्री तैयार होकर अपनी-अपनी गाडियों में बैठे तो हर शख्स आह्लादित था कि कुछ घण्टों के सफर के बाद वे मानसरोवर पहुंच चुके होंगे। टोयटा लैंड क्रूजर ने रफ्तार पकडी और पांच घण्टे के सफर के बाद कारवां मानसरोवर पहुंचा। मानसरोवर पहुंचते ही सभी यात्रियों में स्फूर्ति आ गई और चार दिन की लगातार यात्रा की थकान को भूल वे मानसरोवर की ओर दौड पडे। मानसरोवर की छटा ही निराली थी। दूर-दूर फैला गहरा नीला पानी शान्त, निर्मल व स्वच्छता से परिपूर्ण। अब तक राजहंस के बारे में सुना और पढा ही था। जब उन्हें कुछ ही दूरी पर पानी में किलोल करते देखा तो बस देखता ही रह गया। ऐसा लग रहा था जैसे गहरे नीले पानी में नहाकर राजहंसों की श्वेत धवलता और निखर आई है। राजहंस कभी कभार अपनी गर्वीली गर्दन को घुमा यात्रियों को देखते, फिर जलक्रीडा में लग जाते और यात्री कभी मानसरोवर के नीले पानी को, कभी राजहंसों को और कभी 85 किलोमीटर में फैले मानसरोवर की विशालता को देख मुग्ध हुए जा रहे थे।
समुद्र तल से 15000 फीट की ऊंचाई पर यह झील प्रकृति का एक अनुपम व अदभुत तोहफा है। टूर गाइड के कहने पर सभी यात्रियों ने पवित्र मानसरोवर झील में स्नान किया। झील के ठण्डे व निर्मल पानी को छूते ही जैसे चार दिन की यात्रा की थकान उतर गई। स्नान के बाद सभी गाडी में बैठे और मानसरोवर झील की परिक्रमा की। लगभग 55-56 किलोमीटर की परिक्रमा कर हमारा कारवां वापस लौटा। मानसरोवर के इस किनारे से कैलाश पर्वत का दक्षिणी हिस्सा दिखाई देता है। जब हम मानसरोवर की परिक्रमा कर रहे थे तब रास्ते में एक और बडी झील नजर आई। गाइड बता रहा था कि इसका नाम राक्षस ताल है और यह मानसरोवर से भी बडी है। यह झील 125 किलोमीटर के दायरे में फैली है। गाइड ने बताया कि मानसरोवर झील पर आज भी सुनहरे राजहंस (गोल्डन राजहंस) आते हैं।
27 जून को हमारा कारवां मानसरोवर झील के किनारे बने एक सुन्दर भवन में ठहरा। इस भवन का निर्माण मानसरोवर यात्रियों की सुविधा के लिये ऋषिकेश के आश्रम परमार्थ निकेतन के प्रयासों और कुछ प्रवासी भारतीयों के आर्थिक सहयोग से किया गया है। रात का खाना खाकर सभी यात्री अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये। मैं भी सोने की कोशिश करने लगा लेकिन नींद कोसों दूर थी। अचानक मेरे जेहन में यह विचार कौंधा कि रात के गहरे सन्नाटे में मानसरोवर झील का नजारा कैसा होगा। मैं झटके से उठा, अपनी जैकेट पहन टोपी लगाई व शॉल हाथ में लेकर बाहर निकल आया। मेरे कदमों में तेजी व मन में उत्सुकता थी। कुछ ही देर में मैं मानसरोवर के किनारे पर था। सामने गहरा नीला पानी शान्त था पर सर्द हवा के झोकों के साथ कभी-कभी पानी की सतह पर एक लहर सी उठती और अठखेली करती हुई दूर तक चली जाती। संयोग की बात है उस रात चांद भी अपने शबाब पर था और चांदनी की चादर झील के पानी पर ऐसी फैली थी जैसे सारे पानी को समेटकर वह अपने आगोश में ले लेगी। रात की नीरवता, छिटकी हुई चांदनी व जहां तक नजर जाये, वहां तक फैला नीला पानी। मैं मन्त्रमुग्ध सा खडा इस नजारे को देख रहा था। सर्द हवा के झोकों से मुझे कुछ देर में कंपकंपी का एहसास हुआ। मैं विवश हो लौट आया।
28 जून की प्रातः सभी यात्रियों ने मानसरोवर के किनारे पूजा-अर्चना की व गाडी में आ बैठे। यात्रा का दूसरा व अन्तिम महत्वपूर्ण पडाव मानसरोवर झील से 60 किलोमीटर दूर था- तारचंद का बेस कैम्प। वहां से सभी यात्रियों को कैलाश पर्वत की परिक्रमा करनी थी। कुछ ही समय में हमारा कारवां तारचंद के बेस कैम्प पर पहुंच गया। कई यात्रियों ने शाम के समय चढाई पर चढने का अभ्यास किया क्योंकि यहां से कैलाश पर्वत की परिक्रमा घोडे पर या पैदल ही करनी थी। 29 जून की प्रातः 9 यात्रियों को छोड अन्य ने कैलाश पर्वत की 54 किलोमीटर की तीन दिन की परिक्रमा शुरू की। जिन 9 यात्रियों ने इस परिक्रमा में हिस्सा नहीं लिया वे मेडिकल कारणों से तारचंद बेस कैम्प में रुके रहे। मैं तो तीन दिन में उतार-चढाई वाले रास्ते पर सफर नहीं कर सकता था। इसलिये मैंने परिक्रमा के लिये घोडा लिया। सरोज नहीं मानी, अतः उसने पैदल ही परिक्रमा की। मेरी तरह और भी कई सहयात्री घोडे पर सवार थे। चढाई आने पर यात्री घोडे पर बैठे रहते और ढलान आने पर उतर जाते। तिब्बती मूल के लोग दण्डवत परिक्रमा लगाते हैं। सहयात्रियों में एक यात्री ने नंगे पैर ही 54 किलोमीटर का सफर तय करने का फैसला किया।
पहले दिन के सफर के बाद जब कैम्प पर पहुंचे वहां यात्रियों के लिये रात्रि विश्राम की व्यवस्था थी। थके-हारे यात्रियों ने थोडा-बहुत खाना खाया व बिस्तर पर ढेर हो गये। दूसरे दिन की परिक्रमा में यात्रियों को काफी ज्यादा मेहनत करनी पडी। एक तो 19800 फीट की ऊंचाई, फिर रास्ता सीढी की तरह कभी ऊंचाई तो कभी एकदम ढलान। समुद्रतल से ऊंचाई अधिक होने के कारण वहां ऑक्सीजन की थोडी कमी थी। अतः कई यात्रियों को सांस लेने में तकलीफ होने लगी तो उन्हें तुरन्त ऑक्सीजन दी गई। ऑक्सीजन के छोटे सिलिण्डरों की व्यवस्था ट्रेवल एजेंसी ने पहले से ही कर रखी थी। दूसरे दिन की परिक्रमा में हमने गौरी कुण्ड के दर्शन भी किये। इस दिन यात्रियों ने 24 किलोमीटर की दूरी तय की। यात्रियों ने परिक्रमा के दौरान कैलाश पर्वत के पश्चिमी, उत्तरी व दक्षिणी मुख के दर्शन किये। तीसरे दिन की यात्रा चार घण्टे की थी। इस तरह यात्रियों ने कैलाश पर्वत की तीन दिवसीय परिक्रमा की।
किसी भी व्यक्ति को कैलाश पर्वत पर चढने की तो दूर, छूने तक की इजाजत नहीं है। एकमात्र कैलाश पर्वत ही ऐसा स्थान है जहां चौबीस घण्टे बारह मास अर्थात हर समय बर्फ जमी रहती है। इसके आसपास के पहाडों पर कभी बर्फ नहीं जमती। कैलाश पर्वत शिव का निवास माना जाता है। अतः जहां शिव का निवास है, वहां कुछ तो अनोखापन होगा ही। पास ही में अन्य देवियों का पर्वत है। परिक्रमा पूरी कर जब हम सभी वापस आये तो टोयोटा क्रूजर हमारे इंतजार में खडी थी। सभी यात्री अपनी-अपनी गाडी में बैठे और नेपाल वापसी की यात्रा आरम्भ हुई। मैं मानसरोवर यात्रा की स्मृतियों को संजोये अपने ख्यालों में गुम था। ट्रेवल कम्पनी की पूरी यात्रा के दौरान व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि किसी भी यात्री को कोई असुविधा नहीं हुई। तीन दिन में हम सभी नेपाल पहुंचे। वहां से दिल्ली फ्लाइट की टिकट पहले से ही करवा रखी थी। प्लेन में बैठे व दस लीटर मानसरोवर के जल के साथ दिल्ली आ गये।
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बहुत कठिन यात्रा है यह तो।
जवाब देंहटाएंमजा नहीं आया, मजा तब आता जब मार्ग ऊँ पर्वत वाला होता व हम यात्री होते?
जवाब देंहटाएंMERI SUHBH KAMANYE APKE SATH HAI
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