सोमवार, अप्रैल 16, 2012

सुन्दर वन- विश्व विरासत

गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहाने पर स्थित सुन्दरवन विश्व के दर्शनीय राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है। अपने अनूठे प्राकृतिक सौन्दर्य और भरपूर वन्य जीवन के लिये प्रसिद्ध सुन्दरवन को विश्व विरासत का दर्जा दिया गया है। पूरी दुनिया में रॉयल बंगाल टाइगर (पैंथरा टिगरिस) की सर्वाधिक आबादी इसी क्षेत्र में निवास करती है। सुन्दरवन की सघन हरियाली, अपार जलराशि से घिरे द्वीप समूह और डेल्टाई मिट्टी कुदरत की अनूठी कारीगरी को रूपांकित करती है।
पश्चिमी बंगाल के दक्षिणी छोर पर स्थित सुन्दरवन के 54 द्वीप समूहों में जंगल की रोमांचकारी दुनिया आबाद है। इनमें से कुछ आबादी वाले द्वीप हैं, जिनमें जनजातीय लोग निवास करते हैं। अपार जलराशि से घिरे सुन्दरवन में जलीय और स्थलीय प्राणियों का एक बडा परिवार निवास करता है। जल की बहुलता के कारण यहां के वन्य प्राणियों ने अपने आप को जलीय परिस्थितियों के अनुरूप बना लिया है। यही कारण है कि सुन्दरवन में निवास करने वाले अनेक वन्य प्राणियों की सामान्य आदतें या व्यवहार में अन्तर महसूस किया जा सकता है।
सुन्दरी (हिरीटीओरा फाम्स) नामक वृक्ष के बहुतायत में पाये जाने के कारण इस क्षेत्र को सुन्दरवन के नाम से जाना जाता है। सन 1973 में यहां 2585 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्रोजेक्ट टाइगर की स्थापना की गई और इसमें से 1330 वर्ग किलोमीटर के कोर क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। सुन्दरवन उन पर्यटकों के लिये स्वर्ग है जो प्रकृति के अपार सौन्दर्य के बीच वन्य जन्तुओं के स्वच्छन्द विचरण को करीब से देखने की चाह रखते हैं।
कब जायें: सुन्दरवन के भ्रमण के लिये शरद और बसन्त ऋतुएं सबसे अच्छी हैं। इस मौसम की स्फूर्तिदायक हवा और यहां का शान्त सुरम्य वातावरण पर्यटन की रोचकता को बढा देते हैं। इस दौरान यहां हल्के ऊनी वस्त्रों की जरूरत पडती है। गर्मी के मौसम में आने वाले पर्यटकों को हल्के सूती और धूप से बचने के लिये टोपी पहनने की सलाह दी जाती है।
कैसें जायें: सुन्दरवन पहुंचने के लिये निकटतम हवाई अड्डा कोलकाता है। यह देश के सभी हिस्सों से बोईंग और एयर बस सेवा से जुडा हुआ है। कोलकाता से सुन्दरवन पहुंचने के लिये पोर्ट कैनिंग तक की यात्रा ट्रेन से की जा सकती है। यहां से आगे सुन्दरवन राष्ट्रीय उद्यान पहुंचने के लिये जल परिवहन का सहारा लेना पडता है। सडक परिवहन के जरिये आप बसन्ती सोनाखाली तक पहुंच सकते हैं। यहां से आगे पार्क का सफर मोटर लांच से तय किया जा सकता है। डेल्टाई क्षेत्र होने के कारण सुन्दरवन में भ्रमण के लिये जलीय मार्ग सुलभ है। इनसे आने जाने के लिये प्राइवेट मोटर बोट और लांच की समुचित व्यवस्था है। पश्चिम बंगाल पर्यटन विभाग की ओर से कलकत्ता लग्जरी बस और लांच के जरिये सुन्दरवन के पैकेज टूर की भी व्यवस्था है। यह दो दिवसीय यात्रा अक्टूबर से मार्च तक प्रत्येक सप्ताहांत में आयोजित की जाती है।
प्रमुख नगरों से दूरी: कोलकाता 106 किलोमीटर, दार्जीलिंग 756 किलोमीटर, दिल्ली 1547 किलोमीटर, पटना 650 किलोमीटर, मुम्बई 2186 किलोमीटर।
कहां ठहरें: सुन्दरवन में पर्यटकों के ठहरने के लिये वन विश्राम गृह एक उपयुक्त जगह है। इसके अतिरिक्त साजनीखाली में पश्चिम बंगाल पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित सुन्दर चीतल टूरिस्ट लॉज में भी खाने, पीने और ठहरने की समुचित व्यवस्था है। टूरिस्ट लॉज में ठहरने के लिये पर्यटन कार्यालय, कोलकाता से अग्रिम आरक्षण करा लेना चाहिये।
क्या देखें: सुन्दरवन रॉयल बंगाल टाइगर का घर है। यह भारत में बाघों के लिये बनाया गया दूसरा सबसे बडा आरक्षित क्षेत्र है। भारत में यहां बाघों की सर्वाधिक आबादी निवास करती है। ऐसा कहा जाता है कि यदि आप सुन्दरवन में हैं तो समझिये कि बाघ निश्चित तौर पर आपको देख रहा है। यहां के निवासी जंगल में जाते समय बाघों को डराने के लिये सिर के पीछे मुखौटे लगाते हैं।
सुन्दरवन के बाघों ने खुद को जलीय परिस्थितियों के अनुरूप बना लिया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह एक साथ दस किलोमीटर दूरी तैरकर पार कर लेते हैं। नदी से मछलियां पकडने में ये माहिर होते हैं और मधुमक्खियों के छत्ते से शहद खाते हुए भी देखे जा सकते हैं। गर्मी के दिनों में पानी और सर्दी के मौसम में रेत में धूप सेंकते बाघ सुन्दरवन में अक्सर नजर आ जाते हैं।
रंग-बिरंगे जंगली फूल और पेड-पौधों का सौन्दर्य सुन्दरवन को अत्यन्त आकर्षक बना देता है। ‘सुन्दरी’ वृक्ष का सदाबहार सौन्दर्य भी पर्यटकों को लुभाता है। अप्रैल-मई में ‘जनवा’ वृक्ष की नई पत्तियों की रक्तिम आभा हरियाली के बीच से उभरती आग का सा आभास देती है। कनेर के लाल फूल और खालसी के पीले फूल जंगल में बंदनवार की तरह सजे नजर आते हैं। नीपा के पके हुए फलों पर लपकते बंदर और शर्मीली गर्वीली चिडियों की नोंक-झोंक को देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठता है।
सुन्दरवन में जलीय पक्षियों का एक विस्तृत दयार है। पक्षियों के निरीक्षण के लिये साजनीखाली सबसे उपयुक्त जगह है। यहां जुलाई से सितम्बर के मध्य नीड निर्माण में जुटे पंछियों को देखना अच्छा लगता है। यदि आप आकाश की ओर निगाहें दौडायें तो सफेद रंग के समुद्री गरुड की हवाई कलाबाजियां आपका खूब मनोरंजन करेंगी। उद्यान में परिचित और अपरिचित दोनों प्रकार के पंछी पाये जाते हैं। इनमें हरे रंग का कबूतर, प्लोवर, लेप विंग्स आदि के साथ ही कभी कभार पेलिकन भी नजर आ जाती है। मछली खाने में माहिर किंग फिशर की तो यहां सात प्रजातियां पाई जाती हैं।
भारतीय डॉल्फिन (प्लैटिनिस्ता गंगैटिक) सुन्दरवन में पाई जाने वाली दुर्लभ स्तनपायी प्रजाति है। पार्क के पश्चिमी हिस्से में बहने वाली माटला नदी में इन्हें देखना अपेक्षाकृत सुगम है। लहरों के साथ नाचती डॉल्फिन अत्यधिक रोमांच और कौतुहल उत्पन्न करती है। यहां मछलियों की 120 प्रजातियां पाई जाती हैं। मगर, शार्क, कछुए और केकडे सुन्दरवन के अन्य प्रमुख जलीय जन्तु हैं।
जंगली सुअर और चीतल भी यहां सुगमतापूर्वक नजर आ जाते हैं। यदि आप भौंकने वाला हिरण, काकड देखना चाहते हैं तो इसके लिये हॉलिडे आइलैण्ड जाना पडेगा। क्योंकि यह सिर्फ इसी द्वीप में पाया जाता है। सुन्दरवन में जंगली बिल्लियां भी मिलती हैं। ये भी यहां के बाघों की तरह पानी से मछलियां पकडकर उनका शिकार करने में माहिर होती हैं।
राष्ट्रीय उद्यान के इर्द गिर्द बिखरे टापुओं में कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें कलश द्वीप, लूथियन द्वीप, जम्मूद्वीप और हॉलीडे द्वीप प्रकृति की कारीगरी को समेटे हुए अत्यन्त सुन्दर स्थल हैं। यहां हर वर्ष सैंकडों पर्यटक घूमने फिरने आते हैं।
भगवतपुर स्थित मगरमच्छ प्रजनन केंद्र में आप मगरमच्छ के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अवलोकन कर सकते हैं। हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ गंगा सागर भी इसी क्षेत्र में स्थित है। यहां हर वर्ष मकर संक्रांति को एक बडा मेला लगता है।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, अप्रैल 15, 2012

दुधवा नेशनल पार्क- वन्य जन्तुओं की क्रीडा स्थली

उत्तर प्रदेश की तराई के दलदली किनारों और घने जंगलों के अंचल में वन्य प्राणियों की क्रीडा स्थली है- दुधवा राष्ट्रीय उद्यान। दुधवा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और वैविध्यपूर्ण वन्य जीवन के लिये दुनिया भर में मशहूर है। कुदरत के इस दयार को देखने के लिये हर वर्ष हजारों सैलानी दुधवा पहुंचते हैं और अपने साथ यहां की अविस्मरणीय यादों की सौगात लेकर वापस लौटते हैं।
एक अरसे पहले तक दुधवा के ये जंगल स्थानीय रियासत के अधीन थे। यहां शाही शिकार के अनेक रोचक किस्से लोक कथाओं का हिस्सा बन चुके हैं। राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व दुधवा एक अभयारण्य था और इसकी स्थापना 1969 में हुई थी। उस समय इसका क्षेत्रफल सिर्फ 212 वर्ग किलोमीटर था। पहली फरवरी 1977 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया और साथ ही इसका क्षेत्रफल बढाकर 498 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। सन 1973 में दुधवा में बाघ परियोजना शुरू की गई। बाघ परियोजना यहां काफी हद तक सफल रही लेकिन इनकी सुरक्षा के लिये निर्धारित मानदण्डों के अनुरूप कर्मचारियों की यहां भारी कमी है।
इन सबके बावजूद दुधवा ने वन्य पर्यटन की दुनिया में अपने लिये एक खास जगह बना ली है। सुबह होते ही हाथियों के हौदों पर सवार पर्यटकों की टोलियां जंगल में प्रवेश के लिये तैयार मिलती है।
कब जायें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के सौन्दर्य को 15 नवम्बर से 15 जून के मध्य निहारा जा सकता है। शरद ऋतु यहां के भ्रमण के लिये सबसे अच्छी है। इस मौसम में गर्मी भ्रमण का मजा किरकिरा नहीं कर पाती। सर्दियों में यहां के लिये गरम कपडे और शाम के लिये हल्की गरम शाल साथ लाना अच्छा रहता है।
कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा लखनऊ है। यहां से आगे का सफर कार, बस या ट्रेन से तय किया जा सकता है। दुधवा दिल्ली, बरेली, पीलीभीत, मैलानी, सीतापुर, लखीमपुर खीरी और लखनऊ से रेलमार्ग द्वारा जुडा हुआ है। सडक मार्ग द्वारा दिल्ली से दुधवा जाने के लिये मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, पूरनपुर, मैलानी और पलिया होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। लखनऊ से सीतापुर, लखीमपुर खीरी और पलिया के रास्ते भी दुधवा पहुंचा जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 430 किलोमीटर, लखनऊ 238 किलोमीटर, मैलानी 100 किलोमीटर, बरेली 178 किलोमीटर।
कहां ठहरें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के ठहरने की समुचित व्यवस्था है। वन विभाग का विश्राम गृह पूर्ण शान्ति और एकान्त चाहने वालों के लिये उपयुक्त जगह है। आप चाहें तो यहां डोरमेट्री अथवा टेण्ट में भी निवास कर सकते हैं। सोनारीपुर, साथियाना, बनकट्टी, विल्लारिन, कैला और चन्दन चौकी में भी वन विभाग के विश्राम गृह हैं। इन विश्राम गृहों में आवासीय सुविधा पाने के लिये चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन, फील्ड डाइरेक्टर प्रोजेक्ट टाइगर और सम्बद्ध वन प्रभागीय कार्यालयों से अग्रिम आरक्षण कराया जा सकता है।
क्या देखें: सिर पर सींगों का मुकुट सजाये बारहसिंगा दुधवा की एक बेशकीमती सौगात है। हिरणों की यह विशेष प्रजाति ‘स्वैंप डियर’ अथवा ‘सेर्वुस डुवाउसेलि कुवियेर’ भारत और दक्षिण नेपाल के अतिरिक्त दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती है। नाम के अनुरूप सामान्यतः यह माना जाता है कि इस जाति के हिरणों के बारह सींग होंगे लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। बारहसिंगा के सिर पर दो सींग होते हैं और वे ऊपर जाकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाते हैं। आमतौर पर इनकी संख्या 10 से 14 के बीच होती है। दुधवा के कीचड-कादों वाले दलदली इलाकों में बारहसिंगा के झुण्ड नजर आते हैं। इस पशु के सम्मान में लखनऊ और दुधवा के बीच चलने वाली एक पर्यटक बस का नाम ही बारहसिंगा रखा गया है।
दुधवा में बाघ देखना दूसरे अनेक राष्ट्रीय उद्यानों की अपेक्षा अधिक सुगम है। इसकी वजह यह है कि यहां बाघों की काफी आबादी निवास करती है। नवीनतम गणना (1995) के अनुसार सुन्दरवन और सिमलीपाल के बाद सर्वाधिक बाघ दुधवा में ही हैं। इस समय (1995 में) यहां पर 94 बाघ हैं।
पार्क में 400 प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं। जंगल की सैर के समय कई अपरिचित चिडियों से मुलाकात हो जाती हैं। आप इन्हें न भी देखें, तब भी इनकी स्वरलहरियां आपके कानों में मिश्री घोल जायेंगी। कई प्रकार के सांप, विशालकाय अजगर, मछलियां और मगरमच्छ भी यहां काफी संख्या में पाये जाते हैं।
बारहसिंगा के अतिरिक्त यहां हिरणों की छह और प्रजातियां भी पाई जाती हैं। ये हैं- चीतल, सांभर, काला हिरण, काकड और पाडा। जंगली हाथी, सूअर, भालू, तेंदुआ, लकडबग्घा, लोमडी, खरगोश, लंगूर और साही भी यहां देखे जा सकते हैं।
एक अरसे पहले तक उत्तर प्रदेश की तराई और दलदली इलाकों में भारतीय गैंडे बहुतायत में पाये जाते थे लेकिन आज इस तथ्य पर सहसा यकीन नहीं आता। 1910 में गैंडों को शासकीय सुरक्षा प्रदान की गई किन्तु इस घोषणा के कुछ पहले ही शिकारी यहां के जंगलों से गैंडों का सफाया कर चुके थे। उत्तर प्रदेश की धरती से गैंडों के लुप्त होने के करीब 100 वर्ष बाद दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में देश की पहली गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई। सन 1984 में शुरू हुई इस परियोजना को काफी समय हो चुका है। इस अन्तराल में गैंडों की संख्या में अनुमान के अनुरूप वृद्धि तो नहीं हुई, फिर भी यह उम्मीद अवश्य जगी है कि आगामी पांच छह दशकों के भीतर इस क्षेत्र में गैंडे पहले की तरह की निर्भय विचरण कर सकेंगे।
दुधवा के इलाके में थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस जाति की महिलाएं राजस्थान के राजवंश से सम्बद्ध हैं। इनके पुरुष सदस्य युद्ध में मारे गये और ऐसी स्थिति में अनेक थारू महिलाओं ने अपने सेवकों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। दुधवा के इर्द-गिर्द थारुओं के अनेक गांव हैं जहां इनके बीच पहुंचकर आप अपने वन पर्यटन की रोचकता को बढा सकते हैं।
राष्ट्रीय उद्यान में भ्रमण के लिये प्रशिक्षित हाथी, सफारी वाहन और कुशल पथ-प्रदर्शकों की समुचित व्यवस्था है। कौन सा जानवर किस स्थान पर होगा, इसका पता लगाने में इन्हें महारथ हासिल है।
दुधवा भ्रमण के दौरान जो चीज सबसे अधिक रोमांच और कौतुहल उत्पन्न करती है, वह है- टाइगर हैवन। पार्क के दक्षिणी छोर पर स्थित टाइगर हैवन बिली अर्जन सिंह नामक एक स्वतंत्र वन्य जीवन संरक्षणवादी का खूबसूरत आवास है। सन 1959 में सेना की नौकरी छोडने के बाद से ‘बिली’ विडाल परिवार के वन्य पशुओं विशेषकर तेंदुओं और बाघों की भलाई में जुटे रहे। उनकी पुस्तक ‘टाइगर-टाइगर’ बेहद लोकप्रिय हुई जिसमें दुधवा के नरभक्षी बाघों का सजीव चित्रण है। बिली को चिडियाघरों में पैदा हुए या परित्यक्त वन्य प्राणियों को पाल-पोसकर बडा करने और फिर से वन्य जीवन में प्रविष्ट कराने की कला में महारत हासिल है।

लेख: अनिल डबराल
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, अप्रैल 14, 2012

गिर राष्ट्रीय उद्यान- एशियाई शेरों की शरणस्थली

एशियाई शेरों की अंतिम शरणस्थली के रूप में मशहूर गिरवन राष्ट्रीय उद्यान को देखने का अपना अलग रोमांच है। शेरों की मस्ती और दहाड से गूंजते गिर में वन्य जन्तुओं की एक सजीव दुनिया आबाद है। गुजरात के जूनागढ जनपद में स्थित गिर के हरे-भरे जंगल रहस्यमय लगते हैं और लहराती हुई हरियाली मन पर जादू सा असर छोड जाती है।
किसी जमाने में गिर के घने जंगल जूनागढ के नवाबों के प्रसिद्ध शिकारगाह थे। नवाब और उनके यार-दोस्तों में शेरों के शिकार की होड सी लगी रहती थी। बडी संख्या में शेरों का शिकार करने के कारण सन 1900 में यहां सिर्फ 100 शेर बचे थे। कहते हैं कि जूनागढ के नवाब के निमन्त्रण पर तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड कर्जन भी शेरों का शिकार खेलने के उद्देश्य से जूनागढ गये थे। इसी दौरान स्थानीय समाचार पत्र में एक गुमनाम पत्र छपा जिसमें लुप्तप्रायः शेरों के आखेट के औचित्य को चुनौती दी गई थी। इस पत्र को पढकर लार्ड कर्जन ने शिकार का इरादा बदल दिया और जूनागढ के नवाब से शेरों को संरक्षण देने का आग्रह किया। गिर के जंगलों में शेर एवं अन्य वन्य जन्तुओं के संरक्षण की कहानी यहीं से शुरू होती है।
गिर के संरक्षित वन 1412 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। सन 1969 में इसे अभयारण्य और 1975 में इसके 140 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया।
कब जायें: गिरवन जाने के लिये 15 अक्टूबर से 15 जून का समय उपयुक्त है। मानसून और वन्य प्राणियों के प्रजनन का समय होने के कारण उद्यान 15 जून से 15 अक्टूबर के बीच पर्यटकों के लिये बन्द रहता है।
कैसे जायें: गिरवन के लिये सडक, रेल और हवाई सेवा उपलब्ध है। निकटतम हवाई अड्डा केशोड यहां से मात्र 31 किलोमीटर दूर स्थित है। अहमदाबाद से केशोड के लिये विमान सेवा सुलभ है। अहमदाबाद, मेंडोर और जूनागढ से यहां के लिये रेल और सडक परिवहन की सुविधाएं सुलभ हैं। वेरावल और तलाला से भी सडक मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: अहमदाबाद 408 किलोमीटर, जूनागढ 60 किलोमीटर, पोरबन्दर 185 किलोमीटर, भावनगर 250 किलोमीटर, वेरावल 42 किलोमीटर।
कहां ठहरें: गिरवन में रहने और खाने-पीने की उपयुक्त व्यवस्था है। दो वन विश्रामगृह और भारतीय पर्यटन विकास निगम के होटल में ठहरने की उत्तम व्यवस्था है।
क्या देखें: शेर गिरवन का पहला आकर्षण है। मई-जून से 56 विशेषज्ञों की एक समिति शेरों की गिनती में लगी है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस समय (1995 में) यहां 300 शेर तो हैं ही। सन 1968 की गणना में यहां 177 शेर थे जो 1974 में बढ कर 180, 1979 में 205, 1985 में 239 और 1990 की गणना में 284 तक पहुंच गये। भारत में गिरवन और अफ्रीका के जंगलों के अलावा ये शेर और कहीं नहीं पाये जाते। वन्य जन्तु विशेषज्ञ शेरों के लिये देश में एक और ठिकाने की तलाश कर रहे हैं। शेरों पर शोध कर रहे वन्य जन्तु संस्थान के रवि चेल्लम के अनुसार शेरों को एक ही जंगल में रखना खतरे से खाली नहीं है। कभी भी कोई बीमारी या प्राकृतिक आपदा उनका नाश कर सकती है। इससे उनके विलुप्त होने का संकट उत्पन्न हो जायेगा। वैसे भी गिर के जंगलों में शेरों के लिये जगह कम पड गई है और वे आरक्षित क्षेत्र से बाहर निकलकर आसपास के इलाकों में जाने लगे हैं।
हिरण्य नदी के तट पर स्थित गिरवन में पानी का शेर घडियाल प्रजनन केन्द्र भी है। यहां घडियालों के प्रजनन के समय से लेकर आठ वर्ष तक के होने तक की सभी गतिविधियां देखी जा सकती हैं। शेर और घडियालों के अतिरिक्त गिर के जंगलों में लकडबग्घा, सांभर, नीलगाय, चीतल, चौसिंगा, जंगली सुअर और कभी कभार तेंदुए भी देखे जा सकते हैं।


लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से