उत्तर प्रदेश की तराई के दलदली किनारों और घने जंगलों के अंचल में वन्य प्राणियों की क्रीडा स्थली है- दुधवा राष्ट्रीय उद्यान। दुधवा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और वैविध्यपूर्ण वन्य जीवन के लिये दुनिया भर में मशहूर है। कुदरत के इस दयार को देखने के लिये हर वर्ष हजारों सैलानी दुधवा पहुंचते हैं और अपने साथ यहां की अविस्मरणीय यादों की सौगात लेकर वापस लौटते हैं।
एक अरसे पहले तक दुधवा के ये जंगल स्थानीय रियासत के अधीन थे। यहां शाही शिकार के अनेक रोचक किस्से लोक कथाओं का हिस्सा बन चुके हैं। राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व दुधवा एक अभयारण्य था और इसकी स्थापना 1969 में हुई थी। उस समय इसका क्षेत्रफल सिर्फ 212 वर्ग किलोमीटर था। पहली फरवरी 1977 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया और साथ ही इसका क्षेत्रफल बढाकर 498 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। सन 1973 में दुधवा में बाघ परियोजना शुरू की गई। बाघ परियोजना यहां काफी हद तक सफल रही लेकिन इनकी सुरक्षा के लिये निर्धारित मानदण्डों के अनुरूप कर्मचारियों की यहां भारी कमी है।
इन सबके बावजूद दुधवा ने वन्य पर्यटन की दुनिया में अपने लिये एक खास जगह बना ली है। सुबह होते ही हाथियों के हौदों पर सवार पर्यटकों की टोलियां जंगल में प्रवेश के लिये तैयार मिलती है।
कब जायें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के सौन्दर्य को 15 नवम्बर से 15 जून के मध्य निहारा जा सकता है। शरद ऋतु यहां के भ्रमण के लिये सबसे अच्छी है। इस मौसम में गर्मी भ्रमण का मजा किरकिरा नहीं कर पाती। सर्दियों में यहां के लिये गरम कपडे और शाम के लिये हल्की गरम शाल साथ लाना अच्छा रहता है।
कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा लखनऊ है। यहां से आगे का सफर कार, बस या ट्रेन से तय किया जा सकता है। दुधवा दिल्ली, बरेली, पीलीभीत, मैलानी, सीतापुर, लखीमपुर खीरी और लखनऊ से रेलमार्ग द्वारा जुडा हुआ है। सडक मार्ग द्वारा दिल्ली से दुधवा जाने के लिये मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, पूरनपुर, मैलानी और पलिया होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। लखनऊ से सीतापुर, लखीमपुर खीरी और पलिया के रास्ते भी दुधवा पहुंचा जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 430 किलोमीटर, लखनऊ 238 किलोमीटर, मैलानी 100 किलोमीटर, बरेली 178 किलोमीटर।
कहां ठहरें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के ठहरने की समुचित व्यवस्था है। वन विभाग का विश्राम गृह पूर्ण शान्ति और एकान्त चाहने वालों के लिये उपयुक्त जगह है। आप चाहें तो यहां डोरमेट्री अथवा टेण्ट में भी निवास कर सकते हैं। सोनारीपुर, साथियाना, बनकट्टी, विल्लारिन, कैला और चन्दन चौकी में भी वन विभाग के विश्राम गृह हैं। इन विश्राम गृहों में आवासीय सुविधा पाने के लिये चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन, फील्ड डाइरेक्टर प्रोजेक्ट टाइगर और सम्बद्ध वन प्रभागीय कार्यालयों से अग्रिम आरक्षण कराया जा सकता है।
क्या देखें: सिर पर सींगों का मुकुट सजाये बारहसिंगा दुधवा की एक बेशकीमती सौगात है। हिरणों की यह विशेष प्रजाति ‘स्वैंप डियर’ अथवा ‘सेर्वुस डुवाउसेलि कुवियेर’ भारत और दक्षिण नेपाल के अतिरिक्त दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती है। नाम के अनुरूप सामान्यतः यह माना जाता है कि इस जाति के हिरणों के बारह सींग होंगे लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। बारहसिंगा के सिर पर दो सींग होते हैं और वे ऊपर जाकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाते हैं। आमतौर पर इनकी संख्या 10 से 14 के बीच होती है। दुधवा के कीचड-कादों वाले दलदली इलाकों में बारहसिंगा के झुण्ड नजर आते हैं। इस पशु के सम्मान में लखनऊ और दुधवा के बीच चलने वाली एक पर्यटक बस का नाम ही बारहसिंगा रखा गया है।
दुधवा में बाघ देखना दूसरे अनेक राष्ट्रीय उद्यानों की अपेक्षा अधिक सुगम है। इसकी वजह यह है कि यहां बाघों की काफी आबादी निवास करती है। नवीनतम गणना (1995) के अनुसार सुन्दरवन और सिमलीपाल के बाद सर्वाधिक बाघ दुधवा में ही हैं। इस समय (1995 में) यहां पर 94 बाघ हैं।
पार्क में 400 प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं। जंगल की सैर के समय कई अपरिचित चिडियों से मुलाकात हो जाती हैं। आप इन्हें न भी देखें, तब भी इनकी स्वरलहरियां आपके कानों में मिश्री घोल जायेंगी। कई प्रकार के सांप, विशालकाय अजगर, मछलियां और मगरमच्छ भी यहां काफी संख्या में पाये जाते हैं।
बारहसिंगा के अतिरिक्त यहां हिरणों की छह और प्रजातियां भी पाई जाती हैं। ये हैं- चीतल, सांभर, काला हिरण, काकड और पाडा। जंगली हाथी, सूअर, भालू, तेंदुआ, लकडबग्घा, लोमडी, खरगोश, लंगूर और साही भी यहां देखे जा सकते हैं।
एक अरसे पहले तक उत्तर प्रदेश की तराई और दलदली इलाकों में भारतीय गैंडे बहुतायत में पाये जाते थे लेकिन आज इस तथ्य पर सहसा यकीन नहीं आता। 1910 में गैंडों को शासकीय सुरक्षा प्रदान की गई किन्तु इस घोषणा के कुछ पहले ही शिकारी यहां के जंगलों से गैंडों का सफाया कर चुके थे। उत्तर प्रदेश की धरती से गैंडों के लुप्त होने के करीब 100 वर्ष बाद दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में देश की पहली गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई। सन 1984 में शुरू हुई इस परियोजना को काफी समय हो चुका है। इस अन्तराल में गैंडों की संख्या में अनुमान के अनुरूप वृद्धि तो नहीं हुई, फिर भी यह उम्मीद अवश्य जगी है कि आगामी पांच छह दशकों के भीतर इस क्षेत्र में गैंडे पहले की तरह की निर्भय विचरण कर सकेंगे।
दुधवा के इलाके में थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस जाति की महिलाएं राजस्थान के राजवंश से सम्बद्ध हैं। इनके पुरुष सदस्य युद्ध में मारे गये और ऐसी स्थिति में अनेक थारू महिलाओं ने अपने सेवकों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। दुधवा के इर्द-गिर्द थारुओं के अनेक गांव हैं जहां इनके बीच पहुंचकर आप अपने वन पर्यटन की रोचकता को बढा सकते हैं।
राष्ट्रीय उद्यान में भ्रमण के लिये प्रशिक्षित हाथी, सफारी वाहन और कुशल पथ-प्रदर्शकों की समुचित व्यवस्था है। कौन सा जानवर किस स्थान पर होगा, इसका पता लगाने में इन्हें महारथ हासिल है।
दुधवा भ्रमण के दौरान जो चीज सबसे अधिक रोमांच और कौतुहल उत्पन्न करती है, वह है- टाइगर हैवन। पार्क के दक्षिणी छोर पर स्थित टाइगर हैवन बिली अर्जन सिंह नामक एक स्वतंत्र वन्य जीवन संरक्षणवादी का खूबसूरत आवास है। सन 1959 में सेना की नौकरी छोडने के बाद से ‘बिली’ विडाल परिवार के वन्य पशुओं विशेषकर तेंदुओं और बाघों की भलाई में जुटे रहे। उनकी पुस्तक ‘टाइगर-टाइगर’ बेहद लोकप्रिय हुई जिसमें दुधवा के नरभक्षी बाघों का सजीव चित्रण है। बिली को चिडियाघरों में पैदा हुए या परित्यक्त वन्य प्राणियों को पाल-पोसकर बडा करने और फिर से वन्य जीवन में प्रविष्ट कराने की कला में महारत हासिल है।
लेख: अनिल डबराल
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
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