बुधवार, दिसंबर 21, 2011

कलिम्पोंग- नॉर्थ-ईस्ट का फ्लॉवर ऑफ वैली

गर्मियों में घूमने का प्लान है और शिमला, मनाली, कुल्लू, दार्जीलिंग, नैनीताल जैसे हिल स्टेशनों के अलावा कहीं और पहाडी जगहों की सैर करना चाहते हैं तो कलिम्पोंग आपके लिये बेहतर विकल्प हो सकता है। हिल स्टेशन होने के अलावा कलिम्पोंग का सबसे बडा आकर्षण वहां का शान्त, साफ-सुथरा वातावरण है जो दूसरे हिल स्टेशनों में सैलानियों की भीड के बीच आपको नहीं मिलेगा। शहर की गलियों में हर तरफ मौजूद मोनेस्ट्री और चर्च कलिम्पोंग को पवित्र और आध्यात्मिक माहौल देते हैं। नायाब फूलों की खेती कलिम्पोंग की खूबसूरती में चार चांद लगाती ही है। इनके अलावा, हिमालय की तराई इसे दूसरे हिल स्टेशनों का मौसम, मिजाज और खूबियां देता है। तिब्बत के साथ व्यापार का मुख्य द्वार भी यहीं से खुलता है। तो फिर चलें, कलिम्पोंग के सुहाने सफर पर:
कलिम्पोंग पश्चिमी बंगाल के उत्तर में स्थित है। यह सिक्किम और तीस्ता जैसी नदियों को स्पर्श करता है। देश के प्रमुख हिल स्टेशन दार्जीलिंग से 50 किलोमीटर और गंगटोक से महज 80 किलोमीटर की दूरी भी इसके आकर्षण का केन्द्र है। फिर भी दूसरे पर्वतीय शहरों की तुलना में यहां सैलानियों का तांता कम ही लगा रहता है। यहां जबरदस्त ठण्ड पडती है जबकि गर्मियों का मौसम सबसे सुहाना होता है।
कलिम्पोंग शब्द की उत्पत्ति के हिसाब से देखें तो इसके कई मतलब निकलते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि कलिम्पोंग का मतलब होता है, जहां जनजातीय लोग मिलते हैं और अपने खेलों को खेलते हैं। किसी का मानना है कि भूटान की एक जगह के नाम पर इसका नाम कलिम्पोंग पडा। कुछ लोगों के हिसाब से यहां पाये जाने वाले एक पेड कॉलिम के नाम से इसे कलिम्पोंग कहा गया। 18वीं सदी तक कलिम्पोंग सिक्किम के राजघराने का हिस्सा था, इसके बाद इस पर भूटानियों का कब्जा हो गया और फिर 19वीं सदी में ब्रिटिश राज का हिस्सा बन गया यह शहर।
कलिम्पोंग की खासियत
कलिम्पोंग में कई ऐसी जगहें हैं जो इसे दूसरे हिल स्टेशनों से अलग और बेहतर बनाती हैं।
मोनेस्ट्री कलिम्पोंग की खासियत हैं। यहां तीन मोनेस्ट्री मौजूद हैं- थरपा मोनेस्ट्री, तोंग्सा मोनेस्ट्री और ब्रंग गोम्पा। इनमें थरपा मोनेस्ट्री तिब्बतियों के बौद्ध मोनेस्ट्री का ही हिस्सा है, जहां से धर्मगुरू दलाई लामा जुडे हैं। तोंग्सा मोनेस्ट्री यहां का सबसे पुराना है, जिसकी स्थापना 1692 में की गई थी। ब्रंग गोम्पा की स्थापना स्वयं दलाई लामा ने 70 के दशक में की थी। यह मोनेस्ट्री तिब्बतियों की चित्रकारी के लिये मशहूर है।
कलिम्पोंग में एक से बढकर एक नायाब फूलों की खेती होती है। इनमें ग्लैडीओलस सबसे खास है। ग्लैडीओलस की खेती शहर को और भी ज्यादा खूबसूरत बनाती है। देश भर में ग्लैडीओलस फूल की खेती का 80 प्रतिशत अकेले कलिम्पोंग में ही होता है। इतना ही नहीं, यहां फूलों की कई नर्सरियां हैं जहां सैलानी चुनिन्दा और विरले फूलों का पूरा का पूरा कलेक्शन देख सकते हैं।
इनके अलावा, यहां का तीस्ता बाजार व्हाइट वाटर राफ्टिंग के लिये मशहूर है। सेरीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट, डॉक्टर ग्राहम होम और नेचर इंटरप्रिटेशन सेंटर भी सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र हैं।
कलिम्पोंग में और क्या?
कलिम्पोंग के आसपास कई ऐसे गांव हैं जो प्राकृतिक सौन्दर्य और अपनी अनूठी वास्तुकला से भरे हुए हैं। इनमें लावा, कैफर दर्शनीय हैं। यहां से कंचनजंघा की खूबसूरत चोटियों को काफी करीब से देख सकते हैं।
दो से तीन दिन के सफर में आप कलिम्पोंग में बेहतर तरीके से घूम सकते हैं। इसके अलावा अगर आपके पास समय है तो आसपास के इलाकों का भी नजारा जरूर लें, जैसे सिलीगुडी, गंगटोक आदि। इस रास्ते पर आप रोप-वे का भी मजा ले सकते हैं। कुछ और दिन का समय है तो भूटान बॉर्डर भी यहां से कम समय में पार किया जा सकता है, वो भी बिना वीजा के।
कैसे पहुंचें?
हवाई, ट्रेन और सडक सभी रास्तों से यहां पहुंचा जा सकता है। हवाई रास्ते से अगर आ रहे हैं तो आपका नजदीकी एयरपोर्ट सिलीगुडी पडेगा। गंगटोक और बागडोगरा से सडक के रास्ते भी कलिम्पोंग पहुंचा जा सकता है। कलिम्पोंग पहुंचने के लिये करीबी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुडी है। यह स्टेशन हावडा और दिल्ली से आने वाली कई ट्रेनों से जुडा है।
लेख: शिल्पी रंजन (राष्ट्रीय सहारा, संडे उमंग, 13 मार्च 2011)

आसपास:

मंगलवार, दिसंबर 20, 2011

मेवाड- एक सम्पूर्ण पर्यटन स्थल

सभ्यता का अर्थ यदि विनय, शौर्य, स्वतन्त्रता, सहिष्णुता और सहयोग है तो इस अर्थ को स्थापित करने में भारतीय इतिहास की भूमिका असंदिग्ध है। हमारे देश में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां वीरता, धीरता, बलिदान, वात्सल्य, त्याग, स्वामिभक्ति, कला संगीत और नैसर्गिक आस्था की भरपूर फसल लहलहाती रही है। ऐसा ही एक जीवन्त ऐतिहासिक स्थल है महाराणा प्रताप की भूमि- मेवाड।

राजस्थान प्रदेश के दक्षिण में उदयपुर, चित्तौडगढ, जयसमन्द व कांकरोली जिलों का परिक्षेत्र पर्यटन की दृष्टि से वे सभी तत्व समेटे हुए है जिनकी हर पर्यटक इच्छा करता है। पुराणों में वर्णित मध्यमिका (चित्तौड के पास) नगरी और उदयपुर में धूलकोट के टीलों की खुदाई से मिले अवशेष मानव संस्कृति के उदभावन और विकास की कहानी कहते हैं।

हल्दीघाटी में बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप की सेनाओं के मध्य लडा गया भीषण युद्ध वस्तुतः यहां के इतिहास का मुख्य स्वर रहा है। इसीलिये चित्तौडगढ और कुम्भलगढ जैसे विशाल गिरि दुर्ग मेवाड की शोभा हैं। पत्थर यदि बोल सकते, दीवारें बातें कर पातीं तो चित्तौड पहुंचने वाला प्रत्येक इंसान जान पाता कि आजादी की ज्योति को जलाये रखना कितना कठिन है। भारत का सबसे सुन्दर 122 फीट ऊंचा संगमरमर का वह कीर्ति-स्तम्भ यही है जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा की कलाप्रियता, स्थापत्य, शिल्प, भास्कर्य की समझ को कालजयी बनाने के लिये करवाया गया था। यहीं पर भक्तिमति मीरा का वह मन्दिर है जहां उसने जहर का प्याला पीकर आस्था को परम ऊंचाई प्रदान की थी।

दिल्ली से उदयपुर के रेल-सडक मार्ग पर ‘मेवाड’ की यात्रा के लिये सभी सुविधाएं हैं जो चित्तौडगढ होकर ही आगे बढती हैं। अहमदाबाद व जोधपुर से भी यहां पहुंचना सहज है। चित्तौड का किला सन 1985 से विश्व धरोहर का अंग बन गया है। यह इसकी दर्शनीयता का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है। फिर भी यहां के मन्दिरों, प्रासादों और जलाशयों में इतना कुछ दर्शनीय है कि उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। किले की दक्षिण दिशा में कुछ निचाई पर ‘मोहरमगरी’ नामक नन्हीं पहाडी की बस यही विशेषता है कि यह महादुर्ग के पतन का कारण बनी थी। बादशाह अकबर ने युद्ध के दौरान इस पहाडी की ऊंचाई बढाने के लिये एक टोकरी मिट्टी की कीमत एक स्वर्ण-मुहर दी थी। सैंकडों लोगों की मौत के बाद ही इसकी ऊंचाई बढाकर उस पर तोप चढाकर हमला किया गया था जो सफल रहा।

दूसरा महादुर्ग कुम्भलगढ उदयपुर की उत्तर दिशा में 90 किलोमीटर दूर है। सघन-दुर्गम अरावली पर्वत श्रंखलाओं में होने के कारण यह आजीवन अजेय रहा। यहां पहुंचना एक तरह का पराक्रम ही है। इसीलिये यहां बहुत कम ही पर्यटक जाते हैं। इतिहास के शोध छात्रों के अलावा सामान्य जन के लिये यहां दो मंजिली यज्ञ वेदी, नीलकण्ठ महादेव प्रासाद, महल और भगवान विष्णु के 24 अवतारों की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं।

उदयपुर शहर साधारणतः झीलों के लिये प्रसिद्ध है जो काफी हद तक सही भी है परन्तु इसके अलावा भी यह एक सम्पूर्ण पर्यटक स्थल है। विशाल पिछौला झील की पूर्वी दिशा में खडे महाराणाओं के महल अपने वैभव और सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब पानी में देखकर स्वयं मोहित होते प्रतीत होते हैं। यह आश्चर्यजनक किन्तु सुखद लगता है कि लगातार युद्धों में घिरे रहकर भी मेवाडी महाराणाओं को इतनी फुरसत कैसे मिली कि उन्होंने स्थापत्य, शिल्प, चित्रकला, सामरिक महत्व, सुरक्षा, सुख सुविधा आदि दृष्टियों से बेहतरीन राजमहलों का निर्माण करवाया। शीश महल, छोटी बडी चित्रशालाएं, जनानी ड्योढी में रखे प्राचीन साजो-सामान, वाहन, सोने चांदी से मढी पालकियां, आयुध संग्रहालय, लघु चित्रांकन विथि, प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां, महाराणा प्रताप का जिरह बख्तर और सवा मन का भाला आदि को देखते देखते दर्शक समय भूल जाता है।

महलों से निकलकर जगन्नाथ राय का गगनचुम्बी मन्दिर, स्वरूप सागर, फतेह सागर, सहेलियों की बाडी यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को दोबाला करने वाले स्थान हैं तो लोक-कला मण्डल में अर्जित संचित लोककला की अकूत सम्पदा मन को मोह लेती है। ‘आयड’ नदी के पार धूलकोट का संग्रहालय इस भूभाग के चार हजार साल पुराने इतिहास की गवाही देता है। इसके पास ही मेवाडी महाराणाओं की अति विशाल किन्तु कलात्मक समाधि-स्मारक बरबस आश्चर्यचकित करते हैं।

उदयपुर शहर के आसपास अनेक स्थान हैं जहां पर्यटक एक ही दिन में जाकर लौट सकता है। उत्तर दिशा में बीस किलोमीटर की दूरी पर मेवाडी अधिपति भगवान एकलिंगनाथ का भव्य प्रासाद मेवाडी संस्कृति के आदि पुरुष राजा कालभोज (बप्पा रावल) की श्री वृद्धि करने वाला स्मारक है। एक परकोटे में घिरे अनेक मन्दिरों का शिल्प और मूर्तिकला आंखों को हर पल व्यस्त रखती हैं। इस स्थान से डेढ किलोमीटर पहले ‘सास बहू का मन्दिर’ के नाम से प्रसिद्ध विष्णु के शेषशायी स्वरूप का मन्दिर खण्डित होते हुए भी अपने निर्माण काल की वैभवशाली परम्परा का प्रतीक है।

नाथद्वारा उदयपुर से ठीक 50 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है। भारत में तिरुपति के बाद यही वह स्थान है जहां सर्वाधिक चढावा आता है। आज भी इस कस्बे की लगभग आधी आबादी भगवान श्रीनाथजी की चाकर हैं।

पहली दृष्टि से देखें तो लगता है कि जलाशय और बांध तथा बावडियों में ऐसा क्या है जो दर्शनीय हो। परन्तु मेवाड के लगभग दो सौ से ऊपर तालाबों और तकरीबन एक हजार बावडियों में से प्रायः प्रत्येक के साथ अलग-अअलग रोचक-रोमांचक कथाएं जुडी हैं किन्तु उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है इन जल-स्थापत्यों का रचना शिल्प। पूर्णतः शास्त्रीय विधान और अवधारणाओं पर बनी ये रचनाएं ‘जल’ को श्री हरि के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं।

मूर्तिभंजक औरंगजेब ने स्वयं आदेश देकर राजसमन्द के बांध पर बने मण्डपों में उत्कीर्ण प्रस्तरी सौन्दर्य को तोडे जाने से बचाया था। नौ चौकी के नाम से परिचित इस जलाशय के बांध में ‘नौ’ अंक के प्रति ऐसा अदभुत आग्रह दिखाई देता है कि विस्मय होता है। नौ चबूतरे नौ-नौ इंच ऊंची नौ सीढियों से जुडे हैं, मण्डपों का निर्माण नौ खण्डों में, हर मण्डप की छत पर नौ खाने आदि सम्भवतः नवग्रह की मान्यता को सन्तुष्ट करने के लिये ही बनाये गये होंगे। जल के अथाह विस्तार से कहीं ज्यादा प्रभावित करता है संगमरमर पर तक्षित भास्कर्य। यह स्थान नाथद्वारा से सिर्फ 20 किलोमीटर आगे है। इसके बीस किलोमीटर बाद है रणकपुर का भारत प्रसिद्ध जैन मन्दिर। यह स्थान निसर्ग और इतिहास तथा शिल्प का ऐसा बेजोड उदाहरण है कि अभी पूर्णतः अकेला और परिशुद्ध है। आसपास कोई गांव-कस्बा या शहर नहीं। बस केवल और केवल मन्दिर है परन्तु संगमरमर की ऐसी ख्यातिलब्ध दूसरी रचना तलाश कर पाना कठिन है। यहां पहुंचने वाला प्रत्येक पर्यटक अपनी किसी भी प्रकार की अभिरुचि के बावजूद अवश्य सन्तुष्ट होता है।

उदयपुर की दक्षिण दिशा में पचास किलोमीटर दूर जयसमन्द नामक देश की सबसे बडी प्राकृतिक झील है। इसके लिये कहावत है कि नौ नदियां और नब्बे नाले मिलकर झील का पेट भरते हैं। यह जलाशय भारतीय फिल्मकारों का प्रिय स्थान है। बांध पर बने हिमश्वेत संगमरमर के हाथी और दूर दूर तक फैले टापुओं का आकर्षण दर्शकों को यहां खींचता है।

लेख: योगेश्वर शर्मा (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, दिसंबर 19, 2011

सिक्किम- पर्यटन का चरमसुख

सुखिम यानी ‘चरम सुख’ से बना सिक्किम उन पर्यटकों के लिये कौतुक जैसा ही है, जो भीड-भाड से हटकर कुछ नये की तलाश में रहते हैं। मार्च-अप्रैल का महीना वहां के लिये बहार का महीना है। इन महीनों में हर वर्ष वहां पुष्प प्रदर्शनी लगती है। पहाड की वादियों में प्रकृति की लीला देखने वाले देशी-विदेशी पर्यटक इस मौसम में गंगटोक आना नहीं भूलते। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद ने भी पर्यटकों को कंचनजंघा पर्वतमाला से घिरे इस शान्त प्रदेश की ओर मुखातिब किया है।

सुखिम के पीछे किंवदन्ती है कि 15 वीं सदी में एक लेप्चा सरदार गोंचू ने लिंबू जाति की युवती से शादी की। लेप्चा सरदार अपनी नई-नवेली दुल्हन को बांस तथा फूलों से सजे घर में लिवा लाया। युवती चकित थी और उसके मुंह से सहसा निकला ‘सुखिम’। श्रंगार रस के कवियों और इसी लीक के लेखकों ने इस सन्दर्भ को उद्धृत कर सिक्किम शब्द की सार्थकता पर अनगिनत रचनाएं तैयार कर डालीं। कवियों की रचनाओं से अलहदा 1641 का इतिहास बताता है कि सिक्किम जैसे सौन्दर्य प्रदेश को तीन भोटिया लामाओं ने खोजा था। पर तीनों में शासन के सवाल पर मतभेद नहीं सुलझ सका। अंततः उन्होंने फुंत्सो थोंदूप नामग्याल नामक एक कुलीन सरदार को सिक्किम की सत्ता के लिये आमन्त्रित किया। यह राजा चोग्याल नाम से भी मशहूर हुआ जिसका अर्थ धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार शासन करने वाला बताया गया। इस वंश के अन्तिम शासक पाल्देन थोंदूप नामग्याल 1975 में सिक्किम के भारत में विलय तक अन्तिम शासक रहे। खैर भोटिया, लेप्चा, लिंबू, राई, मगर और गोरखालियों की अन्य जातियों के इस प्रदेश पर प्रकृति की बडी कृपा रही है।

चीन स्वशासित तिब्बत, भूटान और नेपाल से सटे सिक्किम की राजधानी गंगटोक अभी वायुमार्ग और रेल से जुडा नहीं है। पाक्योम के पास हवाई अड्डा बनना अब शुरू हुआ है। पिछले दिनों रेल से इस सूबे को जोडने के लिये सर्वेक्षण हुआ है। कुछ समय पहले तक सिक्किम में सामान्य तौर पर सभी इलाकों के लिये पर्यटकों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध था। लेकिन अब ऐसा नहीं है।

तकरीबन 7100 वर्ग किलोमीटर और 5800 फीट की ऊंचाई पर बसे सिक्किम में आबादी का भार अब भी ज्यादा नहीं है। कम जनसंख्या के कारण पर्यावरण भी नियन्त्रित है। गर्मियों में अधिकतम 28 डिग्री और न्यूनतम 13 डिग्री तापमान के कारण हल्के ऊनी वस्त्र यहां सैर-सपाटे के लिये काफी हैं। अलबत्ता जाडे में मोटे ऊनी वस्त्रों की जरुरत पड सकती है। तब 18 डिग्री से लेकर 7.7 डिग्री सेल्सियस तापक्रम में पहाडी सर्दी का एहसास बना रहता है। मार्च से मई और अक्टूबर से दिसम्बर घूमने के लिये सबसे अच्छा मौसम माना गया है।

जैसा कि जाहिर हो चुका है कि सिक्किम में अभी वायु सेवा के लिये हवाई पट्टी नहीं बन पाई है। हवाई यात्रा का शौक रखने वाले पर्यटकों को गंगटोक से मात्र 124 किलोमीटर दूर हवाई अड्डे पर उतरना पडता है। उत्तरी बंगाल का यह हवाई अड्डा कोलकाता, दिल्ली और पूर्वोत्तर की नियमित हवाई सेवाओं से जुडा है। जिन्हें रेल यात्रा भाती है, उनके लिये गंगटोक से सिर्फ 114 किलोमीटर दूर सिलीगुडी और 125 किलोमीटर के फासले पर न्यूजलपाईगुडी रेलवे स्टेशन हैं। इन स्टेशनों पर उतरने के बाद गंगटोक के लिये दुनिया भर की बस-टैक्सी सेवाएं हैं।

जिन पर्यटकों को सडक मार्ग से सफर का शौक है, वे दार्जीलिंग, कलिम्पोंग और सिलीगुडी से पहाडी रास्तों से तीस्ता नदी के किनारे-किनारे तफरीह करते चार से पांच घण्टे में गंगटोक का रास्ता तय कर सकते हैं। गंगटोक के लिये बागडोगरा, सिलीगुडी, कलिम्पोंग और दार्जीलिंग से सिक्किम नेशनलाइज्ड ट्रांसपोर्ट सर्विस के अलावा प्राइवेट बसें व टैक्सियां काफी हैं। अपना वाहन हो और यदि सिलीगुडी से गंगटोक जाना हो तो 74 किलोमीटर पर रांगपो, 85 किलोमीटर पर सिंगटैम, सौ किलोमीटर पर थादोंग और 113 किलोमीटर पर देवराली में पेट्रोल पम्प हैं, जहां ईंधन मिल जाता है। दार्जीलिंग कलिम्पोंग मार्ग में भी बहुत से पेट्रोल पम्प हैं, इसलिये ईंधन की दिक्कतें पेश नहीं आतीं।

सिक्किम में यदि विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के लिये नहीं हैं तो उच्च वर्ग के लिये फाइव स्टार होटल भी नहीं हैं, लेकिन साफ-सुथरे मध्यम श्रेणी के होटल जरूर हैं। पूर्वी सिक्किम में पालजोर स्टेडियम रोड पर होटल मयूर, इंचेनी मठ के पास सिनिलयू लॉज, महात्मा गांधी मार्ग पर होटल ताशी देलक, होटल कर्मा, होटल ग्रीन, होटल वुडलैण्ड्स, होटल दीखी, होटल डोमा, कंचनजंघा होटल के अलावा नेशनल हाइवे पर होटल शेर-ए-पंजाब, होटल हंगरी जैक, पैराडाइज लॉज, एंगपू में टूरिस्ट लॉज, पश्चिमी सिक्किम में पेमायांग्से के पास होटल माउण्ट पैडिम है। इसी रोड पर ट्रेकर्स हट है। दक्षिणी सिक्किम में नामची में यूथ हॉस्टल है।

114 मठों के प्रदेश सिक्किम को यदि मिनी तिब्बत कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें महत्वपूर्ण पश्चिमी सिक्किम में पेमायांग्त्से, ताशीदिंग, दक्षिण में रेलांग और फेदोंग और उत्तरी सिक्किम में तोलुंग मठ गंगटोक से 15 से 38 किलोमीटर दूरी पर हैं। इन्ये मठ गंगटोक से सिर्फ तीन किलोमीटर दूरी पर है जो तन्त्र मंत्र और मुखौटा नृत्य के लिये विश्व प्रसिद्ध है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण खदटेक मठ है जो बहुसंख्यक तिब्बती काग्यूत सम्प्रदाय से जुडा है। अन्तर्राष्ट्रीय जासूसी के कारण यह मठ विवाद के घेरे में रहा है। रूमटेक, बौद्ध मठ की चार शाखाओं में से एक काग्यूत शाखा का मुख्यालय है। विश्व भर में इस मठ की 200 शाखाएं हैं। काग्यूत शाखा के 16वें ग्यालवा कर्सपा ने 1966 में तिब्बत से पलायन कर इस ऐतिहासिक मठ की स्थापना की थी।

रूमटेक धर्मचक्र सेंटर के पास ही नेहरू बोटैनिकल गार्डन भी एक दर्शनीय स्थल है। आर्केड सेंचुरी के पास तिब्बतोलोजी एक अहम केन्द्र है जहां तिब्बती साहित्य, कला दर्शन से जुडी सामग्री देखी जा सकती है। थंक पेंटिंग के वृद्धाकार रूप यहां के संग्रहालय की अदभुत पूंजी में से है। उत्तरी सिक्किम में ताशी प्यूखांड से सूर्योदय और कंचनजंघा, जोंगा और माउण्ट जिनिलचू पर्वतमालाओं की लीलाओं का दृश्य रोमांचित करता है। यहां बाइपास से गुजरिये तो पाइन सेंचुरी, गणेश टोक, हनुमान टोंक, विलंगा तिब्बत रोड से गुजरते हुए रिज और व्हाइट हाल के बीच का पार्क फ्लावर शो के लिये महत्वपूर्ण जगह है, जहां देशी-विदेशी पर्यटक पुष्प प्रदर्शनी देखने के लिये जुटते हैं। पास में ही पुल पार नामग्याल शासकों का महल है। तीस्ता और रंगीत नदियों की तूफानी लहरों में कयाकिंग और राफ्टिंग का रोमांचक आनन्द पर्यटकों को खींचते हैं।

गंगटोक से 40 किलोमीटर दूर 12210 फीट की ऊंचाई पर त्सोगू लेक है जहां मई से अगस्त के बीच ब्लू और पीले रंग के पोस्ता पौधों के फूलों को अन्य दुर्लभ किस्मों के साथ देख सकते हैं।

लाल पांडा के इर्द गिर्द याक की सवारी और चारों ओर बर्फ हो, बीच में झील हो, ऐसे मंजर को बिसारना आसान नहीं। गंगटोक से 16 किलोमीटर दक्षिण में मार्तक खोला में वाटर गार्डन का दृश्यावलोकन भी प्रकृति प्रेमियों के लिये अदभुत संस्मरण है। गंगटोक से 25 किलोमीटर दूर फामबोंग अभयारण्य में हिमाल भालू जैसे दुर्लभ जीव जन्तु हैं। शहर में हैण्डीक्राफ्ट इम्पोरियल, सांगोर छोपोंग सेण्टर से खरीदारी कर सिक्किम की स्मृतियों को संजोया जा सकता है।

लेख: पुष्परंजन (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, दिसंबर 18, 2011

रामेश्वरम- समुद्री स्नान की सैरगाह

रामेश्वरम तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में पम्बन द्वीप पर स्थित है। काशी के बाद रामेश्वरम सर्वाधिक पवित्र तीर्थ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम ने लंकापति रावण पर विजय प्राप्ति से पूर्व भगवान शंकर की पूजा-अर्चना की थी। मन्नार की खाडी में स्थित रामेश्वरम वैष्णव व शैव धर्म के मानने वालों का एक प्रमुख तीर्थ है। साथ ही जो समुद्र में स्नान का आनन्द लेना चाहते हैं, उनके लिये भी यह एक आदर्श जगह है।

क्या देखें?

रामनाथ स्वामी मन्दिर समुद्र के पूर्वी छोर की ओर स्थित है। यहां के गलियारों में खम्भों पर बनी मूर्तियों में बारीक कारीगरी का नजारा देखते ही बनता है। मन्दिर का गलियारा भारत का सबसे लम्बा गलियारा है। यह 197 मीटर लम्बा (पूर्व-पश्चिम) है। मन्दिर का गोपुरम 38.4 मीटर ऊंचा है। मन्दिर का निर्माण 12वीं शताब्दी के बाद कई राजाओं ने करवाया था।

मन्दिर समुद्र से मात्र 100 मीटर की दूरी पर स्थित है। यहां आने के बाद पर्यटक व श्रद्धालु ‘अग्नितीर्थम’ नामक स्थान पर स्नान-ध्यान करते हैं।

पम्बन द्वीप के चारों ओर पानी में मछलियां हैं। यहीं संसार के सुन्दरतम मूंगे के टापू स्थित हैं। मन्दिर से तीन किलोमीटर दूर उत्तर की ओर गंधमदनम पर्वत स्थित है। यह द्वीप का सबसे ऊंचा स्थल है तथा यहां दो मंजिला मंडपम बना हुआ है।

कैसे पहुंचें?

चूंकि रामेश्वरम द्वीप है, इसलिये यह सडक व रेलमार्ग द्वारा शेष भू-भाग से जुडा हुआ है। निकटतम हवाई अड्डा मदुरै है, जो यहां से 167 किलोमीटर दूर स्थित है। रेलगाडी रामेश्वरम तक आती-जाती है।

कहां ठहरें?

पाश्चात्य व भारतीय शैली के होटल यहां बने हुए हैं। यूथ हॉस्टल, रेलवे विश्रामालय व धर्मशालाएं भी ठहरने के लिये पर्याप्त हैं।

खरीदारी

शंख व ताड के पत्तों से बनी वस्तुएं, मनके मन्दिर के समीप खरीदे जा सकते हैं। रामेश्वरम में बैंक, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस आदि की सुविधा उपलब्ध है।

लेख: दिनेश (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, दिसंबर 17, 2011

मैसूर- खुशबुओं का शहर

भारत के दक्षिण में बसा है बगीचों का एक शहर यानी मैसूर। मैसूर का नाम जुबां पर आते ही वातावरण जैसे चन्दन, चमेली, गुलाब और कस्तूरी से महक उठता है। समुद्र तल से 610 मीटर ऊंचाई पर स्थित मैसूर चन्दन के विशाल जंगलों, हाथियों, बगीचों और महलों के लिये प्रसिद्ध है। यों तो पहले पूरा कर्नाटक ही मैसूर या महिसुर के नाम से जाना जाता था, बाद में इसका नाम मैसूर से बदलकर कर्नाटक कर दिया गया।

चन्दन के इस शहर में प्रवेश करते ही मन अतीत के झरोखों में झांकने लगता है और उसका इतिहास जानने को उत्सुक हो जाता है। यही उत्सुकता हमें ले जाती है मैसूर के कोदिभैरेश्वर मन्दिर की ओर जहां ईसा से 1399 वर्ष पूर्व दो राजा यदुराय और कृष्णराय गुजरात के द्वारका से भगवान नारायण की पूजा करने आये थे, लेकिन महिसुर यानी मैसूर की खूबसूरती ने उनका मन मोह लिया। बाद में मैसूर की राजकुमारी देवजम्मनी से यदुराय का विवाह हुआ और इस तरह सन 1399 ई.पू. में वाडियार शासन की नींव पडी। 1578 ई.पू. में राजा वाडियार के उदय से पहले मैसूर विजयनगर राज्य का एक छोटा सा अंग था, लेकिन 1565 ई.पू. में विजयनगर राज्य के पतन के साथ साथ मैसूर एक बडा राज्य बन कर उभरा। कुछ इस तरह कि पूरा प्रदेश ही मैसूर कहलाने लगा। आज यही मैसूर कला, संस्कृति, प्राकृतिक छटा और ऐतिहासिक धरोहर से समृद्ध भारत का एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल बन गया है और अपनी खूबियों से पर्यटकों को लगातार अपनी ओर खींचता है।

शहर के दक्षिण में है चामुंडी हिल। समुद्र तल से 1062 मीटर ऊंची चामुंडी पहाडियों पर बना सात मंजिला मन्दिर दूर से ही दिखाई देने लगता है। आप चाहें तो एक हजार सीढियां चढकर मन्दिर तक पहुंचें या फिर सडक के रास्ते। गोपुरम तक पहुंचने के दो तिहाई रास्ते पर मिलता है नन्दी अर्थात भगवान शिव का वाहन। पांच मीटर ऊंचा यह विशाल नन्दी ठोस चट्टान काटकर बनाया गया है। यह स्थल हिन्दुओं का एक प्रमुख धार्मिक स्थल बन गया है।

चामुंडी हिल पर चढाई अपने आप में एक बेहद आनन्ददायी और रोमांचक अनुभव है। रास्ते में हरे-भरे पेड और खुशबू का झोंका पर्यटकों को ताजगी और उत्साह से भर देता है, उनके कदम बढते चलते हैं चामुंडेश्वरी मन्दिर की ओर। यहां पहुंच कर मैसूर शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। सात मंजिला गोपुरम, मन्दिर की ऊंचाई चालीस मीटर है। सडक के रास्ते चामुंडी हिल की चढाई 13 किलोमीटर ही है।

मुख्य शहर से सोलह किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में जाते ही जैसे प्राचीन मैसूर का इतिहास जीवन्त हो उठता है। यह है श्रीरंगपट्नम। यही है दक्षिण के महान शासक टीपू सुल्तान की राजधानी जहां से टीपू ने लगभग पूरे दक्षिण भारत पर शासन किया था। 18वीं शताब्दी के अन्त में टीपू ने यहां अंग्रेजों से अन्तिम लडाई लडी थी। हालांकि उस समय के बहुत कम अवशेष बाकी हैं, क्योंकि अंग्रेजों ने कई महल और भवन तहस-नहस कर दिये थे। फिर भी कुछ इमारतें और दरवाजे अभी बाकी हैं, जहां टीपू ने अंग्रेज सैनिकों को कैद कर रखा था। श्रीरंगपटनम की चहारदीवारी में एक मस्जिद और श्रीरंगनाथस्वामी का मन्दिर भी अपने अस्तित्व में है।

श्रीरंगपटनम से सडक के दूसरी ओर है दरिया दौलतबाग, टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन महल, गुम्बज और संग्रहालय। दरिया दौलतबाग एक खूबसूरत बगीचा है जिसमें स्थित संग्रहालय में रखी वस्तुएं टीपू सुल्तान की याद दिलाती हैं। विभिन्न चित्रकारों द्वारा बनाये गये टीपू सुल्तान और उसके परिवार के चित्र, रेखाचित्रों के अलावा दीवारों पर बने अनेक चित्र टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के युद्ध के दृश्य अंकित करते हैं।

मैसूर से 45 किलोमीटर पूरब में है सोमनाथपुर। 260 ई.पू. में बना सोमनाथपुर का चाणवक्केश्वर मन्दिर आज भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। होयसल राजाओं द्वारा निर्मित सितारे के आकार वाले इस मन्दिर की दीवारें पत्थर में वास्तुशिल्प का अदभुत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। विश्व की सुन्दरतम इमारतों में से एक है चाणक्केश्वर मन्दिर की इमारत। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत और होयसल राजाओं की जीवन शैली बहुत खूबसूरती से पत्थरों में उकेरी गई है।

मैसूर से 80 किलोमीटर दक्षिण में मैसूर-ऊटकमंड मार्ग पर स्थित विशाल बांदीपुर वन्य प्राणी उद्यान बारहसिंहों, चितकबरे हिरणों, हाथियों, साम्भर, बाघ और तेंदुओं के लिये प्रसिद्ध है। इस उद्यान की सैर जीप, ट्रक के अलावा हाथियों की सवारी द्वारा भी की जा सकती है और चाहें तो नदी में नाव द्वारा भी। श्रीरंगपटनम से तीन किलोमीटर दूर पक्षी विहार भी है। इसे रंगनायिडू पक्षी विहार के नाम से जाना जाता है। जून से सितम्बर तक यहां पक्षियों का कलरव गूंजता रहता है।

जब हम मैसूर की सैर कर रहे हैं और वृन्दावन गार्डन नहीं गये तो सब अधूरा। कावेरी नदी पर बने कृष्णसागर बांध से ही जुडा है वृन्दावन गार्डन। शहर से मात्र 19 किलोमीटर दूर स्थित यह उद्यान पर्यटकों में विशेष लोकप्रिय है। इस उद्यान की प्राकृतिक छटा के अलावा दूसरा प्रमुख आकर्षण है पश्चिमी और भारतीय संगीत की लय पर थिरकते झूमते फव्वारे। पश्चिम में सूरज ढलते ही उधर आसमान में अंधेरा घिरने लगता है और इधर रंग-बिरंगी रोशनियों में नहाये फव्वारे दिलकश संगीत के साथ कदम मिलाते झूमने लगते हैं। यह दृश्य देख रहे हजारों दर्शक थिरकने लगते हैं- फव्वारों की ताल पर। अपने सौन्दर्य और जीवंतता में वृन्दावन गार्डन सैलानियों के दिलों में बस जाता है।

मैसूर के आसपास तो घूम लिये, अब चलें खास मैसूर में, जहां है परीकथाओं जैसा महल यानी मैसूर का महल। इसे महाराजा पैलेस के नाम से भी जाना जाता है। परीकथाओं जैसे अदभुत सौन्दर्य से युक्त इस महल के कारण ही मैसूर को परियों का देश भी कहा जाता है। होयसल वास्तुशिल्प का अदभुत नमूना यह महल हिन्दू और मुस्लिम वास्तुशिल्प के संगम का उदाहरण प्रस्तुत करता है। चौदहवीं शताब्दी ई.पू. में बने इस महल में प्राचीन अवशेष अब न के बराबर हैं। सन 1911-12 में इसका पुनर्निर्माण हुआ, जिसका डिजाइन अंग्रेज वास्तुशिल्पी हेनरी इर्विन ने तैयार किया था। महल की मुख्य इमारत धूसर रंग के ग्रेनाइट पत्थर से बनी है, जिसमें तीन मंजिलें हैं और उसके ऊपर पांच मंजिली मीनार पर बने गोल गुम्बज पर सोने का पत्र चढा है। यह मीनार जमीन से 44 मीटर ऊंची है। महल के सात मेहराबदार दरवाजे और खम्भे वास्तुशिल्प का अनूठा नमूना हैं।

महल के बीचोंबीच एक बडे से आंगन के दक्षिण में कल्याण मण्डप है, जिसका प्रयोग शादी-विवाहों के लिये किया जाता है। यहीं पहली मंजिल पर निजी अम्बा विलास और दीवाने खास हैं। आंगन का मुख्य प्रवेश हाथी द्वार भी कहलाता है। महाराजा के समय में विशेष अवसरों पर शाही हाथी इसी पीतल के बने द्वार से गुजरकर आंगन में जाता था। मैसूर पैलेस का सबसे मुख्य आकर्षण है पारम्परिक स्वर्ण सिंहासन। नाचते मयूर की आकृति का यह सिंहासन भारत की शक्ति और अधिकार का प्रतीक माना जाता था।

मैसूर पैलेस की छटा देखनी है, तो शाम के समय देखें, जब लगभग साढे तीन लाख बल्बों की रोशनी से पूरा महल जगमगा उठता है और एकदम परीकथाओं के महलों की परिकल्पना साकार कर देता है।

अपने पर्यटन स्थलों के अतिरिक्त मैसूर जाना जाता है सुगंधियों के लिये। जब कभी चमेली, गुलाब, चन्दन और कस्तूरी की महक आती है तो यादों में महक उठता है मैसूर। यह अगरबत्ती बनाने का सबसे बडा केन्द्र है। दुनियाभर में यहां की बनी अगरबत्तियां निर्यात होती हैं। मैसूर का चन्दन तो बेजोड है। चन्दन की लकडी से बनी विभिन्न वस्तुएं और आभूषण सभी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। चन्दन की लकडी पर पच्चीकारी में यहां के कारीगरों की कुशलता देखते ही बनती है। चन्दन के फर्नीचर से लेकर आभूषण और पेन- किस पर नहीं है यहां के कारीगरों की कुशल अंगुलियों की छाप। चन्दन की लकडी के अतिरिक्त हाथीदांत व रोजवुड पर भी बारीक पच्चीकारी देखते ही बनती है।

लेख: विनिता गुप्ता (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, दिसंबर 16, 2011

माउंट आबू- झील में अपना सौन्दर्य निहारती सैरगाह

माउंट आबू राजस्थान का एक बहुत महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। प्राकृतिक खूबसूरती से भरा-पूरा यह स्थान प्रत्येक पर्यटक का मन मोह लेता है। गुजरात के सैलानियों के लिये तो यह विशेष आकर्षण है। इतिहास में भी यह अनेक कारणों से चर्चित रहा है। यहां का वन्य जीवन अत्यन्त मोहक और लुभावना है। आबू मन्दिरों और कला का केन्द्र है और यहां देखने के लिये कलात्मक मन्दिर, अजायबघर, कला दीर्घा, खूबसूरत बाग आदि अनेक स्थान हैं।

आबू में बांस, ताड, आम, अमलतास, गुलमोहर, खजूर, गुलहड, बोनवेलिया, ओक, कनेर तथा केवडा आदि के पेड बहुतायत में हैं। इनके अतिरिक्त चारों ओर जूही के फूल खिले हुए दिखाई देते हैं।

उदयपुर से मात्र 185 किलोमीटर दूर आबू का निकटतम रेलवे स्टेशन आबू रोड है। यहां से माउंट आबू 27 किलोमीटर दूर है और यहां बस व टैक्सियां उपलब्ध रहती हैं। माउंट आबू के लिये लगभग सभी प्रमुख नगरों से बस सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहां सितम्बर से मध्य जून के बीच का समय पर्यटन के अनुकूल है।

दिलवाडा के मन्दिर

आबू से चार किलोमीटर दूर दिलवाडा का प्रसिद्ध जैन मन्दिर है। ये संगमरमर पर सुन्दर कलात्मक चित्रकारी के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। अगर भारत में जैन स्थापत्य कला को देखना हो तो ये मन्दिर बेहतरीन मिसाल साबित होंगे। इन मन्दिरों में ‘विमल वसाही’ सबसे पुराना मन्दिर है। सन 1031 में निर्मित यह मन्दिर सबसे पहले तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित किया गया है।

नक्की झील

माउंट आबू की नक्की झील राजस्थान की सबसे ऊंची और मनोरम झील है। ऐसा कहा जाता है कि इसे देवताओं ने अपने नाखूनों से खोदा था, जिससे इसका नाम नखी पड गया, किन्तु कालान्तर में नक्की में परिवर्तित हो गया। नौका विहार पिकनिक के लिये तो यह बहुत ही सुन्दर जगह है।

झील के चारों ओर अजीब अजीब शक्ल की चट्टानें बिखरी पडी हैं। ऐसी ही एक चट्टान का नाम है टॉड रॉक। इसका आकार मेंढक जैसा छोटा नहीं है, बल्कि कई हाथियों से बडा है। टॉड रॉक की तरह यहां की नन रॉक भी बहुत मशहूर है। नन रॉक घूंघट निकाली हुई युवती की तरह लगती है। इसके अलावा यहां पर कई अनोखी गुफाएं भी हैं। इनमें चम्पा गुफा, हाथी गुफा और राम झरोखा गुफा आदि प्रसिद्ध गुफाएं हैं।

लवर्स रॉक

सनसेट प्वाइंट के निकट ही दो बडी बडी मानवाकृत चट्टानें प्रेमियों के हृदय में हुलास उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त हैं। ये दो चट्टानें इस प्रकार एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं, जैसे दो प्रेमी आलिंगनबद्ध हो एक दूसरे में खोये हुए हों। इसीलिये यह चट्टान लवर्स रॉक कहलाती है।

हनीमून प्वाइण्ट

यह नवविवाहित दम्पतियों के लिये उपयुक्त स्थान है। यहां पर्यटन विभाग द्वारा घने पेडों के झुरमुट में छोटी छोटी झोंपडियों का निर्माण किया गया है। सूर्योदय के समय लालिमापूर्ण ऊषा एवं सात रंगों के बीच से उभरते सूर्य को देखकर नैसर्गिक आनन्द की अनुभूति होती है।

सनसेट प्वाइण्ट

यहां से डूबते सूर्य को देखने पर उसकी किरणों में सातों रंग नजर आते हैं।

गोमुख मन्दिर

आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोमुख शिल्प व मूर्तिकला का बेजोड नमूना है। यहां संगमरमर के गोमुख से एक धारा प्रवाहित होती है, इसलिये इसका नाम गोमुख पडा। इस गोमुखी झरने की विशेषता यह है कि पहाडी की करीब 700 सीढियां उतरने के दौरान पूरी पहाडी में फैले आम व पलास के वृक्षों के बीच से गुजरना बडा आनन्ददायक लगता है।

गुरु शिखर

आबू शहर के निकट अरावली पहाडियों के सर्वोच्च शिखर गुरु शिखर पर दत्तात्रेय मन्दिर है, जिसके द्वार पर शताब्दियों पुराना भारी घण्टा टंगा हुआ है। यहां से आसपास के प्राकृतिक दृश्यों को निहारा जा सकता है।

ट्रैवर्स टैंक

इस तालाब को ट्रैवर नामक इंजीनियर ने बनवाया था, इसलिये इसका नाम ट्रैवर्स टैंक पडा। रमणीक पहाडियों से घिरे इस तालाब पर दूर-दूर से पक्षी आते हैं।

अचलगढ

आबू से 11 किलोमीटर दूर अचलेश्वर महादेव का शिव मन्दिर है, जिसमें काफी रोचक मूर्तियां हैं। इनमें शिव का पैर, पीतल का बना उनका बैल नन्दी इत्यादि विशेष दर्शनीय हैं। इसके बाहर तालाब के किनारे तीन पत्थर निर्मित भैंसों तथा उनका वध करते हुए एक राजा की प्रतिमाएं हैं। इस सम्बन्ध में एक किंवदन्ती है कि यह तालाब कभी घी से भरा हुआ था, लेकिन कुछ राक्षस भैंसों का रूप धरकर इसे रात में पी जाते थे, इसलिये राजा ने उनका वध कर दिया।

आबू के आसपास इन बहुत से दर्शनीय स्थलों पर राजस्थान राज्य परिवहन निगम की बस, टैक्सी, कार द्वारा पहुंचा जा सकता है। ये बसें प्रातः सात बजे एवं दिन में नौ बजे प्रस्थान करती हैं और मुख्य-मुख्य स्थानों पर ले जाती हैं।

कैसे जायें?

आबू जाने के लिये रेल द्वारा अहमदाबाद होकर या फिर अजमेर और उदयपुर होकर जाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न शहरों से बस सेवाएं भी उपलब्ध हैं। आबू रोड रेलवे स्टेशन अहमदाबाद से 186 किलोमीटर तथा अजमेर से करीब 400 किलोमीटर दूर है। रेलवे स्टेशन के बाहर ही आबू पर्वत जाने के लिये बसें व कार आदि की सुविधाएं उपलब्ध हैं।

क्या खरीदें?

राजस्थान के अन्य शहरों की तरह यहां भी राजस्थानी खिलौने, हस्तकला, सफेद धातु एवं लकडी व पीतल की वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। राजस्थान रोड पर राजस्थान इम्पोरियम की आभूषणों की दुकानों से आभूषण खरीदे जा सकते हैं।

लेख: विशनस्वरूप (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

गुरुवार, दिसंबर 15, 2011

नारकंडा- प्रकृति से साक्षात्कार

नारकंडा समुद्र तल से लगभग नौ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां की गगनचुम्बी पर्वत चोटियों की सुन्दरता एवं शीतल, शान्त वातावरण पर्यटकों को हमेशा मन्त्रमुग्ध किये रहता है। गत कुछ वर्षों से गर्मी व सर्दी के मौसम में देशभर के सैलानियों का जो भारी सैलाब शिमला में जमा हो रहा है, वह कुफरी, फागू, नालदेहरा व मशोबरा जैसे सुन्दर पर्यटक स्थलों को देखने के अलावा नारकंडा की प्राकृतिक छटा को निहारने के लिये भी बेताब रहता है।

कुदरत की रंगीन फिजाओं में बसा यह छोटा सा उपनगर आकाश को चूमती तथा पाताल तक गहरी पहाडियों के बीच घिरा हुआ है। ऊंचे रई, कैल व तोश के पेडों की ठण्डी हवा यहां के शान्त वातावरण में रस घोलती रहती है।

यह शान्त तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पर्यटन स्थल मुख्य तौर पर स्कीइंग के लिये प्रसिद्ध है। स्थानीय बाजार से दो किलोमीटर दूर धमडी नामक स्थल पर स्कीइंग केन्द्र स्थित है। इस केन्द्र में प्रतिवर्ष जनवरी से मार्च महीने तक स्कीइंग के प्रशिक्षण शिविर लगाये जाते हैं।

नारकंडा छोटा सा पर्यटन केन्द्र है। फिर भी बाहर से आने वाले सैलानियों के रात्रि ठहराव हेतु यहां पर लोकनिर्माण विभाग तथा राज्य पर्यटन विभाग का गेस्ट हाउस व होटल हैं। यूं तो शिमला से नारकंडा को सवेरे जाकर शाम को आसानी से लौटा भी जा सकता है। शिमला से नारकंडा का तीन घण्टे का सफर बडा ही मजेदार व जोखिमभरा है। सांप जैसी बलखाती तंग सडक के दोनों तरफ कहीं गहरी खाईयां तो कहीं आकाश को छूती चोटियां हैं, जिनको देखकर एक बार तो दिल सहम जाता है। आजकल इस मार्ग को चौडा करने का कार्य चल रहा है।

नारकंडा नगर के बीच से गुजरते उच्च मार्ग के दोनों तरफ बने छोटे से बाजार में खरीद-फरोख्त तथा काम-धन्धा करने आये ग्रामीणों का अक्सर जमघट लगा रहता है। बाजार के मध्य में स्थित काली मन्दिर के आसपास रंग बिरंगे वस्त्र पहने गांवों की महिलाएं अपने-अपने गंतव्य जाने के लिये आमतौर पर बसों का इंतजार करती हुई नजर आती हैं। काली मन्दिर के ठीक पीछे छोटी पहाडी पर कुछ तिब्बती परिवार भी रहते हैं जो कि यहां पर दुकानदारी तथा अन्य धन्धों में लगे हुए हैं। स्थानीय सडकों के किनारे आते-जाते छोटे-छोटे बच्चों के कन्धों पर लटके बस्ते तथा हाथ में लहराती लकडी की तख्तियां उनके विद्यार्थी होने का आभास कराती हैं। यह भोले-भाले बच्चे बाहर से आने वाले सैलानियों को यूं निहारते रहते हैं मानों उनके चेहरों पर छाई मासूमियत सदैव उनका अभिनन्दन करती रहती हो।

जहां इस शान्त वादी की सुन्दरता पर्यटकों को यहां ठहरने पर मजबूर करती है वहीं यह जगह उन्हें अपनी रंगीनियों की मोहताज भी बना लेती है।

लेख: हेमन्त चौहान (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, दिसंबर 14, 2011

जूनागढ- नवाबों की हवेलियों का शहर

अरब सागर के मुहाने पर बसा गुजरात का जूनागढ क्षेत्र बब्बर शेरों के लिये प्रसिद्ध है। गिर के जंगलों की तलहटी में बसे जूनागढ शहर को नवाबों के लिये भी जाना जाता है।

इस क्षेत्र की दूसरी विशेषता यहां की हरियाली है। हरे-भरे घने जंगल और मीठे पानी के प्राकृतिक स्त्रोतों की वजह से यह जगह वन्य पशुओं के लिये मुफीद रहती है। भारत में यही एकमात्र ऐसा जंगल है जहां बब्बर शेर बचे रह गये हैं।

गिर के प्रख्यात जंगल में खुलेआम घूम रहे शेरों को देखने के लिये विशेष जालीदार गाडियों की व्यवस्था है। इन गाडियों के द्वारा आप पूरे जंगल की सैर कर शेरों को उनके प्राकृतिक स्वरूप में देखने का सुन्दर मौका पाते हैं।

जूनागढ चूंकि नवाबों का शहर रहा है इसलिये इस शहर का अन्य मुख्य आकर्षण नवाबों की हवेलियां हैं। अरबी और फारसी शैली के अलावा इनके निर्माण में गुजरात की पारम्परिक शैली का सम्मिश्रण इन्हें अदभुत छवि प्रदान करता है।

कम लोगों को ही ज्ञात होगा कि यहां जुल्फिकार अली भुट्टो का भी एक महल है। पाकिस्तान के इस पूर्व प्रधानमन्त्री का महल आजकल संग्रहालय कम सरकारी गेस्ट हाउस ज्यादा है। यहां रखे शीशे और लकडी के फर्नीचर अपनी अच्छी कारीगरी और नक्काशी के कारण आज भी अच्छे लगते हैं। यहां पहुंचने के लिये सूरत, मुम्बई या अहमदाबाद से आसानी से जाया जा सकता है।

यहां के बाजारों में स्थानीय कलाकृतियों की लकडी और प्लास्टिक की अनुकृतियां आप दोस्तों को स्मृति चिह्न के रूप में भेंट कर सकते हैं। गुजराती चलन के कपडे भी यहां से खरीदे जा सकते हैं।

जूनागढ पहुंचने के लिये लगभग सभी प्रमुख शहरों से रेल सम्पर्क है। वैसे अहमदाबाद पहुंचकर वहां से रेल या बस से जूनागढ पहुंचना ज्यादा सुविधाजनक रहता है।

जूनागढ आयें तो समुद्र तट पर स्थित पोरबन्दर भी जरूर जायें। यह शहर अपने सुन्दर समुद्र तट और महात्मा गांधी का जन्मस्थान होने के कारण विश्व विख्यात है।

महात्मा गांधी का जिस जगह जन्म हुआ था, उस जगह को आज एक अत्यन्त अच्छे संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। गांधी जी, कस्तूरबा गांधी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं से जुडी चीजों को यहां एक अच्छे स्मारक के रूप में रखा गया है।

जूनागढ से सिर्फ 5-7 किलोमीटर की दूरी पर गिरनार महत्वपूर्ण जैन तीर्थ है। यहां ऊंची पहाडियों पर स्थित जैन मन्दिरों और गुफाओं को देखना आकर्षक है।

लेख: निशा (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

मंगलवार, दिसंबर 13, 2011

कोडैकनाल- सुरम्य स्थल

प्रकृति की गोद में बसा कोडाई अथवा कोडैकनाल तमिलनाडु की पालनी पहाडियों पर स्थित एक सुरम्य स्थल है। 19वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिये आवासीय स्कूल स्थापित करने के लिये इस निर्जन स्थान को चुना था।

यहां की सूर्य की किरणें भारत के किसी भी पर्वतीय स्थल से अधिक चमकदार दिखाई देती हैं। यहां पेड-पौधे, पशु-पक्षी, आकर्षक वनों की खूबसूरत ढलानें, झरने पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। पक्षी जगत यहां बहुतायत में है। 1861 में मेजर डगलस हेमिल्टन ने 144 प्रजाति के पक्षियों का पता लगाया था।

क्या देखें?

तारे के आकार की सुरम्य झील पर्वतों के मध्य में बहुत खूबसूरत लगती है। झील में नौका विहार का आनन्द लिया जा सकता है। झील के पूर्व की ओर ब्रायंट पार्क रंग-बिरंगे फूलों के लिये मशहूर है।

सौर भौतिक प्रयोगशाला यहां के सबसे ऊंचे बिन्दु पर स्थित है। झील से करीब तीन किलोमीटर दूर इस वेधशाला की स्थापना 1898 में हुई थी। यहां तारों की गति को देखा जा सकता है।

इसके अलावा बियर शोला प्रताप, पिलर रॉक्स, कुरुंजी मन्दिर आदि अन्य मनमोहक व दर्शनीय स्थल हैं।

कैसे पहुंचें?

कोडैकनाल सडक मार्ग से तो भली-भांति जुडा हुआ है, किन्तु निकटतम हवाई अड्डा मदुरै है जो 120 किलोमीटर दूर स्थित है। कोयम्बटूर हवाई अड्डा 135 किलोमीटर दूर है।

रेल द्वारा कोडाई रोड रेलवे स्टेशन (80 किलोमीटर) तथा पालनी रेलवे स्टेशन (64 किलोमीटर) पहुंचा जा सकता है। कोडैकनाल से नियमित बस सेवा मदुरै, पालनी, कोडैकनाल रोड, थेनी, डिंडीगुल, तिरुचिरापल्ली, इरोड, बैंगलुरु व कोयम्बटूर के लिये उपलब्ध है। तमिलनाडु पर्यटन विकास निगम एकदिवसीय भ्रमण का आयोजन करता है।

कहां ठहरें?

भारतीय व पाश्चात्य शैली के होटल यहां उपलब्ध हैं। साथ ही यूथ हास्टल भी यहां हैं।

खरीदारी

खादी इम्पोरियम, हैंडलूम कोऑपरेटिव स्टोर्स आदि से कलात्मक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। यहां पर बैंक, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस आदि की सुविधा उपलब्ध है।

लेख: दिनेश (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई, 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, दिसंबर 12, 2011

हिमाचल में भी है ‘जुरैसिक पार्क’

‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म का निर्माण जिस स्थान को चयनित करके इस फिल्म के निर्माता स्टीवेन स्पीलबर्ग ने हॉलीवुड में किया है, यदि हम ध्यान से उन पहाडियों और उन पर उगे पेड-पौधों को देखें तो एक पल के लिये भ्रम होता है कि यह स्थान नाहन से 14 किलोमीटर दूर दक्षिणी उपत्यका में स्थित शिवालिक पहाडियों के अंचल में निर्मित ‘फॉसिल पार्क’ का तो नहीं? हालांकि यह एक विभ्रम भी हो सकता है लेकिन जुरैसिक युग और शिवालिक फॉसिल पार्क में उपलब्ध इस युगीन जीवाश्मों को देखकर अनेकों प्रश्न मन में उत्पन्न हो जाते हैं। वैज्ञानिकों और विज्ञान छात्रों के लिये तो यह विषय जैसे नई खोज का हो गया लगता है। जिस किसी ने भी इस दृष्टि से इस फिल्म को देखा है, जो विज्ञान पर आधारित है, वह अवश्य एक बार हिमाचल के इस दुर्लभ शिवालिक जीवाश्म पार्क को देखना चाहता है या फिर देख भी आया होगा। उसके मन में यह विचार भी घर कर गया होगा कि यदि जुरैसिक पार्क जैसी कोई फिल्म भारत में बनती है तो शिवालिक पहाडियों का अंचल उसके लिये उपयुक्त स्थान ही नहीं बल्कि इसका एक जुरैसिक युगीन आधार भी हो सकता है।

नाहन जिला सिरमौर का मुख्यालय है। पहले यह रियासत कालीन राजधानी थी। इस नगर को सन 1621 ई में राजा कर्ण प्रकाश ने बसाया था। नाहन से शिवालिक फासिल पार्क के लिये उतराई वाला रास्ता है। लगभग 7-8 किलोमीटर नीचे उतरकर एक गांव है जिसके बायीं ओर से एक पैदल मार्ग भी इस पार्क को चला जाता है। लेकिन काला अम्ब जो नाहन से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर है, से यहां के लिये 4 किलोमीटर का कच्चा लिंक मार्ग है। यही रास्ता वाहनों से सुकेती पहुंचाता है यानी जिस स्थान पर यह पार्क निर्मित हुआ है, उसका नाम सुकेती है। इसके नीचे बायें किनारे मारकण्डा नदी बहती है।

इस जीवाश्म पार्क को भारत सरकार के भूगर्भीय सर्वेक्षण विभाग के प्रयत्नों से विकसित किया गया है जो एशिया में पहला अपनी तरह का अनोखा पार्क है। यह मानव और प्राकृतिक वातावरण को करीब से समझने, जानने और अध्ययन करने का अनूठा और चुनौतीपूर्ण स्थान है। इस पार्क की विशेष महत्ता इस बात से है कि यह उसी जगह विकसित/ स्थापित किया गया है जहां लाखों वर्ष पूर्व पाये जाने वाले जीवों के जीवाश्म मिले हैं।

इस पार्क का निर्माण वर्ष 1974 में किया गया था। इसका विकास दो चरणों में किया गया। पहले चरण का कार्य तब शुरू हुआ था जब हिमाचल प्रदेश सरकार ने सौ एकड भूमि भारत सरकार के भू-विज्ञान सर्वेक्षण विभाग को इस कार्य हेतु सौंपी थी। यह भूमि वर्ष 1972 में दी गई। तत्कालीन राज्यपाल, हिमाचल प्रदेश श्री एस. चक्रवर्ती द्वारा काला अम्ब के स्थान पर एक क्षेत्रीय संग्रहालय का उदघाटन दिसम्बर 1972 में किया गया था। क्योंकि पार्क स्थल के लिये उस समय कोई भी वाहन योग्य मार्ग नहीं था, इसलिये जुरैसिक युगीन जीवों के कुछ दुर्लभ जीवाश्म प्रतिरूप सडक के किनारे रखे गये जिनमें तलवार रूपी घुमावदार दांतों वाले चीतों, छह उत्कीर्ण विलुप्त दांत वाले दरियायी घोडों और कवची कछुओं के मुख्य मॉडल थे। पार्क के लिये लिंक मार्ग का उदघाटन फरवरी 1974 में तत्कालीन मुख्यमन्त्री हिमाचल निर्माता डॉ. यशवन्त सिंह परमार द्वारा किया गया और तभी से लेकर यह पार्क देश-विदेश के अनुसंधानकर्त्ताओं, विद्यार्थियों, वैज्ञानिकों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है।

जीवाश्म पार्क के विकास का द्वितीय चरण दिसम्बर 1975 में प्रारम्भ हुआ और कई महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण किये गये। पार्क स्थल को सुन्दर ढंग से चारों ओर से सुरक्षित कर लिया गया और जो जीवाश्म यहां प्राप्त हुए, उनके विशाल फाइबर ग्लास के प्रतिरूप पार्क के मध्य झाडियों में विभिन्न स्थानों पर स्थापित किये गये जिससे इस पार्क का आकर्षण और बढ गया और यहां आने वालों के लिये यह समझना आसान हो गया कि लाखों वर्ष पहले ऐसे भीमकाय और भयंकर जीव भी इस धरती पर रहा करते थे- विशेषकर शिवालिक पहाडियों की उपत्यकाओं में। इन प्रतिरूपों में जिन जीवों के प्रतिरूप यहां स्थापित हैं उनमें प्रागैतिहासिक भीमकाय हाथी (मां और बच्चे के रूप में) जिसके तीन मीटर लम्बे दांत दर्शाये गये हैं, जो तलवारनुमा घुमावदार हैं, भीमकाय आकार का विचित्र जिराफ के प्रतिरूप मुख्य थे।

इसके अतिरिक्त पार्क में जीवाश्म संग्रहालय भी निर्मित किया गया जिसमें बहुत सी नई विचित्र वस्तुएं रखी गईं। इसमें नई आकृतियां, जीवाश्म, पत्थर शिल्पाकृतियां जो इस स्थान पर उपलब्ध हुई हैं, इस संग्रहालय में शामिल की गईं। इसी दौरान एक कृत्रिम जलाशय का निर्माण भी पार्क के अतिरिक्त सौन्दर्य की दृष्टि से हुआ और लगभग बीस हजार छोटे-बडे आकार के पौधे भी लगाये गये।

शिवालिक पहाडियां हिमालय की बाहरी पर्वत श्रेणियां हैं। ये मानव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। यह माना जाता है कि लाखों वर्ष पूर्व इन्हीं पहाडियों के अंचल में मानव-पूर्वजों का प्रारम्भ और विकास हुआ। शिवालिक पहाडियों से जो सर्वप्रथम जीवाश्म मिला है, वह इस बात का प्रमाण माना जाता है कि मानव-परिवार का पहला जीव है और वह निर्जन मैदानी भाग में रहा करता था। मानव विज्ञानियों के अनुसार ये प्रमाण विकासीय स्थिति और समय अनुक्रम में इतने विविध हैं कि सम्भवतः सामान्य पूर्वज से मानव और बिना पूंछ के बन्दर ने शिवालिक में एक साथ स्थान ग्रहण किया। इसी क्रम को आगे बढाते हुए एक शोध छात्र ने भी माना है कि पहला मानव चण्डीगढ क्षेत्र में 15 मिलियन वर्ष पूर्व रहा करता था। यह बात शिवालिक पहाडियों के निचले भागों में खोजे गये कुछ दांतों और जबडों के निरीक्षण के आधार पर कही गई है।

शिवालिक क्षेत्र अर्थात जहां यह जीवाश्म पार्क स्थित है, में भू-वैज्ञानिकों को विभिन्न आकारों के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। उनका मानना है कि छह हजार मीटर बिछी चट्टानी परतों में जो कि शिवालिक क्षेत्र में 2 से 25 मिलियन वर्ष पूर्व नदी प्रवाह से बनी, मेरुदण्डीय जीवाश्मों का भण्डार है। तृतीय महाकल्प के प्रारम्भ होते अर्थात 70 मिलियन वर्ष पूर्व जब मध्य हिमालय पर्वत श्रेणियां तीन से चार चरणों में विकसित हुईं, शिवालिक पहाडियों ने तीव्रता से बढना शुरू कर दिया। यह सभी कुछ प्राकृतिक था। इसी समय घोडों, पशुओं, हाथियों, सुअरों, जिराफों, दरियायी घोडों, गैंडों, मगरमच्छों, भूमि पर रहने वाले कछुओं और कई मांसाहारी पशुओं की कई आकृतियों का विकास और बढोत्तरी इस क्षेत्र में हुई लेकिन इनमें कपि मानव नहीं था। हिमयुग में जो स्तनधारी प्राणी/ पशु विलोम हो गये थे, उनके जीवाश्म अवशेष चट्टानी परतों में उपलब्ध होते हैं।

जुरैसिक पार्क फिल्म में जिस तरह के डाइनासोर दर्शाये गये हैं, उनसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शिवालिक क्षेत्र में ऐसे अनेक भीमकाय जीव मौजूद रहे होंगे और सुकेती में स्थित/ स्थापित इस जीवाश्म पार्क में जो फाइबर ग्लास के भीमकाय छह सेट स्थापित किये गये हैं वे इस बात को प्रमाणित भी करते हैं। इस स्थापित प्रतिरूपों में (जैसा कि ऊपर बताया गया है) दुर्लभ चीते, मगरमच्छ, गैंडे, हाथी, कछुए और जिराफ हैं।

यहां पाठकों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जुरैसिक युग क्या है और कितना पुराना रहा होगा तथा वास्तव में फासिल या जीवाश्म बनते कैसे हैं।

जहां तक जुरैसिक युग का सम्बन्ध है वह मध्यजीव कल्पों में मध्य युग है। मध्यजीव के अन्तर्गत तीन युग आते हैं इनमें जुरैसिक युग मध्य युग माना जाता है। ब्रौंन्यार (Brongniar) ने सन 1829 में आल्प्स पर्वत की जुरा श्रेणी के आधार पर इस प्रणाली का नाम जुरैसिक रखा था। विश्व के स्तरशैल विद्या (Stratigraphy) में इस प्रणाली का विशेष महत्व है क्योंकि इसी आधार पर विलियम स्मिथ ने, जो स्तरशैल विद्या के प्रणेता कहे जा सकते हैं, इसके अधिनियमों का निर्माण किया। इस युग के शुरू में पृथ्वी का धरातल शान्त माना गया है। परन्तु जुरैसिक युग के अपरान्ह में यह देखा गया है कि पृथ्वी पर विविध विक्षोभ हुए और समुद्री अतिक्रमणों से जगह-जगह पानी भर गया। पृथ्वी का उत्तरी मध्यवर्ती और दक्षिणी भाग पूरी तरह जल से भर गया। शेष भाग सूखा रह गया। उत्तरी समुद्र अमेरिका अवं ग्रीनलैण्ड के उत्तर से लेकर वर्तमान आर्कटिक सागर और साइबेरिया तक फैला था। यूराल पर्वत के पश्चिमी भूभाग से इस समुद्र की एक शाखा इसको उस समय के भूमध्य सागर से मिलाती थी।

वर्तमान भूमध्य सागर के विस्तार की तुलना में उस समय का समुद्र विशाल था और सम्पूर्ण पृथ्वी को घेरे हुए था। इस सागर को टेथिस सागर कहते हैं। भूविज्ञानियों का मानना है कि भारत के उत्तरी प्रदेश से लेकर उत्तरी बर्मा, हिन्दचीन अवं फिलीपीन से होता हुआ टेथिस सागर का ही एक भाग दक्षिणी सागर बनाता था। इस युग में पृथ्वी पर जो कुछ भी मौजूद होगा, वह जलमग्न होकर भूमिगत हो गया होगा और जब कभी जल सागर से पृथ्वी मुक्त हुई होगी तो रेतीली/ चट्टानी परतों में दबे तत्कालीन मानव/ जीव आज के उपलब्ध जीवाश्म हो गये होंगे। यही आधार आज भूगर्भ वैज्ञानिकों की खोज का रहा है।

इसके बाद जो शैल समूह बने वे यूरोप, दक्षिण-पूर्वी इंग्लैण्ड, उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग, एशिया माइनर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी बर्मा और अफ्रीका के पूर्वी तट पर मिलते हैं। भारत में जुरैसिक प्रणाली के पर्वत उत्तर में स्पीति, कश्मीर, हजारा, शिमला-गढवाल और एवरेस्ट प्रदेश में पाये जाते हैं। शिमला का तात्पर्य निचली शिवालिक पर्वत श्रेणियों से रहा है, जिसमें नाहन के निकट सुकेती का शिवालिक फासिल पार्क स्थित है। इसे जुरैसिक युगीन माना जाता है- और इसी केन्द्र बिन्दु को लेकर हालीवुड की ‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म बनी है। हालांकि इसमें डाइनासोर के विशाल स्वरूप को प्रदर्शित करके यह दर्शाया गया है कि जुरैसिक काल/ युग में ऐसे अनेक जानवर थे, लेकिन हिमाचल की शिवालिक पहाडियों और विशेषकर शिवालिक फासिल पार्क के परिप्रेक्ष्य में विचार और मनन करते हुए यह फिल्म कई विचार बिन्दु मानव के मस्तिष्क पर तो छोडती ही है बल्कि वैज्ञानिकों और भूगर्भवेत्ताओं को नये आयाम खोजने और जोडने के लिये भी आमन्त्रित करती है।

सामान्यतः जीवाश्म शब्द से अतीत काल के भौमीकीय युगों के उन जैव अवशेषों से तात्पर्य है जो भूपर्पटी के अवसादी शैलों में पाये जाते हैं। भौमीकीय युगों में पृथ्वी पर ऐसे अनेक जीवों के समुदाय रहते थे जिनके कठोर अंग थे। जीवाश्म बनने के लिये यह होना अनिवार्य है क्योंकि यहीं अंग युग-युगान्तर तक जीवाश्म के रूप में शैलों में परिरक्षित रह सकते हैं और आज के युग में वैज्ञानिकों/ भूविज्ञानवेत्ताओं की खोज का यही एक आधार है।

आज के सन्दर्भ में हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की सुकेती नामक जगह में स्थित यह जीवाश्म पार्क कई कारणों से ख्याति नहीं पा सका जो इसे पानी चाहिये थी। एशिया में अपनी तरह के एकमात्र होते हुए भी यहां वे सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं जो प्राथमिक स्तर पर होनी चाहिये। काला अम्ब से चार किलोमीटर की कच्ची सडक है। हल्की सी वर्षा से यह बीच-बीच में बन्द हो जाती है। यातायात सुलभ न होने के कारण लोग वर्ष भर नहीं जा सकते। इस पार्क के निकट कोई उपयुक्त आवास और जलपान सुविधा भी नहीं है। पर्यटन विकास निगम ने बहुत पहले अपना एक कैफे खोला भी था लेकिन अब बन्द कर दिया गया है। पार्क का विकास उस रूप में भी नहीं हुआ है जिस स्थिति में होना चाहिये था। जो जीवाश्म पार्क निर्माण के समय उपलब्ध थे, जो प्रतिरूप उस समय स्थापित किये गये थे, वही आज भी हैं, हालांकि उसमें कोई विकास नहीं हुआ है।

सोच का विषय यह है कि एक फिल्म निर्माता ने केवल कम्प्यूटर की सहायता से डाइनासोर विकसित करके ‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म का विश्व भर में डाइनासोरों की तरह ही आतंक मचा रखा है और छह करोड डालर की लागत से इसे बनाया है, लेकिन हम लोग एक वास्तविक जीवाश्म पार्क के लिये, जिसमें जुरैसिक युगीन जीवों के जीवाश्म मौजूद हैं, महज चार किलोमीटर मार्ग भी यातायात के लिये अच्छी तरह नहीं बना पाये।

हालांकि वैज्ञानिक मानते हैं कि अब कभी भी डाइनासोर को धरती पर पैदा करना सम्भव नहीं है लेकिन जो विज्ञान विषय के बच्चे इस फिल्म को देखकर आते हैं, और जिन्होंने एकाध झलक में इस फासिल पार्क को देखा है, वह इस देश के वैज्ञानिकों से यह अपेक्षा अवश्य लगाये हैं कि जिस तरह डाइनासोर काल के एंबरा में दबे मच्छर के खून से डाइनासोर का डीएनए अलग किया गया, उसी तरह से इस क्लोनिंग तकनीक को अपनाकर इस क्षेत्र में पाये जाने वाले उपलब्ध जीवाश्मों को यह रूप देंगे और जो कृत्रिम माडल यहां लगाये हैं वह जीवित जैसे विचरने लगेंगे। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि पहले यदि काला अम्ब से यहां तक पक्का मार्ग ही सरकार बना दे तो यही महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

लेख: एस. आर. हरनोट

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, दिसंबर 11, 2011

वशिष्ठ- पौराणिक स्मृतियों को दामन में समेटे एक गांव

हिमाचल प्रदेश के स्वर्ग मनाली से मात्र चार किलोमीटर दूर लेह राजमार्ग पर स्थित है- स्वप्निल प्रकृति का एक और विशिष्ट स्थल वशिष्ठ, जहां सौन्दर्य और धर्म, पर्यटन व तीर्थाटन, परम्पराएं और आधुनिकता, ग्रामीण शैली व उपभोक्तावादी चमक-दमक आपस में एक हो रहे हैं। एक ऐसा गांव है वशिष्ठ जो अपने दामन में पौराणिक स्मृति को छुपाये हुए है। महर्षि वशिष्ठ ने इसी स्थान पर बैठकर तपस्या की थी। कालान्तर में यह स्थल उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा। ऋषि का यहां प्राचीन मन्दिर है।

यहां प्रकृति के जादुई आकर्षण का अछूतापन बिखरा हुआ है। फिर यहां कुदरत का सबसे निराला उपहार है- गर्म जल के स्त्रोत। जिन्हें स्नान कुण्डों की शक्ल दे दी गई है। आप घूमिये, नहाइये। ताजादम होकर रोहतांग दर्रे की हिमश्रंखलाओं से लेकर गोशाल, बाहंग, बुरुआ, सोलांग व मनाली व्यास घाटी को यहां से बैठे बैठे देखें तो यूं लगता है जैसे हम स्वप्न लोक में विचर रहे हों। इसी अनाम सम्मोहन के वशीभूत होकर यहां बडे पैमाने पर देश-विदेश से प्रकृति प्रेमी व पर्यटक आते हैं। मुम्बई की फिल्म कम्पनियों को यह स्थल विशेष पसन्द है। अब तक दर्जनों फिल्मों की यहां शूटिंग हो चुकी है। एक दशक पूर्व तक यहां पैदल मार्ग से पहुंचा जाता था। तब कम ही लोग यहां पहुंचते थे, लेकिन अब सडक बन जाने व अन्य कई सुविधाओं के जुटने से भारी भीड यहां पहुंचती है। बडे से बडे व भव्य होटल यहां खुल गये हैं।

एक होटल तो हैलीस्कीइंग की सुविधा तक मुहैया करा रहा है। पर्यटन निगम, हिमाचल ने गर्म जलों के डीलक्स व लग्जरी बाथ्स तैयार कराये हैं। विदेशियों के लिये तो यह स्थल तीर्थ की तरह है। हिप्पियों की एक भरपूर जमात यहां गांव में डेरा डाले रह रही है।

50 परिवारों का यह गांव वशिष्ठ भी कम दर्शनीय नहीं है। सभी मकान पुरानी कुल्लुई काठकुणी शैली के हैं जो बहुत सुन्दर व कलात्मक लगते हैं। लकडियों पर की गई मोहक पच्चीकारी आकर्षित करती है। यहां के सेब बगीचे भी मशहूर हैं। हर साल यहां बसन्त आगमन के साथ ही विरशु मेले का परम्परागत आयोजन होता है। सर्दी की ठिठुरन से निजात पाकर यहां के जनजीवन में एक नई स्फूर्ति और उल्लास का संचार होने लगता है। विरशु मेला इन्हीं खुशियों की सामाजिक अभिव्यक्ति है। इस मेले में चरासे तरासे नामक लोकनृत्य में जब महिलाएं नाचती हैं तो लास्य भाव बेहद मुग्ध करता है।

इस अवसर पर आसपास क्षेत्र के स्थानीय देवताओं की डोलियां भी यहां आती हैं। देवता स्नान करते हैं और ऋषि वशिष्ठ को अर्घ्य चढा आते हैं। यूं भी बडे स्नान के लिये वर्ष भर घाटी के देवताओं का यहां तांता लगा रहता है।

वशिष्ठ के नजदीक छोईड नाम का सुन्दर झरना है। इस झरने की विशेषता यह है कि लोग इसमें अपने बच्चों को मुण्डन हेतु यहां पर लाते हैं। प्रचलित धारणा है कि यहां मुण्डन कराने से बच्चों को प्रेत बाधा अथवा छाया से मुक्ति मिल जाती है। गांव के ठीक नीचे ब्यास और मनालसू नदियों का संगम भी आकर्षक है।

वशिष्ठ के बारे में पौराणिक श्रुति इस प्रकार है कि वनवास के दौरान जब युद्ध में रामचन्द्र जी द्वारा रावण मार दिया गया तो रामचन्द्र पर ब्रह्महत्या का पाप लगा। अयोध्या वापस आने पर श्रीराम इस पाप के निवारण के लिये अश्वमेध यज्ञ को करने की तैयारी में जुट गये। यज्ञ शुरू हुआ तो उपस्थित सारे ऋषि मुनियों ने गुरू वशिष्ठ को कहीं नहीं देखा। वशिष्ठ राजपुरोहित थे, बिना उनके यह यज्ञ सफल नहीं हो सकता था। उस समय वशिष्ठ हिमालय में तपस्यारत थे। श्रंगी ऋषि लक्ष्मण को लेकर मुनि वशिष्ठ की खोज में निकल पडे। लम्बी यात्रा के बाद वे इसी स्थान पर आ पहुंचे। सर्दी बहुत थी। लक्ष्मण ने गुरू के स्नान के लिये गर्म जल की आवश्यकता समझी। लक्ष्मण ने तुरन्त धरती पर अग्निबाण मारकर गर्म जल की धाराएं निकाल दीं। प्रसन्न होकर गुरू वशिष्ठ ने दोनों को दर्शन देकर कृतार्थ किया। गुरू ने कहा कि अब यह धारा हमेशा रहेगी व जो इसमें नहायेगा, उसकी थकान व चर्मरोग दूर हो जायेंगे। लक्ष्मण ने गुरूजी को यज्ञ की बात बतलाई। तदुपरान्त गुरू वशिष्ठ ने अयोध्या जाकर यज्ञ को सुचारू रूप से सम्पन्न कराया।

वशिष्ठ मन्दिर लोक शैली में बना हुआ है। लकडियों पर सुन्दर नक्काशी की गई है। मन्दिर के भीतर वशिष्ठ मुनि की काले रंग की भव्य आदमकद पाषाण मूर्ति है। वशिष्ठ मन्दिर के साथ रामचन्द्र जी का प्राचीनतम भव्य मन्दिर भी कुछ ही दूरी पर है। मन्दिर परम्परागत शैली में बना है। मन्दिर में लगी परिचय पट्टिका के अनुसार लगभग 4000 वर्ष पूर्व राजा परीक्षित की मृत्यु के बाद उसका बडा पुत्र जनमेजय राजा बना। उसने पिता की आत्मा शान्ति हेतु तीर्थ यात्राएं कीं। उसने जगह जगह पर अपने कुल देवता रामचन्द्र जी के मन्दिर बनवाये व राम पंचायतें स्थापित कीं। यह मन्दिर तब का ही है।

लेख: प्रकाश पुरोहित जयदीप

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, दिसंबर 10, 2011

मणिकर्ण- अर्धनारीश्वर की प्रिय स्थली

मणिकर्ण तीर्थ कुल्लू घाटी का प्रसिद्धतम तीर्थ है। यहां हिन्दू और सिख दोनों बडी श्रद्धा से जाते हैं। वैसे भी देवताओं की घाटी कुल्लू अपनी प्राकृतिक सम्पदा के लिये प्रसिद्ध है। ब्यास, सरबरी, पार्वती नदियां और कई झरनें इसे सींच रहे हैं। इसी सौन्दर्य पर मुग्ध होकर देवताओं ने इसे अपना निवास बनाया होगा।

चण्डीगढ से कुल्लू जाते हुए कुल्लू से दस किलोमीटर पहले भुन्तर पडता है। यह बहुत ही खुली घाटी में बसा है। कुल्लू मनाली हवाई अड्डा यही पर है। ब्यास और पार्वती नदियों का संगम इसके सौन्दर्य को दूना कर रहा है। पार्वती के किनारे-किनारे करीब 35 किलोमीटर चलने पर मणिकर्ण आ जाता है। ब्रह्माण्ड पुराण में इस स्थल को अर्धनारीश्वर का प्रिय स्थल कहा गया है।

पार्वती के किनारे ऊंचे पर्वत और घने जंगलों के बीच संकरे मार्ग से मणिकर्ण पहुंचा जाता है। मणिकर्ण तीर्थ अपने गरम पानी के स्त्रोतों के कारण प्रसिद्ध है। इस स्थान पर करीब पच्चीस किलोमीटर क्षेत्र में जगह-जगह उष्ण जल के स्त्रोत बिखरे पडे हैं। सात हजार फीट ऊंचाई पर सघन वन के बीच यह स्थान सहज ही तीर्थ बन गया है। धन्य हैं वे वनवासी जिन्होंने इस जगह को खोजा होगा।

एक पौराणिक कथा के अनुसार मणिकर्ण स्थान पर एक बार शंकर पार्वती ने ग्यारह वर्ष तपस्या की। उस तपस्या के फलस्वरूप शंकर जी को कल्पवृक्ष की प्राप्ति हुई और पार्वती को चिन्तामणि मिली। एक दिन नदी में स्नान करते समय पार्वती के कान की मणि गिर गई। नदी की तेज धारा में बहती हुई वह मणि पाताललोक तक चली गई। पाताललोक के निवासी शेषनाग ने उसे रख लिया। शिव पार्वती के गणों ने मणि को बहुत खोजा परन्तु उन्हें नहीं मिली। तब शंकर ने क्रोधित होकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। सृष्टि कांपने लगी। प्रलय की आशंका से देव दानव सब भयभीत हो उठे।

इसी समय शिव के तीसरे नेत्र से एक कन्या जन्मी। यह कन्या नैना देवी नाम से प्रसिद्ध हुई। नैना देवी ने पाताललोक जाकर शेषनाग को पार्वती की मणि तुरन्त लौटाने को कहा। शेषनाग ने उसी क्षण एक तीव्र फुंकार मारी। उसकी फुंकार से चिन्तामणि के साथ साथ कई मणियां धरती के ऊपर आकर मणिकर्ण क्षेत्र में बिखर गईं। वे मणियां चट्टानों के बीच दब गईं। तभी से इस क्षेत्र का नाम मणिकर्ण पडा और यहां लोग मणियों की खोज में आने लगे।

इस क्षेत्र में यूरेनियम, गंधक, रेडियम, नीलम और मणियों के भण्डार हैं। गंधक के कारण ही यहां गर्म जल के स्त्रोत हैं।

आजकल शिव पार्वती के इस प्रिय स्थान में एक रघुनाथ मन्दिर और एक विशाल गुरुद्वारा भी है। यहां आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण पार्वती होटल भी खुल गया है। जीप, कार और मेटाडोर मन्दिर के द्वार तक चली जाती हैं। मन्दिर और गुरुद्वारा दोनों में भोजन और निवास की निशुल्क व्यवस्था है। जन जन का उद्धार करते 1574 विक्रमी में नानक देव इस स्थान पर आये थे। उन्हीं की पवित्र स्मृति स्वरूप यहां हरिहर घाट पर गुरुद्वारा बना है। आश्चर्य होता है इस कठिन पहाडी क्षेत्र में इतने विशाल गुरुद्वारे का निर्माण और फिर इतनी उत्तम व्यवस्था। एक हजार व्यक्ति यहां एक साथ ठहर सकते हैं और एक दिन में भोजन भी कर सकते हैं। सेवा भाव का सच्चा अर्थ यहां समझा जाता है। गर्म जल के कुण्ड मन्दिर और गुरुद्वारे दोनों में बने हैं। स्त्री और पुरुषों के लिये अलग अलग स्नान की व्यवस्था है।

मणिकर्ण के उत्तर में हरिन्द्र पर्वत है। इसकी बर्फ ढकी चोटियां चांदी सी चमकती हैं। इसी पर्वत से ब्रह्मगंगा का उदगम है। यह गंगा मणिकर्ण के पास पार्वती नदी में मिलती है। ब्रह्मगंगा की घाटी मणियों से समृद्ध मानी जाती है। मणिकर्ण से तीन किलोमीटर ऊपर रूप गंगा और 25 किलोमीटर ऊपर खीरगंगा है। खीरगंगा का पानी दुग्ध सा सफेद है। प्राचीन कथा के अनुसार खीरगंगा पार्वती के स्तनों से गिरे दूध से बनी है। खीरगंगा तक पहुंचना अत्यन्त कठिन है।

लेख: उर्मिकृष्ण

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, दिसंबर 09, 2011

कुल्लू- बुला रही है खुशनुमा घाटी

प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण हिमाचल प्रदेश भारत में ही नहीं अपितु विश्व के पर्यटन मानचित्र पर अपना स्थायी स्थान बना चुका है। इसकी नदी घाटियों में बसे नगर अथवा गांव अलौकिक अनुभूति प्रदान करते हैं। घाटियों की चर्चा आते ही कुल्लू घाटी बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। इस घाटी को देव घाटी के रूप में भी जाना जाता है। 46 किलोमीटर लम्बाई और डेढ किलोमीटर चौडाई की इस घाटी का मुख्य नगर है कुल्लू। समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊंचाई पर ब्यास नदी के किनारे बसा कुल्लू नगर किस आगंतुक का मन नहीं मोह लेता। कुल्लू का पौराणिक ग्रंथों में कुलूत नाम से वर्णन हुआ है। यही कुलूत बाद में कुलूता या कुलान्त नाम से भी जाना गया। कुल्लू कुलूत का ही अपभ्रंश है।

खुशनुमा पहाडी ढलानों पर बसे घाटी के गांवों में सीढीनुमा फलों के बगीचों का दृश्य तो देखते ही बनता है। प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त कुल्लू के सेब और शालें पर्यटकों के मुख्य आकर्षणों में से एक हैं। इस क्षेत्र में जून-जुलाई के महीनों में हल्की सी गर्मी होती है। परन्तु वर्ष के शेष समय मौसम सुहावना रहता है। सर्दियों में ठण्ड बढ जाती है पर घाटी के निचले हिस्सों में बरफ नहीं पडती। परन्तु दोनों ओर की पहाडियों की चोटियां श्वेत बर्फ से ढककर गजब का आकर्षण पैदा करती हैं।

कुल्लू घाटी की अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त यहां मनाया जाने वाला दशहरा उत्सव भारत में ही नहीं अपितु विश्व भर में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। विजयदशमी को जब अन्य स्थानों पर दशहरा सम्पन्न होता है तो कुल्लू में आरम्भ होता है। कुल्लू के दर्शनीय रघुनाथ जी के मन्दिर के साथ जुडी किंवदंती ही इस उत्सव के आरम्भ का आधार मानी जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोक उत्सव में घाटी के दूर-दराज के क्षेत्रों में बसने वाले गांवों के देवी देवता हिस्सा लेते हैं। रंग-बिरंगी पालकियों में सज-धजकर ये देवी देवता ग्रामवासियों के कंधों पर झूमते नाचते हुए जब आते हैं तो चिरस्मरणीय आनन्द प्रदान करते हैं। लगता है जैसे स्वर्ग ही इस धरा पर उतर आया हो।

कुल्लू घाटी में ठहरने के लिये आवास की कोई समस्या नहीं है। पर्यटन निगम के होटलों के अतिरिक्त निजी होटल भी अच्छी खासी गिनती में हैं। होटलों के अतिरिक्त पेइंग गेस्ट हाउस भी उपलब्ध रहते हैं। यों तो इन सभी स्थानों के किराये सरकार द्वारा ही निश्चित किये रहते हैं, यदि फिर भी कोई समस्या आये तो स्थानीय पर्यटन कार्यालय से सम्पर्क साध कर इसका निदान हो सकता है। जहां तक भोजन सम्बन्धी आवश्यकता का प्रश्न है, तो पंजाबी खाने से लेकर कांटीनेंटल तथा चाईनीज खाना तक आसानी से उपलब्ध हो जाता है। सडकों के किनारे चलंतु ढाबों से लेकर स्तरीय जलपान गृह भी स्थान-स्थान पर मिल जायेंगे।

इस घाटी में भ्रमण के दौरान उचित होगा कि अपने साथ हल्के कपडे ही रखे जायें। पहाडों में यदा-कदा वर्षा होने के कारण तापमान में गिरावट आने की सम्भावना बनी रहती है। एहतियात के तौर पर साथ में एकाध स्वेटर अथवा हल्की-फुल्की सी जैकेट रख ली जाये तो उचित रहेगा।

कुल्लू घाटी में प्रवेश के लिये यातायात की कोई समस्या नहीं। सडक के अतिरिक्त वायु अथवा रेल मार्ग की सहायता से भी यहां पहुंचा जा सकता है। सडक मार्ग चण्डीगढ, दिल्ली एवं देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानों से सीधा जुडा है। सडक मार्ग पर हिमाचल के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सरकारें नियमित तौर पर बस सुविधा उपलब्ध करवाती हैं। वायु मार्ग से दिल्ली अथवा चण्डीगढ से भुन्तर नामक स्थान तक आने में परेशानी नहीं होती। रेल सुविधा मात्र चण्डीगढ अथवा पठानकोट के पश्चात जोगिन्द्रनगर तक ही उपलब्ध होती है। यात्रा चाहें किसी भी मार्ग से करें परन्तु इसे सुखद बनाने के लिये उपलब्ध आरक्षण सुविधाओं का लाभ लेने में संकोच न करें।

कुल्लू घाटी में कुल्लू नगर के अतिरिक्त अन्य पर्यटन स्थल भी हैं। अपने यात्रा कार्यक्रम में इन स्थानों के भ्रमण के लिये भी समय निश्चित कर लें। कुल्लू से 40 किलोमीटर की दूरी पर मनाली नामक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। ब्यास नदी के दायें किनारे बसा यह छोटा सा नगर अति रमणीय है। ठहरने और खाने पीने की लगभग सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। इस नगर से 2-3 किलोमीटर की दूरी पर पुराना मनाली गांव है। कहा जाता है कि ‘मनु-स्मृति’ से विख्यात मनु ऋषि के अलौकिक नौका प्रलय के बाद इसी स्थान पर आकर रुकी थी। मनु से ही यह गांव मनु-आलय से मनु-आली तक का सफर तय करने के बाद मनाली बन कर प्रसिद्ध हुआ। इस गांव के साथ लगते देवदार के घने जंगल में हिडिम्बा का मन्दिर है। यह वही हिडिम्बा है जिसका वर्णन महाभारत में भी आता है। पांडवों ने अपना अज्ञातवास इन पहाडों के आश्रय में ही बिताया था।

मनाली से थोडा ऊपर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर ब्यास नदी के दायें किनारे प्रसिद्ध वशिष्ठ गांव है। कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि ने यहां तप किया था। इसकी याद दिलवाता एक पुरातन मन्दिर भी है यहां। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक गर्म पानी के चश्मे इस गांव की विशेषता हैं। यदि कुछ अधिक रोमांच लेने की इच्छा हो तब इसी रास्ते रोहतांग दर्रे तक का सफर भी किया जा सकता है।

3978 मीटर की ऊंचाई पर लगभग एक किलोमीटर लम्बे इस दर्रे की एक खासियत तो यह है कि यहां पहुंचना आसान है। दूसरे यह गर्मियों में भी पर्यटकों को बर्फ पर खेलने का अवसर प्रदान करता है। स्कीइंग के शौकीन पर्यटकों को गर्मियों में भी सोलांग नाला नामक स्थान पर स्कीइंग करने का मौका मिल जाता है। मनाली से 51 किलोमीटर दूर रोहतांग दर्रे के दूसरी ओर लाहौल का क्षेत्र आरम्भ हो जाता है। यह दर्रा ब्यास नदी का उदगम स्थल भी है। यहीं पर स्थित ब्यास कुण्ड से पतली सी धारा के रूप में ब्यास नदी प्रवाहित होना आरम्भ करती है।

इन स्थानों का भ्रमण करने के पश्चात यदि समय हो तो वापसी ब्यास नदी के बायें किनारे से होकर करनी चाहिये। एक पक्की सडक है जो इस रास्ते मनाली को कुल्लू से जोडती है। कुल्लू पहुंचने पर बायें किनारे से नदी के उस पार जाने के लिये पुल पर से पैदल ही गुजरना पडता है। निजी वाहन से यदि सफर किया जा रहा हो तो नगर नामक स्थान से पतली-कुहल नामक स्थान पर मुख्य राजमार्ग पर मिलना पडता है।

ब्यास के बाईं ओर मनाली से छह किलोमीटर दूर एक स्थान है जगतसुख। सुरम्य पहाडियों में बसा बहुत ही लुभावना गांव। ठहरने के लिये यहां लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह भी है। वास्तव में यह गांव कभी कुल्लू रियासत की राजधानी भी रहा है। कुल्लू के राजवंशजों ने बारह पुश्तों तक यहां रहकर राज किया था। इसके पश्चात राजधानी नगर नामक स्थान पर स्थानांतरित कर दी गई। जगतसुख में प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त शिखर शैली में निर्मित पुराना शिव मन्दिर भी है। इस मन्दिर के साथ ही गायत्री देवी का मन्दिर भी है। इसके पुजारी के मुताबिक, देश भर में शायद यह अपनी किस्म का एक अलग ही मन्दिर है।

जगतसुख से 12 किलोमीटर की दूरी पर बसा है नगर, एक ऐतिहासिक गांव। कुल्लू से लगभग 27 किलोमीटर की दूरी पर। जगतसुख के बाद नगर भी कुल्लू राजवंश की राजधानी रहा है। इस कारण यहां एक पहाडी किला भी है। आजकल इस किले को पर्यटन विकास निगम एक होटल के रूप में चला रहा है। विश्व प्रसिद्ध रौरिक आर्ट गैलरी भी नगर में ही है। यह आर्ट गैलरी किले से लगभग एक किलोमीटर दूर है। इसी रास्ते में आने वाला त्रिपुरा सुन्दरी का मन्दिर भी दर्शनीय स्थलों में से एक है। निजी वाहनों में सफर करने वालों को नगर से ही अपने वाहन पतली कुहल की ओर मोड लेने चाहिये वरना उन्हें कुल्लू जाने के लिये इसी स्थान पर वापिस आना होगा।

मुख्य मार्गों के आसपास बसे होने के कारण इन स्थानों का भ्रमण बिना किसी कठिनाई के किया जा सकता है। परन्तु साहसिक एवं रोमांचक पर्यटन के लिये अलग से तैयारी करके आना होगा। ऊंचे क्षेत्रों की यात्रा से पूर्व मनाली स्थित पर्वतीय प्रशिक्षण संस्थान से सम्पर्क करना अपनी रोमांचक यात्रा को और अधिक रोमांचक करने में सहायक होगा।

कुल्लू घाटी की ओर आती एक अन्य घाटी भी है। इस घाटी का नाम है पार्वती। इस घाटी में प्रवेश के लिये भुन्तर नामक स्थान से होकर जाना पडता है। इस स्थान पर ही विमानपत्तन भी है। इस घाटी में यदि मणिकर्ण का भ्रमण न किया जाये तो सफर अधूरा ही रहता है। यहां पर गर्म पानी के बहुत से चश्मे हैं। धरती से खौलता हुआ पानी इन चश्मों से बाहर आता है। शिव पार्वती से जुडी किंवदंती को अगर इस स्थान पर आकर ही सुना जाये तो उसका अपना ही मजा है।

मणिकर्ण में रघुनाथ जी के मन्दिर के अलावा एक भव्य गुरुद्वारा भी है। लंगर के साथ साथ रात्रि विश्राम की सुविधा भी उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त पर्यटन विभाग भी खाने पीने और आवास की सुविधाएं उपलब्ध करवाता है।

लेख: रमेश शर्मा

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

मलाणा- सिकन्दर की सेना से ताल्लुक

सिकन्दर को जब यह मालूम हुआ था कि भारत दुनिया का सबसे अमीर देश है और इसे सोने की चिडिया कहा जाता है तो इसे जीतने की सिकन्दर की इच्छा को मानो पंख लग गये थे। 326 ई.पू. में सिकन्दर ने भारत को जीतने के लिये कूच किया। सबसे पहले सिन्धु पार के लडाकू कबीलों ने सिकन्दर का सामना किया लेकिन सिकन्दर की सेना के सामने वे टिक न सके। इसके पश्चात सिकन्दर ने ओहिन्द के स्थान पर नावों का पुल बनाकर सिन्धु नदी को पार किया और तक्षशिला की ओर बढा।

सिकन्दर ने कई रियासतों पर अपना विजयी ध्वज फहराया लेकिन चूंकि भारत बहुत विशाल देश था और इसे फतह करने के लिये कई महीने लग सकते थे, अतः निरन्तर युद्ध से उकता चुके सिकन्दर के कई सैनिक अब अपने मूल वतन लौटने को उतावले होने लगे। परन्तु सिकन्दर का भारत विजय का हठ बरकरार था। तंग आकर सिकन्दर के कुछ सैनिकों ने उससे किनारा करके अपने मूल वतन की ओर कूच कर दिया। लेकिन घर लौटना इतना आसान नहीं था, जितना उन्होंने सोचा था। रास्ते में शिवी, क्षुद्रक, मलोई, मौशिकनोई आदि अनेक युद्धप्रिय जातियों ने इन सैनिकों को युद्ध के लिये ललकारा। लेकिन निरन्तर युद्ध से बुरी तरह थक चुके और गोला बारूद खत्म हो जाने की वजह से इन सैनिकों में अब और अधिक लडने की हिम्मत नहीं थी। इसलिये इन सैनिकों ने अपने मूल वतन वापस लौटने का विचार त्याग कर सुरक्षित स्थानों में पनाह लेने की सोची। छिपते छिपाते कुछ सैनिक पहाडी क्षेत्रों में भाग गये और दुर्गम घाटियों में बस गये।

ऐसी ही एक दुर्गम घाटी मलाणा है जहां के वाशिंदों के बारे में विद्वानों का मत है कि ये लोग सिकन्दर के सैनिकों के वंशज हैं। अपने कथन की पुष्टि में ये विद्वान मलाणा के जमलू देवता के मन्दिर के बाहर लकडी की दीवारों पर हुई नक्काशी का प्रमाण देते हैं, जिसमें युद्धरत सैनिकों को एक विशेष पोशाक और हथियारों से लैस दिखाया गया है। मलाणा वासियों की बोली भी बडी विचित्र है और ऐसी मान्यता है कि यह बोली ग्रीक भाषा से कुछ मिलती-जुलती है। इसके अलावा मलाणा वासियों के नैन-नक्श भी ग्रीक के मूल लोगों की तरह तीखे हैं। चारों ओर से ऊंची-ऊंची पहाडियों से घिरा और मलाणा नदी के मुहाने पर बसा मलाणा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में समुद्र तल से 8640 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मलाणा पहुंचने के लिये लम्बा, कठिन और चढाईदार रास्ता नापना पडता है। गांव के आसपास पन्द्रह किलोमीटर के घेरे में कोई आबादी नहीं है। सिर्फ पेड-पौधे और जीव जन्तु ही आगन्तुक का स्वागत करते दिखते हैं।

मलाणा जाने के दो रास्ते हैं। एक मार्ग नग्गर से है और दूसरा जरी से। नग्गर से जाना हो तो तीस किलोमीटर का पैदल सफर है और रास्ते में चन्द्रखनी दर्रा लांघना पडता है। लेकिन अगर जरी होते हुए जाना हो तो पन्द्रह किलोमीटर की खडी और जोखिमपूर्ण चढाई है। मलाणा के लिये कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

मलाणा गांव दो हिस्सों में बंटा है। ऊपरी भाग जो कि पहाडी पर स्थित है को ‘धाराबेहर’ के नाम से जाना जाता है। जबकि निचले भाग को ‘साराबेहर’ कहा जाता है। गांव के बीच पडने वाले भूभाग को ‘हरचा’ कहा जाता है। हरचा एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिसके इर्द गिर्द मलाणा की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और न्यायिक गतिविधियां केंद्रित हैं। मलाणा गांव में सवा सौ घर हैं और आबादी होगी कोई हजार बारह सौ के करीब। मलाणा के अधिकांश घर लकडी के बने हैं और छतों पर स्लेटों की जगह कहीं कहीं लकडी के फट्टों का इस्तेमाल किया गया है। कई घर तीन-तीन मंजिले भी हैं, जिनमें निचली मंजिल में पशु बांधे जाते हैं और ऊपरी मंजिलों में लोग रहते हैं।

मलाणा से जुडा एक अजूबा यह है कि यहां विश्व की सबसे पुरानी लोकतान्त्रिक व्यवस्था मौजूद है। भारतीय गणराज्य का एक अंग होते हुए भी मलाणा की अपनी एक अलग न्यायपालिका और कार्यपालिका है। भारत सरकार के कानून यहां नहीं चलते। इस गांव की अपनी अलग संसद है, जिसके दो सदन हैं- ज्येष्ठांग (ऊपरी सदन) और कनिष्ठांग (निचला सदन)। ज्येष्ठांग में कुल 11 सदस्य होते हैं। जिनमें तीन सदस्य कारदार, गुर व पुजारी स्थायी सदस्य होते हैं। शेष आठ सदस्यों को गांववासी मतदान द्वारा चुनते हैं। इसी तरह कनिष्ठांग सदन में गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। यह सदस्य घर का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है।

दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही सदनों में गांव की किसी महिला को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता और इनमें पुरुषों का ही वर्चस्व होता है। अगर ज्येष्ठांग सदन के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाये तो पूरे ज्येष्ठांग सदन को पुनर्गठित किया जाता है। इस संसद में घरेलु झगडे, जमीन-जायदाद के विवाद, हत्या, चोरी और बलात्कार जैसे मामलों पर सुनवाई होती है और दोषी को सजा सुनाई जाती है। संसद भवन के रूप में यहां एक ऐतिहासिक चौपाल है जिसके ऊपर ज्येष्ठांग सदन के 11 सदस्य और नीचे कनिष्ठांग सदन के सदस्य बैठते हैं। अगर संसद किसी विवाद का निपटारा करने में विफल रहती है तो मामला स्थानीय देवता जमलू के सुपुर्द कर दिया जाता है और इस मामले में देवता का निर्णय अन्तिम व मान्य होता है।

जमलू देवता द्वारा फैसला सुनाए जाने की प्रक्रिया भी बडी विचित्र है। इस प्रक्रिया के तहत दोनों पक्षों को एक-एक बकरा लाने को कहा जाता है। फिर दोनों बकरों की टांग चीरकर उसमें जहर भर दिया जाता है। जिसका बकरा पहले मर जाये, वही पक्ष दोषी माना जाता है और उसे सजा कबूल करनी पडती है। देवता के निर्णय को चुनौती देने की हिम्मत कोई नहीं करता और न ही देवता के फैसले के खिलाफ कोई अदालत में जाने की जुर्रत करता है। अगर कोई देवता के फैसले का अपमान करे तो मलाणावासी उसका सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। यहां आने वाले आगन्तुक को देवता की तरफ से दो समय की खाद्य सामग्री व रहने का स्थान दिया जाता है। इस कार्य के लिये चार आदमी तैनात होते हैं, जिन्हें ‘कठियाला’ कहा जाता है।

मलाणा के सामाजिक संस्कार भी बडे विचित्र हैं। एक परम्परा है- बच्चे को जन्म देते समय स्त्री को घर से बाहर एक तम्बू में नवजात शिशु संग पन्द्रह दिन तक रहना पडता है। भले ही बाहर कई-कई फुट मोटी बर्फ की तहें जमी हों। इस अवधि में कोई भी व्यक्ति जच्चा और बच्चा को नहीं छू सकता। यदि कोई गलती से छू जाये तो उसे भी 15 दिन तक बाहर इनके साथ ही रहना पडता है। सोलहवें दिन घर में लिपाई-पुताई करने के बाद ही इन्हें घर के अन्दर प्रवेश दिलाया जाता है।

मलाणा में किसी की मृत्यु होने पर तीन दिन तक शोक मनाया जाता है। अगर कोई महिला विधवा हो जाये तो वह एक साल तक जेवर नहीं पहनती और उल्टी टोपी पहनती है। इस अवधि के बाद अगर वह दूसरा विवाह करना चाहे तो कोई रोक-टोक नहीं है। एक वक्त था जब इस गांव के लडके-लडकियों की शादियां गांव की चाहरदीवारी के अन्दर ही होती थी, लेकिन अब यह परिपाटी बदल रही है। मलाणावासी गांव से दस किलोमीटर दूर रशोल गांव से भी लडकियां ब्याह कर लाने लगे हैं। लेकिन मलाणा समाज में औरत की वही स्थिति है जितनी मुस्लिम समाज में। यानी वैवाहिक जीवन में उसे उसका पति कभी भी तलाक दे सकता है। अगर मर्द ने कह दिया कि घर से बाहर निकल जाओ तो फिर उस घर के दरवाजे औरत के लिये बन्द हो जाते हैं।

लेकिन दूसरी तरफ यह भी एक अकाट्य सत्य है कि मलाणा की पूरी अर्थव्यवस्था यहां की मेहनतकश महिलाओं के कन्धों पर ही टिकी हुई है। मीलों पैदल चलकर बाजार से सामान लाने, खेत-खलिहान से लेकर चौका-चूल्हा संभालने के सारे दायित्व महिलाएं ही निभाती हैं।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

किन्नौर- प्रकृति की सुन्दर कृति

प्राकृतिक छटा के लिये प्रसिद्ध हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से लगभग 190 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, संसार की दृष्टि से सदियों से अब तक बची हुई, जो कि अभी कुछ वर्ष पूर्व तक कुछ सीमित लोगों द्वारा देखी जा सकती थी, हिमालय पर्वत की श्रंखला में आदिवासियों की सभ्यता संजोये हुए यही किन्नौर घाटी अब जन साधारण के लिये खोल दी गई है। यह घाटी पूर्व में तिब्बत, पश्चिम में कुल्लू घाटी, उत्तर में स्पीति घाटी एवं दक्षिण में गढवाल से घिरी हुई है। बहुत ऊंचाई पर होने के कारण यहां ठण्ड रहती है अर्थात ग्रीष्म ऋतु का समय बहुत ही कम रहता है। अधिक सर्दी होने पर यहां के निवासी कुछ निचले स्थानों पर आ जाते हैं। लगभग सारा क्षेत्र ऊंचा नीचा होने के कारण उपजाऊ नहीं है। लद्दाख की भांति यहां भी बहुत कम वर्षा होती है।

किन्नौर घाटी तिब्बत के पास होने के कारण यहां के लोगों की जीवन शैली पर बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। यद्यपि मूलतः लोग हिन्दू ही हैं। यहां घाटी में लगभग हर गांव में मन्दिर या गोम्पा (बौद्ध स्थल) हैं। किन्नौरी लोग स्वभाव से भोले, धार्मिक एवं ईमानदार हैं। यहां बहु-पति प्रथा आज भी कायम हैं। शायद इसी वजह से यहां की आबादी नियन्त्रण में है। सतलुज नदी जोकि तिब्बत में मानसरोवर क्षेत्र से निकलती है, इसी घाटी से अपना सफर तय करती हुई मैदानी इलाकों में पहुंचती है। किन्नौर में इस नदी के साथ दो संगम, प्रथम खाबो में स्पीति नदी से, दूसरा कडछम में बस्पा नदी से, प्रसिद्ध हैं। भारत-तिब्बत मार्ग किन्नौर घाटी से ही होकर निकलता है।

प्रकृति की इस खूबसूरत घाटी को देखने का शुभारम्भ पुरातन ‘रामपुर बुशहर’ रियासत की राजधानी रामपुर से होता है। यह ट्रैकिंग करने वालों का भी प्रथम पडाव है। यहां का लवी मेला बहुत प्रसिद्ध है, जो 11 से 14 नवम्बर तक लगता है। यहां से श्रीखण्ड महादेव चोटी (5155 मीटर) के दर्शन किये जा सकते हैं। पूरी चोटी की परिक्रमा भी 7-8 दिन में की जा सकती है। इससे आगे सराहन का भीमाकाली मन्दिर पहाडी कला की मुंह बोलती तस्वीर है। किसी समय यहां पर भगवान को प्रसन्न करने के लिये नर बलि दी जाती थी, आजकल बकरे की बलि दी जाती है। पुजारियों के अनुसार अब यह बलि मन्दिर के बाहर ही दी जाती है।

यहां श्री रघुनाथ जी, श्री नरसिंह जी और श्री लांकडा वीर जी की तीन मूर्तियां स्थापित हैं। इस मन्दिर का निर्माण राजशाही द्वारा 200 वर्ष पूर्व किया गया था। मन्दिर में ठहरने के लिये बहुत ही बढिया सराय बनी हुई है तथा एक अन्य का निर्माण कार्य चल रहा है। यहां हिमाचल पर्यटन का होटल श्रीखण्ड बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है।

वापस ज्यूरी आने पर तीन किलोमीटर की दूरी पर किन्नौर घाटी का आरम्भ चौरा (1638 मीटर) गांव से होता है। यहां पर श्री तरगडा देवी जी का मन्दिर है, जिसका निर्माण भारत-तिब्बत मार्ग निर्माण के समय हुआ था।

भाभा नगर: रामपुर से 35 किलोमीटर की दूरी पर पूरी तरह पहाडों के अन्दर बना भाभा विद्युत केन्द्र 120 मेगावाट विद्युत पैदा करता है। इसमें 40 मेगावाट की तीन चक्कियां लगी हुई हैं। यह 8 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है और पूरी तरह स्वचालित है।

सांगला/ बस्पा घाटी: राष्ट्रीय राजमार्ग पर कडछम से 18 किलोमीटर की दूरी पर किन्नौर की सबसे सुन्दर घाटी है। यह रास्ता बहुत छोटा है और डरावना भी है क्योंकि यहां बहुत ही गहरी खाईयां हैं। पूरी किन्नौर घाटी में सांगला क्षेत्र हरा-भरा है। यह घाटी देखने के बाद यही रहने को मन करता है। यहां का सेब बहुत प्रसिद्ध है। यहां बादाम एवं केसर की भी खेती होती है। इसी रास्ते में कामरू गांव बहु-पति प्रथा के लिये आज भी प्रसिद्ध है। छितकुल (3435 मीटर) इस मनोहर घाटी का अन्तिम गांव है। यह स्थान तो परीलोक लगता है। यहां से कुछ किलोमीटर पर भारत-तिब्बत सीमा आरम्भ हो जाती है।

कल्पा/ रिकांगपियो: किन्नौर जिले के प्रशासनिक कार्यालय रिकांगपियो (2290 मीटर) में हैं। यह स्थान राजमार्ग पर स्थित पवारी से 7 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां से कल्पा (2960 मीटर) सात किलोमीटर पर है। देवदार के वृक्षों से ढका यह रास्ता बहुत सुन्दर है। कल्पा भी इस घाटी के सुन्दरतम स्थानों में से एक है। इस मनोरम स्थान से किन्नौर कैलाश (6000 मीटर) के साफ दर्शन किये जा सकते हैं। इस चोटी के बार-बार रंग बदलते दिखाई देते हैं, ऐसा मौसम बदलते ही होता रहता है। यहां परिधि गृह से ये दृश्य सहज ही देखे जा सकते हैं। यहां से कुछ दूरी पर पांगी, मूरंग और केनम आदिवासी गांव हैं जिनमें पूर्णतः उनकी प्राचीन सभ्यता देखी जा सकती है।

पवारी से 16 किलोमीटर की दूरी पर टिब्बा अंगूरों के लिये प्रसिद्ध स्थान है। यहां अंगूरों के बडे बाग हैं। यहीं से दस किलोमीटर दूरी पर मूरांग क्षेत्र है, जहां खुरमानी की खेती होती है। मूरांग से 32 किलोमीटर पर पूह नगर है। यह नगर पूरी तरह आधुनिक सुविधाओं से युक्त है।

खाबो/ नाको/ समदू: खाबो (2831 मीटर) में सतलुज एवं स्पीति नदियों का सुरम्य स्थल है। यहां से सतलुज तिब्बत की ओर हो जाती है जबकि स्पीति नदी आगे साथ-साथ चलती है। नाको (2950 मीटर) एक अलग ही किस्म का गांव है, जहां एक बहुत ही सुन्दर झील है। यहां टेण्ट लगाकर रहने में बहुत आनन्द मिलता है। समदू किन्नौर घाटी का अन्तिम गांव है, जहां स्पीति और परी-धू नदी का संगम होता है। यहां से स्पीति घाटी आरम्भ हो जाती है।

लेख: सुनील जैन

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

कसोल- हर मधुर कल्पना जहां यथार्थ रूप लेती है

चांदी सी चमचम करती बर्फ से ढकी बुलन्द पहाडों की गोदी में रचता-बसता हो एक छोटा सा दिलकश गांव, ठीक बगल में बहती हो इठलाती इक नदिया, नदिया के किसी एक किनारे पर बना हो कुदरती गर्म पानी का छोटा सा कुण्ड, आजू-बाजू हो हरा भरा उद्यान, उस उद्यान में झूलते हों एक से बढकर एक मौसमी फूल और पत्ते, आसपास ही बनी हो सैलानियों की रिहाइशी ‘हट्स’, वहीं सुबह शाम अक्सर दिखाई दे जाये भेड-बकरियों का लम्बा काफिला और न जाने कब पहाडों को नीचे तक छूने चले आयें गोरे, काले, सलेटी बादल....

नाम है कसोल जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले से महज 35 किलोमीटर के फासले पर है। ऊंचाई है करीब पांच हजार फीट। यहां न दिल्ली या मुम्बई जैसी उमस है, न कुल्लू शहर जैसी रेलमपेल। कुछ है तो बस सादगी।

कहने को तो कसोल 30-35 घरों का छोटा सा गांव है लेकिन प्रकृति ने खुले दिल से उस पर खूबसूरती की बरखा की है। चारों तरफ जिधर भी नजर जाती है, प्रकृति एक नये रंग, रूप और साज-सिंगार के साथ हर सैलानी की अगवानी करती प्रतीत होती है। नदियां, पहाड, कद्दावर पेड, फल-फूल, नर्म मुलायम घास, वन्य जीवन और मिलनसार लोग- क्या कुछ नहीं है शहरी तनातनी से सुकून चाहने वाले इंसान को अपनी ओर खींचने वाले कसोल में।

कसोल कुल्लू और मणिकर्ण के बीच स्थित है। कुल्लू या मनाली से मणिकर्ण जाने वाली हर बस कसोल रुकती है, सो बहुत आसान है कसोल पहुंचना। सीधे सडक सम्पर्क के कारण यह गांव तेजी से पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होता जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि सर्दियों में मनाली वगैरह में बर्फ के कारण सडकें भले ही कई-कई दिनों के लिये बन्द पडी रहें लेकिन कसोल का रास्ता हमेशा खुला रहता है। अतः सालभर यहां सैलानियों की आवाहाजी लगी ही रहती है।

बस से उतर कर बायीं ओर प्रस्थान करें तो भागमभाग की जिन्दगी से दूर एक शान्त वातावरण में पहुंचने का रोमांचक एहसास होता है। सामने ही एक ओर ‘कसोल फारेस्ट हाउस’ की तरतीब से बनी हुई टूरिस्ट हट्स हैं और बगल में ही दिखाई दे जाते हैं कुछ उद्यमी सैलानियों या ट्रेकरों द्वारा गाडे हुए रंग-बिरंगे टेंट जो बरबस ही नजर खींच लेते हैं। आगे चलें तो इस क्षेत्र की आत्मा समझी जाने वाली पार्वती नदी अपने पूरे उफान के साथ बहती नजर आती है। कद्दावर, घने देवदार के पेड और ऊपर आसमान से बातें करतीं बुलन्द चोटियां दिखाई देती हैं, जो सुबह की पहली किरण पडते ही स्वर्णिम रंग बिखेरती प्रतीत होती हैं।

हर रुचि के सैलानी के लिये कसोल के झोले में सामान मौजूद है। खासकर वन्य जीवन में रुचि रखने वालों के लिये कसोल तो जैसे खजाना है। राज्य के वन्य विभाग द्वारा जहां ‘कनवार वन्य जीवन अभयारण्य’ (सेंचुरी) विकसित किया गया है। कसोल से ग्राहण की ओर पैदल चलिये तो रास्ते में आपको लम्बी पूंछ वाली कई रंग बिरंगी पहाडी चिडियाएं मिलेंगीं। यहीं जंगल की खामोशी को तोडता नजर आ जायेगा हिमाचल प्रदेश का राज्य पक्षी मोनाल। हिम्मत और साहस करके और आगे घने जंगल की छानबीन करें तो वहां काले भालू, भूरे भालू, कस्तूरी मृग वगैरह के दर्शन का भी सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। जंगल में वन्य जीवन की खोज व अध्ययन के इच्छुक लोगों की रिहाइश के लिये वन विभाग ने सज्जित इंस्पेक्शन हट्स भी बना रखी हैं जिनका किराया बहुत ही नाममात्र का है।

अगर आपकी रुचि धार्मिक पर्यटन में है तो पहुंचिये मणिकर्ण जो कसोल से महज चार किलोमीटर दूर है। पैदल या वाहन से कैसे भी जा सकते हैं। यहां पार्वती नदी के ठीक किनारे पर स्थित है वह पवित्र ऐतिहासिक गुरुद्वारा जहां एक ही छत के नीचे मन्दिर भी है। अतीत में किसी समय श्री गुरुनानक देव जी और उनसे पूर्व शिव पार्वती यहां पधारे थे। सो उनकी याद में निर्मित है यह गुरुद्वारा जो सर्वधर्म समभाव की अदभुत मिसाल है।

पर्वतारोहण या ट्रेकिंग के शौकीन व्यक्तियों के लिये बेस कैम्प यानी आधार शिविर का काम करता है कसोल। यहां से शुरू होकर भी आप चन्द्रखनी दर्रे (13000 फीट) या सरपास दर्रे (14000 फीट) तक जाकर उन्हें छूने या फतह करने का रोमांचक अनुभव हासिल कर सकते हैं।

यूं तो कसोल घूमने के लिये साल का कोई भी महीना उपयुक्त है। लेकिन खासकर वन्य जीवन के अध्ययन में रुचि रखने वालों के लिये अक्टूबर से मार्च का समय बेहतरीन माना जाता है, क्योंकि इस दौरान उन्हें अधिकांश वन्य जीव एक साथ देखने को मिल जाते हैं। इस क्षेत्र में ट्रेकिंग के लिये गर्मियों का मौसम ज्यादा उपयुक्त है।

लेख: जगजीत सिंह

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, दिसंबर 05, 2011

खतरनाक भी है बर्फीला मणिकर्ण

दिल्ली से मणिकर्ण जाने वाले ट्रेकिंग ग्रुप में हमारे विद्यालय के दस बच्चों में मेरा नाम भी काफी प्रयासों के बाद आखिर चुन ही लिया गया। वैसे तो हमारे विद्यालय का ट्रेकिंग दल हमेशा ही कहीं न कहीं जाता रहता है पर इस बार हमारे शारीरिक शिक्षक राजकुमार जी के हमारे दल के साथ जाने से सभी छात्रों में विशेष उत्साह था क्योंकि वह ट्रेकिंग के बारे में सब शिक्षकों से अधिक जानकारी रखते थे।

हमारी औपचारिक यात्रा कुल्लू से ही शुरू हो गई थी जहां से मणिकर्ण लगभग 40 किलोमीटर दूर है। कुल्लू हिमाचल प्रदेश का एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। जहां से टेढे मेढे रास्तों और दुर्गम चढाई के बाद हमें मणिकर्ण पहुंचना था। लगभग 10000 फीट की ऊंचाई पर ढाडी गुफा पर भी हम ठहरेंगे। हमारे सर ने बताया कि यह वही गुफा है जहां कभी गुरू नानक ठहरे थे। इसके बाद हम शांगडा गांव होते हुए तोशी गांव पहुंचेंगे और फिर मणिकर्ण ग्लेशियर।

कहते हैं कि मणिकर्ण का पुराना नाम अर्द्धनारी है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार शिव अर्द्धनारी के रूप में यहां नहा रहे थे कि पार्वती के कान की मणि नदी में गिर गई और पाताल में चली गई। शिव ने प्रकृति में सबसे पूछा लेकिन कोई न बता पाया कि मणि कहां गई। इस पर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने तीसरी आंख खोल दी। तब नैना देवी प्रकट हुई और उन्होंने मणि ढूंढने का जिम्मा उन्हें सौंपा। नैना देवी पाताल से लाखों मणियां उठा लाई और पार्वती से अपनी मणि ढूंढने को कहा। पार्वती ने अपनी मणि ढूंढ ली लेकिन लोगों के लालच के डर से बाकी मणियों को पत्थर बना दिया। तभी से इस स्थान का नाम मणिकर्ण पड गया।

इसी स्थान पर शिव पार्वती ने अर्द्धनारी के रूप में 1100 वर्ष तक तपस्या की। मणिकर्ण में ही पार्वती नदी बहती है जो मानतलाई से लगभग 100 किलोमीटर की यात्रा करके यहां पहुंचती है। पार्वती नदी के किनारे किनारे महत्वपूर्ण खनिज अयस्कों की खानें हैं। मणिकर्ण में भी पानी प्राकृतिक रूप से गर्म है क्योंकि इसके नीचे सल्फर बहुतायत में पाया जाता है।

हम खतरनाक रास्तों से होते हुए बर्फीली चोटियों को देखते हुए सावधानी से आगे बढ रहे थे। कई जगह हमें खतरनाक ‘रोलिंग स्टोन जोन’ क्षेत्रों से भी गुजरना पडता था। लेकिन हमारे सर इस दुर्गमता में हमारा साहस बढाते रहते थे। मणिकर्ण से मणिकर्ण ग्लेशियर के रास्ते तक ढेरों चीड और देवदार के पेड हैं। जैसे जैसे मणिकर्ण ग्लेशियर पास आता जा रहा था हमारी उतावली भी बढती जा रही थी। हमारा सफर अब दुर्गम व रास्ता भी बर्फीला हो चला था क्योंकि तोश गांव के बाद हम ग्लेशियर पहुंचने वाले थे। ऊपर पहुंचने के साथ साथ ठण्ड भी बढने लगी थी और हवा के तेज थपेडे हमें लगातार पीछे धकेल रहे थे। बीच बीच में कई छोटे बडे झरने भी हमें रोक लेते थे।

एकाएक मेरा एक साथी तेज आवाज में चिल्लाया ‘बस, अब 100 मीटर चलने के बाद हम ग्लेशियर पर होंगे।’ दरअसल वह पहले भी यहां आ चुका था। उसने हमें बताया कि ग्लेशियर वास्तव में बर्फ की गति से बहने वाली नदी को कहते हैं जिसमें समय-समय पर एवलांव होते रहते हैं। एवलांच पहाडों से ढेरों बर्फ नीचे लुढक आने वाली एक खतरनाक प्रक्रिया है। अचानक हमारे सर हमें रोक देते हैं और अपने सामने देखने को कहते हैं। हम ऊपर देखते हुए चल रहे इसलिये हमारे पैर कब बर्फीले रास्तों पर पडने लगे थे, हमें पता ही नहीं चला था।

हमारे सामने बर्फ का विशाल लम्बा मैदान था जो दूर तक घाटी बनाता हुआ फैला था। यही मणिकर्ण ग्लेशियर है जिसे देखने के लिये हम हजारों फीट ऊंची दुर्गम चढाई चढकर यहां पहुंचे थे। हमारे चेहरों पर आश्चर्य फैला था और आंखें अचरज से सामने बर्फ की ऊंची विशाल दीवारों पर टिकी थीं। मानों वे ग्लेशियर की प्रहरी हों। दूर तक फैले ग्लेशियर में जगह जगह क्रेवास बने थे इसलिये हम सब एक सुरक्षित स्थान पर समूह बनाकर बैठे थे। क्रेवास दरअसल बर्फ के ग्लेशियर में पडी उन दरारों को कहते हैं जिनके नीचे गहराई पर पानी होता है और कई बार असावधानी बरतने पर ट्रेकिंग दल के लोग उसमें गिर कर मर भी जाते हैं।

ग्लेशियर पर आये हुए हमें लगभग एक घण्टा हो चला था और मौसम खराब होने लगा था। बारिश कभी भी हो सकती थी और बर्फ गिरने का भी कोई भरोसा नहीं था। हम वापस लौट पडे क्योंकि अभी हमें बेस कैम्प लौटना था जहां एक अन्य ट्रेकिंग दल हमारा इंतजार कर रहा था।

यात्रा वृत्तान्त: जीशान हुसैन खान

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, दिसंबर 04, 2011

हिमानी जल से फूटते हैं गर्म फव्वारे

प्रकृति ने न केवल हिमाचल में दिल खोलकर अपना नैसर्गिक सौन्दर्य लुटाया है बल्कि इसे खूबसूरत झीलों, नदियों, झरनों व गर्म जल के चश्मों से संवारने में भी कोई कसर नहीं छोडी है। हिमाचल आया सैलानी अगर यहां के दिलकश, लुभावने दृश्यों से अभिभूत हो उठता है तो यहां के प्राकृतिक स्रोत उसे नई स्फूर्ति से भर देते हैं। ये प्राकृतिक स्रोत सैलानी के लिये कौतूहल का विषय भी हैं और श्रद्धा के प्रतीक भी। ऐसे ही प्राकृतिक स्रोतों में हिमाचल के गर्म जल के चश्मों को गिना जा सकता है।

हिमाचल में दस के करीब गर्म जल के चश्में हैं, जिनमें मणिकर्ण, वशिष्ठ, तत्तापानी, ततवाणी, कसोल और ज्यूरी के चश्में मशहूर हैं। इन चश्मों का जल न केवल स्वास्थ्यवर्धक है, बल्कि इन चश्मों के साथ कई धार्मिक कथाएं भी जुडी हैं। श्रद्धालु इन चश्मों में स्नान करने भी आते हैं और श्रद्धा से नतमस्तक होने भी। ये सभी चश्में अत्यन्त खूबसूरत स्थलों पर स्थित हैं।

शिमला व मण्डी जिले की सीमाओं को जोडती सतलुज नदी के किनारे गर्म पानी के चश्मों का सुरम्य स्थल तत्तापानी नाम से है, जो समुद्र तल से 656 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। सतलुज नदी में एक तरफ बहता हिमानी जल और नदी के किनारे दो सौ मीटर लम्बे क्षेत्र में भूगर्भ से फूटते गर्म जल के स्रोत सैलानी को आश्चर्य में डाल देते हैं। सतलुज नदी में पानी की मात्रा बढने के साथ साथ ये चश्में भी ऊपर की ओर आ जाते हैं।

यहां गर्म जल के चश्में फूटने के बारे में एक रोचक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि यह क्षेत्र महर्षि जमदग्नि की तपोभूमि रहा है। एक बार ऋषि जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने तपस्या के लिये हिमालय पर जाते समय अपने पिता से आग्रह किया था कि अगर उन्हें कोई संकट आये तो वह उसे (परशुराम को) याद कर लें। कहा जाता है कि परशुराम के जाने के बाद महर्षि जमदग्नि को अकेला पाकर सुन्नी रियासत के राजा ने परेशान करना शुरू कर दिया। हारकर ऋषि जमदग्नि ने अपने बेटे परशुराम का स्मरण करना पडा। परशुराम उस समय कुल्लू घाटी स्थित मणिकर्ण के चश्में मंम स्नान कर रहे थे। जैसे ही उन्हें अपने पिता पर आई विपत्ति का आभास हुआ, वह स्नान अवस्था में ही तत्तापानी पहुंच गये। वहां जैसे ही उन्होंने अधोवस्त्र निचोडे, पानी की बूंदें नीचे टपकने से यहां गर्म पानी के चश्में फूट पडे। इस स्थल के बारे में श्रद्धालुओं में बहुत मान्यता है और प्रथम माघ को यहां भारी मेला भी लगता है। यात्रियों के ठहरने के लिये राज्य के पर्यटन विभाग ने यहां सरायों का निर्माण भी कराया है।

कुल्लू की पार्वती घाटी में स्थित मणिकर्ण के गर्म जल के चश्मों को देखने के लिये शायद सर्वाधिक पर्यटक उमडते हैं। यहां गर्म जल फव्वारों के रूप में फूटता है। ये चश्में पार्वती नदी के दाहिने छोर पर स्थित हैं। वैज्ञानिक आज तक इस बात पर आश्चर्यचकित हैं कि पार्वती नदी में बहता जल जहां बर्फ की तरह ठण्डा है, वहीं इस नदी से ही उबलता जल कैसे फूट रहा है? इस जल का तापमान 95 डिग्री के करीब है। कहा जाता है कि शरीर के चर्म रोग, यहां तक कि गठिया भी यहां के पानी में कुछ दिन स्नान करने से ठीक हो जाता है। यहां गर्म जल के स्रोत कैसे फूटे, इस बारे में एक रोचक किंवदंती प्रचलित है।

कहा जाता है कि कालान्तर में भगवान शिव, पार्वती के साथ टहलते हुए इन पहाडियों में पहुंचे। यहां का वातावरण उन्हें इतना पसन्द आया कि वे यहीं तपस्या में लीन हो गये। उधर एकाकीपन से उकताकर पार्वती एक दिन पास ही बह रही नदी में उतर गई और जलक्रीडा करते हुए अपना दिल बहलाने की कोशिश करने लगी। तभी उनके कान की एक दुर्लभ मणि पानी में गिर गई और सीधे पाताल में शेषनाग के पास जा पहुंची। पार्वती ने मणि को ढूंढने की बहुत कोशिश की और अंत में थककर उदास सी एक चट्टान पर जा बैठी। शाम जो जब भगवान शिव की समाधि टूटी और उन्हें पार्वती के दुखी होने का कारण मालूम हुआ तो उन्होंने अपने गणों को तुरन्त मणि ढूंढ निकालने का आदेश दिया। गणों ने नदी का चप्पा चप्पा छान मारा लेकिन उन्हें मणि नहीं मिली।

भगवान शिव को गणों की असफलता का पता चला तो वे क्रोधित हो उठे। उनके नेत्रों से ऐसी चिंगारियां निकलने लगी कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कम्पायमान हो उठा। यही आंच जब पाताल में शेषनाग ने महसूस की तो वह तुरन्त भगवान शिव की नाराजगी का कारण समझ गये। उन्होंने शिवजी को प्रसन्न करने के लिये फुंकार मारी, जिसकी आंच से यहां का पानी गर्म हो गया और पृथ्वी के गर्भ से फव्वारे फूटने लगे। उन फव्वारों के साथ ही पार्वती की मणि भी बाहर आ गई। इस प्रकार इस स्थल का नाम मणिकर्ण पडा और यहां बहने वाली नदी को पार्वती के नाम से जाना जाने लगा। उस दिन से यहां गर्म जल के फव्वारे फूट रहे हैं। पार्वती नदी के साथ ही एक भव्य गुरूद्वारा और भगवान राम का प्राचीन मन्दिर भी है। गुरुद्वारे के भूतल और मन्दिर के प्रांगण में स्नानगृह बने हुए हैं, जहां गर्म पानी के कुण्ड हमेशा भरे रहते हैं। इन दोनों धर्मस्थलों में श्रद्धालुओं के आवास व लंगर की सुविधा है।

कुल्लू घाटी में गर्म जल का एक और चश्मा मनाली से 6 किलोमीटर दूर वशिष्ठ में है। इस जल का तापमान 53 डिग्री के करीब है और यह जल अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक भी है। वशिष्ठ गांव में कई जगह गर्म जल के चश्में हैं। हिमाचल पर्यटन निगम ने गर्म पानी को पाइप द्वारा नीचे लाकर पर्यटकों के लिये स्नान करने की व्यवस्था भी कर रखी है। महर्षि वशिष्ठ के मन्दिर के अन्दर भी चश्में का गर्म पानी रोककर महिलाओं व पुरुषों के लिये अलग-अलग स्नान कुण्ड बनाये गये हैं। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ यहां गर्म जल मणिकर्ण से लाये थे। यहां के चश्मों में स्नान करने के लिये वर्ष भर पर्यटक उमडते हैं।

मनाली से केवल सात किलोमीटर दूर क्लाथ में भी गर्म जल के चश्में हैं। यहां के जल का तापमान 25 से 45 डिग्री के आसपास है। यहां का जल अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक है। कहा जाता है कि इस जल के सेवन से कई असाध्य बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं।

जिला कांगडा में बैजनाथ से करीब बीस किलोमीटर दूर तत्तापानी के नाम से मिलता-जुलता ततवाणी नामक गर्म जल का चश्मा है। चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा यह स्थल लूणी नदी के किनारे पर है। इस स्थल पर पहुंचने के लिये कुछ पैदल भी चलना पडता है। यहां का पानी इतना गर्म है कि अगर चावल पोटली में बांधकर कुछ मिनट पानी में रखे जायें तो वे पूरी तरह पक जायेंगे। यह जल गंधकयुक्त भी है। लोगों में मान्यता है कि इस जल से स्नान करने पर शरीर की अनेक व्याधियां दूर हो जाती हैं। निर्जला एकादशी के दिन यहां बहुत बडा मेला लगता है और दूर दराज से सैंकडों श्रद्धालु यहां स्नान करने उमडते हैं।

शिमला जिले में रामपुर बुशैहर से आगे ज्यूरी के पास भी गर्म जल के चश्में हैं।

लेख: गुरमीत बेदी
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, दिसंबर 03, 2011

भरमौर- विश्व का एकमात्र धर्मराज का मन्दिर

बहुत दिनों से सुन रखा था कि इसी भारत के अन्दर किसी महत्वपूर्ण शिवधाम के करीब धर्मराज का कोई मन्दिर है। इंसान की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा सबसे पहले इसी मन्दिर में जाती है और वहीं पर उसके कर्मों के अनुसार उसे अगले जन्म में प्रवेश मिलता है। हिमाचल में सिद्धों की तपस्थली भरमौर की ‘चौरासी’ में स्थित है यह मन्दिर। गत दिनों जब हम भरमौर स्थित मन्दिर ‘चौरासी मन्दिर’ गये तो एक साधु ने हमें मन्दिर के बारे में बताया। हम अनेक प्रश्नों को मन में लिये जब मन्दिर में गये तो वहां का सारा माहौल देखकर भयमुक्त हो गये मगर अनेक प्रश्नों के घेरे में आ गये, जिनका उत्तर ढूंढने का प्रयास किया।

श्री धर्मेश्वर महादेव (धर्मराज) के इस विश्व भर में अकेले मन्दिर की कथा बताते हुए मन्दिर के श्री लक्ष्मी दत्त पुजारी, जो इस महत्वपूर्ण स्थल की देख-रेख करते हैं, ने बताया कि जिस प्रकार पुष्कर राज में ब्रह्मा जी का मन्दिर विश्व का एकमात्र मन्दिर है, उसी प्रकार धर्मेश्वर जी महाराज का यह एकमात्र मन्दिर है।

हमने जब इस मन्दिर में प्रवेश किया तो बाहर से यह मन्दिर लगा ही नहीं। घर जैसा प्रतीत होने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि इस चौरासी में सबसे कम लोग यहां आते हैं। ज्यादातर लोग बाहर से ही लौट जाते हैं। मन्दिर में प्रवेश द्वार पर बने एक कमरे को दिखाते हुए उन्होंने बताया कि जब संसार में कोई भी व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह सबसे पहले इस कमरे में चित्रगुप्त जी के समक्ष हाजिर होता है। चित्रगुप्त, जो धर्मराज के छोटे भाई हैं तथा उनके सचिव का कार्य भी संभालते हैं, सभी प्राणियों का लेखा-जोखा भी इनके पास होता है।

धर्मराज जी के इस अदभुत मन्दिर की सबसे ऊपर की पौडी पर लकीरें जैसी खुदी हुई हैं। ऐसा बताते हैं कि चित्रगुप्त आत्मा को यहां खडी करते हैं। फिर चित्रगुप्त उसके कर्मों का लेखा-जोखा बताते हैं। इसके ठीक सामने धर्मराज जी की कचहरी में कर्मों के हिसाब से उसके भविष्य का फैसला होता है।

मन्दिर के बाहर अदृश्य चारों दिशाओं को रास्ता बना है। धर्म के चार द्वारों, जो क्रमशः सोने, चांदी, लोहे एवं तांबे के बने हैं, में से कर्म के अनुसार एक दरवाजा खुलता है तथा फैसले के अनुसार आत्मा को उसी द्वार से फल भोगने के लिये भेजा जाता है।

श्री लक्ष्मणदत्त पुजारी ने बताया कि आम प्राणी के लिये तो यहां ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता मगर उनके गुरू श्री जयकृष्ण गिरि जो इसी मन्दिर के प्रमुख रहे हैं, ने यहां लोगों की इतनी आई-चलाई देखी कि पलक झपकने की फुरसत नहीं मिलती। अनेक अन्य पहुंचे हुए महात्मा भी बताते हैं कि परोक्ष रूप से धर्मराज जी का धाम यही है।

सदियों पुराने इस मन्दिर के ठीक सामने लगभग चार फीट ऊंचे बने एक विशाल मंच पर श्री सदाशिव का प्रतीक शिवलिंग है, जो गहरे काले रंग का है। इसमें बेमिसाल चमक है, जिसे देखने वाले मोहित हो जाते हैं। इस शिवलिंग की कहानी सुनाते हुए श्री पुजारी ने कहा कि सन 1905 एवं 1947 में आठ भूकम्पों में इस मन्दिर को काफी क्षति पहुंची थी। गुरूजी ने विक्रमी संवत 2029 में इसका जीर्णोद्धार कराया जो भूकम्प के कारण टेढे हो गये थे। शिवलिंग को सीधा करने के लिये श्रमिक लगाये गये थे। बारह फीट तक खोदकर भी जब उन्हें लिंग का आदि-अंत न पता चला तो गुरूजी ने भगवान श्री शिव से प्रार्थना की कि प्रभु आप तो अनन्त हैं, आप स्वयं अपनी सीधी स्थिति में आ जायें तो शिवलिंग स्वयं सीधा हो गया। तब श्री शिव ने गुरूजी को कहा कि टेढा होने से जो स्थान खाली हुआ है, उसे भर दिया जाये। तब इस मन्दिर को नया रूप दिया गया मगर शिवलिंग को युगों पुरानी उसी स्थिति में छोड दिया गया।

यात्रा वृत्तान्त: डा. जवाहर धीर

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, दिसंबर 02, 2011

चम्बा- श्रद्धा, शिल्प और सौन्दर्य का संगम

हिमाचल प्रदेश को अपने नैसर्गिक सौन्दर्य, अपनी समूची प्राकृतिक सम्पदा पर नाज है। हिमालय की गोद में बसे इस भूखण्ड को प्रकृति ने अत्यन्त मनोयोगपूर्वक सजाया है, संवारा है। जहां एक तरफ कल-कल करती नदियां, सौन्दर्य के दर्प में चूर उत्तुंग हिमशिखर, देववन व कंदराएं, शीतल मन्द मन्द बहती बयार, दुग्ध धवल झरने, सम्पूर्ण प्रदेश को विशेष आकर्षण शक्ति प्रदान करते हैं, वहीं लगभग छह हजार देवालयों व तीर्थ-स्थलों वाला यह प्रदेश आस्था का केन्द्र बना हुआ है। प्रदेश की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत, तीर्थ स्थल, पर्वतीय अंचल में छह विभिन्न शैलियों में निर्मित अति प्राचीन व कलात्मक इमारतें, अनूठे उत्सव व मेले तथा भोले-भाले सरल हृदयी हिमाचलवासी हर आगन्तुक को बार-बार आने का निमन्त्रण देते हैं।

इसी प्रदेश में एक जनपद है चम्बा, जहां पग-पग पर बिखरा सौन्दर्य आगन्तुकों की राह देखता है। कुछ ऐसी ही खूबियों को संजोये है मणि महेश की यात्रा, मिंजर मेला व कलात्मक मन्दिरों के लिये विख्यात अचम्भा कहा जाने वाला चम्बा।

पठानकोट से लगभग 120 किलोमीटर व डलहौजी से मात्र 47 किलोमीटर दूर रावी नदी के तट पर बसा चम्बा समुद्र तल से 996 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पठानकोट, धर्मशाला, डलहौजी, शिमला व चण्डीगढ से चम्बा के लिये नियमित बस सेवा तथा डलहौजी से टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है। चम्बा का निकटतम रेलवे स्टेशन पठानकोट देश के प्रमुख नगरों से जुडा हुआ है।

चम्बा के साथ इसके नामकरण व इतिहास को लेकर कई किंवदंतियां व रोचक घटनाएं जुडी हैं। अगर विस्तार से बात करें तो चम्बा के साथ भरमौर का जिक्र जरूरी हो जाता है। भरमौर प्राचीन काल में ब्रह्मपुर के नाम से जाना जाता था। मरु वर्मन नामक सूर्यवंशी राजा ने छठी शताब्दी में यहां अपना शासन कायम करने के बाद भरमौर (ब्रह्मपुर) को अपनी रियासत की राजधानी बनाया। इस तरह लगभग चार सौ वर्षों तक भरमौर चम्बा घाटी की राजधानी रहा। 920 ई. में तत्कालीन राजा मरु वर्मन के वंशज साहिल वर्मन ने अपनी राजधानी ब्रह्मपुर से बदलकर चम्बा कर दी। इस तरह चम्बा दसवीं शताब्दी में मरु राज्य की राजधानी बना और फिर शुरू हुई इसकी विकास यात्रा। कहते हैं कि साहिल वर्मन ने अपनी पुत्री चम्पावती के नाम पर अपनी नई राजधानी का नामकरण किया, जो कालान्तर में चम्बा हो गया। आज भी साहिल वर्मन की पुत्री के नाम पर चम्पावती मन्दिर चम्बा नगर के मध्य में विद्यमान है।

चम्बा का नामकरण साहिल वर्मन की सुपुत्री चम्पावती के नाम पर हुआ या इस क्षेत्र में बहुतायत में पाये जाने वाले चम्पा नाम के फूल पर हुआ, इस तथ्य को अगर यूं ही छोड दें, तब भी यह तो मानना ही पडेगा कि आज चम्बा को जो गौरव प्राप्त है, उसका अधिकतर श्रेय साहिल वर्मन को ही जाता है। इस राजा ने इस सम्पूर्ण क्षेत्र का विकास किया तथा अद्वितीय शिल्प एवं वास्तुकला से सुसज्जित कई कलात्मक मन्दिर निर्मित कराए।

कलात्मक मन्दिरों के लिये विख्यात चम्बा में यूं तो अनेक प्राचीन मन्दिर हैं, लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच श्रेष्ठ शिल्प सौन्दर्य का जादू समेटे लक्ष्मीनारायण मन्दिर समूह अति प्राचीन एवं विख्यात है। शिखर शैली में उत्तर से दक्षिण की ओर निर्मित यह मन्दिर समूह समूचे प्रदेश में उत्कृष्ट वास्तुकला के प्रथम चार कलात्मक मन्दिरों में से एक है। छह मन्दिरों के इस भव्य मन्दिर समूह में सबसे विशाल एवं मुख्य मन्दिर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर है। अन्य मन्दिर क्रमशः श्री राधाकृष्ण, श्री चन्द्रगुप्त, श्री गौरीशंकर, श्री अंबकेश्वर एवं श्री लक्ष्मीदामोदर के हैं। प्रांगण में कुछ अन्य लघु मन्दिर भी हैं। चम्बा के राजा जीत सिंह की विधवा रानी शारदा द्वारा निर्मित श्री राधाकृष्ण मन्दिर इस समूह में अपेक्षाकृत नवीन मन्दिर है, जबकि श्री लक्ष्मीनारायण एवं श्री चन्द्रगुप्त मन्दिर प्राचीनतम हैं, जिन्हें सम्भवतः 10वीं एवं 11वीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मन ने बनवाया था। 16वीं शताब्दी में राजा प्रताप सिंह वर्मन के राज्यकाल में इन मन्दिरों का पुनरुद्धार हुआ। कश्मीर शैली में बनी संगमरमर की श्री लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा बहुत ही सुन्दर है, जो 10वीं शताब्दी से सम्बन्धित है।

मन्दिर की दीवारों के गवाक्षों का शिल्प 15वीं शताब्दी के बाद का है। दीवारों के बाहरी तरफ उकेरी गई मूर्तियां एवं स्वतन्त्र आकृतियां देखकर दर्शक प्रथम दृष्टि में ही सम्मोहित से हो जाते हैं। ये आकृतियां एवं मूर्तियां सम्पूर्ण मन्दिर को भव्यता एवं सौम्यता प्रदान करती हैं। इस मन्दिर समूह के अन्य मन्दिरों में स्थापित अति प्राचीन प्रतिमाएं भी दर्शनीय हैं।

लक्ष्मीनारायण मन्दिर समूह के अतिरिक्त चम्बा में चौगान के साथ रावी नदी की तरफ प्राचीन हरिराय मन्दिर भी अति महत्वपूर्ण एवं दर्शनीय है। शिखर शैली में निर्मित यह मन्दिर भगवान विष्णु को समर्पित है। मन्दिर का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा अष्ट वर्मन के राज्यकाल का है। मन्दिर का वर्गाकार गर्भगृह वक्ररेखीय शिखर से अलंकृत है तथा अंतराल दो नक्काशीयुक्त स्तम्भों पर स्थित है। मन्दिर में स्थापित बैकुण्ठ विष्णु की 1.17 मीटर ऊंची चतुर्मुखी कांस्य प्रतिमा उत्कृष्ट कला का अनुपम उदाहरण है।

चम्बा से लगभग तीन किलोमीटर दूर ऊपर पहाडी पर स्थित चामुण्डा देवी मन्दिर भी इसी शैली का है। यह मन्दिर भी दसवीं शताब्दी का है। मन्दिर में माता चामुण्डा की अष्टधातु निर्मित लगभग ढाई फीट ऊंची प्रतिमा अति सुन्दर है। मन्दिर परिसर में भगवान शिव का भी एक मन्दिर है, जो 1905 के कांगडा भूकम्प में एक तरफ झुक गया था और अब तक वैसे ही तिरछा खडा है। इसके अतिरिक्त चम्बा का रानी सुही देवी मन्दिर, बंसी गोपाल मन्दिर तथा चरपटनाथ मन्दिर भी अति प्राचीन व दर्शनीय हैं।

इसके अलावा यहां की अमूल्य लोक कला के कई बेहतरीन उदाहरण शहर के मध्य में स्थापित राजा भूरी सिंह संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। वास्तुकला की दृष्टि से चम्बा के राजा उम्मेद सिंह (1748-1764) द्वारा निर्मित अखण्ड चण्डी पैलेस व रंगमहल भी अति सुन्दर व दर्शनीय हैं। 1958 में अखण्ड चण्डी पैलेस सरकार के स्वामित्व में आ गया तथा आज इसमें एक कालेज है।

शहर के बीच ही एक हरा भरा एक ऐतिहासिक मैदान है, जिसे चौगान कहते हैं। चम्बा का चौगान में ही आयोजित होता है विख्यात मिंजर मेला। इस चौगान ने चम्बा की लम्बी विकास यात्रा व इसके हर सुखद दुखद पहलू को बहुत करीब से देखा है। यहां से रावी नदी का नयनाभिराम दृश्य तथा उसमें झांकती पर्वत श्रंखलाएं देखी जा सकती हैं। शाम ढलने पर चम्बा के लोग व पर्यटक यहां घूमते-फिरते, खाते-पीते व मौज मनाते देखे जा सकते हैं। एक मेले का सा माहौल बना रहता है। वैसे भी चौगान पर वर्ष भर कोई ना कोई आयोजन चलता ही रहता है। मिंजर के अतिरिक्त दशहरा व सूही मेला इस मैदान पर होने वाले अन्य मुख्य आयोजन हैं।

चम्बा आने वाले पर्यटकों के लिये चम्बा के आसपास के दर्शनीय स्थल भी विशेष आकर्षण रखते हैं। मनमोहक स्थलों की इस श्रंखला में खजियार, डलहौजी व भरमौर अति सुन्दर व रमणीय पर्यटन स्थल हैं। खजियार, डलहौजी व भरमौर के अतिरिक्त चम्बा से सरोल (11 किलोमीटर), झामवार (10 किलोमीटर), साहू (20 किलोमीटर), सलूनी (56 किलोमीटर), कटासन देवी मन्दिर (30 किलोमीटर) का भ्रमण तथा कई पर्वत श्रंखलाओं की ट्रेकिंग भी की जा सकती है। खजियार व डलहौजी की चम्बा से दूरी क्रमशः 25 किलोमीटर व 45 किलोमीटर है, जबकि छठी शताब्दी के अति प्राचीन एवं महत्वपूर्ण मन्दिरों के लिये विख्यात भरमौर की चम्बा से दूरी 65 किलोमीटर है।


लेख: राकेश ‘मगन’
सन्दीप पंवार के सौजन्य से