शनिवार, जून 25, 2011

सांची- बौद्ध कला की बेमिसाल कृतियां

ललित मोहन कोठियाल

भारत में बौद्ध कला की विशिष्टता व भव्यता सदियों से दुनिया को सम्मोहित करती आई है। इनमें गया के महाबोधि मन्दिर और सांची के स्तूप जहां विश्व विरासत में शुमार हैं वहीं अन्य अनेक स्थानों पर निर्मित स्तूप, प्रतिमाएं, मन्दिर, स्तम्भ, स्मारक, मठ, गुफाएं, शिलाएं उस दौर की उन्नत प्रस्तर कला की अन्य विरासतें हैं।

सांची के स्तूप दूर से देखने में भले मामूली अर्द्धगोलाकार संरचनाएं लगें लेकिन इसकी भव्यता, विशिष्टता व बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है। इसीलिये देश-विदेश से बडी संख्या में बौद्ध मतावलम्बी, पर्यटक, शोधार्थी, अध्येता इस बेमिसाल संरचना को देखने चले आते हैं। सांची के स्तूपों का निर्माण कई कालखण्डों में हुआ जिसे ईसा पूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी के मध्य में माना गया है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिये उनके अनुयायी राजा आपस में लडने झगडने लगे। अन्त में एक बौद्ध सन्त ने समझा-बुझाकर उनके शरीर के अवशेषों के हिस्सों को उनमें वितरित कर समाधान किया। इन्हें लेकर आरम्भ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर होने लगा।

बौद्धधर्म व उसकी शिक्षा मे प्रचार-प्रसार में मौर्यकाल के महान राजा अशोक का सबसे बडा योगदान रहा। बुद्ध का सन्देश दुनिया तक पहुंचाने के लिये उन्होंने एक सुनियोजित योजना के तहत कार्य आरम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया। उन्होंने पुराने स्तूपों को खुदवा कर उनसे मिले अवशेषों के 84 हजार भाग कर अपने राज्य सहित निकटवर्ती देशों में भेजकर बडी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया। इन स्तूपों को स्थायी संरचनाओं में बदला ताकि ये लम्बे समय तक बने रह सकें।

सम्राट अशोक ने भारत में जिन स्थानों पर बौद्ध स्मारकों का निर्माण कराया उनमें सांची भी एक था। तब यह बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। ह्वेन सांग के यात्रा वृत्तान्त में बुद्ध के बौद्ध गया से सांची जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भव है सांची की उज्जयिनी की निकटता और पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण जाने वाले यात्रा मार्ग पर होना भी इसकी स्थापना की वजहों में से रहा हो। सांची का उस दौर में कितना महत्व रहा होगा, इसका अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि अशोक के पुत्र महेंद्र व पुत्री संघमित्रा श्रीलंका में धर्म प्रचार पर जाने से पूर्व यहां मठ में रहते थे जहां पर उनकी माता का भी एक कक्ष था।

हर धर्म की भांति बौद्ध कालीन संरचनाओं को उनकी मान्यताओं के अनुसार बनाया गया। इन संरचनाओं में मन्दिर से परे स्तूप एक नया विचार था। स्तूप संस्कृत व पाली से निकला माना जाता है जिसका अर्थ होता है ढेर। आरम्भ में केन्द्रीय भाग में तथागत (महात्मा बुद्ध) के अवशेष रख उसके ऊपर मिट्टी डालकर इनको गोलाकार आकार दिया गया। इनमें बाहर से ईंटों व पत्थरों की ऐसी चिनाई की गई ताकि खुले में इन स्तूपों पर मौसम का कोई प्रभाव न हो सके। स्तूपों में मन्दिर की भांति कोई गर्भगृह नहीं होता। अशोक द्वारा सांची में बनाया गया स्तूप इससे पहले के स्तूपों से विशिष्ट था।

सांची में बौद्ध वास्तु शिल्प की बेहतरीन कृतियां हैं जिनमें स्तूप, तोरण, स्तम्भ शामिल हैं। इनमें स्तूप संख्या 1 सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था जिसमें महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे गये। करीब में यहां पर दो अन्य छोटे स्तूप भी हैं जिनमें उनके दो शुरूआती शिष्यों के अवशेष रखे गये हैं। पहले स्तूप की वेदिका में जाने के लिये चारों दिशाओं में तोरण द्वार बने हैं। पूरे स्तूप के बाहर जहां पहले कठोर लकडी हुआ करती थी आज पत्थरों की रेलिंग है। अन्दर वेदिका है व कुछ ऊंचाई तक जाने के लिये प्रदक्षिणा पथ है। स्तूप के गुम्बद पर पत्थरों की वर्गाकार रेलिंग (हर्मिका) बनी है व शिखर पर त्रिस्तरीय छत्र है। स्तूप की वेदिका में प्रवेश के लिये चार दिशाओं में चार तोरण (द्वार) हैं।

पत्थर से बने तोरणों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झांकी व जातक प्रसंगों को उकेरा गया है। यह कार्य इतनी बारीकी से किया गया है कि मानो कारीगरों ने कलम कूंची से उनको गढा हो। इस स्तूप के दक्षिणी तोरण के सामने अशोक स्तम्भ स्थापित है। इसका पत्थर आसपास कहीं नहीं मिलता। माना जाता है कि 50 टन वजनी इस स्तम्भ को सैकडों कोस दूर चुनार से यहां लाकर स्थापित किया गया। यहां पर एक मन्दिर के अवशेष हैं जिसे गुप्तकाल में निर्मित माना जाता है। सांची के स्तूपों के समीप एक बौद्ध मठ के अवशेष हैं जहां बौद्ध भिक्षुओं के आवास थे। यही पर पत्थर का वह विशाल कटोरा है जिससे भिक्षुओं में अन्न बांटा जाता था। यहां पर मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन व गुप्तकालीन अवशेषों सहित छोटी बडी कुल चार दर्जन संरचनाएं हैं।

शुंग काल में सांची में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप को विस्तार दिया गया जिससे इसका व्यास 70 फीट से बढकर 120 फीट व ऊंचाई 54 फीट हो गई। इसके अलावा यहां पर अन्य स्तूपों का निर्माण कराया गया। सांची में इन स्तूपों का जीर्णोद्धार लम्बे समय तक चला। इसके बाद शुंग व कुषाण नरेशों ने अपने काल में यहां पर अन्य स्तूप निर्मित करवाये।

मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन व गुप्तकाल तक बौद्धधर्म फला-फूलता रहा किन्तु इसके पतन के उपरान्त राजकीय कृपादृष्टि समाप्त होने से बौद्ध धर्म का अवसान होने लगा। लेकिन बाद के शासकों ने बौद्ध स्मारकों व मन्दिरों को यथावत रहने दिया। सांची की कीर्ति राजपूत काल तक बनी रही किन्तु पहले तुर्कों के आक्रमण और बाद में मुगलों की सत्ता की स्थापना के बाद यह घटने लगी। औरंगजेब के काल में बौद्ध धर्म का केंद्र सांची गुमनामी में खो गया।

19वीं सदी में कर्नल टेलर यहां आये तो उन्हें सांची के स्तूप बुरी हालत में मिले। उन्होंने उनको खुदवाया और व्यवस्थित किया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उन्होंने इसके अन्दर धन-सम्पदा के अंदेशे में खुदाई की जिससे इसकी संरचना को काफी नुकसान हुआ। बाद में पुराविद मार्शल ने इनका जीर्णोद्धार करवाया। सारे निर्माण का पता लगाना और उनका जीर्णोद्धार कराके मूल आकार देना बेहद कठिन था, किन्तु उन्होंने बखूबी से इसकी पुरानी कीर्ति को कुछ हद तक लौटाने में मदद की।

धर्म व पर्यटन का संगम

1989 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल होने के बाद से सांची का महत्व बहुत बढा। बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां पर देशी व विदेशी मतावलम्बियों का जमावडा लगा रहता है। सांची की भव्यता को देखने प्रतिदिन हजारों पर्यटक पहुंचते हैं जिनमें विदेशी सैलानियों की बडी संख्या होती है। इस सारे परिसर के प्रबंधन व संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है। यहां का पुरातत्व संग्रहालय भी दर्शनीय है। आरम्भ में वर्ष 1919 में इसे स्तूपों के निकट बनाया गया था किन्तु जैसे-जैसे सामग्री की प्रचुरता होने लगी इसे 1986 में सांची की पहाडी के आधार पर नये संग्रहालय भवन में स्थानान्तरित कर दिया गया। इस संग्रहालय में मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्तकालीन प्रस्तर कला के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख आदि देखने को मिलते हैं। सांची के इन स्मारकों की भव्यता तो आगंतुकों को चमत्कृत करती ही है, साथ में यहां का शान्त वातावरण बुद्ध के शान्ति के सन्देश को समझने में मदद देता है।

कैसे पहुंचे

सांची रायसेन जिले का एक छोटा सा कस्बा है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल निकट होने के कारण यहां पर पर्यटक भोपाल से ही आते हैं, जहां हर प्रकार की नगरीय सुविधाएं उपलब्ध हैं। कुछ पर्यटक यहां सीधे भी आते हैं। सांची सडक या रेल मार्ग, दोनों से आया जा सकता है। भोपाल कई नगरों से वायु सेवा से भी जुडा है। सांची भोपाल से दिल्ली जाने वाले मुख्य रेल मार्ग पर है। एक ऊंची पहाडी पर स्थित होने से यह उत्तर से भोपाल आते समय बायें हाथ की ओर नजर आता है। सांची में अधिकतर सुपरफास्ट रेलें नहीं रुकती हैं। इसलिये ज्यादातर लोग भोपाल से यहां आने की योजना बनाकर आते हैं, जो यहां से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है। सामान्य मेल व एक्सप्रेस रुकती हैं। रेल स्टेशन से इन स्तूपों की दूरी लगभग चार किलोमीटर है। इस विरासत स्थल के करीब तक सडक मार्ग बना है। सांची में पर्यटन विभाग का यात्री आवास व रेस्तरां है। आस-पास कुछ होटल भी हैं। यहां आने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के मध्य होता है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 25 जनवरी 2009 को प्रकाशित हुआ था।


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शुक्रवार, जून 24, 2011

दिलकश, रोमांचक मणिकर्ण

लेख: सन्तोष उत्सुक

हिमालय के बेटे हिमाचल प्रदेश की गोद में बसे मणिकर्ण की सुन्दरता देश-विदेश के लाखों प्रकृति प्रेमी पर्यटकों को बार-बार बुलाती है। खासतौर पर ऐसे पर्यटक जो चर्म रोग या गठिया जैसे रोगों से परेशान हों, यहां आकर स्वास्थ्य सुख पाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां उपलब्ध गंधकयुक्त गर्म पानी में कुछ दिन स्नान करने से ये बीमारियां ठीक हो जाती हैं। खौलते पानी के चश्मे मणिकर्ण का सबसे अचरज भरा और विशिष्ट आकर्षण हैं। हर बरस अनेक युवा स्कूटरों मोटरसाइकिलों पर ही मणिकर्ण की यात्रा का रोमांचक अनुभव लेते हैं।

मणिकर्ण मण्डी-कुल्लू मार्ग पर कुल्लू से 10 किलोमीटर पहले बसे खूबसूरत कस्बे भुन्तर से 35 किलोमीटर है। भुन्तर में छोटे विमानों के लिये हवाई अड्डा भी है। भुन्तर में ही व्यास पार्वती नदियों का संगम भी है। मनाली आगे जाने वाले हवाई पर्यटक भुन्तर उतरकर सडक मार्ग से आगे जाते हैं। भुन्तर-मणिकर्ण सडक सिंगल रूट है मगर है हरा-भरा व बेहद सुन्दर। सर्पीले रास्ते में तिब्बती बस्तियां हैं। इसी राह पर शॉट नाम का गांव भी है, जहां कई बरस पहले बादल फटा था और पानी ने गांव को नाले में बदल दिया था।

समुद्र तल से छह हजार फुट ऊंचाई पर बसे मणिकर्ण का शाब्दिक अर्थकान का बाला’ (रिंग) है। यहां मन्दिर व गुरुद्वारे की विशाल इमारत से लगती हुई बहती है पार्वती नदी, जिसका वेग रोमांचित करता है। नदी का पानी बरफ की तरह ठण्डा है। नदी की दाहिनी तरफ गर्म जल के उबलते स्रोत नदी से उलझते दिखते हैं। इस ठण्डे-उबलते प्राकृतिक सन्तुलन ने वैज्ञानिकों को लम्बे समय से चकित कर रखा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पानी में रेडियम है।

मणिकर्ण में बरफ खूब पडती है, मगर ठण्ड के मौसम में भी गुरुद्वारा परिसर के अन्दर बनाये विशाल स्नानास्थल में गर्म पानी में आराम से नहा सकते हैं, जितनी देर चाहें, मगर ध्यान रहे, ज्यादा देर नहाने से चक्कर भी आ सकते हैं। पुरुषों व महिलाओं के लिये अलग-अलग प्रबन्ध हैं। दिलचस्प है कि मणिकर्ण के तंग बाजार में भी गर्म पानी की सप्लाई की जाती है, जिसके लिये बाकायदा पाइप बिछाये गये हैं। अनेक रेस्तराओं और होटलों में यही गर्म पानी उपलब्ध है। बाजार में तिब्बती व्यवसायी छाये हुए हैं, जो तिब्बती कला व संस्कृति से जुडा सामान और विदेशी वस्तुएं खूब उपलब्ध कराते हैं। साथ-साथ विदेशी स्नैक्स व भोजन भी।

इन्हीं गर्म चश्मों में गुरुद्वारे के लंगर के लिये बडे-बडे गोल बर्तनों में चाय बनती है, दाल व चावल पकते हैं। पर्यटकों के लिये सफेद कपडे की पोटलियों में चावल डालकर धागे से बांधकर बेचे जाते हैं। विशेषकर नवदम्पत्ति इकट्ठे धागा पकडकर चावल उबालते देखे जा सकते हैं। उन्हें लगता है कि यह उनकी जिन्दगी की पहली ओपन किचन है और सचमुच रोमांचक भी। यहां पानी इतना खौलता है कि जमीन पर पांव नहीं टिकते। यहां के गर्म गंधक जल का तापमान हर मौसम में एक समान 94 डिग्री रहता है। कहते हैं कि इस पानी की चाय बनाई जाये तो आम पानी की चाय से आधी चीनी डालकर भी दो गुना मीठी हो जाती है। गुरुद्वारे की विशाल किलेनुमा इमारत में ठहरने के लिये खासी जगह है। छोटे-बडे होटल व कई निजी गेस्ट हाउस भी हैं। ठहरने के लिये तीन किलोमीटर पहले कसोल भी एक शानदार विकल्प है। मणिकर्ण में बेहतर सम्पर्क सूत्र 01902-273720 (गुरुद्वारा) है।

धार्मिक महत्व

मणिकर्ण सिखों के धार्मिक स्थलों में खास अहमियत रखता है। गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब गुरू नानकदेव की यहां की यात्रा की स्मृति में बना था। जनम सखी और ज्ञानी ज्ञान सिंह द्वारा लिखी तवारीख गुरू खालसा में इस बात का उल्लेख है कि गुरू नानक ने भाई मरदाना और पंज प्यारों के साथ यहां की यात्रा की थी। इसीलिये पंजाब से बडी संख्या में लोग यहां आते हैं। पूरे साल यहां दोनों वक्त लंगर चलता रहता है।

लेकिन हिन्दू मान्यताओं में यहां का नाम इस घाटी में शिव के साथ विहार के दौरान पार्वती के कान (कर्ण) की बाली (मणि) खो जाने के कारण पडा। एक मान्यता यह भी है कि मनु ने यहीं बाढ से हुए विनाश के बाद मानव की रचना की। यहां रघुनाथ मन्दिर है। कहा जाता है कि कुल्लू के राजा ने अयोध्या से राम की मूर्ति लाकर यहां स्थापित की थी। यहां शिव का भी एक पुराना मन्दिर है। इस जगह की अहमियत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुल्लू घाटी के ज्यादातर देवता समय-समय पर अपनी सवारी के साथ यहां आते रहते हैं।

ट्रैकर्स का स्वर्ग

मणिकर्ण अन्य कई दिलकश पर्यटक स्थलों का आधार स्थल भी है। यहां से आधा किलोमीटर दूर ब्रह्म गंगा है जहां पार्वती नदी व ब्रह्म गंगा मिलती हैं। यहां थोडी देर रुकना कुदरत से जी भर मिलना है। डेढ किलोमीटर दूर नारायणपुरी है, पांच किलोमीटर दूर राकसट है जहां रूप गंगा बहती है। यहां रूप का आशय चांदी से है। पार्वती नदी के बायीं तरफ 16 किलोमीटर दूर और 1600 मीटर की कठिन चढाई के बाद आने वाला खूबसूरत स्थल पुलगा जीवन अनुभवों में शानदार बढोतरी करता है। इसी तरह 22 किलोमीटर दूर रुद्रनाथ लगभग 8000 फुट की ऊंचाई पर बसा है और पवित्र स्थल माना जाता रहा है। यहां खुलकर बहता पानी हर पर्यटक को नया अनुभव देता है। मणिकर्ण से लगभग 25 किलोमीटर दूर दस हजार फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर स्थित खीरगंगा भी गर्म जल सोतों के लिये जानी जाती है। यहां के पानी में भी औषधीय तत्व हैं। एक स्थल पाण्डव पुल 45 किलोमीटर दूर है। गर्मी में मणिकर्ण आने वाले रोमांचप्रेमी लगभग 115 किलोमीटर दूर मानतलाई तक जा पहुंचते हैं। मानतलाई तक मणिकर्ण से तीन-चार दिन लग जाते हैं। सुनसान रास्ते के कारण खाने-पीने का सामान, दवाएं वगैरह साथ ले जाना बेहद जरूरी है। इस दुर्गम रास्ते पर मार्ग की पूरी जानकारी रखने वाले एक सही व्यक्ति का साथ होना बेहद जरूरी है।

संसार की विरली, अपने किस्म की अनूठी संस्कृति व लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था रखने वाले अदभुत गांव मलाणा का मार्ग भी मणिकर्ण से लगभग 15 किलोमीटर पीछे जरी नामक स्थल से होकर जाता है। मलाणा के लिये नग्गर से होकर भी लगभग 15 किलोमीटर पैदल रास्ता है। इस तरह यह समूची पार्वती घाटी ट्रैकिंग के शौकीनों के लिये स्वर्ग के समान है।

कितने ही पर्यटकों से छूट जाता है कसोल, जोकि मणिकर्ण से तीन किलोमीटर पहले आता है। यहां पार्वती नदी के किनारे, दरख्तों के बीच बसे खुलेपन में पसरी सफेद रेत, जोकि पानी को हरी घास से जुदा करती है, यहां के नजारों को खास अलग बना देती है। यहां ठहरने के लिये हिमाचल टूरिज्म की हट्स भी हैं।

मणिकर्ण की घुमक्कडी के दौरान आकर्षक पेड-पौधों के साथ-साथ अनेक रंगों की मिट्टी के मेल से रची लुभावनी पर्वत श्रंखलाओं के दृश्य मन में बस जाते हैं। प्रकृति के यहां और भी कई अनूठे रंग हैं। कहीं खूबसूरत पत्थर, पारदर्शी क्रिस्टल जिनका लुक टोपाज जैसा होता है, मिल जाते हैं तो कहीं चट्टानें अपना अलग ही आकार ले लेती हैं जैसे कि बीच सडक पर टंगी ईगल्स नोज जो दूर से हू--हू किसी बाज के सिर जैसी लगती है। प्रकृति प्रेमी पर्यटकों को सुन्दर ड्रिफ्टवुड्स या फिर जंगली फूल-पत्ते मिल जाते हैं, जो उनके अतिथि कक्ष का यादगार हिस्सा बन जाते हैं और मणिकर्ण की रोमांचक यादों के स्थायी गवाह बने रहते हैं। हमारी जिन्दगी में ऐसी आवारगियों के कारण रोमांच व रोमांस हमेशा जीवंत रहता है क्योंकि पहाड बुलाते हैं और हम जाते रहते हैं।

एक नजर

1. समुद्र तल से 1760 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मणिकर्ण कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर है। भुन्तर तक राष्ट्रीय राजमार्ग है जो आगे संकरे पहाडी रास्ते में तब्दील हो जाता है।

2. 1905 में आये विनाशकारी भूकम्प के बाद इस इलाके का भूगोल काफी कुछ बदल गया है।

3. पठानकोट (285 किलोमीटर) और चण्डीगढ (258 किलोमीटर) सबसे निकट के रेल स्टेशन हैं। दिल्ली से भुन्तर के लिये रोजाना उडान भी हैं।

4. मणिकर्ण आप किसी भी मौसम में जा सकते हैं। लेकिन जनवरी में यहां बर्फ गिर सकती है। तब ठण्ड कडाके की रहती है। मार्च के बाद से मौसम थोडा अनुकूल होने लगता है। बारिश में इस इलाके का सफर जोखिमभरा हो सकता है। जाने से पहले मौसम की जानकारी जरूर कर लें।

5. पार्वती नदी में नहाने का जोखिम न उठायें। न केवल इस नदी का पानी बेतरह ठण्डा है, बल्कि वेग इतना तेज है कि माहिर से माहिर तैराक भी अपना सन्तुलन नहीं बना पाते। बहुत लोग हादसे का शिकार हो चुके हैं क्योंकि एक पल की भी असावधानी और बचा पाने की कोई गुंजाइश नहीं।


यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 25 जनवरी 2009 को प्रकाशित हुआ था।

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गुरुवार, जून 23, 2011

ओरछा- बुन्देलखण्ड की अयोध्या

लेख: कौशलेंद्र प्रताप सिंह

ओरछा को दूसरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहां पर रामराजा अपने बालरूप में विराजमान हैं। यह जनश्रुति है कि श्रीराम दिन में यहां तो रात्रि में अयोध्या विश्राम करते हैं। शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिये उन्हें अयोध्या ले जाते हैं-

सर्व व्यापक राम के दो निवास हैं खास, दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास।

शास्त्रों में वर्णित है कि आदि मनु-सतरूपा ने हजारों वर्षों तक शेषशायी विष्णु को बालरूप में प्राप्त करने के लिये तपस्या की। विष्णु ने उन्हें प्रसन्न होकर आशीष दिया और त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलियुग में ओरछा के रामराजा के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार मधुकर शाह और उनकी पत्नी गणेश कुंवरि साक्षात दशरथ और कौशल्या के अवतार थे। त्रेता में दशरथ अपने पुत्र का राज्याभिषेक न कर सके थे, उनकी यह इच्छा भी कलियुग में पूर्ण हुई।

रामराजा के अयोध्या से ओरछा आने की एक मनोहारी कथा है। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा। लेकिन रानी रामभक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी रामभक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरम्भ की। इन्हीं दिनों सन्त शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। सन्त से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ से दृढतर होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। अंततः वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पडी। वही जल की अतल गहराईयों में उन्हें रामराजा के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। रामराजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया किन्तु उन्होंने तीन शर्तें रखीं- पहली, यह यात्रा पैदल होगी, दूसरी- यात्रा केवल पुष्प नक्षत्र में होगी, तीसरी- रामराजा की मूर्ति जिस जगह रखी जायेगी वहां से पुनः नहीं उठेगी।

रानी ने राजा को सन्देश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रही हैं। राजा मधुकरशाह ने रामराजा के विग्रह को स्थापित करने के लिये करोडों की लागत से चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण कराया। जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुहूर्त में मूर्ति को चतुर्भुज मन्दिर में रखकर इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जायेगी। लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज जाने से मना कर दिया। कहते हैं कि राम यहां बालरूप में आये और अपनी मां का महल छोडकर वो मन्दिर में कैसे जा सकते थे। राम आज भी इसी महल में विराजमान हैं और उनके लिये बना करोडों का चतुर्भुज मन्दिर आज भी वीरान पडा है। यह मन्दिर आज भी मूर्ति विहीन है।

यह भी एक संयोग है कि जिस संवत 1631 को रामराजा का ओरछा में आगमन हुआ, उसी दिन रामचरितमानस का लेखन भी पूर्ण हुआ। जो मूर्ति ओरछा में विद्यमान है, उसके बारे में बताया जाता है कि जब राम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बालभोग लगाया करती थी। जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति गणेशकुंवरि को सरयू की मझधार में मिली थी।

यह विश्व का अकेला मन्दिर है जहां राम की पूजा राजा के रूप में होती है और उन्हें सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। यहां राम ओरछाधीश के रूप में मान्य हैं। रामराजा मन्दिर के चारों तरफ हनुमानजी के मन्दिर हैं। छडदारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान के मन्दिर एक सुरक्षा चक्र के रूप में चारों तरफ हैं। ओरछा की अन्य बहुमूल्य धरोहरों में लक्ष्मी मन्दिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मन्दिर, राजामहल, रायप्रवीण महल, हरदौल की बैठक, हरदौल की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है।

ओरछा झांसी से मात्र 15 किलोमीटर की दूरी पर है। झांसी देश की प्रमुख रेलवे लाइनों से जुडा है। पर्यटकों के लिये झांसी और ओरछा में शानदार आवासगृह बने हैं।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 दिसम्बर 2008 को प्रकाशित हुआ था।


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बुधवार, जून 22, 2011

पचमढी- सतपुडा में बिखरा सौंदर्य

लेख: प्रेम नाथ नाग

मध्य प्रदेश में पचमढी बडे सहज से पर्यटन स्थलों में से एक है, जहां बेहद शान्त माहौल में भीड-भाड से दूर आप सुकून के कुछ पल बिता सकते हैं। उत्तर भारत के बाकी पर्यटन स्थलों की तुलना में यहां लोग कम दिखेंगे, शोर-शराबा भी कम रहेगा, लूट-खसोट भी नहीं होगी और घूमना-फिरना आपकी जेब के अनुकूल ही रहेगा। करने को बहुत कुछ न भी हो तो भी यहां का मौसम और माहौल दिल को ताजगी से भर देने के लिये काफी है।

मध्य प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में पचमढी सर्वाधिक लोकप्रिय है। राज्य की राजधानी भोपाल से 200 किलोमीटर दूर और विभिन्न हिल स्टेशनों से अलहदा इस स्थान पर प्राकृतिक खूबसूरती तो कदम-कदम पर बिखरी हुई है ही, बाकी जगहों की तुलना में यह है भी शान्त और साफ-सुथरा। पूरे सालभर यहां मौसम सुहावना रहता है, केवल वर्षा ऋतु में घूमने में कुछ अडचने आने की सम्भावनाएं रहती हैं। अनेक दर्शनीय स्थल, वनस्पतियां और वन्य प्राणी यहां की धरोहर हैं। गर्मियों में यहां का न्यूनतम तापमान 24 डिग्री सेल्शियस और सर्दियों में 8.3 डिग्री सेल्शियस तक पहुंच जाता है। समुद्र तल से पचमढी की ऊंचाई 3500 फीट है।

पचमढी इसलिये भी एक महत्वपूर्ण पहाडी स्थल है कि आज भी यहां व्यावसायिक गतिविधियां नगण्य हैं। न कोई शहरी ताना-बाना और न ही कोई तनाव। इस इलाके के मूल निवासी आदिवासी हैं। अत्यधिक कम जनसंख्या वाले इस क्षेत्र में कभी-कभी दूर-दूर कोई मानवीय हलचल दिखाई नहीं देती। केवल शहर में गतिविधियां होती नजर आ रही हैं। चूंकि सारा क्षेत्र सैनिक छावनी के अन्तर्गत आता है, इसलिये यहां जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त नहीं होती। थलसेना की शिक्षा शाखा आर्मी एजुकेशन कोर का मुख्यालय यहां है।

पचमढी में पर्यटकों का वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है। दर्शनीय स्थानों को घूमने के अलावा पर्यटक यहां आदिवासियों द्वारा अपने कुटीर उद्योगों में बनाई गई वस्तुएं और जंगलों से लाई गई शिलाजीत और जडी-बूटियां और शहद आदि भी खरीदते हैं। आदिवासियों का कहना है कि उन्हें बीहड पहाडी क्षेत्रों में शिलाजीत ढूंढने में अपनी कोशिशों के अतिरिक्त बंदरों से भी काफी मदद मिलती है। आदिवासी जब इन बंदरों को शिलाजीत ढूंढते और खाते देखते हैं तो खुद भी वहां पहुंच जाते हैं। देश के विभिन्न भागों से स्कूली छात्र-छात्राएं भी पचमढी में बहुत आते हैं।

पचमढी पहुंचने से लगभग 15 किलोमीटर पहले हल्की-हल्की चढाई शुरू हो जाती है। खूबसूरत परिन्दे और जंगली जानवर यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं क्योंकि चारों ओर जंगल ही जंगल है। घने जंगलों से लकदक सतपुडा पहाडियों की इस श्रंखला में राष्ट्रीय वन्यप्राणी उद्यान भी है जहां भारतीय बाघ के संरक्षण की योजनाओं पर कार्य चल रहा है। पचमढी के जंगल, पर्वत, झरने, गहरी खाईयां आदि हर सैलानी को आकर्षित करते हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद यहां विश्राम के लिये आते थे। उनकी वह विश्राम स्थली राजेंद्र गिरी के नाम से आज जानी जाती है।

क्या घूमें

पर्यटन की दृष्टि से घूमने लायक इलाका लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर है।

पांडव गुफा: बताया जाता है कि पचमढी से दो किलोमीटर दूर इस स्थान पर पांडवों द्वारा निर्मित पांच गुफाएं हैं। पत्थरों को काटकर बनाई गई इन पांच गुफाओं के आधार पर ही आज पचमढी ने अपना नाम पाया है। गुफाएं ऊंचाई पर होने के कारण वहां से समूचे पचमढी और पर्वत श्रंखलाओं के विहंगम और सुन्दर दृश्यों को देखने का अवसर मिलता है। जटाशंकर के लिये विशाल चट्टानों और पहाडी रास्ते के बीच-बीच चलकर बहुत नीचे एक गुफा तक जाना पडता है। यहां के पहाड रोमांच पैदा करते हैं। गुफा में एक प्राकृतिक शिवलिंग और शेषनाग की आकृतियां हैं। यहां लगातार पानी बहता रहता है। पचमढी और महाराष्ट्र के लोगों की आस्था के इस स्थान को शिवजी की आश्रय स्थली भी कहा जाता है। ट्रेकिंग का शौक रखने वाले इस गुफा से ऊपर की ओर बढकर और एक-डेढ घण्टा चलने के उपरान्त आदिवासियों के गांव बडकाक्षारस्थानीय भाषा में बदकाक्षारमें पहुंचकर वहां के जीवन का अनुभव कर सकते हैं।

महादेव गुफा: विशालकाय और भयावह चट्टानों के बीच बनी एक बावडी के अन्त में शिवलिंग के अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमाएं हैं। चट्टानों से बारह मास पानी रिसता रहता है जिससे गुफा में एक बडा शीतल जलकुण्ड बन गया है। नागपंचमी और शिवरात्रि पर यहां बडा मेला लगता है और भक्तगण बडी संख्या में महाराष्ट्र से आते हैं।

गुप्त महादेव: महादेव गुफा से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर 25-30 फुट लम्बी और संकरी एक गुफा है जिसमें एक समय पर एक ही व्यक्ति आ-जा सकता है। गुफा के अन्त में कुछ खुला स्थान है जहां एक शिवलिंग और गणेश की मूर्ति है।

पौरागढ: यहां पर्वत शिखर पर बना शिव मन्दिर है। ऊपर तक पहुंचने के लिये लगभग बारह सौ सीढियां चढनी पडती हैं। मन्नत पूरी होने पर यहां भक्तगण त्रिशूल चढाते हैं। इस ऊंचाई से चारों ओर का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है।

नागद्वार: नागोपासक आदिवासियों की श्रद्धा का प्रतीक यह स्थान अत्यन्त रमणीक है। यहां भी शिवलिंग है। इस स्थान के लिये काफी पैदल चलना पडता है। गाइड लेना उचित रहता है। प्रकृति प्रेमियों की हर इच्छा यहां पूर्ण होती है। हरियाली, झरने और वन्य क्षेत्र के अन्य आकर्षण- सभी कुछ देखने को मिलता है।

हांडी खोह: यहां पहाडों के बीच बेहद गहरी खाई है जिसका अंतिम छोर जंगल के ऊंचे-ऊंचे पेडों के कारण दिखाई नहीं देता। इसे देखकर शरीर में रोमांच भरी सिहरन पैदा होती है।

प्रियदर्शनी-सुषमासार-प्रतिध्वनि: नाम से ही साफ हो जाता है कि प्राकृतिक सौंदर्य निहारने के लिये प्रियदर्शनी और सुषमासार स्थल और पहाडों में शब्दों की गूंज सुनने के लिये प्रतिध्वनि नामक स्थान प्रसिद्ध हैं।

राजेंद्र गिरी: भारत के प्रथम राष्ट्रपति विश्राम के लिये समय निकालकर पचमढी आते थे। उन्हीं की याद में इस स्थान को एक उद्यान के रूप में विकसित किया गया है।

धूपगढ: सूर्यास्त के मनोरम दृश्य को देखने के लिये पर्यटक धूपगढ जाते हैं।

रीछगढ: यहां तीन मुंह की एक रहस्यमयी गुफा है जो सुरंगनुमा है। इसमें रोशनी लेकर जाना उचित रहता है। सुरंग के अन्त में गुफा का मुंह खुला है। मान्यता है कि यहां कभी जंगली जानवर, विशेषकर रीछ रहा करते थे।

फांसी खोह: पिपरिया-पचमढी मार्ग पर जब हम पचमढी की ओर चलते हैं तो पचमढी से कुछ पहले यह स्थान आता है। कहते हैं कि विदेशी शासक ऐसी बडी गहरी खाइयों को फांसी देने के लिये प्रयोग करते थे। इसी से इनका यह नाम पडा।

कल-कल झरने: बी फाल, उचेस फाल, अप्सरा विहार, रजत प्रपात, रम्य कुण्ड, संगम आदि अत्यन्त रमणीक स्थल हैं जहां पर्यटक घण्टों अपना समय व्यतीत करते हैं, फिर भी मन नहीं भरता। एक सुन्दर झील भी है जिसमें नौका भ्रमण किया जाता है।

वानिकी संग्रहालय: अंग्रेज शासकों ने पचमढी में उपलब्ध जडी-बूटियों, वनस्पतियों और वनों के महत्व को बडी गहराई से समझा था। इसके अतिरिक्त सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में ब्रिटिश सरकार ने कैप्टन जे फोरसीथ नामक सैनिक अधिकारी को भेजा था। उसने यहां वनों, वन्य जीवन व वनस्पतियों को बखूबी समझा। उसके ठहरने के स्थान बायसन लॉज में ही आज वानिकी संग्रहालय है।

शैल चित्र: भ्रांति मीर और द्रोपदी खड्ड में आदि मानवों द्वारा प्राकृतिक गुफाओं में बनाये गये शैल चित्र हैं जो ईसा से कोई पांच से आठ सौ वर्ष पूर्व के बने हैं। हालांकि यहां के शुरूआती भित्तिचित्र दस हजार साल पुराने बताये जाते हैं। इनसे इस इलाके में भी प्राचीन सभ्यता के अस्तित्व के चिह्न मिलते हैं।

राष्ट्रीय उद्यान: पचपमढी मार्ग पर सतपुडा राष्ट्रीय उद्यान का प्रथम द्वार आता है। प्राकृतिक निधि और वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये इस पार्क की स्थापना 1981 में हुई थी। इस उद्यान में अनेक आदिवासी गांव हैं। प्रथम द्वार से नीमद्यान नामक गांव लगभग 20 किलोमीटर दूर है। अधिकतर आदिवासी गांव विकासशील गतिविधियों और सभ्यता से दूर वन्य प्राणी अभयारण्य क्षेत्र में हैं। उद्यान में जाने के लिये संचालक के कार्यालय से अनुमति लेनी पडती है। अभयारण्य में घूमने के लिये वाहन भी उपलब्ध हो जाते हैं।

बाघ, तेंदुआ, रीछ, नीलगाय, जंगली भैंसा, सांभर, हिरण, खरगोश, उडने वाली गिलहरी आदि उद्यान के मुख्य प्राणी हैं। पक्षी भी कई भांति के दिखाई देते हैं। कई बार कुछ कारणों से उद्यान बन्द कर दिया जाता है। लिहाजा जाने से पहले पूरी जानकारी जुटा लेना ठीक रहेगा। मार्च 1999 में पचमढी क्षेत्र में सतपुडा पर्वत श्रंखला को जैवरक्षित क्षेत्रबायोस्फीयर रिजर्वघोषित किया गया ताकि यहां पर उपलब्ध दुर्लभ वनस्पतियों को सुरक्षित रखा जा सके। महादेव पहाडियों के नाम से भी जानी जाने वाली पचमढी की पहाडियों में बसे आदिवासियों को संगठित कर तांत्या टोपे ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला भडकाई थी। तो ऐसी है हमारी पचमढी।

एक नजर में

1. हवाई या रेल मार्ग से मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल पहुंचें। भोपाल से पचमढी सडक द्वारा 200 किलोमीटर दूर है। पचमढी के लिये सबसे समीप रेलवे स्टेशन मुम्बई-हावडा मुख्य रेलमार्ग (बरास्ता इलाहाबाद) पर पिपरिया है। पिपरिया से पचमढी लगभग 53 किलोमीटर है। पिपरिया से पचमढी के लिये जीपें चलती हैं। कारें भी किराये पर उपलब्ध हैं। सीधे भोपाल से बसें और अन्य वाहन उपलब्ध हैं। आसपास घूमने के लिये भी जीपें मिल जाती हैं।

2. ठहरने के लिये सस्ते और अच्छे होटल उपलब्ध हैं। मध्य प्रदेश पर्यटन के ही सात होटल यहां हैं जिनमें 890 रुपये से लेकर 4190 रुपये तक के कमरे आपको मिल जायेंगे। हर होटल एक से बढकर एक खूबसूरत लोकेशन पर है। न्यूनतम तापमान ग्रीष्मकाल में 24 डिग्री सेल्शियस और शीतकाल में 8 डिग्री सेल्शियस रहता है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 दिसम्बर 2008 को प्रकाशित हुआ था।


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