सोमवार, अप्रैल 18, 2011

भीमाकाली मन्दिर- परम्परा की शक्ति

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 अगस्त 2007 को प्रकाशित हुआ था।

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 180 किलोमीटर दूर सराहन में स्थित है भीमाकाली मन्दिर, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह देवी तत्कालीन बुशहर राजवंश की कुलदेवी है जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है। प्रेम नाथ नाग का आलेख:

समुद्र तल से 2165 मीटर की ऊंचाई पर बसे सराहन गांव को प्रकृति ने पर्वतों की तलहटी में अत्यन्त सुन्दर ढंग से सुसज्जित किया है। सराहन को किन्नौर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। यहां से 7 किलोमीटर नीचे सभी बाधाओं पर विजय पाकर लांघती और आगे बढती सतलुज नदी है। इस नदी के दाहिनी ओर हिमाच्छादित श्रीखण्ड पर्वत श्रंखला है। समुद्र तल से पर्वत की ऊंचाई 18500 फुट से अधिक है। माना जाता है कि यह पर्वत देवी लक्ष्मी के माता-पिता का निवास स्थान है। ठीक इस पर्वत के सामने सराहन के अमूल्य सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक भीमाकाली मन्दिर अद्वितीय छटा के साथ स्थित है।

राजाओं का यह निजी मन्दिर महल में बनवाया गया था जो अब एक सार्वजनिक स्थान है। मन्दिर के परिसर में भगवान रघुनाथ, नरसिंह और पाताल भैरव (लांकडा वीर) के अन्य महत्वपूर्ण मन्दिर भी हैं। लांकडा वीर को मां भगवती का गण माना जाता है। यह पवित्र मन्दिर लगभग सभी ओर से सेबों के बागों से घिरा हुआ है और श्रीखण्ड की पृष्ठभूमि में इसका सौंदर्य देखते ही बनता है।

सराहन गांव बुशहर रियासत की राजधानी रहा है। इस रियासत की सीमाओं में पूरा किन्नर देश आता था। मान्यता है किन्नर देश ही कैलाश है। बुशहर राजवंश पहले कामरू से सारे प्रदेश का संचालन करता था। राजधानी को स्थानांतरित करते हुए राजाओं ने शोणितपुर को नई राजधानी के रूप में चुना। कल का शोणितपुर ही आज का सराहन माना जाता है। अंत में राजा रामसिंह ने रामपुर को राज्य की राजधानी बनाया। बुशहर राजवंश की देवी भीमाकाली में अटूट श्रद्धा है। सराहन में आज भी राजमहल मौजूद है।

एक पौराणिक गाथा के अनुसार शोणितपुर का सम्राट वाणासुर उदार दिल और शिवभक्त था जो राजा बलि के सौ पुत्रों में सबसे बडा था। उसकी बेटी उषा को पार्वती से मिले वरदान के अनुसार उसका विवाह भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से हुआ। परन्तु इससे पहले अचानक विवाह के प्रसंग को लेकर वाणासुर और श्रीकृष्ण में घमासान युद्ध हुआ था जिसमें वाणासुर को बहुत क्षति पहुंची थी। अंत में पार्वती जी के वरदान की महिमा को ध्यान में रखते हुए असुरराज परिवार और श्रीकृष्ण में सहमति हुई। तदोपरान्त पिता प्रद्युम्न और पुत्र अनिरुद्ध के वंशजों की राज परम्परा चलती रही।

महल में स्थापित भीमाकाली मन्दिर के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुडी हैं जिनके अनुसार आदिकाल मन्दिर के स्वरूप का वर्णन करना कठिन है परन्तु पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि वर्तमान भीमाकाली मन्दिर सातवीं-आठवीं शताब्दी के बीच बना है। भीमाकाली शिवजी की अनेक मानस पुत्रियों में से एक है। मत्स्य पुराण में भीमा नाम की एक मूर्ति का उल्लेख आता है। एक अन्य प्रसंग है कि मां पार्वती जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में सती हो गई थीं तो भगवान शिव ने उन्हें अपने कंधे पर उठा लिया था। हिमालय में जाते हुए कई स्थानों पर देवी के अलग-अलग अंग गिरे। एक अंग कान शोणितपुर में गिरा और भीमाकाली प्रकट हुई। मन्दिर के ब्राह्मणों के अनुसार पुराणों में वर्णन है कि कालांतर में देवी ने भीम रूप धारण करके राक्षसों का संहार किया और भीमाकाली कहलाई।

कहा जाता है कि आदि शक्ति तो एक ही है लेकिन अनेक प्रयोजनों से यह भिन्न-भिन्न रूपों और नामों में प्रकट होती है जिसका एक रूप भीमाकाली है। सराहन में एक ही स्थान पर भीमाकाली के दो मन्दिर हैं। प्राचीन मन्दिर किसी कारणवश टेढा हो गया है। इसी के साथ एक नया मन्दिर पुराने मन्दिर की शैली में बनाया गया है। यहां 1962 में देवी मूर्ति की स्थापना हुई। इस मन्दिर परिसर में तीन प्रांगण आरोही क्रम से बने हैं जहां देवी शक्ति के अलग-अलग रूपों को मूर्ति के रूप में स्थापित किया गया है। देवी भीमा की अष्टधातु से बनी अष्टभुजा वाली मूर्ति सबसे ऊपर के प्रांगण में है।

भीमाकाली मन्दिर हिंदु और बौद्ध शैली में बना है जिसे लकडी और पत्थर की सहायता से तैयार किया गया है। पगोडा आकार की छत वाले इस मन्दिर में पहाडी शिल्पकारों की दक्षता देखने को मिलती है। द्वारों पर लकडी की सुन्दर छिलाई करके हिंदू देवी-देवताओं के कलात्मक चित्र बनाए गये हैं। फूल पत्तियां भी दर्शाए गये हैं। मन्दिर की ओर जाते हुए जिन बडे बडे दरवाजों से गुजरना पडता है उन पर चांदी के बने उभरे रूप में कला के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं। भारत के अन्य भागों की तरह सराहन में भी देवी पूजा बडी धूमधाम से की जाती है, विशेषकर चैत्र और आश्विन नवरात्रों में। मकर संक्रांति, रामनवमी, जन्माष्टमी, दशहरा और शिवरात्रि आदि त्यौहार भी बडे हर्षोल्लास व श्रद्धा से मनाये जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि भीमाकाली की प्राचीन मूर्ति पुराने मन्दिर में ही है। हर कोई उसके दर्शन नहीं कर सकता।

भीमाकाली मन्दिर हिंदु और बौद्ध शैली में बना है जिसे लकडी और पत्थर की सहायता से तैयार किया गया है। पगोडा आकार की छत वाले इस मन्दिर में पहाडी शिल्पकारों की दक्षता देखने को मिलती है। द्वारों पर लकडी की सुन्दर छिलाई करके हिंदू देवी-देवताओं के कलात्मक चित्र बनाए गये हैं। फूल पत्तियां भी दर्शाए गये हैं। मन्दिर की ओर जाते हुए जिन बडे बडे दरवाजों से गुजरना पडता है उन पर चांदी के बने उभरे रूप में कला के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं। भारत के अन्य भागों की तरह सराहन में भी देवी पूजा बडी धूमधाम से की जाती है, विशेषकर चैत्र और आश्विन नवरात्रों में। मकर संक्रांति, रामनवमी, जन्माष्टमी, दशहरा और शिवरात्रि आदि त्यौहार भी बडे हर्षोल्लास व श्रद्धा से मनाये जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि भीमाकाली की प्राचीन मूर्ति पुराने मन्दिर में ही है। हर कोई उसके दर्शन नहीं कर सकता।

हिमाचल प्रदेश के भाषा व संस्कृति विभाग के एक प्रकाशन के अनुसार बुशहर रियासत तो बहुत पुरानी है ही, यहां का शैल (स्लेट वाला पत्थर) भी अत्यंत पुराना है। भूगर्भवेत्ताओं के अनुसार, यह शैल एक अरब 80 करोड वर्ष का है और पृथ्वी के गर्भ में 20 किलोमीटर नीचे था। ठण्डा, शीतल जलवायु वाला स्थान सराहन आज भी शायद देवी कृपा से व्यवसायीकरण से बचा हुआ है। तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को सुगमता से यहां ठहरने और खाने-पीने की सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। हिमपात के समय भले ही कुछ कठिनाइयां आयें अन्यथा भीमाकाली मन्दिर में वर्षभर जाया जा सकता है। शिमला से किन्नौर की ओर जाने वाले हिंदुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 22 पर चलें तो एक बडा स्थान रामपुर बुशहर आता है जहां से सराहन 44 किलोमीटर दूर है। कुछ आगे चलने पर ज्यूरी नामक स्थान से सराहन के लिये एक अलग रास्ता जाता है। ज्यूरी से देवी मन्दिर की दूरी 17 किलोमीटर है।

एक नजर 1. शिमला से सराहन की दूरी 180 किलोमीटर। 2. स्थानीय बस सेवा और टैक्सियां उपलब्ध। 3. हवाई रास्ते से शिमला तक पहुंचा जा सकता है। 4. मन्दिर परिसर में बने साफ-सुथरे कमरों में ठहरने की व्यवस्था है। 5. सरकारी होटल श्रीखण्ड में उपयुक्त दामों पर ठहरने की व्यवस्था उपलब्ध। 6. अन्य स्थान सराहन रिजॉर्ट्स आदि।

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