यह लेख 29 अप्रैल 2007 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।
ट्रेकिंग करना एक साहसिक कार्य है और जोखिम भरा भी। दुर्गम इलाकों में पैदल चलते हुए किसी एक स्थान से दूसरे स्थान तक घण्टों, दिनों, सप्ताह या कुछ सप्ताहों में अथवा इससे भी अधिक समय में पहुंचना ट्रेकिंग कहलाता है। ऐसी गतिविधि के लिये योजना बनाना और कार्यक्रम को सफल करना कितना महत्त्वपूर्ण है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। किसी ट्रेकिंग कार्यक्रम के आयोजन और सफलता के लिये कार्यक्रम की अवधि तथा सदस्य संख्या के अनुसार राशन व खाद्य पदार्थों की मात्रा, ऊंचाई वाले इलाकों में खाने-पीने की कुछ चीजें, ईंधन, कुली, चूल्हा, बर्तन, पूरे रूट की जानकारी, प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत सामान, आवश्यक हों तो कुछ उपकरण, दवाइयां और अनुमानित खर्च आदि अहम बातें हैं जिन पर ध्यान देना होता है। इसके अतिरिक्त ट्रेकिंग के दौरान क्या करें, क्या न करें की जानकारी जरूर होनी चाहिये।
पहला चरण: सबसे पहले ट्रेकिंग करने का क्षेत्र निर्धारित करके पूरे मार्ग की जानकारी इकट्ठी की जाती है। किस-किस दिन कितना दूर चलना होगा और कितनी चढाई चढनी होगी, इसी अनुसार पडाव निर्धारित करने होते हैं। विशेषकर ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों में समय अधिक लगता है, यद्यपि नीचे लौटते समय कम समय लगता है।
दूसरा चरण: राशन कितना लिया जाये, यह एक मुख्य मुद्दा है। लोगों की खुराक के आधार पर राशन खरीदा जा सकता है। दलिया बहुत पौष्टिक आहार होता है जिसका ट्रेकर्स और पर्वतारोही प्रायः अधिक प्रयोग करते हैं। बॉर्नवीटा और कॉफी कुछ मात्रा में साथ रखना उचित है। ट्रेकिंग कार्यक्रम का आयोजन करने वाले अपने राशन में बदलाव ला सकते हैं। थोडे ड्राई फ्रूट्स (मेवे) साथ रखने चाहिये। ज्यादा ऊंचाई में कुछ समय तक खाना अच्छा नहीं लगता। ऐसी स्थिति में अचार बडा सहायक होता है।
तीसरा चरण: खाना बनाने के लिये बर्तन, चूल्हा व ईंधन, पानी के लिये जरीकेन और यहां तक कि चूल्हा जलाने के लिये माचिस और सब्जी काटने तक के लिये चाकू तक को ध्यान में रखकर साथ ले जाने की आवश्यकता होती है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि ईंधन के नाम पर गैस या मिट्टी का तेल लेकर यात्रा करना वर्जित है। ऐसे में ट्रेकिंग क्षेत्र के समीप पहुंचकर ही ईंधन का प्रबंध करना चाहिये। यही नहीं, कुली, खच्चर, गाइड, बर्तन और चूल्हे का प्रबंध भी वही किया जाये तो सुविधा रहती है। ट्रेकिंग की लोकप्रियता को देखते हुए स्थानीय लोगों ने हर आवश्यक वस्तु का व्यवसाय चला दिया है। ट्रेवल एजेंसियां भी सभी जरूरी चीजें मुहैया करा देती हैं।
चौथा चरण: ट्रेकिंग के दौरान कई जगह कैंप लगाने पडते हैं। सदस्यों की संख्या को देखते हुए टेंटों का इंतजाम करना चाहिये। दल के नेता को हर प्रकार से चौकस रहते हुए आवश्यक दवाएं भी साथ रखनी चाहिये। व्यक्तिगत सामान में मौसमी कपडों के अलावा सिर से लेकर पैर तक का ध्यान रखते हुए बंदर टोपी, चश्मा, दस्ताने, मजबूत व आरामदायक जूते जो बिल्कुल नये न हों, जुराबें, पानी की बोतल, कैमरा, फिल्में, टॉर्च, सुई-धागा, अपनी दवाइयां, वाटरप्रूफ रकसैक, स्लीपिंग बैग, बारिश से बचने के लिये प्लास्टिक शीट, कुछ ड्राई फ्रूट्स और टॉफियां. ग्लूकोस आदि रखा जाना चाहिये।
ट्रेकिंग के दौरान ऊंचाई का विशेष महत्त्व है। विशेषज्ञों ने समुद्र तल से एवरेस्ट तक की ऊंचाई को तीन भागों में बांटा है। समुद्र तल से दस हजार फुट तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र को जनजीवन क्षेत्र (जोन ऑफ लाइफ) कहते हैं। दस से बीस हजार तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र को ऑक्सीजन क्षेत्र (जोन ऑफ ऑक्सीजन) और बीस हजार से ऊपर के क्षेत्र को जीवन रहित क्षेत्र (जोन ऑफ डेथ) कहलाता है। एक अच्छे ट्रेकर को इस तथ्य का ज्ञान होना चाहिये। ट्रेकिंग दल में यदि एक सदस्य डॉक्टर हो तो अच्छा रहता है।
किसी भी इलाके में पहुंचकर ट्रेकिंग शुरू करने से पहले एक-दो दिन रुककर अपने आप को एक्लीमेटाइज करना चाहिये। पर्वत और बर्फ के नाम से ही कई लोग ठण्ड की कल्पना करने लगते हैं। अनेक ट्रेकर अच्छे मौसम में भी बहुत कपडे पहनकर चलते हैं। परिणामतः अधिक पसीना आता है और थकान बढ जाती है। चलना मुश्किल हो जाता है। ऐसा न करें। लेकिन गरमी लगने पर अचानक खुले में कपडे न उतारें। पसीना आने से शरीर में पानी की कमी आती है और डीहाइड्रेशन की सम्भावना बढती है। ज्यादा ऊंचाई में सांस लेने में कुछ समय दिक्कत आती है और सिर में बहुत दर्द होता है। जिसका मुख्य कारण ऑक्सीजन की कमी होता है। अतः पानी और ग्लूकोज का पर्याप्त सेवन अवश्य करें। पहाडों में पेट खराब हो जाना आम बात है। घर से निकलने से पहले हैजे का टीका लगवाने में कोई बुराई नहीं है।
एक निश्चित पडाव पर पहुंचकर कैम्प लगाना होता है। जरूरी है कि दिन की रोशनी का लाभ लिया जाये। टेण्ट लगाकर और भोजन की व्यवस्था करके आसपास के ऊंचे क्षेत्रों पर चढकर कुछ समय बिताना चाहिये। जब आप नीचे उतरकर कैम्प में आते हैं तो ऊंचाई का असर बहुत कम हो जाता है। कैम्प लगाने के लिये सुरक्षित स्थान ढूंढना अनुभव की बात है। स्थान ऐसा हो जहां हवा कम से कम लगती हो। पानी समीप होना चाहिये। यह स्थान भूस्खलन या हिमस्खलन क्षेत्र में न हो। ध्यान रहे, कैम्प हटाते समय वहां पूर्ण सफाई कर दी जाये। टैंटों के भीतर धूम्रपान करना, मोमबत्ती जलाना या अगरबत्ती जलाना उचित नहीं। ट्रेकिंग के दौरान प्राकृतिक व अप्राकृतिक, दोनों प्रकार के खतरों से बचना चाहिये। नदी के सूखे किनारों को सुरक्षित समझकर कभी वहां कैम्प न लगाया जाये। पर्वत के ऊपरी भागों में भारी वर्षा से चंद मिनटों में नदी में बाढ आ जाती है जो सबकुछ बहाकर ले जाती है। हिमखण्डों से निकलने वाले नालों के समीप भी ठहरना ठीक नहीं। ये सारी जानकारियां पहाडों में तीर्थयात्रा करने वालों के लिये भी लाभप्रद है। पानी हमेशा साथ रहना चाहिये। रास्ता भटक जाने पर आग जलाकर धुएं से संकेत दिया जा सकता है। वहीं तारामण्डल व कम्पास का ज्ञान भी काम आता है।
यह कब से शुरू कर लिया --थोडा एड दे मारते ताकि हमे मालुम पड़ जाता --पर अच्छा है --बधाई !
जवाब देंहटाएंजाट देवता की राम राम,
जवाब देंहटाएंअब ना टेम मिले ज्यादा।
एक से भले दो।
कहीं जाने के पहले अब आपका ब्लॉग खंगालेंगे।
जवाब देंहटाएंअभिनव प्रयास को शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंसबस्क्राइब या फौलोवर का विकल्प भी डाल दें.
जवाब देंहटाएंअच्छी जान कारी के लिये शुक्रिया
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