मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

शबरिमला- ब्रह्मचारी अय्यप्पन का वास

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 30 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ था।
लेख: एम. एस. राधाकृष्ण पिल्लै

शबरिमला दक्षिण के सर्वप्रमुख मन्दिरों में से एक है। हर साल भगवान अय्यप्पन के दर्शन के लिये दिसम्बर-जनवरी में करोडों की संख्या में लोग यहां तीर्थयात्रा करते हैं। यह केरल से जुडे पर्यटन का एक अलग ही स्वरूप है। एक तरफ यह रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर रोक को लेकर चर्चित है तो दूसरी तरफ यह हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की शानदार मिसाल भी पेश करता है।

केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम से 175 किलोमीटर की दूरी पर पम्पा है और वहीं से चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मन्दिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड को कहते हैं। उत्तर दिशा से आने वाले यात्री एर्णाकुलम से होकर कोट्टायम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से क्रमशः 116 किलोमीटर और 93 किलोमीटर तक किसी न किसी जरिये से पम्पा पहुंच सकते हैं। पम्पा से पैदल चार-पांच किलोमीटर वन मार्ग से पहाडियां चढकर ही शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के दर्शन का लाभ उठाया जा सकता है।

दूसरे मन्दिरों की अपेक्षा शबरिमला मन्दिर के रस्म-रिवाज बिल्कुल ही अलग होते हैं। यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मन्दिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही सम्बोधित करते हैं। शबरिमला मन्दिर का संदेश ही ‘तत्वमसि’ है। ‘तत’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनों के मेल या दोनों के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों अभेद हैं। यही शबरिमला मन्दिर का सार-तत्व है, संदेश भी है।

पुराने समय में शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन-चार दिनों में पैदल यात्रा करके ही मन्दिर पहुंचते थे। रास्ते में भोजन वे खुद पकाते थे और इसके लिये जरूरी बर्तन, चावल वगैरह इरुमुटि में बांध लेते थे। दो गठरियों में, पहली गठरी में भगवान की पूजा की सामग्री, नैवेद्य चढाने का सामान और दूसरी गठरी में अपने पाथेय के लिये सामग्री रखी जाती थी। विशेष तैयारियों और रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मन्दिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’, ‘स्वामी शरणं’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से रट लगाकर भक्त शबरिमला तीर्थाटन के लिये रवाना होते हैं।

श्री धर्मशास्ता और श्री अय्यप्पन

क्षीर सागर मंथन के अवसर पर मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पम्पा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा और बडा किया। मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाये जो अपने जीवन का दौत्य पूरा करके पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं।

जो भी हो धर्मशास्ता या अय्यप्पन की परिकल्पना को इसी पृष्ठभूमि में सार्थक माना जाता है कि सात-आठ सौ साल पहले दक्षिण में शिव और वैष्णवों के बीच घोर मतभेद थे, जिसमें हिंदू धर्म के उत्कर्ष में बाधा पडती थी। ऐसे हालात में दोनों में समन्वय जरूरी था। विष्णु और शिव के पुत्र, हरिहर-पुत्र धर्मशास्ता के द्वारा ही यह संभव हो सकता था।

शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा, मालिकापुरत्त अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उपदेवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त अम्मा के बारे में कहा जाता है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष प्रदान किया। मोक्ष प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी कि जिस साल कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिये आने वाला अय्यप्पन) नहीं आयेगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। हर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन प्रतिवर्ष हजारों की तादाद में नये भक्त आते ही रहते हैं और मालिकापुरत्त अम्मा की मनोकामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मन्दिर के प्रांगण में ही अय्यप्पन के सहचर मुसलमान फकीर वावर के लिये भी जगह दी गई है।

एरुमेलि

भक्तों का पुराना पारम्परिक रास्ता है एरुमेलि होकर शबरिमला पहुंचना जो अधिक दुर्गम, चढाइयों और ढलानों वाला है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद है। अय्यप्पा भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करके और दक्षिणा वगैरह अर्पित करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिये आगे बढते हैं। यह मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती है। एरुमेलि की एक रस्म है ‘पेट्टा तुल्लल’। भक्त यहां कालिख, कुंकुम और कई तरह के रंग आदि पोतकर नाचते हैं। यह पेट्टा तुल्लल वावर की सहायता से अय्यप्पन द्वारा उदयनन नामक डाकू के मारे जाने पर उनके अनुचरों द्वारा नाचकूदकर विजय की खुशियां मनाने की याद में किया जाता है। एरुमेलि के परम्परागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाडों को पैदल ही पार करना पडता है। यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है।

मन्दिर के परिसर में पहुंचने पर भक्त 18 सीढियां चढकर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। ये अष्टदश सोपान प्रतीकात्मक माने जाते हैं। ये पावन अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों, त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक माने जाते हैं।

शबरिमला मन्दिर में पूजा महोत्सव के लिये मण्डल 16 नवम्बर से 27 दिसम्बर तक द्वार खुला रहता है। मण्डल पूजा के लिये आने वाले लोगों को 41 दिन तक कडे नियमों में रहना होता है और मांसाहारी वस्तुओं के सेवन व भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति) के लिये दिसम्बर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को पडता है) मार्च महीने की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का उत्सव शुरू होता है जो अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिये अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मन्दिर खुला रहता है। इन अवसरों को छोडकर मलयाल के शुरू में 6 दिन ही मासिक पूजा के लिये मन्दिर खुला रहता है, अन्य अवसरों पर नहीं।

मकर संक्रांति व उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र के संयोग के दिन, पंचमी तिथि और वृश्चिक लग्न के संयोग के समय ही श्री अय्यप्पन का जन्म हुआ और यही कारण है कि मकर संक्रांति के दिन शबरिगिरीशन के दर्शनार्थ हजारों-लाखों की तादाद में भक्त शबरिमला आते हैं और आरती के समय श्री अय्यप्पन के दर्शन लाभ के साथ ही पूर्व दिशा में कांतिमला की चोटी पर मकर ज्योति का भी दर्शन कर सायूज्य लाभ करते हैं।

खास बातें

श्री अय्यप्पन को घी का अभिषेक सबसे प्रिय है और ‘अरावणा’ (चावल, गुड और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है।

चूंकि अय्यप्पन नित्य ब्रह्मचारी हैं, इसलिये 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिये मन्दिर में प्रवेश मना है।

यह अंदाज लगाया जाता है कि गत वर्ष (2007) शबरिमला में पांच करोड से अधिक भक्त दर्शनार्थ आये और सरकारी आंकडों के मुताबिक मन्दिर की गतवर्ष (2007) की आय 100 करोड रुपये के करीब है।

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