गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

किब्बर- चलें सबसे ऊंचे गांव

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 24 फरवरी 2008 को प्रकाशित हुआ था।

प्रकृति के भी अजीब रंग हैं। एक ही जगह किसी के लिये आकर्षण का केंद्र होती है तो किसी के लिये निष्ठुरता का प्रतीक। आखिर लगभग पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर बसे किसी गांव की जिंदगी क्या होगी। जी. बी. सिंह का आलेख:

किब्बर की धरती पर बारिश का होना किसी अजूबे से कम नहीं होता। बादल यहां आते तो हैं लेकिन शायद इन्हें बरसना नहीं आता और ये अपनी झलक दिखाकर लौट जाते हैं। एक तरह से बादलों को सैलानियों का खिताब दिया जा सकता है जो घूमते, टहलते इधर घाटियों में निकल आते हैं और कुछ देर विश्राम कर पर्वतों के दूसरी ओर रुख कर लेते हैं। यही वजह है कि किब्बर में बारिश हुए महीनों बीत जाते हैं। यहां के बाशिंदे सिर्फ बर्फ से साक्षात्कार करते हैं और बर्फ भी इतनी कि कई-कई फुट मोटी तहें जम जाती हैं। जब बर्फ पडती है तो किब्बर अपनी ही दुनिया में कैद होकर रह जाता है और गर्मियों में धूप निकलने पर बर्फ पिघलती है तो किब्बर गांव सैलानियों की चहल-कदमी का केंद्र बन जाता है।

समुद्र तल से 4850 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किब्बर गांव में खडे होकर यूं लगता है मानो आसमान ज्यादा दूर नहीं है। बस थोडा सा हवा में ऊपर उठो और आसमान छू लो। यहां खडे होकर दूर-दूर तक बिखरी मटियाली चट्टानों, रेतीले टीलों और इन टीलों पर बनी प्राकृतिक कलाकृतियों से रूबरू हुआ जा सकता है। लगता है कि इस धरती पर कोई अनाम कलाकार आया होगा जिसने अपने कलात्मक हाथों से इन टीलों को कलाकृतियों का रूप दिया और फिर इन कलाकृतियों में रूह फूंककर यहां से रुखसत हो गया। सैलानी जब इन टीलों से मुखातिब होते हैं तो इनमें बनी कलाकृतियां उनसे संवाद स्थापित करने को आतुर प्रतीत होती है। बहुत से सैलानी इन कलाकृतियों और टीलों को अपने कैमरे में उतार कर अपने साथ ले जाते हैं।

किब्बर गांव हिमाचल प्रदेश के दुर्गम जनजातीय क्षेत्र स्पीति घाटी में स्थित है, जिसे ‘शीत मरुस्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। गोंपाओं और मठों की इस धरती में प्रकृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं। कभी घाटियों में फिसलती धूप देखते ही बनती है तो कभी खेतों में झूमती फसलें मन मोह लेती हैं। कभी यह घाटी बर्फ के दोशाले में दुबक जाती है तो कभी बादलों के टुकडे यहां के खेतों और घरों में बगलगीर होते दिखते हैं। घाटी में कहीं सपाट बर्फीला रेगिस्तान है तो कहीं हिमशिखरों में चमचमाती झीलें।

किब्बर गांव में पहुंचना भी आसान नहीं है। कुंजम दर्रे को नापकर सैलानी स्पीति घाटी में दस्तक देते हैं। इसके बाद 12 किलोमीटर का रास्ता काफी दुरूह है, लेकिन ज्यों ही लोसर गांव में पहुंचते हैं, शरीर ताजादम हो उठता है। स्पीति नदी के दायीं ओर स्थित लोसर, स्पीति घाटी का पहला गांव है। लोसर से स्पीति उपमण्डल के मुख्यालय काजा की दूरी 56 किलोमीटर है और रास्ते में हंसा, क्यारो, मुरंग, समलिंग, रंगरिक जैसे कई खूबसूरत गांव आते हैं। काजा से किब्बर 20 किलोमीटर दूर है। यहां के लोग नाचगानों के बहुत शौकीन हैं। यहां के लोक नृत्यों का अनूठा ही आकर्षण है। यहां की युवतियां जब अपने अनूठे परिधान में नृत्यरत होती हैं तो नृत्य देखने वाला मंत्रमुग्ध हो उठता है। ‘दक्कांग मेला’ यहां का मुख्य उत्सव है जिसमें किब्बर के लोकनृत्यों के साथ-साथ यहां की अनूठी संस्कृति से भी साक्षात्कार किया जा सकता है।

किब्बर वासियों का पहनावा भी निराला है। औरतें और मर्द दोनों ही चुस्त पायजामा पहनते हैं। सर्दी से बचने के लिये पायजामे को जूते के अन्दर डालकर बांध दिया जाता है। इस जूते को ‘ल्हम’ कहा जाता है। इस जूते का तला तो चमडे का होता है और ऊपरी हिस्सा गर्म कपडे से निर्मित होता है। गांव की औरतों के मुख्य पहनावे हैं- हुजुक, तोचे, रिधोय, लिगंचे और शमों। सर्दियों में यहां की औरतें ‘लोम’, फर की एक खूबसूरत टोपी पहनती हैं। इसे शमों कहा जाता है। गांव के लोग गहनों के भी शौकीन हैं।

किब्बर गांव में शादी की परम्पराएं भी निराली हैं। प्राचीन समय से ही यहां शादी की एक अनूठी प्रथा रही है। इस प्रथा के अनुसार अगर किसी युवती को कोई लडका पसंद आ जाये तो वह युवती से किसी एकांत स्थल में मिलता है और उसे कुछ धनराशि भेंट करता है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘अंग्या’ कहा जाता है। यदि लडकी इस भेंट को स्वीकार कर ले तो समझा जाता है कि वह शादी के लिये रजामंद है। लेकिन अगर लडकी भेंट स्वीकार करने से इंकार कर दे तो यह उसकी विवाह के प्रति अस्वीकृति मानी जाती है।

किब्बर में आकर जब सैलानी यहां की प्राकृतिक छटा, अनूठी संस्कृति, निराली परम्पराओं और बौद्ध मठों से रूबरू होते हैं तो वे स्वयं को एक नई दुनिया में पाते हैं। किब्बर में एक बार की गई यात्रा की स्मृतियां ताउम्र के लिये उनके मानसपटल पर अंकित हो जाती हैं।

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