यह लेख 28 जनवरी 2007 को दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में छपा था।
थार का रेगिस्तान भी अदभुत है। गरमियों में यहां की रेत उबलती है। इस मरुभूमि में साठ डिग्री सेल्शियस तक तापमान रिकार्ड किया गया है। जबकि सरदियों में तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। मौसम जो भी हो, रेत पर ट्रेकिंग खासे जीवट का काम है। धवल चांदनी में रात भर मीलों चलने का रोमांच बयां कर रहे हैं प्रेम एन. नाग:
यूं तो रेगिस्तान के नाम से ही खुश्की का आभास होता है परन्तु थार में अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना छिपा है। इसका आनंद वे बिरले लोग ही उठा पाते हैं, जिनकी आमतौर पर साहसिक गतिविधियों में रुचि होती है। सर्दियों में जब पहाडों में आवागमन रुक जाता है तो मरुस्थल मानो ऐसे लोगों को आमंत्रित करता है। ऐसी ही एक ख्वाहिश ने हमें भी कुछ समय पहले जैसलमेर पहुंचा दिया। आठ सदस्यों का हमारा दल दिल्ली माउंटेनियरिंग एसोशिएशन की ओर से थार डेजर्ट अभियान के तहत वहां गया था। सर्दियों में जैसलमेर तमाम गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन जाता है। रेगिस्तान में ट्रेकिंग के यहां कई रास्ते हैं। जैसलमेर से 45 किलोमीटर की दूरी पर सम नामक जगह है। यहां दूर-दूर तक फैले रेत के टीलों के विहंगम और मनोहारी दृश्य दिल-दिमाग पर हमेशा के लिये छाप छोडते हैं।
रेगिस्तान में यूं तो कई जहरीले सांप, बिच्छू और अन्य कीडे होते हैं लेकिन सर्दियों में ये धरती की गहराइयों में चले जाते हैं। तब रेत पर निश्चिंत विचरण का अवसर मिलता है। बालू पर बिखरी चांदनी सुंदरता की नई-नई परिभाषाएं लिखती नजर आती है। ट्रेकिंग और चांदनी रात में ऊंट सवारी जैसी यात्राएं जैसलमेर और सम से शुरू होती हैं क्योंकि ऊंट इन्हीं स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। अधिकतर ट्रेकर्स जैसलमेर को बेस कैम्प बनाते हैं। सभी आवश्यक सामग्री भी यहां से मिल जाती है। आमतौर पर ट्रेकर्स यहां से आठ-दस दिन रेत पर चलकर गडरा रोड नामक स्थान तक जाना पसंद करते हैं। भारत-पाक विभाजन के समय गडरा शहर पाकिस्तान में चला गया और गडरा रोड रेलवे स्टेशन भारत में ही रह गया।
तैयारी
जैसलमेर पहुंचकर हम किले के समीप एक सस्ते होटल में दो दिन ठहरे थे। पहले दिन हमने दो ऊंटों का प्रबंध किया, भोजन सामग्री, ईंधन और आवश्यक दवाइयां आदि खरीदीं। पानी के लिये दो जरीकेन भी खरीदे। रेगिस्तान में यही चीज सबसे दुर्लभ है। हमने जैसलमेर के पुलिस अधीक्षक से मिलकर अपने कार्यक्रम की जानकारी दी। वैसे तो हमने स्थानीय पुलिस को दिल्ली से भी अग्रिम सूचना भेज दी थी। लेकिन जैसलमेर से आगे जाने के लिये कलेक्टर से इजाजत लेनी पडती है। पाकिस्तान सीमा समीप है अतः इस क्षेत्र में विशेष चौकसी रखी जाती है। इजाजत के साथ हमें कई सुझाव भी मिले, जैसे रात को मत चलना, खुले में मत सोना, चोर-डाकुओं से सावधान रहना, चप्पल पहनकर मत चलना क्योंकि रेगिस्तान में सांप होते है, अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पानी लेकर चलना, आदि-आदि। अगले दिन हमने सम तक का सफर जीप से तय किया।
सम से कुछ पहले ही रेत के विशाल टीले (स्थानीय भाषा में टीबे) दिखाई देने लगे। ड्राइवर ने जीप रोक दी। कई पर्यटक वहां रेत में आनंद ले रहे थे। हम भी टीलों पर उतरने-चढने का भरपूर आनंद लेकर कुछ समय वहां बैठ गये। बलखाती किसी सुंदरी से लगते इन टीलों का प्राकृतिक सौंदर्य अदभुत था। जैसे बारिश में आकाश में विचरते बादलों की आकृतियां बनती-बिगडती रहती हैं, कुछ उसी तरह से गरमियों में रेगिस्तान की तेज हवाएं रेत के टीलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं और टीलों को नई आकृतियां प्रदान करती हैं। जब तक तेज हवाएं चलती हैं, यह क्रम चलता रहता है। लेकिन सरदियों में यह थम जाता है। प्रकृति का यह रूप विचित्र अनुभूति दे रहा था।
यहां से हम तीन किलोमीटर चलकर सम पहुंच गये और गांव के बाहर एक कामचलाऊ कमरे में ठहर गये। शाम ढलते-ढलते रेत पर बिखरी शीतल चांदनी टीलों पर फिर आने का आमंत्रण सा देने लगी। उस दिन चंद्र ग्रहण था। पूर्णिमा के चांद को कुछ देर बाद राहु-केतु ग्रसने लगे लेकिन हमारे उत्साह के पास वे दोनों फटके तक नहीं। ठंड तेज हो गई मगर हम चांद के मुक्त होने का इंतजार करते रहे। दो घंटे बाद आंख-मिचौली खेलते वहीं टीले दिखाई देने लगे। जो साथी रेत पर नहीं गये, उन्होंने पीछे रुककर ग्रामीणों के लोकगीतों का आनंद उठाया।
सफर की शुरूआत
सुबह हुई तो देखा कि ऊंट वालों ने जरीकेन में पानी भर लिया है और चाय भी बना दी है। हमने चाय पी और सामान ऊंटों पर लाद दिया। हमारा पैदल अभियान शुरू होने वाला था। हमें 8-9 दिन में लगभग 200 किलोमीटर पैदल चलना था। जल्दी तैयार होकर हम पहले पडाव ‘गंगा की बस्ती’ की ओर चल पडे। आठ किलोमीटर के बाद हम वहां पहुंच गये और एक कच्चे मकान में जा ठहरे। गांव के लोगों ने हमें आ घेरा। सिंध से जुडे इस क्षेत्र के लोगों की मूल बोली तो हमें समझ में नहीं आती थी परंतु कामचलाऊ हिंदी वे सभी बोल लेते थे। उत्सुकतावश उन्होंने हमारे वहां आने का कारण पूछा। थोडी ही देर बाद हम लोग आपस में सहज हो गये। दोपहर एक बजे हमने भोजन बनाया। खाकर कुछ विश्राम किया।
शाम पांच बजे हम अगले ठिकाने खुडी गांव की ओर बढ चले। गांव 26 किलोमीटर दूर था। चांदनी में चलने की इच्छा तो थी परंतु तारों की सहायता से चलने का ज्ञान किसी को न था। 10-12 किलोमीटर आगे सुधाश्री नाम की जगह हम पहुंचे जहां पानी उपलब्ध था। भयावह रेगिस्तान में लगता था कि ‘क्या हम खुढी पहुंच पायेंगे!’ ऊंट वाले और पांच साथी आगे जा चुके थे। घोर सन्नाटे को हमारे शब्द चीर रहे थे। हमने भी अपने हौसले को और मजबूत किया। आधी रात में हमें एक छोटा सा मकान दिखाई दिया। यह सोचकर कि यही स्थान खुडी है, हम वहीं सो गये। परंतु वह स्थान बरना था। खुडी तो अभी और छह किलोमीटर दूर था। नींद में पसरा गांव मानो चांदनी ओढे हुए था।
सुबह उठे तो रात का मंजर एक सपना बन चुका था। अगले दिन दोपहर बाद हम 22-23 किलोमीटर दूर बरसियाला गांव को चल पडे और आधी रात को वहां पहुंचे। हमने गांव के बाहर एक किलोमीटर दूर एक टीले पर खुले आसमान के नीचे सोने का निर्णय लिया। परंतु सांप वाली बात याद आ गई। ‘पेना’ नामक सांप की कहानी हमने सुन रखी थी कि वह सोते हुए मनुष्य की छाती पर बैठकर उसकी सांस से सांस मिलाता है और अपना विष मनुष्य के अंदर पहुंचा देता है। इधर-उधर आखडे के पेड और छोटी-छोटी झाडियां थीं। डर तो था ही। हमें पता था कि प्याज की गंध से सांप दूर भागता है। मैंने कुछ प्याज काटकर दल के चारों ओर उसके टुकडे डाल दिये और सब सो गये।
सबेरे सब सकुशल उठे। गांव के कुछ बच्चे अपनी बकरियों के साथ हमारे पास आ पहुंचे। बिस्कुट के स्वाद और हमारे कहने पर कुछ बच्चों ने लोकगीत की कुछ पंक्तियां गाकर सनाईं जो आज भी कानों में गूंजती हैं-
इतल पितलो म्हारो बेडलो बेडलो, झांझरिया म्हारा सेण……
जहां कहीं भी बच्चे दिखाई देते थे, उनकी पीठ पर पानी से भरी छोटी मसक बंधी दिखाई देती थी। हमें अब फुलिया जाना था। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता था। केवल बच्चों के बताए रास्ते पर हम फुलिया चल पडे। एक गडरिया भेड-बकरियां छोडकर हमारे बुलाने पर पास आया और हमें रास्ता बताया। हमें रेगिस्तान की लोमडी (डेजर्ट फॉक्स) दिखाई दी। हम दोपहर बाद फुलिया पहुंच चुके थे। गांव के बाहर डेजर्ट नेशनल पार्क के झौंपे (बडी-बडी झौंपडियां) बने हुए थे। उन्हीं में हम ठहरे। यहां पानी उपलब्ध था और वन विभाग के सुरक्षा कर्मी भी। तीन दिन बाद हमें नहाने का मौका मिला। पता चलते ही गांव के लोग हम अजनबियों को देखने आने लगे। हमारे जैसे लोग वर्षों में कभी उन्हें देखने को मिले थे। गांव में बहुत थोडी आबादी थी। वास्तव में जनजीवन के नाम पर रेगिस्तान में मीलों दूर कोई-कोई गांव मिलता है। पशुपालन (ऊंट, भेड, बकरी, गाय, बैल) यहां का मुख्य व्यवसाय है। दो-चार साल में यहां कभी बारिश हो जाती है। (हालांकि 2006 में आई बारिश व बाढ ने कुछ पुराने प्रतिमान बदल दिये हैं।) कीकर, टींट और खेचडी के वृक्ष कहीं-कहीं दिखाई देते हैं। इंदिरा नहर के माध्यम से कई क्षेत्रों में जल पहुंचाने का प्रयास आज भी जारी है परंतु यहां के लोगों के लिये अब भी यह एक सपना है।
फिर नया सवेरा
हमें म्यांजलार जाना था जो दूर नहीं था मगर उसे एक तरफ छोडते हुए 35 किलोमीटर दूर बंदेडा गांव चल पडे। सौभाग्य से एक स्थानीय आदमी हमें रास्ता बताने को राजी हो गया। 17 किलोमीटर दूर सत्तो गांव तक वह हमारे साथ गया। सत्तो में खाना खाकर और उस मेहरबान इंसान के साथ भोजन कर 3-4 घंटे विश्राम किया। सत्तो से सीमा सडक उपलब्ध थी लिहाजा रास्ता पूछने की जरुरत नहीं रह गई थी। शाम 5 बजे फिर बंदेडा के लिये हम चल पडे और रात ढाई बजे वहां पहुंचे। झौंपे ढूंढने में कठिनाई हुई क्योंकि वे सडक से काफी दूर थे। आराम की घडियां शुरू हुईं और बेसुध पडे सभी साथी अगले दिन ग्यारह बजे ही जगे। रात में कहीं कोई खो न गया हो, यह सोचकर हर स्थान पर पहुंचकर हम अपने साथियों की गिनती कर लेते थे। मगर पिछली रात थकान के कारण ऐसा न हो सका। लिहाजा यह रस्म सवेरे हुई। हमारे दोनों ऊंट वाले 20 वर्षीय कुम्पा राम और 22 वर्षीय गेम्बरा भी झौंपे के अन्दर थे।
गिराब गांव हमारा अगला पडाव था। इस बार कुछ ऐसा हुआ कि तीन साथी भोजन करके जल्दी चल पडे। गलत पगडंडी पकडने से वे भटक गये और सडक तक नहीं पहुंचे। चार किलोमीटर के बाद उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ तो समझदारी से वे लौटकर बंदेडा आ गये। बकरियां चराते कुछ बच्चों ने उन्हें सडक तक पहुंचाया। रात एक बजे हम सब गिराब पहुंच चुके थे। अगली सुबह हमें 22 किलोमीटर दूर हरसाणी गांव पहुंचना था। रास्ते में तुडपी नाम की एक जगह आई। यहां छोटे-छोटे बच्चों को गधों पर मटके लाते-ले जाते देखा तो एहसास हुआ कि यहां के लोगों का अधिकांश समय तो पानी ढोने में बीत जाता है। हम चार साथी सडक से हटकर रेत पर चलते हरसाणी ढाई बजे पहुंचे परन्तु अन्य साथी भटक गये और शाम 6 बजे हरसाणी पहुंचे। हमारे पैरों में बडे-छोटे कई छाले पड चुके थे। हरसाणी एक बडा गांव है। यहां से तीन अलग-अलग रास्ते गडरा रोड, बाडमेर और शिव के लिये जाते हैं।
मंजिल पर कदम
हम अगले दिन राणासर पहुंचे। यहां हमें ठहरने का अच्छा स्थान मिल गया और नहाने के लिये पानी भी। हमारे पैरों के छाले अब घावों में तब्दील हो चुके थे। अभियान की अंतिम सुबह हम सब जोश से भरे थे। 14 किलोमीटर का रास्ता हमने कब तय कर डाला, इसका आभास ही नहीं हो रहा था। हम गडरा रोड पहुंच गये थे। भारत-पाक सीमा देखने की इच्छा हुई तो सीमा सुरक्षा बल के कमांडेंट से हम लोगों ने बात की। खुशी से अनुमति देते हुए उन्होंने हमारे साथ एक इंस्पेक्टर और हथियारों से लैस एक सुरक्षा गार्ड भेजा जो हमें सीमा दिखा लाये। गडरा रोड में शाम को घूमते हुए पता चला कि यहां के देशी घी के लड्डू बडे प्रसिद्ध हैं। एक दुकान पर हमने अपना-अपना ऑर्डर दे दिया। अगले दिन हमने गेम्बरा और कुम्पा राम से विदा ली। ये लोग अपने ऊंटों को रस्सियों, रंगीन डोरियों और उनसे बने फूल (इन्हें मोरनी कहते हैं) से सजाते हैं। हम दिल्ली लौट चले। कचनारी चेहरों पर झूमते नथ-बोर, पलकों पर अधखुले इंद्रधनुषी घूंघट और नाचते गाते लोग अभावों को भूल हंसते रहते हैं। सुनने वाले के कानों में बच्चे के मुख से निकलते लोकगीत के ये बोल- लेता जाइजो, दिलडो देतो जाइजो लम्बे समय तक गूंजते हैं।
जैसलमेर-गडरा रोड ट्रेकिंग रूट एक नजर में
1. दिल्ली से जैसलमेर पहुंचे (रोजाना सीधी ट्रेन व हवाई जहाज उपलब्ध है)। आप पहले जोधपुर और फिर वहां से जैसलमेर भी जा सकते हैं।
2. जैसलमेर में कलेक्टर की अनुमति प्राप्त करें और स्थानीय पुलिस को भी सूचित करें।
3. ऊंट, भोजन, दवाइयां और पानी के जरीकेन का प्रबन्ध जैसलमेर में ही करें। पानी की शुद्धता का ध्यान रखें।
4. मुख्य पडाव सम, गंगा की बस्ती, खुडी, बरसियाला, फुलिया, म्यांजलार, बंदेडा, गिराब, हरसाणी, राणासर व गडरा रोड।
5. राजस्थान में परदा प्रथा है और स्त्रियां आमतौर पर अजनबी पुरुषों से घुलती-मिलती नहीं।
6. किसी गांव के आगे से गुजरते समय ऊंट से उतरकर चलना एक प्रथा है। गांव वाले ऐसा करने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं क्योंकि उसने उनके गांव का सम्मान किया होता है।
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