शुक्रवार, अप्रैल 29, 2011

जनजातीय संग्रहालय- देखने चलें अतीत के जनजीवन को

लेख: ललित मोहन कोठियाल

संग्रहालय कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का प्रतिबिम्ब होते हैं इसलिये उनका पर्यटन महत्व कम नहीं होता। कभी संग्रहालय इतिहास, पुरातत्व, मानव विज्ञान विषयों तक ही सीमित थे लेकिन बीसवीं सदी में जब नये-नये विषयों को लेकर व्यवस्थित रूप से संग्रहालय बनाये जाने लगे तो संग्रहालयों की परिभाषा कई बार गढी गई। विश्व की सारी जातियां व समाज कभी विकास के उसी क्रम से गुजरे हैं जहां आज आदिवासी समाज है। प्रकृति के साथ तालमेल के साथ सदियों से रह रहे आदिवासियों का आज भी अपना आत्मनिर्भर संसार है जहां मानव जनजीवन की पुरानी झलक देखने को मिलती है। यदि आप मध्य भारत के भ्रमण पर हों और अतीत के जनजीवन को देखने के इच्छुक हों तो यहां के कुछ नगरों में स्थापित मानव या जनजातीय संग्रहालयों की सैर से आपकी सारी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जायेगा।

बदलती मानव जीवन शैली के प्रमाण संरक्षित व सुरक्षित रह सके इसलिये विश्व के अन्य भागों की भांति भारत में संग्रहालयों की स्थापना की गई। इनमें से अधिकतर उन क्षेत्रों में केंद्रित हैं जहां पर आदिवासी जनसंख्या का अधिक प्रवास है। चूंकि मध्य भारत के छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, उडीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड आदि राज्यों में आदिवासियों की बडी आबादी रहती है इसलिये यहां पर स्थापित मानवविज्ञान संग्रहालय, आदिवासी व जनजातीय संग्रहालयों में विकास क्रम के सबसे अधिक साक्ष्य देखने को मिलते हैं। यदि आप पर्यटन के साथ मानवविज्ञान को लेकर अपनी जानकारी में वृद्धि करना चाहते हैं तो ऐसे छह संग्रहालयों को देखा जा सकता है। इनमें से तीन मध्य प्रदेश में हैं जिनमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय व जनजातीय संग्रहालय राजधानी भोपाल व बादलभोई आदिवासी संग्रहालय राज्य के दक्षिणी जिले छिंदवाडा में हैं। मध्य भारत के आदिवासी जनजीवन पर रोशनी डालने वाले बाकी तीन संग्रहालय बस्तर के जगदलपुर, विशाखापटनम के अराकू व महाराष्ट्र के पुणे में हैं। आइये इनका थोडा जायजा लिया जाये।

दर्जन भर संग्रहालयों वाले भोपाल में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय सबसे प्रमुख है। यह एशिया में मानव जीवन को लेकर बनाया गया विशालतम संग्रहालय है। इसमें भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के कालक्रम को दिखाया गया है। भोपाल की श्यामला पहाडी पर 200 एकड क्षेत्रफल में स्थापित इस संग्रहालय के दो भागों में एक भाग खुले आसमान के नीचे है तो दूसरा भव्य भवन में। मुक्ताकाश प्रदर्शनी में भारत की विविधता को दर्शाया गया है। इसमें हिमालयी, तटीय, रेगिस्तानी व जनजातीय निवास के अनुसार वर्गीकृत कर प्रदर्शित किया गया है। इसमें मध्य भारत की जनजातीयों को भी पर्याप्त स्थान मिला है जिनके अनूठे रहन-सहन को यहां पर देखा जा सकता है। इस परिसर के खुले आकाश के नीचे आदिवासियों के आवास हैं, जहां पर उनके बर्तन, रसोई, कामकाज के उपकरण, अन्न भण्डार हैं। परिवेश को हस्तशिल्प, देवी देवताओं की मूर्तियों, स्मृति चिन्हों से सजाया गया है। बस्तर दशहरे का रथ भी यहां दिख जाता है जो आदिवासियों और वहां के राजपरिवार की परम्परा का एक हिस्सा है। नमूनों के खुले में वास्तविक रूप में प्रदर्शित करने की बात आसानी से समझी जा सकती है।

भीतरी संग्रहालय भवन काफी विशाल है जिसका स्थापत्य अनूठा है। यह संग्रहालय ढालदार भूमि पर 10 हजार वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में बना है। देश के विभिन्न भागों से जुटाए गये साक्ष्यों को भी यहां रखा गया है। इस संग्रहालय में विभिन्न समाजों के जनजीवन की बहुरंगी झलक देखने को मिलती है। इसमें अलग-अलग क्षेत्रों के परिधान व साजसज्जा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पारंपरिक कला, हस्तशिल्प, शिकार, मछली मारने के उपकरण, कृषि उपकरण, औजार व तकनीकी, पशुपालन, कताई व बुनाई के उपकरण, मनोरंजन, उनकी कला से जुडे नमूनों को रखा गया है। पहले यह संग्रहालय 1977 में नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में खोला गया था किंतु दिल्ली में पर्याप्त जमीन व स्थान के अभाव में इसे भोपाल में बनाया गया। चूंकि प्रस्ताव श्यामला पहाडी के ऐसे भाग में स्थापित करने का था जहां पहले से ही प्रागैतिहासिक काल की कुछ प्रस्तर पर बनी कलाकृतियां थीं तो अंतिम रूप से इसे वहां बनाने का निर्णय लिया गया।

भोपाल में राज्य आदिवासी संग्रहालय भी है। यह भी श्यामला पहाडी पर है और आदिम जाति अनुसंधान केंद्र के परिसर में है। इस संस्थान की स्थापना 1954 में छिंदवाडा में कर दी गई थी किंतु किसी केन्द्रीय स्थान में इसकी उपयोगिता को देखते हुए 1965 में इसे छिंदवाडा से भोपाल स्थानांतरित कर दिया गया। छत्तीसगढ राज्य के गठन से पूर्व में इसमें वहां की जनजातियां भी शामिल थीं किंतु राज्य बनने के बाद इस संग्रहालय का क्षेत्र कुछ कम हो गया। राज्य की तकरीबन 40 जनजातियों के आर्टिफैक्टों को यहां रखा जा रहा है जिनमें सहरिया, भील, गोंड, भरिया, कोरकू, प्रधान, मवासी, बैगा, पनिगा, खैरवार, कोल, पाव, भिलाला, बारेला, पटेलिया, डामोर आदि शामिल है।

यदि आप पातालकोट जा रहे हों तो छिंदवाडा के आदिवासी संग्रहालय को देखना न भूलें जो जनजातीय संग्रहालयों में सबसे पुराना है। इसमें अविभाजित मध्य प्रदेश की 46 जनजातियों की जीवन शैली, सांस्कृतिक धरोहर, प्रतीक चिन्हों और कला शिल्प को प्रदर्शित किया गया है।

अब चलते हैं छत्तीसगढ राज्य के ठेठ आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर, जिसका केन्द्र जगदलपुर में है- क्षेत्रीय मानवविज्ञान संग्रहालय। चित्रकोट रोड पर धर्मपुरा के समीप इस संग्रहालय में बस्तर ही नहीं अपितु आसपास के राज्यों के जनजातीय जनजीवन का साक्षात्कार किया जा सकता है। यह संग्रहालय 1972 में अस्तित्व में आया। इसकी स्थापना से पूर्व यहां पर भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण का क्षेत्रीय केंद्र खोला गया जिसके अधीन संग्रहालय को स्थापित करने की योजना बनी। इस संग्रहालय का क्षेत्र निर्धारण करने के बाद यहां बसी जनजातियों को चिन्हित करने में अधिक समय लगा। जनजातियों के रहन-सहन से जुडी सामग्रियों के नमूनों को इकट्ठा करने का चुनौतीपूर्ण कार्य पांच साल तक चला और तब जाकर इसे 1977 में जनता को समर्पित किया गया।

चार एकड भूमि पर फैले इस संग्रहालय में उडीसा के जनजातीय बहुल जिलों कोरापुट व मलकानगिरी व महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले तक की जनजातियां भी शामिल हैं। यहां अबूझमाडिया, हल्बी, बाइसन हार्न माडिया, भुरिया, भरता देउरला, गडवा, घ्रुवा सहित अनेकानेक जनजातियों की सामग्रियों को एक साथ दिखाया गया है। एल्विन के बस्तर की जनजातियों पर शोध को देखते हुए इस ब्रिटिश मिशनरी के नाम से छत्तीसगढ पर्यटन विकास निगम सुप्रसिद्ध चित्रकोट प्रपात के समीप 2 करोड की लागत से अलग से आदिवासी संग्रहालय बनाने जा रहा है जिसमें एल्विन द्वारा संग्रहीत उन साक्ष्यों को रखने की भी योजना है जो देश में इधर-उधर बिखरे हैं।

अराकू और पुणे के संग्रहालय:

आंध्र प्रदेश के प्रमुख हिल स्टेशन अराकू का जनजातीय संग्रहालय पर्यटन महत्व का है। यह संग्रहालय हालांकि बहुत बडा तो नहीं है, प्रवेश की कम सरकारी औपचारिकताओं के कारण व सुगन स्थान पर होने से यहां पर पर्यटन सीजन के दिनों में दिन भर मेला सा लगा रहता है। इसकी खासियत इसकी आसान पहुंच, आसान प्रवेश नियम, अनूठा डिजाइन तो है ही साथ में इसमें आदिवासी जनजीवन की झलक का प्रस्तुतिकरण भी बेहद प्रभावी है। इससे समझ में पूरी बात आ जाती है। गोलाकार संरचना लिये यह संग्रहालय दो मंजिल का है। इसमें राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्र के जनजीवन को दर्शाया गया है।

उधर महाराष्ट्र में भी लगभग 72 लाख की आबादी जनजातीय श्रेणी में आती है। जनजातीय जनसंख्या के हिसाब से महाराष्ट्र देश में तीसरा स्थान रखता है। राज्य के आदिवासियों पर केंद्रित जनजातीय संस्कृति संग्रहालय पुणे में स्थापित है। हालांकि अभी यह एक पुराने भवन पर चल रहा है। इसका संचालन जनजातीय शोध व प्रशिक्षण संस्थान महाराष्ट के अधीन है। पुणे के इस संग्रहालय में लगभग ढाई हजार के आर्टीफैक्टों को संग्रहीत किया गया है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन संग्रहालयों के समय रहते बनने से काफी कुछ साक्ष्य बचे रह गये जोकि हमें कल्पनालोक से हटकर उस वास्तविकता को करीब से देखने का एक मंच प्रदान करते हैं जिसके बारे में आमतौर पर हम केवल सुनते-पढते रहे हैं।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 24 फरवरी 2008 को प्रकाशित हुआ था।



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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके यात्रा वर्णन दिलचस्प हैं |मुझे यात्रा साहित्य में बहुत रूचि रही है | कभी कभी थोड़ा बहुत घूम भी लेता हूँ | पर यात्रा के लिए एक हमख्याल हमसफ़र की जरुरत महसूस होती है जो कभी नहीं मिला | एक बार आपके साथ जाना चाहूँगा अगर आप भी चाहेगें |
    अमरनाथ मधुर
    मो0 न०9457266975

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