यात्रा वृत्तान्त: पल्लवी शर्मा
अक्षय तृतीया का दिन उत्तरकाशी के लिये विशेष महत्व रखता है। इस तिथि को प्रत्येक वर्ष उत्तराखण्ड के चार में से दो धाम गंगोत्री और यमुनोत्री के पट यात्रियों के लिये खुल जाते हैं। इसी के साथ चारधाम यात्रा का शुभारम्भ हो जाता है। अक्षय तृतीया को गंगाजी डोली में सवार होकर अपने शीतकाल के निवास मुखीमठ से गंगोत्री स्थित गंगा मन्दिर पहुंचकर वहां अपना ग्रीष्मकालीन निवास स्थापित कर लेती हैं।
मुखीमठ को आम भाषा में लोग मुखबा के नाम से जानते हैं। ऐसी मान्यता है कि मुखबा गंगाजी का मायका है जहां वह साल के छह माह रहती हैं। अक्षय तृतीया से एक दिन पहले गंगाजी की डोली मुखबा से गंगोत्री के लिये प्रस्थान करती है। हमारे एक मित्र का परिवार मुखबा में रहता है, वह हमें डोली यात्रा में भाग लेने का निमन्त्रण दे गये थे। हमने तुरन्त उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और यात्रा से एक दिन पूर्व संध्या के समय मुखबा पहुंच गये। मुखबा अत्यंत ही सुन्दर गांव है। यहा अधिकतर भवन लकडी से निर्मित हैं। यह क्षेत्र अपनी काष्ठ कला के लिये प्रसिद्ध है जिसके उत्कृष्ट नमूने मुखबा के भवनों पर स्थित हैं। भवनों पर की गई नक्काशी देखने लायक है। हम गांव को देखकर ही खुश हो गये और बेसब्री से सुबह के जलसे का इंतजार करने लगे। सुबह से ही गांव में हलचल शुरू हो गई। सूर्योदय से पहले ही ढोल बजने लगे और उनकी थाप से सारा गांव जाग गया। गंगोत्री के पण्डे जिन्हें रावत कहते हैं, सभी मुखबा के ही मूल निवासी हैं। गंगाजी की डोली वे ही सजाते हैं। सुबह से ही आसपास के गांवों से लोगों का तांता लग गया था, सभी गंगाजी को विदा करने आये थे। गांव के सब लोग सुबह ही नहा धोकर मन्दिर में दर्शन के लिये पहुंच गये। मन्दिर के बाहर भीड लग गई थी, हम भी इसी भीड में शामिल हो गये।
पहाडों की परम्परा के अनुसार बेटी की विदा के समय गांव में सभी कुछ न कुछ भेंट करते हैं। आज गंगाजी की विदाई के समय भी सभी गांव के लोग यथासम्भव अनाज का दान मन्दिर में चढा रहे थे। प्रत्येक वर्ष वे अपनी इस दिव्य पुत्री को पूरे सम्मान के साथ उसकी ससुराल गंगोत्री विदा करते हैं। दिन चढते-चढते मन्दिर के प्रांगण में खूब भीड लग गई।
सबसे पहले गांव के ग्राम देवता- सोमेश्वर की डोली आई और उसे मन्दिर के सामने एक चबूतरे पर रख दिया गया, फिर उसकी पूजा अर्चना की गई और सबने उनका आशीर्वाद लिया। इतने में सेना का बैंड आ गया। सेना के जवान भी देवी को विदा करने आते हैं और उनके बैंड की धुनों के साथ ही डोली गंगोत्री के लिये रवाना होती है। हम सभी मन्दिर की सीढियों पर बैठकर डोली को सजते देखने लगे। लकडी से बनी डोली को लाल वस्त्रों, फूल और पत्तियों से सजाने के बाद उसमें गंगाजी और सरस्वती जी की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। फिर उसे लाल वस्त्र से ढककर उस पर चांदी की पेटी बांधी जाती है। डोली को चांदी के छत्रों, फूलों और गंगा तुलसी से सजाया जाता है। अभी डोली को सजा ही रहे थे कि इतने में धराली गांव से भी एक देवता की डोली आ गई। अब गंगाजी का लश्कर तैयार था। हम सब उत्सुकता से गंगाजी के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। हमें अधिक इंतजार नहीं करना पडा। शीघ्र ही मंत्रोच्चार प्रारम्भ हो गया और पंडों के कंधों पर सवार होकर गंगाजी की डोली मन्दिर से बाहर आ गई। हम सभी डोली से आशीर्वाद लेने के लिये आगे बढे। फूल और गंगा तुलसी चढाकर हमने भी अन्य सभी के साथ डोली का स्वागत किया।
दोनों स्थानीय देवताओं ने गंगा डोली का स्वागत किया और सेना के बैंड ने संगीत से देवी का अभिनंदन किया। सबसे आगे सेना का बैंड चला, उसके बाद सोमेश्वर की डोली, फिर गंगाजी की डोली और फिर धराली से आई डोली थी। डोलियों के पीछे गंगोत्री के रावल और उनके पीछे श्रद्धालु जनों की भीड थी। जै गंगा मैया की- के उदघोष के साथ ही जुलूस मुखबा से रवाना हुआ। गांव की महिलाएं और बच्चे, सभी जन अपनी देवी को विदा करने उमड पडे। बैंड की धुन और ढोल की थापों के साथ डोली मुखबा से अपने पहले पडाव मार्कण्डेय की ओर बढी। मार्कण्डेय मुखबा से दो किलोमीटर दूर भागीरथी के किनारे पर स्थित प्राचीन मन्दिर है। यहां डोली को रखकर मन्दिर में पूजा अर्चना की जाती है और आसपास के गांवों के लोग आकर गंगाजी के दर्शन करते हैं।
यहां से डोली फिर झाला के लिये रवाना हुई। यहां से पुल पार करने के बाद हम गंगोत्री राजमार्ग पर आ गये। रास्ते में जगह जगह रोक कर लोग प्रसाद बांट रहे थे और डोली का स्वागत शंखध्वनि से कर रहे थे। मन्दिर के पट खुलने के अवसर पर वहां रहने वाले साधु-सन्यासी भी अपनी कुटियों में लौट आये थे और सभी देवी की डोली का स्वागत करने रास्ते पर खडे थे। चारों ओर से- जै गंगा मैया की- और शंखों की आवाज आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे सारी भागीरथी घाटी देवी को नमन कर रही हो।
हमारा अगला पडाव कोपांग था जहां सेना का कैम्प और मन्दिर है। सेना के जवानों ने डोली के साथ आये भक्तों के लिये भण्डारे का प्रबन्ध किया था। पूरी सब्जी और मिठाई का भोजन करने के बाद हम आगे बढे। यहां से हमने डोली का साथ छोड दिया और गाडी से डोली के रात्रि विश्राम स्थल भैरोंघाटी पहुंच गये। यहां पर बडी रौनक थी। जगह-जगह पर अलाव जल रहे थे और भण्डारे की तैयारी चल रही थी। हम सभी यहां पर रुककर डोली के आने की प्रतीक्षा करने लगे। शीघ्र ही बैंड, ढोल आदि की आवाज आने लगी और डोली भैरों घाटी पहुंच गई। डोली को रात के लिये मन्दिर के अन्दर रख दिया गया। संध्या आरती की गई और प्रसाद बांटा गया। सबने चाय पी और नाश्ता किया, इसके बाद रात में सोने का प्रबन्ध किया जाने लगा।
भैरोंघाटी में भैंरोजी के मन्दिर और एक गढवाल मण्डल विकास निगम के होटल के अलावा रहने का कोई स्थान नहीं है। होटल अभी बन्द था और मन्दिर में रहने की जगह भी सीमित थी इसलिये अधिकतर लोग डोली को रात के लिये भैरोंघाटी छोड कर गंगोत्री चल दिये। हमने भी गंगोत्री में रात बिताना ठीक समझा। हम वहां से गंगोत्री के लिये रवाना हो गये। गंगोत्री पहुंचने पर देखा कि एक या दो स्थान छोड कर सभी कुछ बन्द था। लोग आने वाले कल की तैयारियों में लगे थे और मन्दिर के खुलने के साथ शुरू होने वाली चारधाम यात्रा का इंतजार कर रहे थे। उस रात हमें बिडला धर्मशाला में रहने की जगह मिली। खाने के लिये कहीं कोई प्रबंध नहीं था, हम ईशावास्यम आश्रम पहुंचे और वहां स्वामी जी की अनुकम्पा से हमें भोजन नसीब हुआ। रात में बहुत ठण्ड थी, हमारे पास गर्म बिस्तर थे इसलिये हमारी रात आराम से कटी। हम अपने गर्म बिस्तरों में बैठकर डोली के साथ मन्दिर में रुके लोगों के विषय में सोच रहे थे कि वे कैसे इतनी ठण्ड में सो रहे होंगे। आस्था हो तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है। ठण्ड, गर्मी या बरसात सभी सहने की शक्ति आ जाती है।
सुबह उठने पर बाहर निकलकर देखा कि कई जगह अभी तक बर्फ थी। धर्मशाला के पीछे भी करीब दो फुट बर्फ जमी थी। हम नहा-धोकर जल्दी से मन्दिर के अहाते में पहुंच गये। दिन चढने के साथ ही गंगोत्री में भीड बढने लगी। यात्री मन्दिर के पट खुलते देखने के लिये एकत्रित हो रहे थे। दस बजे तक गाडियों की कतारें लग गई थीं। सभी डोली के भैरोंघाटी से आने की बाट देख रहे थे। आखिर साढे दस बजे डोली आ ही गई। बैंड की धुन और ढोल की थापों ने देवी के अपनी ससुराल और ग्रीष्मकालीन निवास गंगोत्री में आगमन का सन्देश दिया। सभी डोली देखने के लिये उमड पडे। डोली को लाकर मन्दिर के बरामदे में रख दिया गया। पट मुहूर्त के अनुसार खोले जाते हैं, मुहूर्त में अभी कुछ समय शेष था इसलिये डोली को बाहर ही रखा गया था। सभी जाकर देवी के दर्शन कर रहे थे और उनका आशीर्वाद ले रहे थे। समय बीतने के साथ ही भीड भी बढती जा रही थी।
हम सभी मन्दिर में ही बैठकर भीड को देख रहे थे। कहीं टीवी वाले थे तो कहीं अखबारवाले, विदेशी भी काफी संख्या में उपस्थित थे। हमारे पास बैठे कुछ लोग तो हिमाचल से पैदल पहाड पार करके आये थे। इतने में ढोल नगाडों की आवाज आई और साथ ही एक देवता की डोली और उसके साथ एक बस भरकर लोग थे। वे पास के किसी गांव से आये थे और अपने देवता को देवी के दर्शन कराने लाये थे। मुहूर्त का समय आ ही गया। मन्दिर समिति के कार्यालय में हलचल देखकर हम मन्दिर के सामने आकर बैठ गये। ढोल-नगाडों-तुरही की आवाज और मंत्रोच्चार के साथ ही मन्दिर के पट खुले। सभी ने अखण्ड ज्योति के दर्शन किये। साथ ही देवी की प्रतिमा को पूरे सम्मान के साथ मन्दिर के गर्भगृह में स्थापित कर दिया गया। देवी आखिर अपने ससुराल पहुंच गईं। उनके ससुराल पहुंचने के साथ ही एक और यात्रा सीजन का आरम्भ हुआ। अगले छह माह तक देवी अपने प्रताप से गंगोत्री में रौनक बनाये रखेंगी। हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन उनके दर्शन के लिये भारत ही नहीं, बल्कि संसार के कोने-कोने से आकर उनके चरणों से आशीर्वाद लेकर जायेंगे। हम भी उनका आशीर्वाद लेकर वापस अपने घर लौट गये। हमारी यात्रा पूरी हो गई थी।
खास बातें
1. चारधाम यात्रा अक्षय तृतीया से शुरू होती है। हालांकि बद्रीनाथ व केदारनाथ के कपाट बाद में खुलते हैं।
2. गंगोत्री समुद्र तल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां का मौसम खासा ठण्डा रहता है। जाते समय कपडे उसी हिसाब से लेकर जायें।
3. गंगोत्री मन्दिर के पट सवेरे 6.15 बजे से दोपहर 2 बजे तक और फिर दोपहर 3 बजे से रात साढे नौ बजे तक खुलते हैं। मंगला आरती सवेरे छह बजे होती है लेकिन उस समय पट बन्द रहते हैं। संध्या आरती शाम 7.45 बजे और ठण्ड बढने पर सात बजे होती है।
4. गंगोत्री जाने के लिये सबसे निकट का हवाई अड्डा जौली ग्रांट (ऋषिकेश से 26 किलोमीटर दूर) है। ऋषिकेश (249 किलोमीटर) ही आखिरी रेल स्टेशन भी है।
5. उत्तरकाशी, टिहरी गढवाल और ऋषिकेश से गंगोत्री के लिये आसानी से बसें मिल जाती हैं।
6. ठहरने के लिये गंगोत्री में हर किस्म के इंतजाम हैं। लग्जरी होटल, बढिया होटल, सस्ते होटल, गेस्ट हाउस, धर्मशालाएं, आश्रम- सब कुछ। लेकिन यात्रा के दिनों में यहां भीड भी खासी रहती है।
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