रविवार, जुलाई 24, 2011

तिब्बती मार्केट- दिल्ली में बसा एक मिनी तिब्बत

लेख: अनिल कर्णवाल

दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय बस टर्मिनल से 1 किलोमीटर दूर वजीराबाद बांध के समीप यमुना के किनारे एक स्थान है- मजनूं का टीला। वर्तमान में वहां न तो कोई मजनूं है, न ही कोई टीला लेकिन फिर भी यह स्थान राजधानी के विख्यात स्थानों में से एक है। इस स्थान की पहचान का कारण है, यहां पर स्थित तिब्बती रिफ्यूजी कैम्प।

लगभग 350 घरों तथा 3000 की आबादी वाली इस बस्ती में सर्वत्र तिब्बती संस्कृति तथा लोकाचार के दर्शन होते हैं। छोटी छोटी तंग व संकीर्ण गलियों वाली इस बस्ती में अपनी विशिष्ट वेशभूषा में तिब्बती लोगों तथा तिब्बती शैली में बने उनके घरों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे हम तिब्बत के ही किसी छोटे से नगर में हैं।

मजनूं का टीला स्थित इस तिब्बती रिफ्यूजी कैम्प के प्रधान सवांग दोरजी के अनुसार ‘सन 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद से हजारों तिब्बतियों ने भारत में शरण ली थी। जिनमें से कुछ धर्मशाला, देहरादून, शिमला, डलहौजी, कुल्लू, मनाली आदि में बस गये तथा कुछ दिल्ली में। दिल्ली में हम लोग 1959 से ही हैं। राजधानी में हमारा सर्वप्रथम आश्रय बुद्ध विहार में था। उसके बाद केला गोदाम में हुआ तथा अब मजनूं का टीला, जहां पर हम 1965 से हैं।’

तिब्बतियों की इस बस्ती में ‘छंग’ तथा जींस, जूते, स्वेटर, शाल तथा कई अन्य सामान मिलता है। ‘छंग’ जौ द्वारा निर्मित एक बीयर जैसा पेय होता है, जिसमें एल्कोहल नहीं होता।

दिल्ली स्थित ब्यूरो ऑफ दलाई लामा, जो तिब्बत के दूतावास के समकक्ष है, के सचिव जायमल कोसांग के अनुसार, ‘तिब्बती लोग मूलतः कृषक हैं। जो कुछ कार्य वे यहां कर रहे हैं, वह उनकी मजबूरी है। आजीविका के लिये कुछ कार्य तो करना ही पडता है।’

यहां का दूसरा आकर्षण है, यहां का मार्केट जो मॉनेस्ट्री के नाम से विख्यात है। विदेशी जींस, जैकेट, जूते, स्वेटर आदि के लिये मशहूर यह मार्केट प्रतिदिन हजारों ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तिब्बत मार्केट एसोसियेशन के अध्यक्ष लोबसांग रायतेंग के अनुसार ‘हम शरणार्थी जरूर हैं पर भिखारी नहीं।’ इसी वजह से प्रत्येक तिब्बती किसी न किसी व्यवसाय से जुडा है। इस मार्केट में आज 66 पंजीकृत दुकानें हैं। हमारी वस्तुओं की विशिष्टता व उचित मूल्यों के कारण तो हम इतने ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल होते हैं। कैम्प प्रधान सवांग दोरजी के अनुसार ‘ऐसा नहीं है कि हम विदेशी सामान ही बेचते हैं। होजरी का तमाम सामान हम लुधियाना से यहां लाकर बेचते हैं। कुछ जींस, जैकेट ही विदेशी होती हैं जिन्हें नेपाल, पाकिस्तान आदि से लाकर यहां बेचा जाता है। इस प्रकार अधिकांश वस्तुएं भारतीय ही होती हैं।’

इतने समय से दिल्ली में रहने के बावजूद इन तिब्बतियों ने आज भी भाषा, संस्कृति व साहित्य को नहीं छोडा है। वर्षों के इस प्रवास के दौरान भारतीय संस्कृति का उन पर प्रभाव तो अवश्य पडा है, लेकिन वे आज भी अपनी संस्कृति को सबसे श्रेष्ठ व विशिष्ट मानते हैं। यही कारण है कि यहां के अधिकतर तिब्बतियों को उनकी परम्परागत वेशभूषा में देखा जा सकता है। शादी ब्याह के मामले में तिब्बती आज भी अपनी परम्परा में बंधे हैं। सवांग दोरजी के अनुसार ‘तिब्बती आज भी एक तिब्बती से ही शादी करना पसन्द करता है। हमारे कैम्प का यह नियम है कि अपनी जात बिरादरी से बाहर शादी नहीं होगी। साथ ही शादी से पहले लडके लडकी का मिलना जुलना पसन्द नहीं किया जाता है।’

जहां तक शिक्षा का प्रश्न है, दिल्ली में इनकी एक ऑटोनॉमस संस्था है ‘सेण्ट्रल तिब्बतियन स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन’ जिसके अंतर्गत 35 तिब्बती स्कूल चल रहे हैं। इन स्कूलों में तिब्बती बच्चों को उनकी भाषा, संस्कृति की शिक्षा के साथ साथ अन्य आवश्यक विषयों की भी शिक्षा दी जाती है।

तिब्बतियों के भारत में 10+2 स्तर के चार आवासीय स्कूल हैं जो मसूरी, दार्जीलिंग, डलहौजी तथा शिमला में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त सांची, सारनाथ तथा बनारस में विशिष्ट अध्ययन केन्द्र हैं जहां पर बहुत ही मेधावी बच्चों को पढने के लिये भेजा जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक मेधावी तिब्बती छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपना भविष्य उज्जवल बना रहे हैं।

कोसांग का मानना है ‘आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक समस्याएं दूसरी श्रेणी की समस्याएं हैं। हमारी प्रथम समस्या है राजनीतिक। जिस दिन तिब्बत की समस्या का राजनीतिक हल निकल जायेगा उस दिन हमारी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक समस्याएं अपने आप समाप्त हो जायेंगी।’



सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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