गुरुवार, जुलाई 21, 2011

नारकंडा: अंग्रेजों के जमाने का एक पर्यटन स्थल

यात्रा वृत्तान्त: श्यामल कुमार

संदीप पंवार के सौजन्य से

देवदार और चीड के लम्बे वृक्ष, पूर्णिमा के चांद की रोशनी में धवल कैलाश श्रंखलाएं, चारों ओर फैली सफेद बर्फ और गहरी घाटियां- गाइड के इन शब्दों से मेरे सामने प्राकृतिक सौन्दर्य की अदभुत सम्पदा से भरी पूरी स्थली नारकंडा का दृश्य साकार हो उठा। नारकंडा हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से कुछ दूरी पर स्थित एक छोटी सी जगह है। बरसों से पर्यटकों के लिये कुछ गिने चुने पर्यटक स्थल हैं जैसे शिमला, ऊटी, श्रीनगर, दार्जीलिंग वगैरह वगैरह। टूरिस्ट सीजन में इन जगहों पर इतनी भीड हो जाती है कि यहां खूबसूरती भी दब सी जाती है।

शिमला से नारकंडा का सफर करीब ढाई तीन घण्टे का है। शाम के कोई सात-साढे सात बजे मैं नारकंडा पहुंचा। बस से उतरते ही ठण्डी हवा के जबरदस्त झौंके से पूरे शरीर में सिहरन सी दौड गई। सामने बर्फ से ढकी हिमालय की कैलाश श्रंखलाएं, मनमुग्धा चांदनी और घाटी में मोतियों जैसे चमकते घर- इस दृश्य को पन्द्रह मिनट निहारने के बाद रहने की व्यवस्था के बारे में मालूम किया। ऊपर छोटी सी चट्टान पर छोटा सा कमरा मिल गया। यहां रहने के लिये छोटे होटल और गेस्ट हाउस भी हैं।

अगली सुबह चिडियों के चहचहाने के साथ मेरी नींद जिस करवट टूटी, वहां खिडकी से दिखने वाला दृश्य ही मेरी उस अद्वितीय सुबह का प्रारम्भ था। हल्के लाल आकाश के नीचे कोहरे के कारण न केवल कैलाश पर्वत बल्कि गहरी घाटियां भी नहीं दिखाई पड रही थीं। अहिस्ता-अहिस्ता आकाश में फैलता प्रकाश, उस प्रकाश से फीका पडता कोहरा और कोहरे की मैली चादर को चीरती पर्वत श्रंखलाएं दिखाई पडने लगीं। कैमरा निकाल मैं आसपास के दृश्यों को छायांकित करने लगा। कुछ समय एक ग्रामीण मेरे समीप आया। वह उन दृश्यों को कम तथा मेरी प्रतिक्रियाओं को ज्यादा देख रहा था। जाहिर है, वह स्थानीय था। बातों बातों में मैंने उससे नारकंडा के इतिहास के बारे में पूछा।

उसने बताना शुरू किया कि इस स्थान का नाम नारकंडा कैसे पडा। बस स्टैण्ड के पास ही एक छोटी सी चट्टान है। मान्यता है कि इस पर कभी नाग देवता का वास हुआ करता था। लोगों ने वहां एक छोटा सा मन्दिर बनवा दिया। कंडा का मतलब है कोई छोटी ढलानदार पहाडी। बस तभी से इसका नाम नारकंडा पड गया। कहा जाता है कि यह कस्बा पठानों के आक्रमण के बाद बसना शुरू हुआ। मुहम्मद गौरी ने जब भारत पर आक्रमण किया तो बिहार और उत्तर प्रदेश के गरीब तबके के लोगों ने भागकर इन जगहों पर शरण ली और इसे सुरक्षित स्थान मानकर यहां के निवासी बन गये। 1803 में गोरखा आक्रमण पर यही लोग ढाल बनकर खडे हो गये और गोरखाओं को पीछे हटना पडा। आजादी से पहले जब पूरे हिमालय में शिमला के अतिरिक्त कहीं और यात्रियों के रहने का स्थान नहीं था तब अंग्रेजों ने नारकंडा को भी पर्यटन स्थल बना रखा था। उन्होंने यहां एक रेस्ट हाउस बना रखा था। उसमें लगभग 8-10 कमरे रहे होंगे जिनका आरक्षण सालों पहले हो जाया करता था। कमरे न मिलने पर भी अंग्रेज यहां आते और तम्बू लगाकर छुट्टियां व्यतीत करते थे। उस समय अच्छे गाइड भी हुआ करते थे जो पूरे हिमालय के बारे में जानकारी देते थे। वे लोग अच्छे महाराज भी हुआ करते थे। अंग्रेज उनकी सेवाओं से हमेशा प्रसन्न रहते थे।

लगभग 1956 तक अंग्रेज वापस जा चुके थे। उनके बाद न तो नारकंडा की सुविधाओं पर गौर किया गया और न गाइडों को कोई प्रोत्साहन मिला। कोई दो साल पहले तक यहां हिमाचल पर्यटन विभाग के छह कमरों के अलावा और कोई ठहरने का स्थान नहीं था। शिमला से सूचना भेजने पर यात्रियों को मालूम पडता था कि वहां सभी कमरे पहले ही बुक हैं। इस कारण भी लोग वहां नहीं पहुंच पाते थे। यहां आसपास तक किसी शौचालय आदि की व्यवस्था नहीं थी। आज भी नारकंडा उपेक्षा का शिकार है।

नारकंडा के आसपास के क्षेत्र में भी प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अपनी-अपनी अलग-अलग विशेषता लिये हुए है। थानाधार एक ऐसी ही जगह है। यहां अमेरिका से आये सत्यानन्द स्टोक्स (जिनका वास्तविक नाम सेमोएल स्टोक्स था) नामक पादरी रहते हैं। उन्होंने एक भारतीय हरिजन लडकी से विवाह करके हिन्दु धर्म ग्रहण किया और अपना नाम सत्यानन्द स्टोक्स रखा। उन्होंने थानाधार की ऊपरी पहाडी पर एक सुन्दर मन्दिर बनवाया, जिस पर गीता के उपदेश लकडी की नक्काशी करके खुदवाये गये। यह मन्दिर उस समय की काष्ठकला का अद्वितीय नमूना है।

अमेरिका से लाया गया सेब का पौधा भी स्टोक्स ने सबसे पहले थानाधार में ही लगाया। थानाधार में कोटगढ नामक स्थान पर सेब के बगीचे अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इन क्षेत्रों को एप्पल बेल्ट भी कहा जाता है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी कोटगढ का नाम पहले नम्बर पर आता है।

नारकंडा बस अड्डे से लगभग आठ किलोमीटर तथा 2500 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटा मन्दिर है- हाटू। बिल्कुल चोटी पर होने के कारण इसे हाटू पीक कहते हैं। सैंकडों वर्ष पुराना यह मन्दिर मां काली का है। यहां से कैलाश पर्वत श्रंखलाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। इतनी ऊंचाई पर होने के कारण यहां कोई रहता तो नहीं है, परन्तु यहां बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, राजस्थान और गुजरात के लोग आज भी श्रद्धा से आते हैं। इतना दुर्गम रास्ता होने पर भी यहां सैंकडों लोग पहुंच जाते हैं। इस मन्दिर में बिजली की सुविधाएं होने पर भी श्रद्धालुओं ने सोलर सिस्टम से यहां प्रकाश की व्यवस्था की है।

नारकंडा से सीधा रास्ता तिब्बत बॉर्डर को जाता है। इस साफ-सुथरे मार्ग के दोनों ओर देवदार और चीड के लम्बे लम्बे वृक्ष हैं और इन वृक्षों से खूबसूरत बेलें लिपटी हुई हैं। इस शान्त मार्ग पर वाहन आदि पेट्रोल के धुएं से इन बेकसूर बेजुबान वृक्षों को विषपान कराते हुए चले जाते हैं। दिसम्बर, जनवरी में जब इस मार्ग पर बर्फ पड जाती है तो एक अन्य मार्ग काम में लिया जाता है।

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