शुक्रवार, जुलाई 22, 2011

शिमला- जो कभी एक निर्जन गांव था

लेख: गुरमीत बेदी

संदीप पंवार के सौजन्य से

रोजमर्रा के तनावों से जब कोई उकता जाता है तो ऐसे में बडी शिद्दत से यह चाह होती है कि काश पंख लग जायें और किसी ऐसी जगह उड चलें जहां तनाव शब्द का अस्तित्व न हो और मानसिक सुकून इस हद तक मिले कि मन मस्तिष्क नई चेतना, नई उमंग, नई स्फूर्ति से सराबोर हो उठे। पंख उगने की कल्पना करना तो खुली आंखों से ख्वाब देखने की तरह होगा, लेकिन ताजादम होने के लिये पहाडों का मौन निमन्त्रण अवश्य स्वीकार किया जा सकता है।

पहाडों के आगोश में कई ऐसे रमणीय स्थल हैं, जहां एकबारगी पहुंचने पर लौटने को कतई जी नहीं करता। रोजमर्रा के कामों की थकान जहां की आबोहवा का स्पर्श पाते ही पलभर में छूमंतर हो जाती है, ऐसा ही एक पर्वतीय स्थल है- शिमला। देवदार, ओक, फर व बुरांश के विशालकाय दरख्तों के आवरण में लिपटा शिमला अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी रहा है और बहुचर्चित ‘शिमला समझौते’ की वजह से अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर भी अंकित है। यही नहीं, इसे ‘पहाडों की रानी’ और ‘पहाडों का दिल’ कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। हिमाचल के एक लोकगीत की पंक्तियां हैं- ‘म्हारे पहाडा रा दिल शिमला’ तो यहां एकबारगी आया सैलानी वर्षों तक गुनगुनाता रहता है।

शिमला के उदभव की दास्तान भी कम रोचक नहीं है और इस पर्वतीय नगर ने कई उतार-चढाव देखे हैं। कहा जाता है कि स्थल की खोज अठारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। राजा बिंदुसार की विधवा मानसिक सुकून पाने के लिये कोई एकान्त स्थल खोजती सर्वप्रथम यहां पहुंची थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार शिमला की सर्वप्रथम खोज एक अंग्रेज अधिकारी ने की थी जो सन 1816 में सपाटू से कोटगढ के लिये बरास्ता शिमला से होकर गुजरा था। कुछ अन्य इतिहासकार शिमला की खोज का श्रेय उन जिराल्ड बन्धुओं को देते हैं जो सन 1817 में शिमला-जाखू मार्ग से सतलुज घाटी के भू-गर्भ सम्बन्धी सर्वेक्षण के लिये किन्नौर गये थे। इन दोनों बन्धुओं में से एक एलेक्जेण्डर जिराल्ड ने 30 अगस्त 1817 को अपनी डायरी में लिखा था- ‘हम रात को जाखू टिब्बे के इस ओर रहे। यहां एक फकीर राहगीरों को पानी पिलाता है। यह फकीर तेजस्वी है। वह अपने जिस्म पर मात्र चीते की खाल ओढे रखता है और इस निर्जन, भयावह व घने जंगल में रहने वाला एकमात्र मनुष्य है...’ इस डायरी का वर्णन ‘शिमला पास्ट एण्ड प्रजेण्ट’ में मिलता है।

वर्तमान स्वरूप में आने से पूर्व शिमला एक निर्जन सा गांव था जिसे ‘श्यामला’ के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि श्यामला नाम भी इसलिये पडा क्योंकि यहां जिस फकीर का बसेरा था, वह घर नीले रंग की स्लेटों से निर्मित था। फिर श्यामला से अपभ्रंश होकर इसका नाम ‘शुमलाह’ पडा जो एक अरसे तक ‘शिमलाह’ रहने के बाद फिर ‘शिमला’ हो गया। इस नगर को सजाने-संवारने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। अंग्रेजों को यहां पर काबिज होने से पूर्व नेपाली आक्रमणकारी गोरखाओं से भी जूझना पडा। सर एडवर्ड बक के अनुसार 1819 में सहायक राजनैतिक अधिकारी लेफ्टि. रौस ने सबसे पहले शिमला में लकडी और घासफूस से निर्मित झौंपडी बनाई व उसमें रहने लगे। रौस के बाद मेजर कैनेडी इस क्षेत्र के राजनैतिक अधिकारी हुए। उन्होंने सर्वप्रथम 1822 में यहां लकडी और पत्थर से निर्मित पहला पक्का मकान बनाया, जिसे ‘कैनेडी हाउस’ के नाम से जाना गया। इस इमारत का सर्वप्रथम चित्र 1825 में बनाया गया था, जो 1833 में ‘व्यू ऑफ इण्डिया फ्रोम कलकत्ता टू हिमालय’ में सर्वप्रथम हुआ। 1976 में कैनेडी हाउस की इमारत आग की भेंट चढ गई और इस इमारत की जो एनेक्सी बची थी, वह भी कुछ समय पूर्व एक आग्निकाण्ड में खाक हो गई।

कैनेडी हाउस बनने के बाद कई अंग्रेज अधिकारी यहां के सम्मोहन में बंध गये और मकान बनाकर यही बस गये। उन दिनों यह क्षेत्र पटियाला और क्योंथल राज्यों के सीमा क्षेत्र में था और बसने से पूर्व इन राजाओं की अनुमति हासिल करनी पडती थी, जो कि कहा जाता है सिर्फ दो शर्तें मानने पर ही मिल जाती थी। ये शर्तें थीं- यहां न तो कोई गौ-वध करेगा और न ही अपनी मर्जी से पेडों का कटान। सन 1830 में जब मेजर कैनेडी को सरकार ने पटियाला और क्योंथल के राजाओं से शिमला के आसपास के क्षेत्र प्राप्त करने के लिये कहा तो शिमला के दिन फिरने लगे। क्योंथल के राजा ने अंग्रेज सरकार को ग्यारह गांव देकर बदले में रावीगढ का परगना हासिल किया, जबकि चार गांवों के एवज में तीन गांव हासिल किये। फिर तो शिमला दिनोंदिन प्रगति करता गया और देश-विदेश में इस स्थल की ख्याति फैलने लगी।

पहले जब शिमला में आवाजाही के साधन नहीं थे तो सामान ढोने का काम खच्चरों द्वारा किया जाता था। स्त्रियों, वृद्धों, मरीजों व बच्चों के लिये ‘झम्पाण’ की सवारी होती थी। झम्पाण कुर्सीनुमा एक आसन होता है, जिसे दो डण्डों के सहारे चार व्यक्ति उठाते थे। फिर जब 1870 के आसपास कालका-शिमला मार्ग का निर्माण हुआ तो झम्पाण का स्थान बैलगाडी, इक्के और तांगे ने ले लिया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में कालका-शिमला रेलमार्ग का निर्माण हुआ और 9 नवम्बर 1903 को पहली रेलगाडी शिमला की हसीन वादियों में पहुंची। इस रेलमार्ग को पूरा करने का श्रेय मि. एच. एस. हेरिंगटन को जाता है। अंग्रेजों के समय में ही यहां कई सुरंगों का निर्माण हुआ जो दुर्गम पहाडी क्षेत्रों को आपस में जोडने में बडी कारगर साबित हुई। इन सुरंगों का वजूद न केवल आज भी कायम है, बल्कि कई सैलानी तो शिमला को ‘सुरंगों की नगरी’ का खिताब भी दे देते हैं।

शिमला और इसके आसपास देखने के लिये बेशुमार स्थल हैं। बस पैरों में दमखम चाहिये, ऊंचे-नीचे स्थलों पर चढने-उतरने का। शिमला में ठहरने के लिये सैलानी को कोई दिक्कत भी नहीं होती। आधुनिक वैभवपूर्ण होटलों से लेकर यहां कई सस्ते होटल व सराय भी हैं। पर्यटन विभाग के खूबसूरत होटल ‘होलीडे होम’ के अलावा विभाग द्वारा मंजूरशुदा पचास से अधिक मेहमानगृह भी हैं। शिमला के रमणीय स्थलों में रिज, जाखू, वाइल्ड फ्लावर, कुफरी, मशोबरा, चायल, नालदेहरा व क्रैगनैनों का नाम लिया जाता है।

‘रिज’ में तो मानों शहर का दिल धडकता है। शाम के समय तो यहां सैलानियों व शहरियों की इतनी रेल-पेल होती है गोया यूं लगता है मानों कोई उत्सव हो रहा है। हर कोई यहां तफरीह मारने को बेचैन रहता है। गर्मियों में जहां आधी-आधी रात तक रिज पर चहल-पहल रहती है, वही सर्दियों में जब कडकती ठण्ड में दांत तक बज रहे हों, लोग रिज पर जमी बर्फ की चादर पर चहलकदमी करने से नहीं चूकते। रिज पर घुडसवारी का भी निराला ही लुत्फ है। बच्चों, महिलाओं से लेकर बुजुर्ग तक घुडसवारी का आनन्द लेते देखे जा सकते हैं। पास ही स्थित दौलतपुर पार्क में हिमाचली वेशभूषा में तस्वीर उतरवा कर आप हमेशा के लिये शिमला की स्मृतियों को सहेज सकते हैं। रिज का ही एक अन्य आकर्षण है, यहां का ऐतिहासिक गिरजाघर जो मात्र एक प्रार्थनालय ही नहीं अपितु कलाकृति का भी बेमिसाल नमूना है।

रिज से दो किलोमीटर दूर जाखू पहाडी है। यहां पहुंचने के लिये खडी चढाई चढनी पदती है। पहाडी की चोटी पर हनुमानजी का मन्दिर है। अगर यहां बन्दर आपको चैन से बैठने दें तो आप घण्टों शिमला का अनुपम सौन्दर्य निहार सकते हैं। वैसे बन्दरों को चले खिलाकर आप उन्हें ‘वश’ में कर सकते हैं। जाखू की पहाडी से सूर्यास्त का नजारा भी बडा विहंगम लगता है।

शिमला से 23 किलोमीटर दूर नालदेहरा विश्व के सबसे ऊंचे गोल्फ मैदान के लिये प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि एक बार लार्ड कर्जन इस स्थल के प्राकृतिक सौन्दर्य से इतने अभिभूत हो उठे थे कि उन्होंने अपनी बेटी नालदेहरा अलेक्जेण्डर के नाम पर इस स्थान का नाम ही नालदेहरा रख दिया था। यही नहीं, उन्होंने नालदेहरा को सडक मार्ग से जोड दिया था ताकि मैदानी इलाकों के लोग भी इस खूबसूरत स्थल का सौन्दर्य आत्मसात कर सकें। सैलानियों के ठहरने के लिये पर्यटन बंगले के अलावा यहां कॉटेज व लॉज हट्स भी हैं।

शिमला से सोलह किलोमीटर दूर चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा कुफरी नामक एक अन्य रमणीय स्थल है। समुद्र तल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थल को चीनी बंगला के नाम से भी जाना जाता है। चीनी बंगला वास्तव में अब एक कैफेटेरिया है, जिसके प्रांगण में दुर्लभ भोजपत्र के तीन वृक्ष लगे हुए हैं। कुफरी में लगभग डेढ किलोमीटर की परिधि में इंदिरा टूरिस्ट पार्क स्थित है, जहां एक लघु चिडियाघर बनाया गया है। बर्फ के ऊंट कहे जाने वाले पशु याक पर यहां सवारी करने का लुत्फ ही निराला है। बर्फ के खेलों के लिये भी कुफरी मशहूर है। शिमला में स्कीइंग शुरू करने का सौभाग्य भी कुफरी को ही प्राप्त है। बर्फबारी के दिनों में तो यहां स्कीइंग प्रेमियों का सैलाब सा उमड पडता है। यहां पर महासू से कुफरी बाजार तक जाती तीन किलोमीटर लम्बी स्कीइंग स्लोप पर फिसलते हुए पहला पडाव ‘कुबेर’ के पास आता है। वहां से जम्प लगाकर स्कीयर कुफरी बाजार तक फिसलता हुआ पहुंच जाता है। हेलीकॉप्टर सुविधा न होने पर स्कीयर ‘बर्फ-शू (एक प्रकार के जूते) पर लगी विशेष चपटी के बल पर फिर से बर्फीली ढलानों पर चढता हुआ मिशिखर, यानी महासू चोटी पर जा पहुंचता है और वहां से बर्फीली ढलानों पर फिसलने का रोमांच फिर से लेता है।

शिमला से 47 किलोमीटर दूर घने वृक्षों से घिरा खूबसूरत स्थल चायल है। समुद्र तल से 2150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चायल को ‘चैल’ के नाम से भी जाना जाता है। आजादी से पहले चायल पटियाला के महाराजाओं भूपेंद्र सिंह व यादवेंद्र सिंह की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी थी। इन दोनों महाराजाओं की चूंकि क्रिकेट में बेहद रुचि थी, अतः उन्होंने यहां पर एक क्रिकेट मैदान भी बनवाया था जिसे दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान माना जाता है। यह मैदान चारों ओर से विशालकाय पेडों से घिरा है और यहां से बर्फ से आच्छादित हिमालय का सौन्दर्य अवलोकन किया जा सकता है।

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