बुधवार, जनवरी 25, 2012

पलनी- भगवान कार्तिकेय की भूमि

महापुराणों में से स्कंद पुराण भगवान कार्तिकेय को समर्पित है। कार्तिकेय दक्षिण भारत में आकर क्यों बसे? इसका भी वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है। मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर से मिलने देवर्षि नारद पधारे। मिलने के बाद नारद जी ने उन्हें ज्ञानफल दिया। ज्ञानफल को प्राप्त करने के लिये गणेश जी और कार्तिकेय जी दोनों लालायित हो उठे। तब, भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों को ब्रह्माण्ड की परिक्रमा लगाकर आने को कहा। कार्तिकेय बिना विलम्ब किये अपने वाहन मयूर पर बैठकर ब्रह्माण्ड परिक्रमा के लिये निकल गये, जबकि गणेश अपने वाहन मूषक पर बैठकर अपने माता-पिता अर्थात पार्वती जी और शिवजी की परिक्रमा यह कहते हुए करने लगे कि आपसे ही ब्रह्माण्ड है, तो आपकी परिक्रमा करना ब्रह्माण्ड की परिक्रमा है। इस पर प्रसन्न होकर शिवजी ने देवर्षि नारद द्वारा प्रदत्त ज्ञानफल गणेश जी को प्रदान कर दिया। जब, ब्रह्माण्ड परिक्रमा कर कार्तिकेय जी पहुंचे तो इस घटना से नाराज होकर कैलाश पर्वत त्याग कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। वहां पहुंचकर कार्तिकेय जी ने शिवगिरि पर्वत को अपना निवास बनाया। यहां पर कार्तिकेय ने वर्षों तक तपस्या की। 

मान्यता है कि कार्तिकेय को ब्रह्माण्ड के रहस्यों को बतलाने तथा उनकी अपनी क्षमता से परिचित कराने के लिये भगवान शिव आये और उन्हें ‘पलनी’ कहा। इसका अर्थ हुआ- तुम तो स्वयं ज्ञानफल हो। इस प्रकार कार्तिकेय का एक नाम पलनी हो गया। तब इनके नाम और महिमा की चर्चा पूरे दक्षिण भारत में फैल गई और यह स्थान महान तीर्थ बन गया। इनके पलनी नाम पर पूरी पर्वतमाला पलनी पर्वतमाला कहलाने लगी और शिवगिरि पहाडी के आसपास बसा नगर भी पलनी नाम से विख्यात हो गया। वर्तमान में, पलनी शैवभक्तों के लिये महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थल है। लोग शिवगिरि पहाडी को पवित्र पहाडी के रूप में पूजते हैं। 

माना जाता है कि शिवगिरि पहाडी कभी कैलाश पर्वत के निकट स्थित थी। एक समय अगस्त मुनि को भगवान शिव एवं देवी उमा ने शिवगिरि एवं शक्तिगिरि पर्वत पर बैठे हुए रूप में दर्शन दिया था। बाद में, अगस्त मुनि ने भगवान शिव से इन पहाडियों को दक्षिण में अपने निवास तक ले जाने की आज्ञा मांगी। आज्ञा मिल जाने पर अगस्त मुनि ने अपने शिष्य असुर इंदुम्बन को उन पहाडियों को दक्षिण में लाने की आज्ञा दी। इंदुम्बन अपने गुरू की आज्ञा मानकर शहतीर में सर्प की मदद से कांवर का रूप देकर उन पहाडों को लेकर चल दिया। भगवान के आशीर्वाद से जब वह कांवर को उठाता तो पहाडियों का वजन काफी हल्का हो जाता और वह बडे आराम से चलता। रास्ते में इंदुम्बन कई स्थानों पर रुककर विश्राम करता हुआ, आगे की ओर बढता जा रहा था। इसी क्रम में एक दिन जब इंदुम्बन अपनी दिनभर की यात्रा के बाद रात्रि में विश्राम कर रहा था तभी आकाश में विचर रहे कार्तिकेय जी का ध्यान इन दोनों सुन्दर पहाडियों पर गया। कार्तिकेय इस पर इतना मोहित हो गये कि इसे अपना निवास स्थान बना लिया। उधर, जब इंदुम्बन विश्राम कर आगे की यात्रा के लिये कांवर उठाने लगा, तो कांवर काफी भारी हो गया और उससे हिला भी नहीं। वह परेशान हो इधर-उधर ऊपर नीचे देखने लगा। तभी बैठे कार्तिकेय पर उसकी नजर पडी। उस वक्त कार्तिकेय जी ने युवा सन्यासी का रूप धारण कर लिया था। जब इंदुम्बन ने अपनी यात्रा का प्रयोजन बताते हुए, उन्हें पहाडी के ऊपर से हटने को कहा, तब उन्होंने कहा, अब यह हमारा निवास स्थल बन गया है। इस पर इंदुम्बन क्रोधित होकर उन्हें युद्ध के लिये ललकारने लगा। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इंदुम्बन हार गया। बाद में अगस्त मुनि वहां पहुंचकर इंदुम्बन से बोले कि यह कोई और नहीं, शिवजी के दूसरे पुत्र कार्तिकेय हैं। इंदुम्बन ने इतना सुनते ही उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने इंदुम्बन को आशीर्वाद दिया और कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर कांवर लेकर आयेगा, उसे सभी मनोकामनाओं की प्राप्ति होगी। 

वर्तमान में, पलनी दक्षिण भारत के प्रमुख राज्य तमिलनाडु का पवित्र धार्मिक शहर है। यहां सुब्रमण्यम स्वामी अर्थात कार्तिकेय जी का भव्य और बहुत ही खूबसूरत मन्दिर है। यह समुद्र तल से डेढ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मन्दिर का स्थापत्य पांड्य शैली का है। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में शिवभक्त चेरमल पेरुमल ने करवाया था। मन्दिर की चारों दिशाओं में एक-एक द्वार हैं। इन द्वारों पर छोटे-छोटे गोपुरम बने हुए हैं। मन्दिर के मुख्य द्वार का नाम राजा गोपुरम है। मन्दिर का सुन्दर विमान सोने से मढा हुआ है। गर्भगृह में भगवान स्कंद अर्थात कार्तिकेय की अत्यन्त सौम्य प्रतिमा विराजमान है। यहां कार्तिकेय सन्यासी रूप में हैं। इनके हाथ में दंड है। मान्यता है कि स्कंद पुराण में इन्होंने अत्याचारी सूरपदम का अंत किया था। दण्ड धारण करने के कारण इन्हें ‘दण्डायुधपाणि’ भी कहते हैं। भगवान कार्तिकेय का नाम मुरुगन भी है। इसका तात्पर्य सुन्दरता, सौम्यता, मधुरता, सुगंध एवं यौवन से भी है। यहां विराजमान विग्रह में ये सभी गुण दिखलाये गये हैं। दिव्य ज्ञान के रूप में पूजनीय भगवान कार्तिकेय के दर्शनार्थी यहां सालभर पधारते रहते हैं। यहां स्थापित मूल प्रतिमा नौ धातुओं के मिश्रण से बनी हुई है। इसकी अदभुत विशेषता है। इसका अभिषेक दुग्ध एवं पंचामृत से किया जाता है। मान्यता है कि जिस दुग्ध एवं पंचामृत से इनका अभिषेक किया जाता है, उसमें औषधीय गुण आ जाता है। यहीं पंचामृत आने वाले भक्तों को प्रसाद रूप में प्रदान किया जाता है। प्रतिमा के श्रंगार से पूर्व बारह बार अभिषेक किया जाता है। विभिन्न अलंकरणों से सुशोभित यह पावन प्रतिमा अत्यंत मनमोहक है। यहां दिनभर में छह बार भगवान का अभिषेक किया जाता है। छह दैवीय गुणों की स्तुति का यह प्रतीक है। 

यहां फाल्गुनी उथिरम अग्नि नक्षत्रम, कण्डाषष्ठि, और थाइपूसम प्रमुखता के साथ मनाया जाने वाला पर्व है। थाइपूसम पर्व को लेकर मान्यता है कि इस दिन माता पार्वती ने कार्तिकेय जी को सूरपदम जैसी आसुरी ताकतों से लडने की शक्ति प्रदान की थी। यह उत्सव दस दिनों तक चलता है। इस दौरान यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड उमडती है। इस अवसर पर भक्तों द्वारा कांवर लाने की परम्परा है। पीत वस्त्र धारण कर कंधे पर कांवर रखकर लम्बी पदयात्रा कर लोग यहां पहुंचते हैं। भक्तजन जो सामग्री भगवान को अर्पित करना चाहते हैं, उसे कांवर में रखकर लाते हैं। मन्नत पूरी होने पर यहां केश अर्पण अर्थात सिर मुडाने एवं कर्ण (कान) छेदन कराने की भी परम्परा है। पलनी मन्दिर में दर्शन से पूर्व तीर्थयात्री माता पार्वती को समर्पित मन्दिर पेरियानाथकी अम्मन मन्दिर के दर्शन और विनायक जी मन्दिर में नारियल चढाते हैं। पहाडी पर पहुंचने के लिये 697 सीढियां चढनी पडती हैं। यहां रज्जु मार्ग (रोप व ट्रॉली) की भी व्यवस्था है। मन्दिर से पलनी शहर का विहंगम दृश्य दिखलाई पडता है। यहीं से शक्तिगिरि पहाडी भी दिखाई पडती है। यहां इंदुम्बन का भी मन्दिर बना हुआ है। सुब्रमण्यम स्वामी के द्वारपालक के रूप में इंदुम्बन की पूजा अर्चना की जाती है। 

मदुरै से पलनी की दूरी 115 किलोमीटर है। पर्यटन स्थल कोडैकनाल से यहां की दूरी 64 किलोमीटर है। यहां पलनी देवस्थानम बोर्ड द्वारा भक्तों को ठहराने की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। बोर्ड द्वारा प्रसाद के रूप में पंचामृत तथा विभूति की बिक्री की जाती है, जिसे अपने परिजनों एवं बंधु-बांधवों के लिये लोग श्रद्धा स्वरूप ले जाते हैं। 

लेख: दीपक कुमार सिन्हा (राष्ट्रीय सहारा में 29 मई 2011 को प्रकाशित)

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