श्रद्धा के चार धाम
पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बद्रीनाथ, हिन्दू धर्म के प्राचीनतम धाम हैं। शंकराचार्य ने पूरे देश की यात्रा करने के बाद इन स्थानों को हिन्दू धर्म के चार धामों के रूप में मान्यता दी। ये चार धाम भगवान विष्णु के अवतार से जुडे हुए हैं। चार धाम की यात्रा बहुत लम्बी है और हर किसी के लिये सम्भव भी नहीं। इसीलिये कई बार लोग हिमालय की सुरम्य वादियों में स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के रूप में ‘छोटा चार धाम’ की यात्रा भी करते हैं। इसके बावजूद हर व्यक्ति अपने जीवन में एक बार ‘चार धाम’ की यात्रा जरूर करना चाहता है। ऐसी मान्यता है कि चारधाम की यात्रा करने वाले व्यक्ति को न सिर्फ स्वर्ग की प्राप्ति होती है, वरन उसका अगला जन्म भी सफल हो जाता है।
बद्रीनाथ
हिमालय के शिखर पर स्थित बद्रीनाथ मन्दिर हिन्दुओं की आस्था का बहुत बडा केन्द्र है। यह चार धामों में से एक है। बद्रीनाथ मन्दिर उत्तराखण्ड राज्य में अलकनन्दा नदी के किनारे है। यह मन्दिर भगवान विष्णु के रूप में बद्रीनाथ को समर्पित है। बद्रीनाथ मन्दिर को आदिकाल से स्थापित और सतयुग का पावन धाम माना जाता है। इसकी स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने की थी। सतयुग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन से यह पावन धाम मुक्तिप्रदा के नाम से विख्यात हुआ। त्रेता में इसे योगी सिद्धा नाम से जाना गया, द्वापर में विशाला नाम से जाना गया। कलियुग में यह धाम बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ) कहलाया। बद्रीनाथ मन्दिर की पुनर्स्थापना आदि शंकराचार्य ने करवाई थी। इस मन्दिर की महिमा का वर्णन स्कंद पुराण, केदारखण्ड, श्रीमदभागवत आदि में भी आता है। बद्रीनाथ के दर्शन से पूर्व केदारनाथ के दर्शनों का भी महात्म्य माना जाता है।
बद्रीनाथ मन्दिर के कपाट अप्रैल के अंत या मई के प्रथम पखवाडे में दर्शन के लिये खोल दिये जाते हैं। लगभग छह महीने तक पूजा अर्चना चलने के बाद नवम्बर के दूसरे सप्ताह में मन्दिर के कपाट बन्द कर दिये जाते हैं। यहां भगवान श्री की दिव्य मूर्ति हरित वर्ण की पाषाण शिला में निर्मित है, जिसकी ऊंचाई लगभग डेढ फीट है। भगवान श्री पदमासन में योग मुद्रा में विराजमान है। यहां भगवान श्री का दर्शन साधक को गम्भीरता प्रदान करता है। भगवान बद्रीनाथ की बायीं तरफ देवर्षि नारद की मूर्ति है। बद्रीनाथ के बारे में कहा जाता है कि यहां द्वापर में भगवान नारायण के सखा उद्धव पधारे थे। इस कारण शीतकाल में देवपूजा के समय उद्धव जी की पूजा होती है।
द्वारका
द्वारका धाम समुद्र के किनारे स्थित है। इसे हजारों वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने बसाया था। यहीं बैठकर उन्होंने पाण्डवों को सहारा दिया और धर्म की जीत कराई। शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। चारों धामों में से एक द्वारका की सुन्दरता देखते बनती है। समुद्र की उठती लहरें श्रद्धालुओं का मन मोह लेती हैं। द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते हैं। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते हैं। गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट हैं। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। आस्था की इस बडी नगरी में पहुंचे श्रद्धालु इस निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद ही पूजा-अर्चना करने के लिये आगे बढते हैं। लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिण्ड-दान करने के लिये भी आते हैं।
जगन्नाथ पुरी
पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत का स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथ पुरी या पुरी कहलाती है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। मन्दिर उडीसा के पुरी शहर में है। उडिया स्थापत्य कला और शिल्प का आश्चर्यजनक प्रयोग इस मन्दिर में हुआ है। यह देश के भव्यतम मन्दिरों में से एक है। मन्दिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तम्भ है। मन्दिर के भीतर आन्तरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां हैं। इसके अलावा मन्दिर के शिखर पर विष्णु का श्रीचक्र है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु का है।
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मन्दिर के मुख्य देवी देवता हैं। इनकी मूर्तियां एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। पुरी का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है रथ यात्रा। यह आषाढ शुक्ल की द्वितीया को आयोजित होता है। उत्सव के दौरान तीनों मूर्तियों को भव्य तरीके से सजाकर विशाल रथों में यात्रा पर निकालते हैं। जगन्नाथ मन्दिर की रसोई भी काफी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यह भारत की सबसे बडी रसोई है। इस रसोई में भगवान को चढाया जाने वाला महाप्रसाद तैयार किया जाता है।
रामेश्वरम
रामेश्वरम तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यहां स्थापित शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण पूर्व में रामेश्वरम हिंद महासागर और बंगाल की खाडी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुन्दर द्वीप है। यहां भगवान राम ने लंका पर चढाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिस पर चढकर वानर सेना लंका पहुंची थी। आज भी सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देने की बात कही जाती है। यहां के मन्दिर का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा है। मन्दिर में विशालाक्षी जी के गर्भगृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताया गया है। रामेश्वरम का मन्दिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुन्दर नमूना है। इसका प्रवेश द्वार चालीस फीट ऊंचा है। मन्दिर के अन्दर सैकडों विशाल खम्भे हैं, जो देखने में एक जैसे लगते हैं। हर खम्भे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी है। खम्भों पर की गई कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते हैं।
रामनाथ जी के मन्दिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहा जाता है कि मन्दिर निर्माण के लिये पत्थर लंका से आया था। रामनाथपुरम के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा है। ऐसी मान्यता है कि यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिये रामनाथपुरम जाते हैं। रामेश्वरम शहर से करीब डेढ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी सी पहाडी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिये छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढाई करने के लिये यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुन्दर मन्दिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिह्नों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मन्दिर कहते हैं। रामेश्वरम में रामनाथजी के मन्दिर के पूर्वी द्वार के सामने सीताकुण्ड है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहां सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्ध करने के लिये आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्निकुण्ड से जल उमड आया। इसी स्थान को सीताकुण्ड कहते हैं। यहां पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है। यहां पर बिना किसी खतरे के स्नान किया जा सकता है। यहीं हनुमान कुण्ड में तैरते हुए पत्थर भी दिखाई देते हैं।
जनवाणी में 25 अप्रैल 2011 को प्रकाशित
हमारे हिस्से का भी पुण्य आपको ही मिलेगा.. स्वयं नहीं जाता औरों को पहुंचा देता मधुशाला वाले अंदाज़ में आपने हमें भी तीर्थ करा दिया, वो भी चारों धाम का!!
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