शुक्रवार, जनवरी 13, 2012

कुम्भलगढ- इतिहास और प्रकृति का अनूठा संगम

यूं तो पूरे भारत में पर्यटन के लिहाज से कई स्थान हैं और सबकी अपनी ही अलग छटा है। लेकिन जिन्हें इतिहास, स्थापत्य और विरासत को जानने की ललक है उनके लिये पुराने रजवाडों, किलों और ऐतिहासिक धरोहरों की पर्याय बन चुकी जगहों में खास दिलचस्पी होती है। ऐसी ही जगहों में से एक है भारत का राज्य राजस्थान। अलग-सी सांस्कृतिक छटा लिये यह राज्य इतिहास से जुडी उन धरोहरों की पूरी की पूरी दास्तान अपने में समेटे हुए है। चाहे वह हल्दीघाटी के मैदान की गौरव गाथा हो या फिर ढोला-मारू की कोने-कोने में गाई जाने वाली अनूठी प्रेमकथा। राजस्थान के ऐसे ही स्थानों में से एक है कुम्भलगढ, जो सिर्फ महाराणा कुम्भा, महाराणा प्रताप की जन्मस्थली ही नहीं है, बल्कि इतिहास, प्रकृति, संस्कृति और रेगिस्तान के बीच जन्नत कहे जा सकने वाले सौन्दर्य की जीती-जागती मिसाल भी है। 

स्थापत्य 

कई सदियों पुराने इस किले में तरह-तरह की पुरातात्विक महत्व की चीजें भी हैं, जो महाराणा प्रताप के समय से सुने हुए कई किस्सों की याद को ताजा करती हैं। इस किले का स्थापत्य अदभुत की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। इसमें कई दरवाजे हैं, जिसकी शुरूआत आरेठ पोल से होती है, उसके बाद हल्ला पोल, हनुमान पोल, विजय पोल, भैरव पोल, नीबू पोल, चैगान पोल, पागडा पोल, गणेश पोल और विजय पोल हैं। विजय पोल से प्रारम्भ होकर असीमित ऊंचाई तक फैली पहाडी की एक चोटी पर किले का सबसे ऊंचा भाग बना हुआ है, जिसे कहारगढ भी कहा जाता है। हिन्दू और जैन समुदाय के कई मन्दिर विजय पोल के पास की समतल भूमि पर बने हैं। इन्हीं में मौजूद नीलकण्ठ महादेव मन्दिर अपने ऊंचे-ऊंचे सुन्दर स्तम्भों वाले बरामदे की अपनी विशिष्ट बनावट के लिये खास मुकाम रखता है। शिल्प शास्त्र के ज्ञाता महाराणा कुम्भा ने यज्ञादि के उद्देश्य से शास्त्रोक्त रीति से वेदी बनवाई थी। राजपूताने में प्राचीन काल के यज्ञ स्थानों का यहीं एक स्मारक शेष रह गया है। कहते हैं कि इसी वेदी पर कुम्भलगढ की प्रतिष्ठा का यज्ञ भी हुआ था। किले के सबसे ऊंचे भाग पर भव्य महल बने हुए हैं और नीचे भाली वान (बावडी) और मामादेव का कुण्ड है। 

महाराणा कुम्भा इसी कुण्ड पर बैठे अपने ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह (ऊदा) के हाथों मारे गये थे। इसी कुण्ड के पास मामावट नामक स्थान पर कुभ स्वामी मन्दिर अपनी टूटी-फूटी अवस्था के बावजूद दर्शनीय है। यहीं मौजूद पांच शिलाओं पर मेवाड के राजाओं की वंशावली, उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय तथा भिन्न-भिन्न विजयों का विस्तृत विवरण भी इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिये आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। गणेश पोल के सामने वाली समतल भूमि पर गुम्बदाकार महल तथा देवी का स्थान है। महाराणा उदयसिंह की रानी झाली का महल यहां से कुछ सीढियां और चढने पर था जिसे झाली का मलिया कहा जाता है। 

गणेश पोल के सामने बना हुआ महल ऊंचाई पर बने होने के कारण यहां गर्मियों के दिनों में काफी ठण्डक बनी रहती है, गर्मियों में तपते रेगिस्तान के बीच जिसकी अपनी यह खास विशेषता है। कुम्भलगढ का पर्यटन अपनी वाइल्डलाइफ सेंचुरी के लिये मुख्य रूप से जाना जाता है। यहां की सुन्दरता, वातावरण, घने वनों की वजह की सुन्दरता के कारण ही इसे रेगिस्तान में जन्नत कहा जा सकता है। कुम्भलगढ वाइल्डलाइफ सेंचुरी में दुनिया के सबसे दुर्लभ और खूबसूरत पेड-पौधे, फूल और जानवरों की प्रजातियां हैं। 

हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले रेगिस्तान के बीच मौजूद कुम्भलगढ वाइल्डलाइफ सेंचुरी इसे सम्पूर्ण पर्यटक स्थल बनाती है। कुम्भलगढ की हरी-भरी घाटी राजस्थान के राजसमन्द जिले में पूर्ण रूप से फैली हुई है। साथ ही यह उदयपुर और पाली के आस-पास फैले जिलों की सीमा में भी प्रवेश करती है। कुम्भलगढ के जंगलों में बारहसिंहा, हिरण, लोमडी आदि तो देखने को मिलते ही हैं, नदियां और इनमें पाये जाने वाले मगरमच्छ यहां के आकर्षण के केन्द्र हैं। 586 स्क्वायर किलोमीटर में फैली इस सेंचुरी में जंगलों के बीच सुन्दर मन्दिर, बहुत पुराने घर व कई छोटी-छोटी गुफाएं भी हैं, जो देखने में बहुत ही आकर्षक लगती हैं। यह जगह एक विशेष फल के लिये बहुत प्रसिद्ध है, जिसे आम भाषा में सीताफल कहते हैं। 

इसी के बीच में स्थित है 17वीं शताब्दी में निर्मित राजसमन्द झील, जिसकी खुद की खूबसूरती तो अपने आप में अदभुत है ही, यह इस सेंचुरी को भी अभूतपूर्व सौन्दर्य प्रदान करती है। चारों ओर से रेगिस्तान से घिरा कुम्भलगढ और बीच में प्राकृतिक सौन्दर्य से ढका इसका पूरा क्षेत्र अपने आप में ही एक खूबसूरत कहानी बयां करता है। वैसे इतिहास की यादों और प्रकृति के सौन्दर्य का यह तालमेल सिर्फ कुम्भलगढ तक ही सीमित नहीं है, इसके आसपास के क्षेत्रों जैसे रणकपुर, उदयपुर आदि में भी आपको कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा। 

कुम्भलगढ का इतिहास 

कुम्भलगढ राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ट स्थान रखता है। उदयपुर से 70 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊंचा और 30 किलोमीटर व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड के महाराणा कुम्भा की सूझबूझ और प्रतिभा का स्मारक है। इस किले का निर्माण सम्राट अशोक के दूसरे पुत्र संप्रति के बनाये किले के अवशेषों पर 1443 से शुरू होकर 15 वर्षों बाद 1458 में पूरा हुआ था। इस किले का निर्माण कार्य पूरा होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिनपर दुर्ग और उसका नाम अंकित था। वास्तुशास्त्र के नियमानुसार बने इस किले में प्रवेश द्वार, प्राचीर, जलाशय, बाहर जाने के लिये संकटकालीन द्वार,महल, मन्दिर, आवासीय इमारतें, यज्ञ वेदी, स्तम्भ, छत्रियां आदि बने हैं। 

तो आओ चलें... 

कुम्भलगढ जाने का मार्ग उदयपुर से होकर गुजरता है। हवाई यात्रा या ट्रेन द्वारा उदयपुर पहुंचा जा सकता है, जिसके बाद यहां से प्राइवेट टैक्सी या सार्वजनिक वाहनों से कुम्भलगढ का रास्ता तय करते हुए आप बीच-बीच में प्रकृति की हरियाली और रेगिस्तानी सौन्दर्य का लुत्फ भी उठा सकते हैं। उदयपुर से कुम्भलगढ की दूरी 70 किलोमीटर है। जब आप कुम्भलगढ पहुंच जायें तो वहां ठहरने और पारम्परिक भोजन का जायका चखने के लिये कई प्राइवेट और सरकारी होटल उपलब्ध हैं। कुम्भलगढ में ओडी होटल, रणकपुर में फ्रेंच बाग होटल और महारानी बाग जैसे रेस्टॉरेंट अपनी खास पहचान रखते हैं।

 दैनिक जनवाणी में 8 मई 2011 को प्रकाशित

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