मंगलवार, जनवरी 24, 2012

कामाख्या मन्दिर में ‘अंबुबाची’ मेला

तंत्र- मंत्र साधना के लिये चर्चित कामरूप कामाख्या में शक्ति की देवी कामाख्या का मन्दिर है, जहां हर साल आषाढ महीने में होने वाले ‘अंबुबाची’ मेले को कामरूप का कुम्भ माना जाता है। देश भर के तमाम साधु और तांत्रिक इस समय यहां पहुंचते हैं। ये साधक नीलांचल पर्वत की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करते हैं। ‘अंबुबाची’ मेले के दौरान यहां तरह तरह के हठयोगी पहुंचते हैं। कोई अपनी दस-बारह फीट लम्बी जटाओं के कारण देखने लायक होता है, कोई पानी में बैठकर साधना करता है तो कोई एक पैर पर खडे होकर। चार दिनों तक चलने वाले अंबुबाची मेले में करीब चार-पांच लाख श्रद्धालु जुटते हैं। 

धार्मिक मान्यता 

पूरी धार्मिक श्रद्धा के साथ लोग यहां जुटते हैं। जून-जुलाई (आषाढ) माह के अंत में पृथ्वी के मासिक चक्र की समाप्ति पर अंबुबाची मेला आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर मन्दिर चार दिन के लिये बंद कर दिया जाता है। कहते हैं, इस समय माता रजस्वला रहती हैं। हिन्दू समाज में रजोवृत्ति के दौरान शुभ कार्य नहीं होते, इसलिये इन दिनों असम में कोई शुभ कार्य नहीं होता। विधवाएं, साधु-संत आदि अग्नि को नहीं छूते और आग में पका भोजन नहीं करते। साधु और तांत्रिक मन्दिर के आस पास वीरान जगहों और कंदराओं में तप में लीन हो जाते हैं। चार दिन बाद मन्दिर के कपाट खुलने पर पूजा-अर्चना के बाद ही लौटते हैं। इस पर्व में देवी माता के रजस्वला होने से पूर्व गर्भ-गृह में स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढाये जाते हैं। कहते हैं कि बाद में ये लाल रंग के हो जाते हैं। बाद में मन्दिर के कपाट खुलने पर पुजारियों द्वारा प्रसाद स्वरूप दिये गये लाल वस्त्र के टुकडे पाकर श्रद्धालु धन्य हो जाते हैं। मान्यता है, इस वस्त्र का अंशमात्र मिल जाने पर भी सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। कामाख्या मन्दिर में लोग लाल चुनरी और दूसरे वस्त्र चढाते हैं। यहां कन्या पूजन की भी परम्परा है। 

इस मन्दिर को कामनाओं की पूर्ति वाला मन्दिर भी कहते हैं। कहते हैं, माता के दरबार से कोई निराश नहीं लौटता। यहां पर माता की महिमा ही ऐसी है कि जो भक्त मां का द्वार खटखटाता है, मां उसे खाली हाथ नहीं लौटातीं। हिन्दू धर्म में 51 शक्तिपीठों में कामाख्या या कामाक्षा कामरूप शक्तिपीठ का काफी महत्व है। मन्दिर भारत के असम राज्य में गुवाहाटी से दो मील दूर पश्चिम में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। इस स्थल को ‘कामरूप’ इसलिये कहते हैं क्योंकि माना जाता है कि यहां देवी की कृपा से कामदेव को अपना मूल रूप प्राप्त हुआ था। अपने देश में जितने भी पीठ हैं, उनमें से कामाख्या पीठ महापीठ कहलाती है। मन्दिर में 12 स्तम्भों के बीच देवी मां की विशाल मूर्ति है। मन्दिर गुफा में स्थित है। यहां आने का रास्ता बहुत पथरीला है, जिसे ‘नरकासुर पथ’ कहते हैं। मन्दिर के पास ही कुण्ड है, जिसे ‘सौभाग्य कुण्ड’ कहते हैं। इस स्थल को ‘योनि पीठ’ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि सती की योनि यहीं गिरी थी। इसलिये मन्दिर में मां की योनि की पूजा होती है। यहां देवी का रूप शक्ति स्वरूप है और भैरव का रूप उमानाथ या उमानंद। उमानंद को भक्त का रक्षक माना जाता है। माना जाता है कि उमानाथ मन्दिर में विराजमान शिव ही कामाख्या माता के भैरव हैं, इसलिये जो देवी मन्दिर में आता है उसे उमानाथ के भी दर्शन करने होते हैं। 

पर्वत पर स्थित मन्दिर के सामने ही तालाब है। वैसे पूरे पर्वत पर मन्दिर ही मन्दिर दिखते हैं। नीलांचल की चोटी पर भुवनेश्वर देवी का मन्दिर है, जहां से पूरे गुवाहाटी शहर को देखा जा सकता है। मन्दिर परिसर तक बस सेवा मिलती है। अलग से पैदल मार्ग भी बना है। अन्य कई तीर्थस्थलों की तुलना में यहां के पंडित या पंडे बहुत सरल और सीधे हैं। ये लोग दान-दक्षिणा के लिये किसी पर दबाव नहीं डालते। 

लेख: अनिता घोष (राष्ट्रीय सहारा में 19 जून 2011 को प्रकाशित)

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