भारत के दक्षिण में बसा है बगीचों का एक शहर यानी मैसूर। मैसूर का नाम जुबां पर आते ही वातावरण जैसे चन्दन, चमेली, गुलाब और कस्तूरी से महक उठता है। समुद्र तल से 610 मीटर ऊंचाई पर स्थित मैसूर चन्दन के विशाल जंगलों, हाथियों, बगीचों और महलों के लिये प्रसिद्ध है। यों तो पहले पूरा कर्नाटक ही मैसूर या महिसुर के नाम से जाना जाता था, बाद में इसका नाम मैसूर से बदलकर कर्नाटक कर दिया गया।
चन्दन के इस शहर में प्रवेश करते ही मन अतीत के झरोखों में झांकने लगता है और उसका इतिहास जानने को उत्सुक हो जाता है। यही उत्सुकता हमें ले जाती है मैसूर के कोदिभैरेश्वर मन्दिर की ओर जहां ईसा से 1399 वर्ष पूर्व दो राजा यदुराय और कृष्णराय गुजरात के द्वारका से भगवान नारायण की पूजा करने आये थे, लेकिन महिसुर यानी मैसूर की खूबसूरती ने उनका मन मोह लिया। बाद में मैसूर की राजकुमारी देवजम्मनी से यदुराय का विवाह हुआ और इस तरह सन 1399 ई.पू. में वाडियार शासन की नींव पडी। 1578 ई.पू. में राजा वाडियार के उदय से पहले मैसूर विजयनगर राज्य का एक छोटा सा अंग था, लेकिन 1565 ई.पू. में विजयनगर राज्य के पतन के साथ साथ मैसूर एक बडा राज्य बन कर उभरा। कुछ इस तरह कि पूरा प्रदेश ही मैसूर कहलाने लगा। आज यही मैसूर कला, संस्कृति, प्राकृतिक छटा और ऐतिहासिक धरोहर से समृद्ध भारत का एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल बन गया है और अपनी खूबियों से पर्यटकों को लगातार अपनी ओर खींचता है।
शहर के दक्षिण में है चामुंडी हिल। समुद्र तल से 1062 मीटर ऊंची चामुंडी पहाडियों पर बना सात मंजिला मन्दिर दूर से ही दिखाई देने लगता है। आप चाहें तो एक हजार सीढियां चढकर मन्दिर तक पहुंचें या फिर सडक के रास्ते। गोपुरम तक पहुंचने के दो तिहाई रास्ते पर मिलता है नन्दी अर्थात भगवान शिव का वाहन। पांच मीटर ऊंचा यह विशाल नन्दी ठोस चट्टान काटकर बनाया गया है। यह स्थल हिन्दुओं का एक प्रमुख धार्मिक स्थल बन गया है।
चामुंडी हिल पर चढाई अपने आप में एक बेहद आनन्ददायी और रोमांचक अनुभव है। रास्ते में हरे-भरे पेड और खुशबू का झोंका पर्यटकों को ताजगी और उत्साह से भर देता है, उनके कदम बढते चलते हैं चामुंडेश्वरी मन्दिर की ओर। यहां पहुंच कर मैसूर शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। सात मंजिला गोपुरम, मन्दिर की ऊंचाई चालीस मीटर है। सडक के रास्ते चामुंडी हिल की चढाई 13 किलोमीटर ही है।
मुख्य शहर से सोलह किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में जाते ही जैसे प्राचीन मैसूर का इतिहास जीवन्त हो उठता है। यह है श्रीरंगपट्नम। यही है दक्षिण के महान शासक टीपू सुल्तान की राजधानी जहां से टीपू ने लगभग पूरे दक्षिण भारत पर शासन किया था। 18वीं शताब्दी के अन्त में टीपू ने यहां अंग्रेजों से अन्तिम लडाई लडी थी। हालांकि उस समय के बहुत कम अवशेष बाकी हैं, क्योंकि अंग्रेजों ने कई महल और भवन तहस-नहस कर दिये थे। फिर भी कुछ इमारतें और दरवाजे अभी बाकी हैं, जहां टीपू ने अंग्रेज सैनिकों को कैद कर रखा था। श्रीरंगपटनम की चहारदीवारी में एक मस्जिद और श्रीरंगनाथस्वामी का मन्दिर भी अपने अस्तित्व में है।
श्रीरंगपटनम से सडक के दूसरी ओर है दरिया दौलतबाग, टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन महल, गुम्बज और संग्रहालय। दरिया दौलतबाग एक खूबसूरत बगीचा है जिसमें स्थित संग्रहालय में रखी वस्तुएं टीपू सुल्तान की याद दिलाती हैं। विभिन्न चित्रकारों द्वारा बनाये गये टीपू सुल्तान और उसके परिवार के चित्र, रेखाचित्रों के अलावा दीवारों पर बने अनेक चित्र टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के युद्ध के दृश्य अंकित करते हैं।
मैसूर से 45 किलोमीटर पूरब में है सोमनाथपुर। 260 ई.पू. में बना सोमनाथपुर का चाणवक्केश्वर मन्दिर आज भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। होयसल राजाओं द्वारा निर्मित सितारे के आकार वाले इस मन्दिर की दीवारें पत्थर में वास्तुशिल्प का अदभुत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। विश्व की सुन्दरतम इमारतों में से एक है चाणक्केश्वर मन्दिर की इमारत। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत और होयसल राजाओं की जीवन शैली बहुत खूबसूरती से पत्थरों में उकेरी गई है।
मैसूर से 80 किलोमीटर दक्षिण में मैसूर-ऊटकमंड मार्ग पर स्थित विशाल बांदीपुर वन्य प्राणी उद्यान बारहसिंहों, चितकबरे हिरणों, हाथियों, साम्भर, बाघ और तेंदुओं के लिये प्रसिद्ध है। इस उद्यान की सैर जीप, ट्रक के अलावा हाथियों की सवारी द्वारा भी की जा सकती है और चाहें तो नदी में नाव द्वारा भी। श्रीरंगपटनम से तीन किलोमीटर दूर पक्षी विहार भी है। इसे रंगनायिडू पक्षी विहार के नाम से जाना जाता है। जून से सितम्बर तक यहां पक्षियों का कलरव गूंजता रहता है।
जब हम मैसूर की सैर कर रहे हैं और वृन्दावन गार्डन नहीं गये तो सब अधूरा। कावेरी नदी पर बने कृष्णसागर बांध से ही जुडा है वृन्दावन गार्डन। शहर से मात्र 19 किलोमीटर दूर स्थित यह उद्यान पर्यटकों में विशेष लोकप्रिय है। इस उद्यान की प्राकृतिक छटा के अलावा दूसरा प्रमुख आकर्षण है पश्चिमी और भारतीय संगीत की लय पर थिरकते झूमते फव्वारे। पश्चिम में सूरज ढलते ही उधर आसमान में अंधेरा घिरने लगता है और इधर रंग-बिरंगी रोशनियों में नहाये फव्वारे दिलकश संगीत के साथ कदम मिलाते झूमने लगते हैं। यह दृश्य देख रहे हजारों दर्शक थिरकने लगते हैं- फव्वारों की ताल पर। अपने सौन्दर्य और जीवंतता में वृन्दावन गार्डन सैलानियों के दिलों में बस जाता है।
मैसूर के आसपास तो घूम लिये, अब चलें खास मैसूर में, जहां है परीकथाओं जैसा महल यानी मैसूर का महल। इसे महाराजा पैलेस के नाम से भी जाना जाता है। परीकथाओं जैसे अदभुत सौन्दर्य से युक्त इस महल के कारण ही मैसूर को परियों का देश भी कहा जाता है। होयसल वास्तुशिल्प का अदभुत नमूना यह महल हिन्दू और मुस्लिम वास्तुशिल्प के संगम का उदाहरण प्रस्तुत करता है। चौदहवीं शताब्दी ई.पू. में बने इस महल में प्राचीन अवशेष अब न के बराबर हैं। सन 1911-12 में इसका पुनर्निर्माण हुआ, जिसका डिजाइन अंग्रेज वास्तुशिल्पी हेनरी इर्विन ने तैयार किया था। महल की मुख्य इमारत धूसर रंग के ग्रेनाइट पत्थर से बनी है, जिसमें तीन मंजिलें हैं और उसके ऊपर पांच मंजिली मीनार पर बने गोल गुम्बज पर सोने का पत्र चढा है। यह मीनार जमीन से 44 मीटर ऊंची है। महल के सात मेहराबदार दरवाजे और खम्भे वास्तुशिल्प का अनूठा नमूना हैं।
महल के बीचोंबीच एक बडे से आंगन के दक्षिण में कल्याण मण्डप है, जिसका प्रयोग शादी-विवाहों के लिये किया जाता है। यहीं पहली मंजिल पर निजी अम्बा विलास और दीवाने खास हैं। आंगन का मुख्य प्रवेश हाथी द्वार भी कहलाता है। महाराजा के समय में विशेष अवसरों पर शाही हाथी इसी पीतल के बने द्वार से गुजरकर आंगन में जाता था। मैसूर पैलेस का सबसे मुख्य आकर्षण है पारम्परिक स्वर्ण सिंहासन। नाचते मयूर की आकृति का यह सिंहासन भारत की शक्ति और अधिकार का प्रतीक माना जाता था।
मैसूर पैलेस की छटा देखनी है, तो शाम के समय देखें, जब लगभग साढे तीन लाख बल्बों की रोशनी से पूरा महल जगमगा उठता है और एकदम परीकथाओं के महलों की परिकल्पना साकार कर देता है।
अपने पर्यटन स्थलों के अतिरिक्त मैसूर जाना जाता है सुगंधियों के लिये। जब कभी चमेली, गुलाब, चन्दन और कस्तूरी की महक आती है तो यादों में महक उठता है मैसूर। यह अगरबत्ती बनाने का सबसे बडा केन्द्र है। दुनियाभर में यहां की बनी अगरबत्तियां निर्यात होती हैं। मैसूर का चन्दन तो बेजोड है। चन्दन की लकडी से बनी विभिन्न वस्तुएं और आभूषण सभी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। चन्दन की लकडी पर पच्चीकारी में यहां के कारीगरों की कुशलता देखते ही बनती है। चन्दन के फर्नीचर से लेकर आभूषण और पेन- किस पर नहीं है यहां के कारीगरों की कुशल अंगुलियों की छाप। चन्दन की लकडी के अतिरिक्त हाथीदांत व रोजवुड पर भी बारीक पच्चीकारी देखते ही बनती है।
लेख: विनिता गुप्ता (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
मैसूर अभी तक जा नहीं पाया हूं। आपकी इस चर्चा से बहुत कुछ जानने को मिला।
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