दिल्ली से मणिकर्ण जाने वाले ट्रेकिंग ग्रुप में हमारे विद्यालय के दस बच्चों में मेरा नाम भी काफी प्रयासों के बाद आखिर चुन ही लिया गया। वैसे तो हमारे विद्यालय का ट्रेकिंग दल हमेशा ही कहीं न कहीं जाता रहता है पर इस बार हमारे शारीरिक शिक्षक राजकुमार जी के हमारे दल के साथ जाने से सभी छात्रों में विशेष उत्साह था क्योंकि वह ट्रेकिंग के बारे में सब शिक्षकों से अधिक जानकारी रखते थे।
हमारी औपचारिक यात्रा कुल्लू से ही शुरू हो गई थी जहां से मणिकर्ण लगभग 40 किलोमीटर दूर है। कुल्लू हिमाचल प्रदेश का एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। जहां से टेढे मेढे रास्तों और दुर्गम चढाई के बाद हमें मणिकर्ण पहुंचना था। लगभग 10000 फीट की ऊंचाई पर ढाडी गुफा पर भी हम ठहरेंगे। हमारे सर ने बताया कि यह वही गुफा है जहां कभी गुरू नानक ठहरे थे। इसके बाद हम शांगडा गांव होते हुए तोशी गांव पहुंचेंगे और फिर मणिकर्ण ग्लेशियर।
कहते हैं कि मणिकर्ण का पुराना नाम अर्द्धनारी है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार शिव अर्द्धनारी के रूप में यहां नहा रहे थे कि पार्वती के कान की मणि नदी में गिर गई और पाताल में चली गई। शिव ने प्रकृति में सबसे पूछा लेकिन कोई न बता पाया कि मणि कहां गई। इस पर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने तीसरी आंख खोल दी। तब नैना देवी प्रकट हुई और उन्होंने मणि ढूंढने का जिम्मा उन्हें सौंपा। नैना देवी पाताल से लाखों मणियां उठा लाई और पार्वती से अपनी मणि ढूंढने को कहा। पार्वती ने अपनी मणि ढूंढ ली लेकिन लोगों के लालच के डर से बाकी मणियों को पत्थर बना दिया। तभी से इस स्थान का नाम मणिकर्ण पड गया।
इसी स्थान पर शिव पार्वती ने अर्द्धनारी के रूप में 1100 वर्ष तक तपस्या की। मणिकर्ण में ही पार्वती नदी बहती है जो मानतलाई से लगभग 100 किलोमीटर की यात्रा करके यहां पहुंचती है। पार्वती नदी के किनारे किनारे महत्वपूर्ण खनिज अयस्कों की खानें हैं। मणिकर्ण में भी पानी प्राकृतिक रूप से गर्म है क्योंकि इसके नीचे सल्फर बहुतायत में पाया जाता है।
हम खतरनाक रास्तों से होते हुए बर्फीली चोटियों को देखते हुए सावधानी से आगे बढ रहे थे। कई जगह हमें खतरनाक ‘रोलिंग स्टोन जोन’ क्षेत्रों से भी गुजरना पडता था। लेकिन हमारे सर इस दुर्गमता में हमारा साहस बढाते रहते थे। मणिकर्ण से मणिकर्ण ग्लेशियर के रास्ते तक ढेरों चीड और देवदार के पेड हैं। जैसे जैसे मणिकर्ण ग्लेशियर पास आता जा रहा था हमारी उतावली भी बढती जा रही थी। हमारा सफर अब दुर्गम व रास्ता भी बर्फीला हो चला था क्योंकि तोश गांव के बाद हम ग्लेशियर पहुंचने वाले थे। ऊपर पहुंचने के साथ साथ ठण्ड भी बढने लगी थी और हवा के तेज थपेडे हमें लगातार पीछे धकेल रहे थे। बीच बीच में कई छोटे बडे झरने भी हमें रोक लेते थे।
एकाएक मेरा एक साथी तेज आवाज में चिल्लाया ‘बस, अब 100 मीटर चलने के बाद हम ग्लेशियर पर होंगे।’ दरअसल वह पहले भी यहां आ चुका था। उसने हमें बताया कि ग्लेशियर वास्तव में बर्फ की गति से बहने वाली नदी को कहते हैं जिसमें समय-समय पर एवलांव होते रहते हैं। एवलांच पहाडों से ढेरों बर्फ नीचे लुढक आने वाली एक खतरनाक प्रक्रिया है। अचानक हमारे सर हमें रोक देते हैं और अपने सामने देखने को कहते हैं। हम ऊपर देखते हुए चल रहे इसलिये हमारे पैर कब बर्फीले रास्तों पर पडने लगे थे, हमें पता ही नहीं चला था।
हमारे सामने बर्फ का विशाल लम्बा मैदान था जो दूर तक घाटी बनाता हुआ फैला था। यही मणिकर्ण ग्लेशियर है जिसे देखने के लिये हम हजारों फीट ऊंची दुर्गम चढाई चढकर यहां पहुंचे थे। हमारे चेहरों पर आश्चर्य फैला था और आंखें अचरज से सामने बर्फ की ऊंची विशाल दीवारों पर टिकी थीं। मानों वे ग्लेशियर की प्रहरी हों। दूर तक फैले ग्लेशियर में जगह जगह क्रेवास बने थे इसलिये हम सब एक सुरक्षित स्थान पर समूह बनाकर बैठे थे। क्रेवास दरअसल बर्फ के ग्लेशियर में पडी उन दरारों को कहते हैं जिनके नीचे गहराई पर पानी होता है और कई बार असावधानी बरतने पर ट्रेकिंग दल के लोग उसमें गिर कर मर भी जाते हैं।
ग्लेशियर पर आये हुए हमें लगभग एक घण्टा हो चला था और मौसम खराब होने लगा था। बारिश कभी भी हो सकती थी और बर्फ गिरने का भी कोई भरोसा नहीं था। हम वापस लौट पडे क्योंकि अभी हमें बेस कैम्प लौटना था जहां एक अन्य ट्रेकिंग दल हमारा इंतजार कर रहा था।
यात्रा वृत्तान्त: जीशान हुसैन खान
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
सही में बहुत खतरनाक है!
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