शनिवार, दिसंबर 03, 2011

भरमौर- विश्व का एकमात्र धर्मराज का मन्दिर

बहुत दिनों से सुन रखा था कि इसी भारत के अन्दर किसी महत्वपूर्ण शिवधाम के करीब धर्मराज का कोई मन्दिर है। इंसान की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा सबसे पहले इसी मन्दिर में जाती है और वहीं पर उसके कर्मों के अनुसार उसे अगले जन्म में प्रवेश मिलता है। हिमाचल में सिद्धों की तपस्थली भरमौर की ‘चौरासी’ में स्थित है यह मन्दिर। गत दिनों जब हम भरमौर स्थित मन्दिर ‘चौरासी मन्दिर’ गये तो एक साधु ने हमें मन्दिर के बारे में बताया। हम अनेक प्रश्नों को मन में लिये जब मन्दिर में गये तो वहां का सारा माहौल देखकर भयमुक्त हो गये मगर अनेक प्रश्नों के घेरे में आ गये, जिनका उत्तर ढूंढने का प्रयास किया।

श्री धर्मेश्वर महादेव (धर्मराज) के इस विश्व भर में अकेले मन्दिर की कथा बताते हुए मन्दिर के श्री लक्ष्मी दत्त पुजारी, जो इस महत्वपूर्ण स्थल की देख-रेख करते हैं, ने बताया कि जिस प्रकार पुष्कर राज में ब्रह्मा जी का मन्दिर विश्व का एकमात्र मन्दिर है, उसी प्रकार धर्मेश्वर जी महाराज का यह एकमात्र मन्दिर है।

हमने जब इस मन्दिर में प्रवेश किया तो बाहर से यह मन्दिर लगा ही नहीं। घर जैसा प्रतीत होने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि इस चौरासी में सबसे कम लोग यहां आते हैं। ज्यादातर लोग बाहर से ही लौट जाते हैं। मन्दिर में प्रवेश द्वार पर बने एक कमरे को दिखाते हुए उन्होंने बताया कि जब संसार में कोई भी व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह सबसे पहले इस कमरे में चित्रगुप्त जी के समक्ष हाजिर होता है। चित्रगुप्त, जो धर्मराज के छोटे भाई हैं तथा उनके सचिव का कार्य भी संभालते हैं, सभी प्राणियों का लेखा-जोखा भी इनके पास होता है।

धर्मराज जी के इस अदभुत मन्दिर की सबसे ऊपर की पौडी पर लकीरें जैसी खुदी हुई हैं। ऐसा बताते हैं कि चित्रगुप्त आत्मा को यहां खडी करते हैं। फिर चित्रगुप्त उसके कर्मों का लेखा-जोखा बताते हैं। इसके ठीक सामने धर्मराज जी की कचहरी में कर्मों के हिसाब से उसके भविष्य का फैसला होता है।

मन्दिर के बाहर अदृश्य चारों दिशाओं को रास्ता बना है। धर्म के चार द्वारों, जो क्रमशः सोने, चांदी, लोहे एवं तांबे के बने हैं, में से कर्म के अनुसार एक दरवाजा खुलता है तथा फैसले के अनुसार आत्मा को उसी द्वार से फल भोगने के लिये भेजा जाता है।

श्री लक्ष्मणदत्त पुजारी ने बताया कि आम प्राणी के लिये तो यहां ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता मगर उनके गुरू श्री जयकृष्ण गिरि जो इसी मन्दिर के प्रमुख रहे हैं, ने यहां लोगों की इतनी आई-चलाई देखी कि पलक झपकने की फुरसत नहीं मिलती। अनेक अन्य पहुंचे हुए महात्मा भी बताते हैं कि परोक्ष रूप से धर्मराज जी का धाम यही है।

सदियों पुराने इस मन्दिर के ठीक सामने लगभग चार फीट ऊंचे बने एक विशाल मंच पर श्री सदाशिव का प्रतीक शिवलिंग है, जो गहरे काले रंग का है। इसमें बेमिसाल चमक है, जिसे देखने वाले मोहित हो जाते हैं। इस शिवलिंग की कहानी सुनाते हुए श्री पुजारी ने कहा कि सन 1905 एवं 1947 में आठ भूकम्पों में इस मन्दिर को काफी क्षति पहुंची थी। गुरूजी ने विक्रमी संवत 2029 में इसका जीर्णोद्धार कराया जो भूकम्प के कारण टेढे हो गये थे। शिवलिंग को सीधा करने के लिये श्रमिक लगाये गये थे। बारह फीट तक खोदकर भी जब उन्हें लिंग का आदि-अंत न पता चला तो गुरूजी ने भगवान श्री शिव से प्रार्थना की कि प्रभु आप तो अनन्त हैं, आप स्वयं अपनी सीधी स्थिति में आ जायें तो शिवलिंग स्वयं सीधा हो गया। तब श्री शिव ने गुरूजी को कहा कि टेढा होने से जो स्थान खाली हुआ है, उसे भर दिया जाये। तब इस मन्दिर को नया रूप दिया गया मगर शिवलिंग को युगों पुरानी उसी स्थिति में छोड दिया गया।

यात्रा वृत्तान्त: डा. जवाहर धीर

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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