गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

मलाणा- सिकन्दर की सेना से ताल्लुक

सिकन्दर को जब यह मालूम हुआ था कि भारत दुनिया का सबसे अमीर देश है और इसे सोने की चिडिया कहा जाता है तो इसे जीतने की सिकन्दर की इच्छा को मानो पंख लग गये थे। 326 ई.पू. में सिकन्दर ने भारत को जीतने के लिये कूच किया। सबसे पहले सिन्धु पार के लडाकू कबीलों ने सिकन्दर का सामना किया लेकिन सिकन्दर की सेना के सामने वे टिक न सके। इसके पश्चात सिकन्दर ने ओहिन्द के स्थान पर नावों का पुल बनाकर सिन्धु नदी को पार किया और तक्षशिला की ओर बढा।

सिकन्दर ने कई रियासतों पर अपना विजयी ध्वज फहराया लेकिन चूंकि भारत बहुत विशाल देश था और इसे फतह करने के लिये कई महीने लग सकते थे, अतः निरन्तर युद्ध से उकता चुके सिकन्दर के कई सैनिक अब अपने मूल वतन लौटने को उतावले होने लगे। परन्तु सिकन्दर का भारत विजय का हठ बरकरार था। तंग आकर सिकन्दर के कुछ सैनिकों ने उससे किनारा करके अपने मूल वतन की ओर कूच कर दिया। लेकिन घर लौटना इतना आसान नहीं था, जितना उन्होंने सोचा था। रास्ते में शिवी, क्षुद्रक, मलोई, मौशिकनोई आदि अनेक युद्धप्रिय जातियों ने इन सैनिकों को युद्ध के लिये ललकारा। लेकिन निरन्तर युद्ध से बुरी तरह थक चुके और गोला बारूद खत्म हो जाने की वजह से इन सैनिकों में अब और अधिक लडने की हिम्मत नहीं थी। इसलिये इन सैनिकों ने अपने मूल वतन वापस लौटने का विचार त्याग कर सुरक्षित स्थानों में पनाह लेने की सोची। छिपते छिपाते कुछ सैनिक पहाडी क्षेत्रों में भाग गये और दुर्गम घाटियों में बस गये।

ऐसी ही एक दुर्गम घाटी मलाणा है जहां के वाशिंदों के बारे में विद्वानों का मत है कि ये लोग सिकन्दर के सैनिकों के वंशज हैं। अपने कथन की पुष्टि में ये विद्वान मलाणा के जमलू देवता के मन्दिर के बाहर लकडी की दीवारों पर हुई नक्काशी का प्रमाण देते हैं, जिसमें युद्धरत सैनिकों को एक विशेष पोशाक और हथियारों से लैस दिखाया गया है। मलाणा वासियों की बोली भी बडी विचित्र है और ऐसी मान्यता है कि यह बोली ग्रीक भाषा से कुछ मिलती-जुलती है। इसके अलावा मलाणा वासियों के नैन-नक्श भी ग्रीक के मूल लोगों की तरह तीखे हैं। चारों ओर से ऊंची-ऊंची पहाडियों से घिरा और मलाणा नदी के मुहाने पर बसा मलाणा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में समुद्र तल से 8640 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मलाणा पहुंचने के लिये लम्बा, कठिन और चढाईदार रास्ता नापना पडता है। गांव के आसपास पन्द्रह किलोमीटर के घेरे में कोई आबादी नहीं है। सिर्फ पेड-पौधे और जीव जन्तु ही आगन्तुक का स्वागत करते दिखते हैं।

मलाणा जाने के दो रास्ते हैं। एक मार्ग नग्गर से है और दूसरा जरी से। नग्गर से जाना हो तो तीस किलोमीटर का पैदल सफर है और रास्ते में चन्द्रखनी दर्रा लांघना पडता है। लेकिन अगर जरी होते हुए जाना हो तो पन्द्रह किलोमीटर की खडी और जोखिमपूर्ण चढाई है। मलाणा के लिये कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

मलाणा गांव दो हिस्सों में बंटा है। ऊपरी भाग जो कि पहाडी पर स्थित है को ‘धाराबेहर’ के नाम से जाना जाता है। जबकि निचले भाग को ‘साराबेहर’ कहा जाता है। गांव के बीच पडने वाले भूभाग को ‘हरचा’ कहा जाता है। हरचा एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिसके इर्द गिर्द मलाणा की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और न्यायिक गतिविधियां केंद्रित हैं। मलाणा गांव में सवा सौ घर हैं और आबादी होगी कोई हजार बारह सौ के करीब। मलाणा के अधिकांश घर लकडी के बने हैं और छतों पर स्लेटों की जगह कहीं कहीं लकडी के फट्टों का इस्तेमाल किया गया है। कई घर तीन-तीन मंजिले भी हैं, जिनमें निचली मंजिल में पशु बांधे जाते हैं और ऊपरी मंजिलों में लोग रहते हैं।

मलाणा से जुडा एक अजूबा यह है कि यहां विश्व की सबसे पुरानी लोकतान्त्रिक व्यवस्था मौजूद है। भारतीय गणराज्य का एक अंग होते हुए भी मलाणा की अपनी एक अलग न्यायपालिका और कार्यपालिका है। भारत सरकार के कानून यहां नहीं चलते। इस गांव की अपनी अलग संसद है, जिसके दो सदन हैं- ज्येष्ठांग (ऊपरी सदन) और कनिष्ठांग (निचला सदन)। ज्येष्ठांग में कुल 11 सदस्य होते हैं। जिनमें तीन सदस्य कारदार, गुर व पुजारी स्थायी सदस्य होते हैं। शेष आठ सदस्यों को गांववासी मतदान द्वारा चुनते हैं। इसी तरह कनिष्ठांग सदन में गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। यह सदस्य घर का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है।

दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही सदनों में गांव की किसी महिला को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता और इनमें पुरुषों का ही वर्चस्व होता है। अगर ज्येष्ठांग सदन के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाये तो पूरे ज्येष्ठांग सदन को पुनर्गठित किया जाता है। इस संसद में घरेलु झगडे, जमीन-जायदाद के विवाद, हत्या, चोरी और बलात्कार जैसे मामलों पर सुनवाई होती है और दोषी को सजा सुनाई जाती है। संसद भवन के रूप में यहां एक ऐतिहासिक चौपाल है जिसके ऊपर ज्येष्ठांग सदन के 11 सदस्य और नीचे कनिष्ठांग सदन के सदस्य बैठते हैं। अगर संसद किसी विवाद का निपटारा करने में विफल रहती है तो मामला स्थानीय देवता जमलू के सुपुर्द कर दिया जाता है और इस मामले में देवता का निर्णय अन्तिम व मान्य होता है।

जमलू देवता द्वारा फैसला सुनाए जाने की प्रक्रिया भी बडी विचित्र है। इस प्रक्रिया के तहत दोनों पक्षों को एक-एक बकरा लाने को कहा जाता है। फिर दोनों बकरों की टांग चीरकर उसमें जहर भर दिया जाता है। जिसका बकरा पहले मर जाये, वही पक्ष दोषी माना जाता है और उसे सजा कबूल करनी पडती है। देवता के निर्णय को चुनौती देने की हिम्मत कोई नहीं करता और न ही देवता के फैसले के खिलाफ कोई अदालत में जाने की जुर्रत करता है। अगर कोई देवता के फैसले का अपमान करे तो मलाणावासी उसका सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। यहां आने वाले आगन्तुक को देवता की तरफ से दो समय की खाद्य सामग्री व रहने का स्थान दिया जाता है। इस कार्य के लिये चार आदमी तैनात होते हैं, जिन्हें ‘कठियाला’ कहा जाता है।

मलाणा के सामाजिक संस्कार भी बडे विचित्र हैं। एक परम्परा है- बच्चे को जन्म देते समय स्त्री को घर से बाहर एक तम्बू में नवजात शिशु संग पन्द्रह दिन तक रहना पडता है। भले ही बाहर कई-कई फुट मोटी बर्फ की तहें जमी हों। इस अवधि में कोई भी व्यक्ति जच्चा और बच्चा को नहीं छू सकता। यदि कोई गलती से छू जाये तो उसे भी 15 दिन तक बाहर इनके साथ ही रहना पडता है। सोलहवें दिन घर में लिपाई-पुताई करने के बाद ही इन्हें घर के अन्दर प्रवेश दिलाया जाता है।

मलाणा में किसी की मृत्यु होने पर तीन दिन तक शोक मनाया जाता है। अगर कोई महिला विधवा हो जाये तो वह एक साल तक जेवर नहीं पहनती और उल्टी टोपी पहनती है। इस अवधि के बाद अगर वह दूसरा विवाह करना चाहे तो कोई रोक-टोक नहीं है। एक वक्त था जब इस गांव के लडके-लडकियों की शादियां गांव की चाहरदीवारी के अन्दर ही होती थी, लेकिन अब यह परिपाटी बदल रही है। मलाणावासी गांव से दस किलोमीटर दूर रशोल गांव से भी लडकियां ब्याह कर लाने लगे हैं। लेकिन मलाणा समाज में औरत की वही स्थिति है जितनी मुस्लिम समाज में। यानी वैवाहिक जीवन में उसे उसका पति कभी भी तलाक दे सकता है। अगर मर्द ने कह दिया कि घर से बाहर निकल जाओ तो फिर उस घर के दरवाजे औरत के लिये बन्द हो जाते हैं।

लेकिन दूसरी तरफ यह भी एक अकाट्य सत्य है कि मलाणा की पूरी अर्थव्यवस्था यहां की मेहनतकश महिलाओं के कन्धों पर ही टिकी हुई है। मीलों पैदल चलकर बाजार से सामान लाने, खेत-खलिहान से लेकर चौका-चूल्हा संभालने के सारे दायित्व महिलाएं ही निभाती हैं।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

1 टिप्पणी:

  1. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसा विचित्र और अनुपम ग्राम है | इस दुर्लभ जानकारी को प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत बधाई |

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