शुक्रवार, दिसंबर 02, 2011

चम्बा- श्रद्धा, शिल्प और सौन्दर्य का संगम

हिमाचल प्रदेश को अपने नैसर्गिक सौन्दर्य, अपनी समूची प्राकृतिक सम्पदा पर नाज है। हिमालय की गोद में बसे इस भूखण्ड को प्रकृति ने अत्यन्त मनोयोगपूर्वक सजाया है, संवारा है। जहां एक तरफ कल-कल करती नदियां, सौन्दर्य के दर्प में चूर उत्तुंग हिमशिखर, देववन व कंदराएं, शीतल मन्द मन्द बहती बयार, दुग्ध धवल झरने, सम्पूर्ण प्रदेश को विशेष आकर्षण शक्ति प्रदान करते हैं, वहीं लगभग छह हजार देवालयों व तीर्थ-स्थलों वाला यह प्रदेश आस्था का केन्द्र बना हुआ है। प्रदेश की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत, तीर्थ स्थल, पर्वतीय अंचल में छह विभिन्न शैलियों में निर्मित अति प्राचीन व कलात्मक इमारतें, अनूठे उत्सव व मेले तथा भोले-भाले सरल हृदयी हिमाचलवासी हर आगन्तुक को बार-बार आने का निमन्त्रण देते हैं।

इसी प्रदेश में एक जनपद है चम्बा, जहां पग-पग पर बिखरा सौन्दर्य आगन्तुकों की राह देखता है। कुछ ऐसी ही खूबियों को संजोये है मणि महेश की यात्रा, मिंजर मेला व कलात्मक मन्दिरों के लिये विख्यात अचम्भा कहा जाने वाला चम्बा।

पठानकोट से लगभग 120 किलोमीटर व डलहौजी से मात्र 47 किलोमीटर दूर रावी नदी के तट पर बसा चम्बा समुद्र तल से 996 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पठानकोट, धर्मशाला, डलहौजी, शिमला व चण्डीगढ से चम्बा के लिये नियमित बस सेवा तथा डलहौजी से टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है। चम्बा का निकटतम रेलवे स्टेशन पठानकोट देश के प्रमुख नगरों से जुडा हुआ है।

चम्बा के साथ इसके नामकरण व इतिहास को लेकर कई किंवदंतियां व रोचक घटनाएं जुडी हैं। अगर विस्तार से बात करें तो चम्बा के साथ भरमौर का जिक्र जरूरी हो जाता है। भरमौर प्राचीन काल में ब्रह्मपुर के नाम से जाना जाता था। मरु वर्मन नामक सूर्यवंशी राजा ने छठी शताब्दी में यहां अपना शासन कायम करने के बाद भरमौर (ब्रह्मपुर) को अपनी रियासत की राजधानी बनाया। इस तरह लगभग चार सौ वर्षों तक भरमौर चम्बा घाटी की राजधानी रहा। 920 ई. में तत्कालीन राजा मरु वर्मन के वंशज साहिल वर्मन ने अपनी राजधानी ब्रह्मपुर से बदलकर चम्बा कर दी। इस तरह चम्बा दसवीं शताब्दी में मरु राज्य की राजधानी बना और फिर शुरू हुई इसकी विकास यात्रा। कहते हैं कि साहिल वर्मन ने अपनी पुत्री चम्पावती के नाम पर अपनी नई राजधानी का नामकरण किया, जो कालान्तर में चम्बा हो गया। आज भी साहिल वर्मन की पुत्री के नाम पर चम्पावती मन्दिर चम्बा नगर के मध्य में विद्यमान है।

चम्बा का नामकरण साहिल वर्मन की सुपुत्री चम्पावती के नाम पर हुआ या इस क्षेत्र में बहुतायत में पाये जाने वाले चम्पा नाम के फूल पर हुआ, इस तथ्य को अगर यूं ही छोड दें, तब भी यह तो मानना ही पडेगा कि आज चम्बा को जो गौरव प्राप्त है, उसका अधिकतर श्रेय साहिल वर्मन को ही जाता है। इस राजा ने इस सम्पूर्ण क्षेत्र का विकास किया तथा अद्वितीय शिल्प एवं वास्तुकला से सुसज्जित कई कलात्मक मन्दिर निर्मित कराए।

कलात्मक मन्दिरों के लिये विख्यात चम्बा में यूं तो अनेक प्राचीन मन्दिर हैं, लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच श्रेष्ठ शिल्प सौन्दर्य का जादू समेटे लक्ष्मीनारायण मन्दिर समूह अति प्राचीन एवं विख्यात है। शिखर शैली में उत्तर से दक्षिण की ओर निर्मित यह मन्दिर समूह समूचे प्रदेश में उत्कृष्ट वास्तुकला के प्रथम चार कलात्मक मन्दिरों में से एक है। छह मन्दिरों के इस भव्य मन्दिर समूह में सबसे विशाल एवं मुख्य मन्दिर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर है। अन्य मन्दिर क्रमशः श्री राधाकृष्ण, श्री चन्द्रगुप्त, श्री गौरीशंकर, श्री अंबकेश्वर एवं श्री लक्ष्मीदामोदर के हैं। प्रांगण में कुछ अन्य लघु मन्दिर भी हैं। चम्बा के राजा जीत सिंह की विधवा रानी शारदा द्वारा निर्मित श्री राधाकृष्ण मन्दिर इस समूह में अपेक्षाकृत नवीन मन्दिर है, जबकि श्री लक्ष्मीनारायण एवं श्री चन्द्रगुप्त मन्दिर प्राचीनतम हैं, जिन्हें सम्भवतः 10वीं एवं 11वीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मन ने बनवाया था। 16वीं शताब्दी में राजा प्रताप सिंह वर्मन के राज्यकाल में इन मन्दिरों का पुनरुद्धार हुआ। कश्मीर शैली में बनी संगमरमर की श्री लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा बहुत ही सुन्दर है, जो 10वीं शताब्दी से सम्बन्धित है।

मन्दिर की दीवारों के गवाक्षों का शिल्प 15वीं शताब्दी के बाद का है। दीवारों के बाहरी तरफ उकेरी गई मूर्तियां एवं स्वतन्त्र आकृतियां देखकर दर्शक प्रथम दृष्टि में ही सम्मोहित से हो जाते हैं। ये आकृतियां एवं मूर्तियां सम्पूर्ण मन्दिर को भव्यता एवं सौम्यता प्रदान करती हैं। इस मन्दिर समूह के अन्य मन्दिरों में स्थापित अति प्राचीन प्रतिमाएं भी दर्शनीय हैं।

लक्ष्मीनारायण मन्दिर समूह के अतिरिक्त चम्बा में चौगान के साथ रावी नदी की तरफ प्राचीन हरिराय मन्दिर भी अति महत्वपूर्ण एवं दर्शनीय है। शिखर शैली में निर्मित यह मन्दिर भगवान विष्णु को समर्पित है। मन्दिर का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा अष्ट वर्मन के राज्यकाल का है। मन्दिर का वर्गाकार गर्भगृह वक्ररेखीय शिखर से अलंकृत है तथा अंतराल दो नक्काशीयुक्त स्तम्भों पर स्थित है। मन्दिर में स्थापित बैकुण्ठ विष्णु की 1.17 मीटर ऊंची चतुर्मुखी कांस्य प्रतिमा उत्कृष्ट कला का अनुपम उदाहरण है।

चम्बा से लगभग तीन किलोमीटर दूर ऊपर पहाडी पर स्थित चामुण्डा देवी मन्दिर भी इसी शैली का है। यह मन्दिर भी दसवीं शताब्दी का है। मन्दिर में माता चामुण्डा की अष्टधातु निर्मित लगभग ढाई फीट ऊंची प्रतिमा अति सुन्दर है। मन्दिर परिसर में भगवान शिव का भी एक मन्दिर है, जो 1905 के कांगडा भूकम्प में एक तरफ झुक गया था और अब तक वैसे ही तिरछा खडा है। इसके अतिरिक्त चम्बा का रानी सुही देवी मन्दिर, बंसी गोपाल मन्दिर तथा चरपटनाथ मन्दिर भी अति प्राचीन व दर्शनीय हैं।

इसके अलावा यहां की अमूल्य लोक कला के कई बेहतरीन उदाहरण शहर के मध्य में स्थापित राजा भूरी सिंह संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। वास्तुकला की दृष्टि से चम्बा के राजा उम्मेद सिंह (1748-1764) द्वारा निर्मित अखण्ड चण्डी पैलेस व रंगमहल भी अति सुन्दर व दर्शनीय हैं। 1958 में अखण्ड चण्डी पैलेस सरकार के स्वामित्व में आ गया तथा आज इसमें एक कालेज है।

शहर के बीच ही एक हरा भरा एक ऐतिहासिक मैदान है, जिसे चौगान कहते हैं। चम्बा का चौगान में ही आयोजित होता है विख्यात मिंजर मेला। इस चौगान ने चम्बा की लम्बी विकास यात्रा व इसके हर सुखद दुखद पहलू को बहुत करीब से देखा है। यहां से रावी नदी का नयनाभिराम दृश्य तथा उसमें झांकती पर्वत श्रंखलाएं देखी जा सकती हैं। शाम ढलने पर चम्बा के लोग व पर्यटक यहां घूमते-फिरते, खाते-पीते व मौज मनाते देखे जा सकते हैं। एक मेले का सा माहौल बना रहता है। वैसे भी चौगान पर वर्ष भर कोई ना कोई आयोजन चलता ही रहता है। मिंजर के अतिरिक्त दशहरा व सूही मेला इस मैदान पर होने वाले अन्य मुख्य आयोजन हैं।

चम्बा आने वाले पर्यटकों के लिये चम्बा के आसपास के दर्शनीय स्थल भी विशेष आकर्षण रखते हैं। मनमोहक स्थलों की इस श्रंखला में खजियार, डलहौजी व भरमौर अति सुन्दर व रमणीय पर्यटन स्थल हैं। खजियार, डलहौजी व भरमौर के अतिरिक्त चम्बा से सरोल (11 किलोमीटर), झामवार (10 किलोमीटर), साहू (20 किलोमीटर), सलूनी (56 किलोमीटर), कटासन देवी मन्दिर (30 किलोमीटर) का भ्रमण तथा कई पर्वत श्रंखलाओं की ट्रेकिंग भी की जा सकती है। खजियार व डलहौजी की चम्बा से दूरी क्रमशः 25 किलोमीटर व 45 किलोमीटर है, जबकि छठी शताब्दी के अति प्राचीन एवं महत्वपूर्ण मन्दिरों के लिये विख्यात भरमौर की चम्बा से दूरी 65 किलोमीटर है।


लेख: राकेश ‘मगन’
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

1 टिप्पणी:

  1. यह चम्बा .....जितनी चीजों का अपने वर्णन किया वह तो मात्र ट्रेलर है .....जितना कुछ चंबा के बारे में लिखा है ..सही है ....लेकिन ????

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