मंगलवार, दिसंबर 20, 2011

मेवाड- एक सम्पूर्ण पर्यटन स्थल

सभ्यता का अर्थ यदि विनय, शौर्य, स्वतन्त्रता, सहिष्णुता और सहयोग है तो इस अर्थ को स्थापित करने में भारतीय इतिहास की भूमिका असंदिग्ध है। हमारे देश में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां वीरता, धीरता, बलिदान, वात्सल्य, त्याग, स्वामिभक्ति, कला संगीत और नैसर्गिक आस्था की भरपूर फसल लहलहाती रही है। ऐसा ही एक जीवन्त ऐतिहासिक स्थल है महाराणा प्रताप की भूमि- मेवाड।

राजस्थान प्रदेश के दक्षिण में उदयपुर, चित्तौडगढ, जयसमन्द व कांकरोली जिलों का परिक्षेत्र पर्यटन की दृष्टि से वे सभी तत्व समेटे हुए है जिनकी हर पर्यटक इच्छा करता है। पुराणों में वर्णित मध्यमिका (चित्तौड के पास) नगरी और उदयपुर में धूलकोट के टीलों की खुदाई से मिले अवशेष मानव संस्कृति के उदभावन और विकास की कहानी कहते हैं।

हल्दीघाटी में बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप की सेनाओं के मध्य लडा गया भीषण युद्ध वस्तुतः यहां के इतिहास का मुख्य स्वर रहा है। इसीलिये चित्तौडगढ और कुम्भलगढ जैसे विशाल गिरि दुर्ग मेवाड की शोभा हैं। पत्थर यदि बोल सकते, दीवारें बातें कर पातीं तो चित्तौड पहुंचने वाला प्रत्येक इंसान जान पाता कि आजादी की ज्योति को जलाये रखना कितना कठिन है। भारत का सबसे सुन्दर 122 फीट ऊंचा संगमरमर का वह कीर्ति-स्तम्भ यही है जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा की कलाप्रियता, स्थापत्य, शिल्प, भास्कर्य की समझ को कालजयी बनाने के लिये करवाया गया था। यहीं पर भक्तिमति मीरा का वह मन्दिर है जहां उसने जहर का प्याला पीकर आस्था को परम ऊंचाई प्रदान की थी।

दिल्ली से उदयपुर के रेल-सडक मार्ग पर ‘मेवाड’ की यात्रा के लिये सभी सुविधाएं हैं जो चित्तौडगढ होकर ही आगे बढती हैं। अहमदाबाद व जोधपुर से भी यहां पहुंचना सहज है। चित्तौड का किला सन 1985 से विश्व धरोहर का अंग बन गया है। यह इसकी दर्शनीयता का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है। फिर भी यहां के मन्दिरों, प्रासादों और जलाशयों में इतना कुछ दर्शनीय है कि उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। किले की दक्षिण दिशा में कुछ निचाई पर ‘मोहरमगरी’ नामक नन्हीं पहाडी की बस यही विशेषता है कि यह महादुर्ग के पतन का कारण बनी थी। बादशाह अकबर ने युद्ध के दौरान इस पहाडी की ऊंचाई बढाने के लिये एक टोकरी मिट्टी की कीमत एक स्वर्ण-मुहर दी थी। सैंकडों लोगों की मौत के बाद ही इसकी ऊंचाई बढाकर उस पर तोप चढाकर हमला किया गया था जो सफल रहा।

दूसरा महादुर्ग कुम्भलगढ उदयपुर की उत्तर दिशा में 90 किलोमीटर दूर है। सघन-दुर्गम अरावली पर्वत श्रंखलाओं में होने के कारण यह आजीवन अजेय रहा। यहां पहुंचना एक तरह का पराक्रम ही है। इसीलिये यहां बहुत कम ही पर्यटक जाते हैं। इतिहास के शोध छात्रों के अलावा सामान्य जन के लिये यहां दो मंजिली यज्ञ वेदी, नीलकण्ठ महादेव प्रासाद, महल और भगवान विष्णु के 24 अवतारों की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं।

उदयपुर शहर साधारणतः झीलों के लिये प्रसिद्ध है जो काफी हद तक सही भी है परन्तु इसके अलावा भी यह एक सम्पूर्ण पर्यटक स्थल है। विशाल पिछौला झील की पूर्वी दिशा में खडे महाराणाओं के महल अपने वैभव और सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब पानी में देखकर स्वयं मोहित होते प्रतीत होते हैं। यह आश्चर्यजनक किन्तु सुखद लगता है कि लगातार युद्धों में घिरे रहकर भी मेवाडी महाराणाओं को इतनी फुरसत कैसे मिली कि उन्होंने स्थापत्य, शिल्प, चित्रकला, सामरिक महत्व, सुरक्षा, सुख सुविधा आदि दृष्टियों से बेहतरीन राजमहलों का निर्माण करवाया। शीश महल, छोटी बडी चित्रशालाएं, जनानी ड्योढी में रखे प्राचीन साजो-सामान, वाहन, सोने चांदी से मढी पालकियां, आयुध संग्रहालय, लघु चित्रांकन विथि, प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां, महाराणा प्रताप का जिरह बख्तर और सवा मन का भाला आदि को देखते देखते दर्शक समय भूल जाता है।

महलों से निकलकर जगन्नाथ राय का गगनचुम्बी मन्दिर, स्वरूप सागर, फतेह सागर, सहेलियों की बाडी यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को दोबाला करने वाले स्थान हैं तो लोक-कला मण्डल में अर्जित संचित लोककला की अकूत सम्पदा मन को मोह लेती है। ‘आयड’ नदी के पार धूलकोट का संग्रहालय इस भूभाग के चार हजार साल पुराने इतिहास की गवाही देता है। इसके पास ही मेवाडी महाराणाओं की अति विशाल किन्तु कलात्मक समाधि-स्मारक बरबस आश्चर्यचकित करते हैं।

उदयपुर शहर के आसपास अनेक स्थान हैं जहां पर्यटक एक ही दिन में जाकर लौट सकता है। उत्तर दिशा में बीस किलोमीटर की दूरी पर मेवाडी अधिपति भगवान एकलिंगनाथ का भव्य प्रासाद मेवाडी संस्कृति के आदि पुरुष राजा कालभोज (बप्पा रावल) की श्री वृद्धि करने वाला स्मारक है। एक परकोटे में घिरे अनेक मन्दिरों का शिल्प और मूर्तिकला आंखों को हर पल व्यस्त रखती हैं। इस स्थान से डेढ किलोमीटर पहले ‘सास बहू का मन्दिर’ के नाम से प्रसिद्ध विष्णु के शेषशायी स्वरूप का मन्दिर खण्डित होते हुए भी अपने निर्माण काल की वैभवशाली परम्परा का प्रतीक है।

नाथद्वारा उदयपुर से ठीक 50 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है। भारत में तिरुपति के बाद यही वह स्थान है जहां सर्वाधिक चढावा आता है। आज भी इस कस्बे की लगभग आधी आबादी भगवान श्रीनाथजी की चाकर हैं।

पहली दृष्टि से देखें तो लगता है कि जलाशय और बांध तथा बावडियों में ऐसा क्या है जो दर्शनीय हो। परन्तु मेवाड के लगभग दो सौ से ऊपर तालाबों और तकरीबन एक हजार बावडियों में से प्रायः प्रत्येक के साथ अलग-अअलग रोचक-रोमांचक कथाएं जुडी हैं किन्तु उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है इन जल-स्थापत्यों का रचना शिल्प। पूर्णतः शास्त्रीय विधान और अवधारणाओं पर बनी ये रचनाएं ‘जल’ को श्री हरि के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं।

मूर्तिभंजक औरंगजेब ने स्वयं आदेश देकर राजसमन्द के बांध पर बने मण्डपों में उत्कीर्ण प्रस्तरी सौन्दर्य को तोडे जाने से बचाया था। नौ चौकी के नाम से परिचित इस जलाशय के बांध में ‘नौ’ अंक के प्रति ऐसा अदभुत आग्रह दिखाई देता है कि विस्मय होता है। नौ चबूतरे नौ-नौ इंच ऊंची नौ सीढियों से जुडे हैं, मण्डपों का निर्माण नौ खण्डों में, हर मण्डप की छत पर नौ खाने आदि सम्भवतः नवग्रह की मान्यता को सन्तुष्ट करने के लिये ही बनाये गये होंगे। जल के अथाह विस्तार से कहीं ज्यादा प्रभावित करता है संगमरमर पर तक्षित भास्कर्य। यह स्थान नाथद्वारा से सिर्फ 20 किलोमीटर आगे है। इसके बीस किलोमीटर बाद है रणकपुर का भारत प्रसिद्ध जैन मन्दिर। यह स्थान निसर्ग और इतिहास तथा शिल्प का ऐसा बेजोड उदाहरण है कि अभी पूर्णतः अकेला और परिशुद्ध है। आसपास कोई गांव-कस्बा या शहर नहीं। बस केवल और केवल मन्दिर है परन्तु संगमरमर की ऐसी ख्यातिलब्ध दूसरी रचना तलाश कर पाना कठिन है। यहां पहुंचने वाला प्रत्येक पर्यटक अपनी किसी भी प्रकार की अभिरुचि के बावजूद अवश्य सन्तुष्ट होता है।

उदयपुर की दक्षिण दिशा में पचास किलोमीटर दूर जयसमन्द नामक देश की सबसे बडी प्राकृतिक झील है। इसके लिये कहावत है कि नौ नदियां और नब्बे नाले मिलकर झील का पेट भरते हैं। यह जलाशय भारतीय फिल्मकारों का प्रिय स्थान है। बांध पर बने हिमश्वेत संगमरमर के हाथी और दूर दूर तक फैले टापुओं का आकर्षण दर्शकों को यहां खींचता है।

लेख: योगेश्वर शर्मा (हिन्दुस्तान रविवासरीय, नई दिल्ली, 18 मई 1997)

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें