सोमवार, दिसंबर 12, 2011

हिमाचल में भी है ‘जुरैसिक पार्क’

‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म का निर्माण जिस स्थान को चयनित करके इस फिल्म के निर्माता स्टीवेन स्पीलबर्ग ने हॉलीवुड में किया है, यदि हम ध्यान से उन पहाडियों और उन पर उगे पेड-पौधों को देखें तो एक पल के लिये भ्रम होता है कि यह स्थान नाहन से 14 किलोमीटर दूर दक्षिणी उपत्यका में स्थित शिवालिक पहाडियों के अंचल में निर्मित ‘फॉसिल पार्क’ का तो नहीं? हालांकि यह एक विभ्रम भी हो सकता है लेकिन जुरैसिक युग और शिवालिक फॉसिल पार्क में उपलब्ध इस युगीन जीवाश्मों को देखकर अनेकों प्रश्न मन में उत्पन्न हो जाते हैं। वैज्ञानिकों और विज्ञान छात्रों के लिये तो यह विषय जैसे नई खोज का हो गया लगता है। जिस किसी ने भी इस दृष्टि से इस फिल्म को देखा है, जो विज्ञान पर आधारित है, वह अवश्य एक बार हिमाचल के इस दुर्लभ शिवालिक जीवाश्म पार्क को देखना चाहता है या फिर देख भी आया होगा। उसके मन में यह विचार भी घर कर गया होगा कि यदि जुरैसिक पार्क जैसी कोई फिल्म भारत में बनती है तो शिवालिक पहाडियों का अंचल उसके लिये उपयुक्त स्थान ही नहीं बल्कि इसका एक जुरैसिक युगीन आधार भी हो सकता है।

नाहन जिला सिरमौर का मुख्यालय है। पहले यह रियासत कालीन राजधानी थी। इस नगर को सन 1621 ई में राजा कर्ण प्रकाश ने बसाया था। नाहन से शिवालिक फासिल पार्क के लिये उतराई वाला रास्ता है। लगभग 7-8 किलोमीटर नीचे उतरकर एक गांव है जिसके बायीं ओर से एक पैदल मार्ग भी इस पार्क को चला जाता है। लेकिन काला अम्ब जो नाहन से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर है, से यहां के लिये 4 किलोमीटर का कच्चा लिंक मार्ग है। यही रास्ता वाहनों से सुकेती पहुंचाता है यानी जिस स्थान पर यह पार्क निर्मित हुआ है, उसका नाम सुकेती है। इसके नीचे बायें किनारे मारकण्डा नदी बहती है।

इस जीवाश्म पार्क को भारत सरकार के भूगर्भीय सर्वेक्षण विभाग के प्रयत्नों से विकसित किया गया है जो एशिया में पहला अपनी तरह का अनोखा पार्क है। यह मानव और प्राकृतिक वातावरण को करीब से समझने, जानने और अध्ययन करने का अनूठा और चुनौतीपूर्ण स्थान है। इस पार्क की विशेष महत्ता इस बात से है कि यह उसी जगह विकसित/ स्थापित किया गया है जहां लाखों वर्ष पूर्व पाये जाने वाले जीवों के जीवाश्म मिले हैं।

इस पार्क का निर्माण वर्ष 1974 में किया गया था। इसका विकास दो चरणों में किया गया। पहले चरण का कार्य तब शुरू हुआ था जब हिमाचल प्रदेश सरकार ने सौ एकड भूमि भारत सरकार के भू-विज्ञान सर्वेक्षण विभाग को इस कार्य हेतु सौंपी थी। यह भूमि वर्ष 1972 में दी गई। तत्कालीन राज्यपाल, हिमाचल प्रदेश श्री एस. चक्रवर्ती द्वारा काला अम्ब के स्थान पर एक क्षेत्रीय संग्रहालय का उदघाटन दिसम्बर 1972 में किया गया था। क्योंकि पार्क स्थल के लिये उस समय कोई भी वाहन योग्य मार्ग नहीं था, इसलिये जुरैसिक युगीन जीवों के कुछ दुर्लभ जीवाश्म प्रतिरूप सडक के किनारे रखे गये जिनमें तलवार रूपी घुमावदार दांतों वाले चीतों, छह उत्कीर्ण विलुप्त दांत वाले दरियायी घोडों और कवची कछुओं के मुख्य मॉडल थे। पार्क के लिये लिंक मार्ग का उदघाटन फरवरी 1974 में तत्कालीन मुख्यमन्त्री हिमाचल निर्माता डॉ. यशवन्त सिंह परमार द्वारा किया गया और तभी से लेकर यह पार्क देश-विदेश के अनुसंधानकर्त्ताओं, विद्यार्थियों, वैज्ञानिकों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है।

जीवाश्म पार्क के विकास का द्वितीय चरण दिसम्बर 1975 में प्रारम्भ हुआ और कई महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण किये गये। पार्क स्थल को सुन्दर ढंग से चारों ओर से सुरक्षित कर लिया गया और जो जीवाश्म यहां प्राप्त हुए, उनके विशाल फाइबर ग्लास के प्रतिरूप पार्क के मध्य झाडियों में विभिन्न स्थानों पर स्थापित किये गये जिससे इस पार्क का आकर्षण और बढ गया और यहां आने वालों के लिये यह समझना आसान हो गया कि लाखों वर्ष पहले ऐसे भीमकाय और भयंकर जीव भी इस धरती पर रहा करते थे- विशेषकर शिवालिक पहाडियों की उपत्यकाओं में। इन प्रतिरूपों में जिन जीवों के प्रतिरूप यहां स्थापित हैं उनमें प्रागैतिहासिक भीमकाय हाथी (मां और बच्चे के रूप में) जिसके तीन मीटर लम्बे दांत दर्शाये गये हैं, जो तलवारनुमा घुमावदार हैं, भीमकाय आकार का विचित्र जिराफ के प्रतिरूप मुख्य थे।

इसके अतिरिक्त पार्क में जीवाश्म संग्रहालय भी निर्मित किया गया जिसमें बहुत सी नई विचित्र वस्तुएं रखी गईं। इसमें नई आकृतियां, जीवाश्म, पत्थर शिल्पाकृतियां जो इस स्थान पर उपलब्ध हुई हैं, इस संग्रहालय में शामिल की गईं। इसी दौरान एक कृत्रिम जलाशय का निर्माण भी पार्क के अतिरिक्त सौन्दर्य की दृष्टि से हुआ और लगभग बीस हजार छोटे-बडे आकार के पौधे भी लगाये गये।

शिवालिक पहाडियां हिमालय की बाहरी पर्वत श्रेणियां हैं। ये मानव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। यह माना जाता है कि लाखों वर्ष पूर्व इन्हीं पहाडियों के अंचल में मानव-पूर्वजों का प्रारम्भ और विकास हुआ। शिवालिक पहाडियों से जो सर्वप्रथम जीवाश्म मिला है, वह इस बात का प्रमाण माना जाता है कि मानव-परिवार का पहला जीव है और वह निर्जन मैदानी भाग में रहा करता था। मानव विज्ञानियों के अनुसार ये प्रमाण विकासीय स्थिति और समय अनुक्रम में इतने विविध हैं कि सम्भवतः सामान्य पूर्वज से मानव और बिना पूंछ के बन्दर ने शिवालिक में एक साथ स्थान ग्रहण किया। इसी क्रम को आगे बढाते हुए एक शोध छात्र ने भी माना है कि पहला मानव चण्डीगढ क्षेत्र में 15 मिलियन वर्ष पूर्व रहा करता था। यह बात शिवालिक पहाडियों के निचले भागों में खोजे गये कुछ दांतों और जबडों के निरीक्षण के आधार पर कही गई है।

शिवालिक क्षेत्र अर्थात जहां यह जीवाश्म पार्क स्थित है, में भू-वैज्ञानिकों को विभिन्न आकारों के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। उनका मानना है कि छह हजार मीटर बिछी चट्टानी परतों में जो कि शिवालिक क्षेत्र में 2 से 25 मिलियन वर्ष पूर्व नदी प्रवाह से बनी, मेरुदण्डीय जीवाश्मों का भण्डार है। तृतीय महाकल्प के प्रारम्भ होते अर्थात 70 मिलियन वर्ष पूर्व जब मध्य हिमालय पर्वत श्रेणियां तीन से चार चरणों में विकसित हुईं, शिवालिक पहाडियों ने तीव्रता से बढना शुरू कर दिया। यह सभी कुछ प्राकृतिक था। इसी समय घोडों, पशुओं, हाथियों, सुअरों, जिराफों, दरियायी घोडों, गैंडों, मगरमच्छों, भूमि पर रहने वाले कछुओं और कई मांसाहारी पशुओं की कई आकृतियों का विकास और बढोत्तरी इस क्षेत्र में हुई लेकिन इनमें कपि मानव नहीं था। हिमयुग में जो स्तनधारी प्राणी/ पशु विलोम हो गये थे, उनके जीवाश्म अवशेष चट्टानी परतों में उपलब्ध होते हैं।

जुरैसिक पार्क फिल्म में जिस तरह के डाइनासोर दर्शाये गये हैं, उनसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शिवालिक क्षेत्र में ऐसे अनेक भीमकाय जीव मौजूद रहे होंगे और सुकेती में स्थित/ स्थापित इस जीवाश्म पार्क में जो फाइबर ग्लास के भीमकाय छह सेट स्थापित किये गये हैं वे इस बात को प्रमाणित भी करते हैं। इस स्थापित प्रतिरूपों में (जैसा कि ऊपर बताया गया है) दुर्लभ चीते, मगरमच्छ, गैंडे, हाथी, कछुए और जिराफ हैं।

यहां पाठकों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जुरैसिक युग क्या है और कितना पुराना रहा होगा तथा वास्तव में फासिल या जीवाश्म बनते कैसे हैं।

जहां तक जुरैसिक युग का सम्बन्ध है वह मध्यजीव कल्पों में मध्य युग है। मध्यजीव के अन्तर्गत तीन युग आते हैं इनमें जुरैसिक युग मध्य युग माना जाता है। ब्रौंन्यार (Brongniar) ने सन 1829 में आल्प्स पर्वत की जुरा श्रेणी के आधार पर इस प्रणाली का नाम जुरैसिक रखा था। विश्व के स्तरशैल विद्या (Stratigraphy) में इस प्रणाली का विशेष महत्व है क्योंकि इसी आधार पर विलियम स्मिथ ने, जो स्तरशैल विद्या के प्रणेता कहे जा सकते हैं, इसके अधिनियमों का निर्माण किया। इस युग के शुरू में पृथ्वी का धरातल शान्त माना गया है। परन्तु जुरैसिक युग के अपरान्ह में यह देखा गया है कि पृथ्वी पर विविध विक्षोभ हुए और समुद्री अतिक्रमणों से जगह-जगह पानी भर गया। पृथ्वी का उत्तरी मध्यवर्ती और दक्षिणी भाग पूरी तरह जल से भर गया। शेष भाग सूखा रह गया। उत्तरी समुद्र अमेरिका अवं ग्रीनलैण्ड के उत्तर से लेकर वर्तमान आर्कटिक सागर और साइबेरिया तक फैला था। यूराल पर्वत के पश्चिमी भूभाग से इस समुद्र की एक शाखा इसको उस समय के भूमध्य सागर से मिलाती थी।

वर्तमान भूमध्य सागर के विस्तार की तुलना में उस समय का समुद्र विशाल था और सम्पूर्ण पृथ्वी को घेरे हुए था। इस सागर को टेथिस सागर कहते हैं। भूविज्ञानियों का मानना है कि भारत के उत्तरी प्रदेश से लेकर उत्तरी बर्मा, हिन्दचीन अवं फिलीपीन से होता हुआ टेथिस सागर का ही एक भाग दक्षिणी सागर बनाता था। इस युग में पृथ्वी पर जो कुछ भी मौजूद होगा, वह जलमग्न होकर भूमिगत हो गया होगा और जब कभी जल सागर से पृथ्वी मुक्त हुई होगी तो रेतीली/ चट्टानी परतों में दबे तत्कालीन मानव/ जीव आज के उपलब्ध जीवाश्म हो गये होंगे। यही आधार आज भूगर्भ वैज्ञानिकों की खोज का रहा है।

इसके बाद जो शैल समूह बने वे यूरोप, दक्षिण-पूर्वी इंग्लैण्ड, उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग, एशिया माइनर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी बर्मा और अफ्रीका के पूर्वी तट पर मिलते हैं। भारत में जुरैसिक प्रणाली के पर्वत उत्तर में स्पीति, कश्मीर, हजारा, शिमला-गढवाल और एवरेस्ट प्रदेश में पाये जाते हैं। शिमला का तात्पर्य निचली शिवालिक पर्वत श्रेणियों से रहा है, जिसमें नाहन के निकट सुकेती का शिवालिक फासिल पार्क स्थित है। इसे जुरैसिक युगीन माना जाता है- और इसी केन्द्र बिन्दु को लेकर हालीवुड की ‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म बनी है। हालांकि इसमें डाइनासोर के विशाल स्वरूप को प्रदर्शित करके यह दर्शाया गया है कि जुरैसिक काल/ युग में ऐसे अनेक जानवर थे, लेकिन हिमाचल की शिवालिक पहाडियों और विशेषकर शिवालिक फासिल पार्क के परिप्रेक्ष्य में विचार और मनन करते हुए यह फिल्म कई विचार बिन्दु मानव के मस्तिष्क पर तो छोडती ही है बल्कि वैज्ञानिकों और भूगर्भवेत्ताओं को नये आयाम खोजने और जोडने के लिये भी आमन्त्रित करती है।

सामान्यतः जीवाश्म शब्द से अतीत काल के भौमीकीय युगों के उन जैव अवशेषों से तात्पर्य है जो भूपर्पटी के अवसादी शैलों में पाये जाते हैं। भौमीकीय युगों में पृथ्वी पर ऐसे अनेक जीवों के समुदाय रहते थे जिनके कठोर अंग थे। जीवाश्म बनने के लिये यह होना अनिवार्य है क्योंकि यहीं अंग युग-युगान्तर तक जीवाश्म के रूप में शैलों में परिरक्षित रह सकते हैं और आज के युग में वैज्ञानिकों/ भूविज्ञानवेत्ताओं की खोज का यही एक आधार है।

आज के सन्दर्भ में हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की सुकेती नामक जगह में स्थित यह जीवाश्म पार्क कई कारणों से ख्याति नहीं पा सका जो इसे पानी चाहिये थी। एशिया में अपनी तरह के एकमात्र होते हुए भी यहां वे सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं जो प्राथमिक स्तर पर होनी चाहिये। काला अम्ब से चार किलोमीटर की कच्ची सडक है। हल्की सी वर्षा से यह बीच-बीच में बन्द हो जाती है। यातायात सुलभ न होने के कारण लोग वर्ष भर नहीं जा सकते। इस पार्क के निकट कोई उपयुक्त आवास और जलपान सुविधा भी नहीं है। पर्यटन विकास निगम ने बहुत पहले अपना एक कैफे खोला भी था लेकिन अब बन्द कर दिया गया है। पार्क का विकास उस रूप में भी नहीं हुआ है जिस स्थिति में होना चाहिये था। जो जीवाश्म पार्क निर्माण के समय उपलब्ध थे, जो प्रतिरूप उस समय स्थापित किये गये थे, वही आज भी हैं, हालांकि उसमें कोई विकास नहीं हुआ है।

सोच का विषय यह है कि एक फिल्म निर्माता ने केवल कम्प्यूटर की सहायता से डाइनासोर विकसित करके ‘जुरैसिक पार्क’ फिल्म का विश्व भर में डाइनासोरों की तरह ही आतंक मचा रखा है और छह करोड डालर की लागत से इसे बनाया है, लेकिन हम लोग एक वास्तविक जीवाश्म पार्क के लिये, जिसमें जुरैसिक युगीन जीवों के जीवाश्म मौजूद हैं, महज चार किलोमीटर मार्ग भी यातायात के लिये अच्छी तरह नहीं बना पाये।

हालांकि वैज्ञानिक मानते हैं कि अब कभी भी डाइनासोर को धरती पर पैदा करना सम्भव नहीं है लेकिन जो विज्ञान विषय के बच्चे इस फिल्म को देखकर आते हैं, और जिन्होंने एकाध झलक में इस फासिल पार्क को देखा है, वह इस देश के वैज्ञानिकों से यह अपेक्षा अवश्य लगाये हैं कि जिस तरह डाइनासोर काल के एंबरा में दबे मच्छर के खून से डाइनासोर का डीएनए अलग किया गया, उसी तरह से इस क्लोनिंग तकनीक को अपनाकर इस क्षेत्र में पाये जाने वाले उपलब्ध जीवाश्मों को यह रूप देंगे और जो कृत्रिम माडल यहां लगाये हैं वह जीवित जैसे विचरने लगेंगे। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि पहले यदि काला अम्ब से यहां तक पक्का मार्ग ही सरकार बना दे तो यही महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

लेख: एस. आर. हरनोट

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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