मणिकर्ण तीर्थ कुल्लू घाटी का प्रसिद्धतम तीर्थ है। यहां हिन्दू और सिख दोनों बडी श्रद्धा से जाते हैं। वैसे भी देवताओं की घाटी कुल्लू अपनी प्राकृतिक सम्पदा के लिये प्रसिद्ध है। ब्यास, सरबरी, पार्वती नदियां और कई झरनें इसे सींच रहे हैं। इसी सौन्दर्य पर मुग्ध होकर देवताओं ने इसे अपना निवास बनाया होगा।
चण्डीगढ से कुल्लू जाते हुए कुल्लू से दस किलोमीटर पहले भुन्तर पडता है। यह बहुत ही खुली घाटी में बसा है। कुल्लू मनाली हवाई अड्डा यही पर है। ब्यास और पार्वती नदियों का संगम इसके सौन्दर्य को दूना कर रहा है। पार्वती के किनारे-किनारे करीब 35 किलोमीटर चलने पर मणिकर्ण आ जाता है। ब्रह्माण्ड पुराण में इस स्थल को अर्धनारीश्वर का प्रिय स्थल कहा गया है।
पार्वती के किनारे ऊंचे पर्वत और घने जंगलों के बीच संकरे मार्ग से मणिकर्ण पहुंचा जाता है। मणिकर्ण तीर्थ अपने गरम पानी के स्त्रोतों के कारण प्रसिद्ध है। इस स्थान पर करीब पच्चीस किलोमीटर क्षेत्र में जगह-जगह उष्ण जल के स्त्रोत बिखरे पडे हैं। सात हजार फीट ऊंचाई पर सघन वन के बीच यह स्थान सहज ही तीर्थ बन गया है। धन्य हैं वे वनवासी जिन्होंने इस जगह को खोजा होगा।
एक पौराणिक कथा के अनुसार मणिकर्ण स्थान पर एक बार शंकर पार्वती ने ग्यारह वर्ष तपस्या की। उस तपस्या के फलस्वरूप शंकर जी को कल्पवृक्ष की प्राप्ति हुई और पार्वती को चिन्तामणि मिली। एक दिन नदी में स्नान करते समय पार्वती के कान की मणि गिर गई। नदी की तेज धारा में बहती हुई वह मणि पाताललोक तक चली गई। पाताललोक के निवासी शेषनाग ने उसे रख लिया। शिव पार्वती के गणों ने मणि को बहुत खोजा परन्तु उन्हें नहीं मिली। तब शंकर ने क्रोधित होकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। सृष्टि कांपने लगी। प्रलय की आशंका से देव दानव सब भयभीत हो उठे।
इसी समय शिव के तीसरे नेत्र से एक कन्या जन्मी। यह कन्या नैना देवी नाम से प्रसिद्ध हुई। नैना देवी ने पाताललोक जाकर शेषनाग को पार्वती की मणि तुरन्त लौटाने को कहा। शेषनाग ने उसी क्षण एक तीव्र फुंकार मारी। उसकी फुंकार से चिन्तामणि के साथ साथ कई मणियां धरती के ऊपर आकर मणिकर्ण क्षेत्र में बिखर गईं। वे मणियां चट्टानों के बीच दब गईं। तभी से इस क्षेत्र का नाम मणिकर्ण पडा और यहां लोग मणियों की खोज में आने लगे।
इस क्षेत्र में यूरेनियम, गंधक, रेडियम, नीलम और मणियों के भण्डार हैं। गंधक के कारण ही यहां गर्म जल के स्त्रोत हैं।
आजकल शिव पार्वती के इस प्रिय स्थान में एक रघुनाथ मन्दिर और एक विशाल गुरुद्वारा भी है। यहां आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण पार्वती होटल भी खुल गया है। जीप, कार और मेटाडोर मन्दिर के द्वार तक चली जाती हैं। मन्दिर और गुरुद्वारा दोनों में भोजन और निवास की निशुल्क व्यवस्था है। जन जन का उद्धार करते 1574 विक्रमी में नानक देव इस स्थान पर आये थे। उन्हीं की पवित्र स्मृति स्वरूप यहां हरिहर घाट पर गुरुद्वारा बना है। आश्चर्य होता है इस कठिन पहाडी क्षेत्र में इतने विशाल गुरुद्वारे का निर्माण और फिर इतनी उत्तम व्यवस्था। एक हजार व्यक्ति यहां एक साथ ठहर सकते हैं और एक दिन में भोजन भी कर सकते हैं। सेवा भाव का सच्चा अर्थ यहां समझा जाता है। गर्म जल के कुण्ड मन्दिर और गुरुद्वारे दोनों में बने हैं। स्त्री और पुरुषों के लिये अलग अलग स्नान की व्यवस्था है।
मणिकर्ण के उत्तर में हरिन्द्र पर्वत है। इसकी बर्फ ढकी चोटियां चांदी सी चमकती हैं। इसी पर्वत से ब्रह्मगंगा का उदगम है। यह गंगा मणिकर्ण के पास पार्वती नदी में मिलती है। ब्रह्मगंगा की घाटी मणियों से समृद्ध मानी जाती है। मणिकर्ण से तीन किलोमीटर ऊपर रूप गंगा और 25 किलोमीटर ऊपर खीरगंगा है। खीरगंगा का पानी दुग्ध सा सफेद है। प्राचीन कथा के अनुसार खीरगंगा पार्वती के स्तनों से गिरे दूध से बनी है। खीरगंगा तक पहुंचना अत्यन्त कठिन है।
लेख: उर्मिकृष्ण
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
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