भरमौर पहुंचने का रास्ता ‘खडामुख’ से होकर जाता है। चम्बा से खडामुख तक करीब पचास किलोमीटर की दूरी बस द्वारा तय की जा सकती है। खडामुख से भरमौर जीप या बस द्वारा भी जाया जा सकता है। खडामुख और भरमौर के बीच रावी नदी बहती है।
चम्बा से करीब 65 किलोमीटर दूर एक खूबसूरत घाटी है- भरमौर। इसे ‘शिव की भूमि’, ‘गद्दियों का देश’ और ‘मन्दिरों की घाटी’ भी कहा जाता है। भरमौर का प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। आज से एक हजार वर्ष पूर्व यह ब्रह्मपुर नामक रियासत थी जिसकी नींव सन 550 में मारू वर्मा ने रखी थी। मारू वर्मा का सम्बन्ध भगवान राम के सूर्यवंश से जोडा जाता है। एक ऐतिहासिक कथा के अनुसार मारू वर्मा ने यहां ब्रह्मपुर रियासत की स्थापना करने के बाद अपने बेटे जयप्रकाश को गद्दी पर बिठाया था।
पाणिनी (600-700 ई.पू.) ने इस क्षेत्र के लोगों के लिये ‘गब्दिक’ और घाटी के लिये ‘गब्दिका’ शब्द प्रयुक्त किये हैं। गब्दिक का अर्थ गद्दियों की बस्ती कहा जाता है। समुद्र तल से करीब सात हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित भरमौर आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक चम्बा की राजधानी भी रही। कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भरमौर ‘ब्राह्मौर’ से अपभ्रंश होकर बना है। ब्राहमौर का नाम ब्राह्मणी देवी से जोडा जाता है जिसकी यहां बहुत मान्यता है। कहा जाता है कि ब्राह्मणी देवी के नाम से ही यहां का नाम पहले ब्राह्मौर पडा जो फिर धीरे धीरे बिगडता हुआ भरमौर हो गया। स्थानीय लोक कथाओं के अनुसार ब्राह्मणी देवी के इस स्थल पर कभी पुरुष का रात्रि विश्राम करना वर्जित था। ऐसा करने पर देवी नाराज हो जाती थी। लेकिन इसके बाद एक ऐसी घटना घटी जिससे न केवल इस स्थल की ख्याति दूर-दराज तक फैल गई अपितु यह स्थान ‘सिद्ध’ स्थल के रूप में विख्यात हो गया।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एक बार चौरासी सिद्ध जोकि मणिमहेश जा रहे थे, रात होने पर इस रमणीक स्थल में रुक गये। तभी एक अत्यन्त रूपवती कन्या उनके समक्ष प्रकट हुई और उसने उनसे यह स्थान तत्काल छोड देने का विनम्र अनुरोध किया। कन्या ने सिद्धों को बताया कि इस स्थल पर पुरुषों का रात्रि ठहराव वर्जित है, अतः उन्हें यह परम्परा नहीं तोडनी चाहिये। कन्या के चेहरे से इतना तेज फूट रहा था कि चौरासी सिद्ध उसके अनुरोध के आगे नतमस्तक हो उठे और वहां से चलने की तैयारी करने लगे। उसी समय भगवान शिव वहां प्रकट हुए और उन्होंने ब्राह्मणी देवी को कहा कि उनके भक्त इतनी रात में भला कहां जायेंगे। अतः तुम ही अपना निवास कहीं और स्थानान्तरित कर लो। यह आदेश देकर भगवान शिव लोप हो गये। उनका आदेश मान ब्राह्मणी देवी सिद्धों को आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गईं।
सुबह जब भरमौर के तत्कालीन नरेश साहिल वर्मन ने इस वर्जित स्थल पर साधुओं को समाधिस्थ देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। ये सिद्ध अवश्य ही कोई देवपुरुष होंगे- यह सोचकर साहिल वर्मन ने हर उस स्थान पर मन्दिर बनाने का आदेश दिया जहां वे लोग बैठे थे। इन सिद्धों में एक चरपटनाथ भी थे, जिसका साहिल वर्मन हमेशा के लिये अनुयायी बन गया। सिद्ध चरपटनाथ के आदेश पर ही साहिल वर्मन ने अपनी राजधानी को भरमौर से चम्बा स्थानान्तरित कर लिया।
भरमौर पहुंचने का रास्ता खडामुख से होकर जाता है। चम्बा से खडामुख तक करीब पचास किलोमीटर की दूरी बस द्वारा तय की जा सकती है। खडामुख से भरमौर जीप या मिनी बस द्वारा भी जाया जा सकता है। खडामुख और भरमौर के बीच रावी नदी बहती है। भरमौर कई तरह के फूलों के वृक्षों से सजी ऐसी खूबसूरत घाटी है जहां कदम रखते ही सारी थकान पलभर में छू-मन्तर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढकी रहती है।
इसी दिलकश घाटी में रहते हैं गद्दी लोग। छल कपट से कोसों दूर इन लोगों का परिश्रम स्तुतीय है और सौन्दर्य बेमिसाल। गद्दिनों को तो कुछ घुमक्कड ‘हिम कन्याओं’ की संज्ञा भी देते हैं। स्त्रियां प्रायः सूती कमीज पहनती हैं, जिसे कुर्ती कहा जाता है। नीचे यह घाघरा पहनती हैं जो विशेष प्रकार का बना होता है और जिसके साथ पूरे बाजू का चोलीनुमा कुर्ता सिला होता है। घाघरे और कुर्ते के ऊपर कमर में वे काले रंग का डोरा बांधती हैं। काली भेडों की ऊन से बना यह डोरा पन्द्रह से बीस मीटर लम्बा होता है और चोले पर इस ढंग से बांधा जाता है कि इस पर असंख्य सिलवटें बन जाती हैं। इस डोरे को गात्री कहा जाता है। यह गात्री गद्दियों के वस्त्रों को यथास्थान रखने के अलावा उनको चुस्त-दुरुस्त भी रखती है। सिर को नंगा रखना गद्दिनें अपशकुन समझती हैं। सिर ढकने के लिये ये लम्बी चौडी ओढनी ओढती हैं जिसे स्थानीय भाषा में घुंडू कहा जाता है। चांदी के आभूषणों से गद्दिनों को बहुत लगाव होता है। शरीर के विभिन्न अंगों पर पहने ये आभूषण गद्दिनों के सौन्दर्य को चार चांद लगा देते हैं।
गद्दियों का पहनावा भी काफी आकर्षक है। मर्द कमीज के ऊपर पट्टू से बना हुआ कलीदार चोगा पहनते हैं। यह चोगा घुटनों तक लम्बा होता है और कडकती ठण्ड से उनका बचाव करता है। सर्दियों में यह लोग ऊनी पाजामा पहने हैं। गद्दिनों की तरह गद्दी भी कमर में काला रस्सा लपेटते हैं। गद्दियों का यह चोगा बहुत काम का है और आडे मौसम में वे दो-चार नवजात मेमने भी इसमें रख सकते हैं।
यहां के लोगों का व्यवसाय खेती-बाडी व पशुपालन है। खेती-बाडी के लिये चूंकि यहां जमीन कम है, अतः पशुपालन विशेषकर बकरी व भेड-पालन पर ही ये लोग ज्यादातर निर्भर हैं। अपनी बकरियों व भेडों के रेवडों के साथ ये सारा वर्ष घूमते रहते हैं। सितम्बर-अक्टूबर में ये लोग निचले इलाकों में आ जाते हैं और गर्मियों में अपने ठिकानों को लौट पडते हैं।
सुनसान, दुर्गम और खतरनाक रास्तों में गद्दियों के अंगरक्षक उनके कद्दावर कुत्ते होते हैं जो जंगली जानवरों से भेडों-बकरियों और यहां तक कि अपने मालिक की रखवाली भी करते हैं। ये कुत्ते बहुत खूंखार होते हैं और जंगली भालू तक को आसानी से धूल चटा देते हैं।
गद्दी लोग प्रकृति के सबसे करीब रहते हैं। रात को खुले आकाश तले जब और जहां भी चाहें, पडाव डाल लेते हैं। स्वभाव से मस्त-मौला और फक्कड ये गद्दी लोग विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते।
यहां का गद्दी नृत्य विशुद्ध परम्परागत है और अनूठा वैशिष्ट्य लिये है। मैदानों के लोग भी गद्दी नृत्यों को बडे चाव से देखते हैं। मुखौटा लगाकर स्वांग करना भी यहां के लोगों को बखूबी आता है। मैदानों से जब गद्दी लोग अपने रेवडों सहित ठिकानों पर लौटते हैं, तो खूब नाच-गाना होता है, गीत संगीत की महफिलें जुटती हैं।
भरमौर को मन्दिरों की घाटी भी कहा जाता है। यहां के चौरासी मन्दिर काष्ठकला और शिल्प का अद्वितीय नमूना है। गद्दियों की इन मन्दिरों के प्रति गहन आस्था है। उनके मत में इन मन्दिरों में शीश झुकाने से भोले शंकर प्रसन्न हो जाते हैं। भोले शंकर के अगाध उपासक ये गद्दी सचमुच में इस घाटी में देव उपस्थिति के प्रतीक हैं। ये अलमस्त प्राणी निश्चय ही इस घाटी में गूंजता एक धार्मिक संगीत है।
लेख: गुरमीत बेदी
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
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