नयना देवी जो जन सामान्य में नैना देवी के नाम से भी प्रसिद्ध है, हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जनपद में एक त्रिकोणाकार पहाडी की चोटी पर अवस्थित प्रख्यात पुरातन शक्तिपीठ है। यह पंजाब की सीमा के भी काफी समीप है। नैना देवी के लिये नंगल से भी बसें चलती हैं और बिलासपुर से भी। बिलासपुर से नैना देवी 80 किलोमीटर दूर है। जिन दिनों मोटर की सुविधा नहीं थी, लोग आनन्दपुर साहिब से पैदल ही ‘कौलां टोबा’ होते हुए माता के चरणों में पहुंचते थे। उस पैदल मार्ग से नैना देवी स्थल मात्र 9-10 किलोमीटर पडता था।
नैना देवी के चरणों से बहने वाला जल ‘चरण-गंगा’ के नाम से ख्यात है। यह जलधारा आनन्दपुर साहिब के उत्तर की ओर से बहती हुई सतलुज में जा मिलती है। आज भी कुछ श्रद्धालु इसका अभिषेक करके ‘कौलां वाला टोबा’ की ओर बढते हैं, जिसका पुरातन नाम कौलसर है। कभी यहां कमल के फूल खिलते थे जिस कारण ऐसा नाम पडा।
नैना देवी बस स्टैण्ड से मां के मन्दिर तक पहुंचने के लिये 761 पक्की सीढियां हैं। ऊपर की अनेक सीढियों पर संगमरमर लगी हैं। नीचे से देखें तो ऊंचाई पर स्थित मन्दिर का दृश्य बडा भव्य दिखता है। आधे रास्ते में पुजारियों के घर आते हैं। अब मन्दिर की व्यवस्था सरकार के अधीन है। किंवदंती है कि देवी के मन्दिर की मूल स्थापना पांडवों द्वारा द्वापर युग में सम्पन्न हुई थी। पर वर्तमान स्वरूप में इसका निर्माण बिलासपुर नरेश राजा वीरचन्द द्वारा आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व संवत 697-730 विक्रमी में हुआ था। मन्दिर में भगवती के दर्शन पिण्डीरूप में होते हैं जिस पर नेत्र के निशान हैं। यह श्री विग्रह स्वयंभू है- किसी के द्वारा निर्मित या स्थापित नहीं है।
यह पावन शक्ति स्थल सती प्रसंग से भी जुडा बताते हैं। दक्ष यज्ञ विध्वंस जगजाहिर प्रकरण है। कहते हैं कि शिवजी सती के विरह से व्याकुल होकर उसके मृत शरीर को कन्धे पर उठाये जब तीनों लोकों में उन्मत्त घूमने लगे तो भगवान विष्णु से उनकी यह दुर्दशा सही न गई। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से सती की देह के टुकडे-टुकडे कर दिये। वे अंग 52 स्थानों पर गिरे जहां पर कालान्तर में शक्तिपीठ स्थापित हुए। सती के नेत्र (नयन) नैना देवी में गिरने से इसका यह नाम पडा। ऐसा भी प्रसिद्ध है कि भगवती की प्रेरणा से ही 14वीं सदी में नैना नामक गूजर ने इस स्थान की खोज की थी। उसकी अनब्याही एक गाय इस पिण्डी पर आकर खडी हो जाती और उसके स्तनों से स्वतः दूध निकल पडता। कहलूर (बिलासपुर) के इतिहास के सर्वप्रथम ग्रंथ ‘शशि-वंश विनोद’ में भी यह प्रकरण वर्णित है। भगवती ने अपने अन्वेषक नैना गूजर को अपने नाम से जोडकर सदा के लिये अमर कर दिया।
एक पुरातन पुस्तिका ‘श्री नयना महिषमर्दिनी महिषालय पीठ महात्म्य’ के अनुसार भगवती दुर्गा ने महिषासुर का वध इसी पर्वत पर किया था। उन्होंने अपने त्रिशूल से उसकी आंखें (नयन) निकालकर अपनी पीठ के पीछे जैसे ही फेंकी तो समस्त देवता और ऋषि मुनि ‘जय नयने’ ‘जय नयने’ का घोषनाद करने लगे। इस तरह भी मां महिषमर्दिनी दुर्गा यहां ‘नयना महिषमर्दिनी’ नाम से विख्यात हुईं।
गुरु गोविन्दसिंह ने भी नयना पीठ में शक्ति उपासना की थी। कहते हैं कि जगदम्बा ने प्रसन्न होकर उनको खड्ग प्रदान किया था जिसके बल पर उन्होंने आततायी मुगलों से लोहा लिया था। यहीं उन्होंने ‘चण्डी चरित्र’ व ‘चण्डी की वार’ की रचना की थी। यह हवन कुण्ड आज भी विद्यमान है जहां उन्होंने सवा लाख मन हवन सामग्री से होम किया था। भक्तजन इसे आश्चर्य ही मानते हैं कि इस हवन कुण्ड में भी लाखों मन सामग्री हवन किये जाने पर भी भस्मी आदि निकालने की आवश्यकता नहीं होती। शनैः शनैः सबकुछ इसी में समा जाता है। यही नहीं, वर्ष में एक-दो बार ऐसा अलौकिक दृश्य होता है कि मन्दिर के शिखर पर, पीपल के पत्ते पत्ते पर, कलश, ध्वजा, लोहे के जंगले, यहां तक कि श्रद्धालु भक्तजनों के हाथों पर स्वतः ज्योतियां जगमगा उठती हैं। परन्तु न वस्त्र जलता है और न शरीर पर उष्णता ही अनुभव होती है।
मन्दिर के पास में ‘ब्रह्म कपाली कुण्ड’ व एक प्राचीन गुफा भी अवलोकनीय है। गोविन्द सागर झील का मीलों लम्बा दृश्य यहां से दूर नहीं है। इस चोटी से प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा मनमोहक है- एक ओर पंजाब का मैदानी भू-भाग और दूसरी ओर हिमाचल की पर्वत श्रंखलाएं। बरसात में कई दफा घनी धुंध छाई होती है। यहां का श्रावण शुक्ल अष्टमी मेला विशेष प्रसिद्ध है। मां नयना देवी अपने भक्तों की सब मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। आंखों के कई रोगी यहां ‘चांदी की आंखें’ भी चढाते हैं। वाम-मार्ग के प्रचलन से कभी यहां पशु-बलि भी बहुतायत में थी। खुशी की बात है कि ऐसे घृणित पाशविक कृत्य अब लुप्तप्रायः हैं।
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
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