शनिवार, सितंबर 10, 2011

हुडान घाटी- हिमाचल का अद्वितीय सौन्दर्य

हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे स्थान हैं, जहां आप साल में चार-पांच महीने ही जा सकते हैं। चम्बा जिले की पांगी तहसील में स्थित हुडान घाटी ऐसे ही स्थानों में से एक है।

हुडान घाटी तक जाने का मार्ग पांगी के मुख्यालय किलाड से होकर है। सडक मार्ग द्वारा किलाड जाने के दो रास्ते हैं, पहला मनाली, रोहतांग पास, केलोंग, उदयपुर होकर व दूसरा जम्मू से किश्तवाड, गुलाबगढ होकर। हालांकि गुलाबगढ मार्ग को सालभर खुला रखने का प्रयास किया जाता है, लेकिन यह मार्ग केवल स्थानीय लोगों द्वारा ही प्रयोग किया जाता है। पर्यटक कश्मीर में आतंकवाद की समस्या के कारण आमतौर पर इस मार्ग का प्रयोग नहीं करते। हम बारह लोगों के ग्रुप ने भी जब हुडान घाटी जाने का कार्यक्रम बनाया तो मनाली वाले मार्ग का ही प्रयोग करने का निश्चय किया।

दिल्ली से हम लोग एक एसी बस द्वारा मनाली पहुंचे। यहां हमने एक दिन आराम कर रास्ते की थकान उतारने का निर्णय लिया व मनाली के हिडिम्बा माता के मन्दिर में दर्शन किये। यहां से केलोंग व उदयपुर हिमाचल रोडवेज की बस द्वारा भी जा सकते हैं लेकिन हमने जीप द्वारा जाने का निर्णय लिया ताकि हम रास्ते में अपनी मर्जी के अनुसार प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द ले सकें। अगले दिन सुबह हमारी जीप यात्रा शुरू हुई व कोठी, गुलाबा व मढी होते हुए हम रोहतांग पास पर पहुंच गये। यहां चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी, सफेद बर्फ को काली सडक चीरती हुई जा रही थी। यह देखकर हमें एहसास हुआ कि हर साल गर्मियों में बर्फ काटकर उसके नीचे से सडक निकालकर उसे यातायात के लायक बनाने में सीमा सडक संगठन यानी बीआरओ को कितनी मेहनत करनी पडती होगी। मन ही मन हमने उनके निर्भीक व समर्पित कर्मचारियों को नमन किया। इसके बाद हमने केलोंग के लिये प्रस्थान किया। कोकसर, तांदी होते हुए हम मनाली से 115 किलोमीटर का सफर तय कर लगभग साढे छह घण्टों में लाहौल घाटी के मुख्यालय केलोंग पहुंच गये। भागा नदी के किनारे बसा यह छोटा सा शहर है।

यहां के रहने वाले अधिकतर निवासी जनजातीय हैं व बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। शायद यही कारण था कि यहां तीन प्रसिद्ध बौद्ध मोनेस्ट्री भी हैं- कारदांग, शैशूर व तायल, जोकि दूर से ही बहुत मनमोहिनी दिखती थीं। कुछ देर केलोंग घूम कर हम किलाड के लिये रवाना हो गये। यहां से एक बार पुनः हम तांदी आये व उदयपुर, शौर होते हुए देर शाम तक किलाड पहुंच गये। सारी राह चन्द्रभागा नदी के साथ-साथ थी। तांदी के निकट भागा नदी का संगम चन्द्रा नदी से हो जाता है व यहां से यह नदी चन्द्रभागा यानी चिनाब नदी के नाम से जानी जाती है। किलाड एक छोटा सा शहर है व पर्यटकों के रहने के सीमित साधन हैं। वैसे तो यहां कुछ ढाबेनुमा होटल हैं, जहां रहने की व्यवस्था हो जाती है, लेकिन रहने का सर्वोत्तम साधन तो पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस ही है।

अगले दिन सुबह हमने हुडान घाटी की यात्रा शुरू की। वैसे तो हुडान घाटी में स्थित टकवास गांव तक हिमाचल पथ परिवहन निगम की जीप जा रही थी, लेकिन हमने छोटे मार्ग से पैदल जाने का निर्णय लिया ताकि हम घाटी के प्राकृतिक सौन्दर्य को आराम से देख सकें। कुछ दूर पैदल चलने पर हमें दूर से पवित्र शिव चोटी के दर्शन हुए। रास्ते में आने वाले कवास व भटवास गांवों को लांघते हुए हम एक झरने के समीप आकर फिर मुख्य मार्ग पर आ गये। यहां का शीतल जल पीने के बाद हमने फिर छोटे मार्ग की चढाई की व टकवास गांव पहुंच गये।

गांव के सभी लोग अपनी छतों पर खडे हुए बडी उत्सुकता से हमें देख रहे थे। शायद इस गांव में सैलानी कभी-कभी ही आते हैं इसलिये हमारा यहां आना उन्हें अटपटा लगा। दोपहर हो चली थी व आसमान में बादल घिरने लगे थे। इसलिये हमने टकवास में ही रहने का निर्णय लिया। यहां रहने के लिये कोई होटल नहीं हैं, लेकिन गांव वाले पर्यटकों को जरुरत पडने पर अपने घरों में ठहरा लेते हैं व उनके भोजन की व्यवस्था भी कर देते हैं। इस गांव के सभी लोग हिन्दू धर्म के मानने वाले थे व उनके घरों की सजावट व महंगे फर्नीचर को देखकर लगता था कि ये लोग काफी समृद्ध थे। हर घर में बिजली व पानी की व्यवस्था थी व घरों में कलर टीवी भी थे। यहां पूछने पर पता लगा कि यहां के हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को योग्यता के अनुसार किलाड में नौकरी मिली हुई है। खेती के अतिरिक्त यह अतिरिक्त आय ही इनकी सम्पन्नता का मुख्य कारण है। सच है कि ग्रामीणों का अपने मूल निवास स्थान पर ही रोजगार मिल जाये तो वे अपना घर छोडकर महानगरों में नौकरी की खोज में क्यों जायें?

अगले दिन सुबह हम अपनी आगे की यात्रा पर चल दिये। राह में एक टुण्डरू नामक गांव को पार कर लगभग चार किलोमीटर की यात्रा करने के उपरान्त हम भोटोरी पहुंचे। यहां छोटे-छोटे तीन गांव थे- गुरशुरू, भानू व अन्तरो। हमने कयास लगाया कि भोटोरी का नाम शायद भोटिया लोगों के कारण पडा हो। यहां के भानू गांव के निवासी देशराज से मालूम हुआ कि यहां के निवासी शताब्दियों पूर्व भूटान से आये थे, इसी के चलते इनकी भाषा भी घाटी के अन्य निवासियों से भिन्न है।

देशराज ने हमें बताया कि यहां से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर सजोट नामक एक छोटी सी झील है। हम अपने आप को वहां जाने से नहीं रोक पाये। लगभग 40 मिनट पैदल चलने के उपरान्त हम झील पर पहुंच गये। यहां पत्थरों की सीमा से एक गोल अहाता सा बनाया हुआ था जिसके सामने पत्थरों की सीढियां थीं। श्री देशराज ने हमें बताया कि हर साल 16-17 जुलाई को यहां एक मेला लगता है व पूरी हुडान घाटी के लोग इसमें शामिल होते हैं। इस गोल अहाते में लोकगीतों व लोक नृत्यों का कार्यक्रम होता है व उस समय यह झील भी पानी से लबालब भर जाती है। यहां से एक रास्ता इलिटवान होकर शिव चोटी की तरफ जाता है, दूसरे रास्ते से तिंगलोट जोत पार कर सुराल घाटी में जाया जा सकता है व तीसरे रास्ते से परमार जोत पारकर सैन्चू घाटी में जाया जा सकता है। अभी ये सारे रास्ते जबरदस्त बर्फ से ढके थे। वैसे यहां से कश्मीर की पदम घाटी जाने का रास्ता भी है। यह जानकारी हम जैसे घुमक्कडों के लिये बहुत उपयोगी थी। सुजोट झील में झलकती हुई बर्फ से पहाडों की परछाई बहुत ही मनभावन लग रही थी। एक तरफ से तो हम सबकी परछाई भी झील के पानी में झलकने लगी।

इन सब मोहक दृश्यों का आनन्द लेते हुए हम झील के किनारे बैठ गये। तभी एक छोटी सी बालिका अंजली हम सबके लिये एक बडे थर्मस में चाय लेकर आई। बारह हजार फीट की ऊंचाई पर यह चाय हमें अमृत से कम न लगी व हमने इसके लिये अंजलि को अनेकों आशीर्वाद दिये। यहां के लोगों की सादगी व अपनत्व देखकर हमारी आंखें नम हो गईं। हममें से कितनों ने अपने शहर में किसी अनजान लोगों को चाय या पानी के लिये पूछा होगा। यह प्यार तो ऐसी ही किसी निर्जन जगह पर मिल सकता है। यहां की कठिन जिन्दगी को जी रहे लोग ही किसी के दर्द और जरुरत को समझ सकते हैं। हम जिस अछूती सुन्दरता व मानवता को तलाशने इस स्थान पर आये थे, वह सपना साकार हो गया था। यहां की न भूलने वाली यादों को लिये हुए हम वापस आ गये। लेकिन अभी भी रह-रहकर वहां की यादें मन मस्तिष्क में भर जाती हैं।

कैसे पहुंचें:

· नजदीकी हवाई अड्डा- कुल्लू में भुन्तर जम्मू।

· नजदीकी रेलवे स्टेशन- चण्डीगढ व जम्मू।

· सडक मार्ग- मनाली व जम्मू दोनों तरफ से किलाड जा सकते हैं।

· मनाली से किलाड की दूरी लगभग 240 किलोमीटर है। किलाड से हुडान घाटी में स्थित भोटोरी लगभग 13 किलोमीटर दूर है, जिसमें से 9 किलोमीटर की यात्रा जीप द्वारा भी की जा सकती है।

कब जायें

मिड जून से मिड अक्टूबर तक। लेकिन यात्रा का सम्पूर्ण आनन्द लेना है तो जुलाई में लगने वाले मेले का आनन्द अवश्य लेना चाहिये।

यात्रा वृत्तान्त: सोमनाथ पाल

5 जुलाई 2006 नवभारत टाइम्स

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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