गुरुवार, सितंबर 15, 2011

धर्मशाला घाटी- सैलानियों का सदाबहार आकर्षण

धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की एक खूबसूरत घाटी है जहां वर्ष भर सैलानियों का तांता लगा रहता है। यहां कांगडा जिले का मुख्यालय भी है। धर्मशाला के दो भाग हैं। एक समुद्र तल से साढे छह हजार और दूसरा चार हजार फीट पर स्थित है। दोनों भागों में अनेक दर्शनीय पर्यटन स्थल हैं। इस घाटी को ‘वर्षा नगरी’, ‘मिनी तिब्बत’ व ‘पहाडों की मलिका’ भी कहा जाता है। प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं से भी यह घाटी सम्पन्न है।

देवदार व चीड के पेडों से सुसज्जित, अथाह नैसर्गिक सौन्दर्य, समृद्ध पुरावैभव और इतिहास समेटे धर्मशाला घाटी हिमाचल प्रदेश की एक ऐसी खूबसूरत घाटी है जहां वर्ष भर सैलानियों का तांता लगा रहता है। धर्मशाला को जिला कांगडा का मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त होने के साथ-साथ ‘वर्षा नगरी’, ‘मिनी तिब्बत’, ‘पहाडों की मलिका’ जैसी अनेक उपमाएं दी जाती हैं। बेहद वर्षा होने के कारण सैलानियों ने इसे ‘वर्षानगरी’ कहना ही शुरू कर दिया। तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय, भव्य बौद्ध मन्दिर और महामहिम दलाई लामा का निवास भी यही होने के कारण यहां बौद्ध धर्म के अनुयायियों का तांता लगा रहता है और इसी वजह से इसे ‘भारत में मिनी तिब्बत’ का खिताब भी मिल गया। सांप सी बलखाती सडकें, धौलाधार की नयनाभिराम श्रंखलाएं, खुशगवार हवा के झौंके इसे ‘पहाडों की मलिका’ की उपमा से सुशोभित करते हैं।

धर्मशाला एक ऐसा स्थान है जिसमें आदिकाल से लेकर वर्तमान काल तक गिगर्त अंचल की प्राचीन विरासत, संस्कृति और परम्पराओं को पूरा सम्मान और संरक्षण मिला है। धर्मशाला के दो भाग हैं- ऊपरी भाग और निचला भाग। ऊपरी भाग समुद्र तल से साढे छह हजार फीट ऊंचा है और निचला भाग चार हजार फीट पर है। दोनों ही भागों की ऊंचाई में दो से ढाई हजार फीट का अन्तर है। मैक्लोडगंज, भागसूनाग, धर्मकोट, त्रियुण्ड, डल झील, करेरी झील, इलाका, कालीकुण्ड और लमडल झील अगर ऊपरी भाग के खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं तो निचले भाग के पर्यटन स्थलों में कुनाल पथरी, चैतडू, पठियार, श्री चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम, चिलया तपोवन प्रमुख हैं। ऊपरी भाग में मैक्लोडगंज और भागसूनाग तक तो सडक सुविधा है लेकिन प्राकृतिक सुषमा से भरपूर बाकी स्थानों पर पहुंचने के लिये टांगों में दमखम चाहिये। घुमक्कडों और पर्वतारोहण के शौकीनों के लिये यह स्थल सचमुच स्वर्ग है।

धर्मशाला पहुंचने के लिये सैलानी को कोई दिक्कत पेश नहीं आती। दिल्ली, चण्डीगढ, हरिद्वार, देहरादून, शिमला, लुधियाना, जालन्धर, पठानकोट और अम्बाला से यहां के लिये सीधी बस सेवाएं उपलब्ध हैं। पठानकोट से छोटी पटरी पर चलने वाली रेलगाडी में सफर का भी निराला ही लुत्फ है। कांगडा या ज्वालामुखी रेलवे स्टेशन पर उतरकर धर्मशाला के लिये बस पकडी जा सकती है। निकटतम हवाई अड्डा गगल है और यहां से टैक्सी करके या बस द्वारा धर्मशाला पहुंचा जा सकता है।

धर्मशाला घाटी घूमने के लिये कम से कम दो-तीन दिन का कार्यक्रम बनाना जरूरी है। ठहरने की कोई दिक्कत नहीं है। पर्यटन विभाग के होटलों के अलावा ढेरों होटल व सराय यहां पर हैं। धर्मशाला के ऊपरी भाग की सैरगाहों में घूमने के बाद आप वहां तम्बू कालोनी, वन विभाग के विश्रामगृह व अन्य छोटे-छोटे होटलों में टिक सकते हैं।

मैक्लोडगंज: धर्मशाला नगर से 9 किलोमीटर दूर स्थित मैक्लोडगंज तिब्बतियों की एक बस्ती का नाम है। इस बस्ती में बौद्ध धर्म की गहरी छाप है। तिब्बतियों का भव्य बौद्ध मन्दिर भी यहीं है और निर्वासित तिब्बती सरकार का मुख्यालय भी। तिब्बतियों के धार्मिक व आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा का निवास भी यहीं है। यहां के बौद्ध मन्दिर में बौद्ध इतिहास की कई दुर्लभ पुस्तकें संग्रहीत हैं और देश-विदेश से बौद्ध भिक्षु यहां इन पुस्तकों का अध्ययन करने भी आते हैं। एक तरह से मैक्लोडगंज बौद्ध धर्म का वैसा ही केन्द्र बन गया है जैसा कभी तक्षशिला था। मन्दिर में हर समय लामा लोग पूजा-पाठ में तल्लीन रहते हैं और बौद्ध मन्त्र ‘ॐ मणि पद्मे हुमं’ का जाप करते रहते हैं। मैक्लोडगंज में यत्र-तत्र चट्टानों पर बौद्ध मन्त्र अंकित हैं। मैक्लोडगंज में तिब्बती होटल भी हैं जहां तिब्बती भोजन का आनन्द उठा सकते हैं।

मैक्लोडगंज का सेंट जॉन चर्च भी दर्शनीय है। यह चर्च लंदन के सेंट पॉल चर्च के नमूने पर अभियन्ता क्रिस्टोफर रे की दिमागी सूझबूझ का एक सजीव उदाहरण है। इस चर्च के शीशों पर जो चित्र उकेरित हैं, उस प्रकार के चित्र हमें वेटिकन सिटी के चर्च में ही मात्र दिखाई देते हैं। इसी चर्च के प्रांगण में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड एल्गिन का स्मारक है जिनकी वर्ष 1862 में यहां मृत्यु हो गई थी। चर्च के प्रांगण में एक कब्रिस्तान है।

भागसूनाग: मैक्लोडगंज से तीन किलोमीटर दूर भागसूनाग के प्राकृतिक दृश्य चश्मे, जलधाराएं बडे मनोहारी लगते हैं। यहां भागसू नामक राजस्थान के एक राजा का जल की प्राप्ति के लिये एक नाग देवता से युद्ध हुआ था। यहां भागसू एक मन्दिर भी है जो शिल्प का बेजोड नमूना है। इस मन्दिर में वर्ष भर तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहता है और राधाष्टमी को लोग डल झील और भागसूनाग के जल स्रोतों में स्नान करके मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। नवरात्रों और श्रावण के महीनों में श्री नैना देवी, चिन्तपूर्णी, ज्वालामुखी और चामुण्डा देवी के दर्शनों के लिये आने वाले हजारों श्रद्धालु भागसूनाग के मन्दिर की यात्रा को भी एक सुफल मानते हैं। इसके अतिरिक्त बैसाखी और शिवरात्रि के दिनों में भी यहां बहुत बडा मेला लगता है।

डल झील: मैक्लोडगंज से तनन गांव के रास्ते में पडने वाली डल झील प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर होने के साथ-साथ धार्मिक आस्था का केन्द्र भी है। इसके किनारों पर ऊंचे-ऊंचे देवदार के वृक्षों की घनी कतारें तथा उनके ऊपर पहाडियों पर ओक व वन वृक्ष के जंगल स्वर्गीय शान्ति व आनन्द का सुखद वातावरण प्रस्तुत करते हैं। यह झील अब सिकुड रही है लेकिन कभी इसका मूल कई मीटर गहरा था। अंग्रेजों के शासनकाल में यहां नौकाएं चलती थीं तथा कई अन्य जल क्रीडाओं का आयोजन भी किया जाता था। इस अण्डाकार झील के किनारे दुर्वेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर भी है। इस मन्दिर की प्राचीनता का भाव इससे भी होता है कि इसका वर्णन शिव पुराण में भी किया गया है।

करेरी झील: भागसूनाग की यात्रा करने के बाद ऊपरी भाग में ही समुद्र तल से साढे छह हजार फीट की ऊंचाई पर एक अन्य झील भी है। करेरी गांव से 14 किलोमीटर आगे स्थित इस झील को करेरी झील के नाम से जाना जाता है। यह झील चारों ओर से बुरांश, चीड और देवदार के वन से घिरी है। इस झील के जल में यह विशेष गुण है कि अगर किसी उच्च रक्तचाप के रोगी को इसका सेवन कुछ माह तक करवाया जाये तो वह स्वस्थ हो जाता है।

करेरी झील की प्राकृतिक आभ, हिमाचल की खजियार (चम्बा) और रिवालसर (मण्डी) की झीलों की तरह है लेकिन प्रदेश सरकार व पर्यटन विभाग इस झील की सुन्दरता बरकरार रखने के प्रति उदासीन की दिखता है और यही कारण है कि सिकुडकर इस झील का आकार निरन्तर छोटा होता जा रहा है। सर्दियों में जब इस क्षेत्र में बर्फ की चादर बिछ जाती है तो यह झील पूरी तरह जम जाती है। करेरी झील में एक बडी शिला पर शिवजी का मन्दिर है। शिव भक्तों ने यहां सैंकडों त्रिशूलें गाड रखी हैं। करेरी में वन विभाग का एक विश्रामगृह है जो 1922 में अंग्रेजों ने बनवाया था।

त्रियुण्ड: धर्मकोट के ऊपर समुद्र तल से 9300 फीट की ऊंचाई पर त्रियुण्ड नामक स्थान है। इस स्थल से हम बर्फ से आच्छादित धौलाधार श्रंखलाओं और सम्पूर्ण कांगडा घाटी का सौन्दर्यावलोकन कर सकते हैं। यहां पर उगते और डूबते सूर्य का दृश्य देखकर यूं लगता है मानों धरती और आसमान मिल गये हों। धर्मकोट से त्रियुण्ड तक का पूरा रास्ता घने वृक्षों से होकर जाता है और रंग-बिरंगे पक्षी यात्रियों का मन मोह लेते हैं।

शहीद स्मारक: धर्मशाला नगर में स्थित शहीद स्मारक भी दर्शनीय है। चीड के घने व खूबसूरत पेडों से घिरा यह स्थल सात एकड भूमि पर फैला है। इस शहीद स्मारक की काली संगमरमर की दीवारों पर हिमाचल के उन 1042 शहीद सैनिकों के नाम अंकित हैं जिन्होंने आजादी के बाद से 1971 की लडाई तक मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति दी थी। इस स्मारक की बगिया में खिले गुलाबी, लाल व सफेद गुलाब जन्म, जीवन और मृत्यु के प्रतीक हैं।

कुनाल पथरी: धर्मशाला के कोतवाली बाजार से तीन किलोमीटर दूर माता कुनाल पथरी का भव्य मन्दिर है जो एक पत्थर पर बना है। बौद्ध काल में इस स्थान पर सम्राट अशोक का एक सेनापति रहता था। अशोक की मृत्यु के बाद स्थानीय घन्यारा गांव के एक राणा ने उसका इस स्थान पर वध किया था।

चामुण्डा धाम: चामुण्डा धाम को भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। बैजनाथ-पठानकोट मार्ग पर मलां नामक स्थान से करीब पांच किलोमीटर दूर बाणगंगा नदी के एक छोर पर स्थित यह स्थल चारों तरफ से खूबसूरत धौलाधार पहाडियों से घिरा है।

यह मन्दिर मुख्य रूप से शिव व दुर्गा का है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पहले मां चामुण्डा का मन्दिर पडता है, इसमें मां चामुण्डा की एक भव्य मूर्ति स्थापित है।

मन्दिर की परिक्रमा के मुख्य द्वार के निकट कोने में दबी एक विशाल शिला पर मां चामुण्डा के चरण व शिवलिंग के चिह्न अंकित हैं। यात्रियों के ठहरने के लिये सराय व मुफ्त लंगर का प्रबन्ध है।

लेख: इकबाल

5 अक्टूबर 1994 उमंग

सन्दीप पंवार के सौजन्य से


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