लेख: उपेंद्र स्वामी
राजस्थान का शेखावाटी इलाका अपनी भव्य, विशाल और आकर्षक हवेलियों और उनकी दीवारों पर बनाये गये शानदार चित्रों के लिये दुनियाभर में प्रसिद्ध है। नवलगढ, रामगढ, महनसर, मंडावा, डूंडलोद, मण्ड्रेला, सीकर, झुंझनूं, चुरू, मुकुंदगढ, चिडावा, सूरजगढ और फतेहपुर की हवेलियां अपने आप में अदभुत कला दीर्घा हैं।
शेखावाटी की हवेलियों को दुनिया की सबसे बडी ओपन आर्ट गैलरी की भी संज्ञा दी जाती है। इन हवेलियों पर बने चित्र शेखावाटी इलाके की लोक-रीतियों, त्योहारों, देवी-देवताओं और मांगलिक संस्कारों से परिचय कराते हैं। ये इस इलाके के धनाढ्य व्यक्तियों की कलात्मक रुचि की भी गवाही देते हैं। यूं तो इस इलाके में चित्रकारी की परम्परा छतरियों, दीवारों, मन्दिरों, बावडियों और किलों-बुर्जों पर जहां-तहां बिखरी है लेकिन धनकुबेरों की हवेलियां इस कला की खास संरक्षक बनकर रहीं।
अर्द्ध-रेगिस्तानी शेखावाटी इलाका राव शेखाजी (1433-1488 ईस्वी) के नाम पर अस्तित्व में आया। व्यवसायी मारवाडी समुदाय का गढ यह इलाका कुबेरों की धरती, लडाकों की धरती, उद्यमियों की धरती, कलाकारों की धरती आदि कई नामों से जाना जाता है। अब यह इलाका अपनी हवेलियों और ऑर्गेनिक फार्मिंग के लिये चर्चा में है।
शुरूआती दौर की पेंटिंग गीले प्लास्टर पर इटालियन शैली में चित्रित किये गये हैं, जिस शैली को फ्रेस्को बुआनो कहते हैं। इसमें चूना पलस्तर के सूखने की प्रक्रिया में ही रंगाई का सारा काम हो जाता था। वही इसकी दीर्घजीविता की भी वजह हुआ करती थी। कहा जाता है कि यह शैली मुगल दरबार से होती हुई पहले जयपुर और फिर वहां से शेखावाटी तक पहुंची। मुगलकाल में यह कला यूरोपीयन मिशनरियों के साथ भारत पहुंची थी। शुरूआती दौर के चित्रों में प्राकृतिक, वनस्पति व मिट्टी के रंगों का इस्तेमाल किया गया। बाद के सालों में रसायन का इस्तेमाल शुरू हुआ और यह चित्रकारी गीले के बजाय सूखे पलस्तर पर रसायनों से की जाने लगी।
जानकार इस कला के विकास को यहां के वैश्यों की कारोबारी तरक्की से भी जोडते हैं। हालांकि अब आप इस इलाके में जायें तो वह सम्पन्नता भले ही बिखरी नजर न आये, लेकिन कुछ हवेलियों में चित्रकारी बेशक सलामत नजर आ जाती है। चित्रकारी की परम्परा यहां कब से रही, इसका ठीक-ठीक इतिहास तो नहीं मिलता। अभी जो हवेलियां बची हैं, उनकी चित्रकारी 19वीं सदी के आखिरी सालों की बताई जाती है। यकीनन उससे पहले के दौर में भी यह परम्परा रही होगी लेकिन रख-रखाव न होने के कारण कालान्तर में वे हवेलियां गिरती रहीं। लेकिन हवेलियों में चित्र बनाने की परम्परा इस कदर कायम रही कि वर्ष 1947 से पहले बनी ज्यादातर हवेलियों में यह छटा बिखरी मिल जाती है।
राजस्थान के उत्तर-पूर्वी छोर पर स्थित झुंझनूं जिला शेखावाटी अंचल की हृदयस्थली है। झुंझनूं जिले का नवलगढ कस्बा कला की इस परम्परा की मुख्य विरासत को संजोये हुए है। नवलगढ की स्थापना राव शेखाजी के वंशज ठाकुर नवल सिंह जी ने लगभग ढाई सौ साल पहले की थी। कहा जा सकता है कि चित्रकारी की परम्परा भी उसके थोडे समय बाद ही जोर पकड गई होगी। यहां की हवेलियों की दीवारों पर बारहमासे का भी सुन्दर चित्रांकन मिलता है। इनमें मध्यकालीन और रीतिकालीन जनजीवन और राजस्थानी संस्कृति बिखरी है। कुछ हवेलियों पर देवी-देवताओं के चित्र बने हैं तो कुछ पर विवाह सम्बन्धी या फिर लोक पर्वों के अलावा युद्ध, शिकार, कामसूत्र और संस्कारों के चित्र भी।
नवलगढ ठिकाने के किले में कलात्मक बुर्जें हैं जहां जयपुर और नवलगढ के नक्शे और चित्र मिलते हैं। छतों व छतरियों में गुम्बद के भीतरी हिस्से में भी गोलाकार चित्र बनाये गये हैं। नवलगढ की हवेलियां आज भी अपने मालिकों की यश-गाथाएं दुहराती हैं। गोविंदराम सेक्सरिया की हवेली में पांच विशाल चौक, पैंतालिस-पैंतालिस फुट की दो बडी बैठकें, पचास कक्ष, हालनुमा दो तहखाने, कलात्मक बरामदे और बारीकियों के कामों से युक्त जालियां हैं। पूर्णतया चित्रांकित चोखाणी की हवेली के पौराणिक चित्र और दरवाजों की शीशम की चौखटों पर किये गये बारीक कलात्मक कार्यों को देखकर कोई उसे पुरानी नहीं कह सकता। जयपुरियों और पाटोदियों की हवेलियां दो सौ वर्ष पूर्व निर्मित हैं तो सरावगियों की हवेली उनसे भी पहले की है। छावसरियों और पोद्दारों की हवेलियां डेढ-पौने दो सौ साल पहले की हैं। स्थिति यह है कि हवेलियां ही हवेलियां, एक के बाद दूसरी हवेली और खुर्रेदार चबूतरों की हवेलियां। रींगसियों की दो चौक की हवेली की दीवारों पर अनगिनत चित्र तो डीडवानियों की हवेली भी प्रसिद्ध। इन हवेलियों के डिजाइन की खूबी यह है कि हर हवेली के सामने एक ऊंचा खुर्रा है जिस पर हाथी भी चढ सकता है।
मोरारका हवेली: यह हवेली नवलगढ की उन चुनिंदा हवेलियों में से है जो थोडे रख-रखाव के कारण देखने लायक बची हैं। सन 1890 में केसरदेव मोरारका की बनाई यह हवेली अब संग्रहालय के रूप में सैलानियों के लिये खुली है जिसकी देखभाल एमआर मोरारका- जीडीसी रूरल फाउण्डेशन कर रहा है। हवेलियों के जो हिस्से इतने लम्बे काल में मौसम की सीधी मार से बचे रहे, वहां के चित्रों के रंग अब भी ताजा लगते हैं। भव्यता की डिग्री को छोड दिया जाये तो न केवल ज्यादातर हवेलियों की बनावट मिलती-जुलती है- दरवाजे, बैठक, परिंडे, दुछत्तियां, जनाना, पंखे सबकुछ एक जैसे लगते हैं, चित्रकारी में भी खास अन्तर नहीं है। चित्रकारी के अलावा हवेलियों के दरवाजे और भीतर कांच का काम भी आकर्षक रहा है। चित्रकारी मुगल व राजपूत शैलियों का मिला-जुला रूप है।
जिन हवेलियों का रख-रखाव हो रहा है, वहां इन पेंटिंग को बचाने की कोशिश हो रही है। दीवारों की मरम्मत हुई है, चित्रों की केमिकल ट्रीटमेण्ट से देखरेख हो रही है ताकि मौसम, धुएं, गंदगी आदि को साफ किया जा सके। मोरारका हवेली में जहां पुरानी पेंटिंगों को नया रूप देने की कोई कोशिश नहीं की गई है और उनके मूल रूप को ही बचाये रखने पर जोर है, वहीं पोद्दार हवेली म्यूजियम में चित्रों को उसी तरह के रंगों का इस्तेमाल करके नया रूप दे दिया गया है और इससे वे बिल्कुल नई जैसी लगती हैं। दोनों ही तरीकों ने एक ऐसी विरासत को सहेजकर रखा है जो अन्यथा बहुत तेजी से विलुप्त हो जाती।
कब व कैसे
कडाके की गर्मियों में इस इलाके में न ही जायें तो सेहत के लिये बेहतर है। अक्टूबर से मार्च तक यहां का लुत्फ सबसे अच्छे तरीके से लिया जा सकता है। नवलगढ झुंझनूं जिले में है आप यहां दिल्ली व जयपुर दोनों जगहों से पहुंच सकते हैं। जयपुर से आयें तो चौमूं व रींगस के रास्ते नवलगढ आया जा सकता है और यदि दिल्ली से आयें तो सडक मार्ग पर कोटपूतली तक आकर वहां से नीम का थाना होते हुए नवलगढ का रास्ता पकड लें।
कहां ठहरें
सैलानियों की आवक को देखते हुए नवलगढ में कई छोटे होटल उभर आये हैं। रूपनिवास कोठी, ग्रांड हवेली रिसॉर्ट जैसे अच्छे व महंगे होटल भी हैं जो उन हवेलियों में ठहरने का आभास देंगे जो देखने सैलानी वहां पहुंचते हैं। इसके अलावा यदि आप ठेठ ग्रामीण मेजबानी का लुत्फ उठाना चाहते हैं तो सहस मोरारका टूरिज्म के रूरल टूरिज्म प्रोजेक्ट में कई गांवों में भी सैलानियों के ठहरने की व्यवस्था है।
हवेलियों से भरा-पूरा है शेखावाटी
लेख: तारादत्त ‘निर्विरोध’
डुंडलोद स्थित गोयनका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम से प्रसिद्ध है। स्थापत्य की अप्रतिम उदाहरण इस हवेली का निर्माण उद्योगकर्मी अर्जन दास गोयनका द्वारा करवाया गया था जो अपने समय के सुविज्ञ और दूरदर्शी थे। उन्होंने अपनी इस विशालकाय चौक की हवेली के बाहर दो बैठकें, आकर्षक द्वार और भीतर सोलह कक्षों का निर्माण करवाया था जिनके भीतर कोटडियों, दुछत्तियों, खूटियों, कडियों की पर्याप्त व्यवस्था रखी गई थी। उन्हें प्राचीन दुर्लभ ग्रंथों, आकर्षक बर्तनों, खाट-मुड्ढियों, झाड-फानूस, आदमकद शीशों और औषधियों के लिये सुन्दर बोतलों को एकत्रित करने का शहंशाही शौक था।
उनके वंशज मोहन गोयनका ने सन 1950 में हवेली के कुछ कमरे खोल कर देखे थे जिन्हें 2004 में फिर से खोल दिया गया। भीतर से पूरी तरह चित्रांकित इस हवेली को नया रूप देने का कार्य 2000 में ही शुरू कर दिया गया था। उन्होंने इस हवेली को शेखावाटी में कलात्मक और दुर्लभ वस्तुओं का अतुलनीय संग्रहालय बनाने का निर्णय लिया। इस घुमावदार खुर्रे की हवेली का भीतरी हिस्सा लोक-चित्रों से भरा-पूरा है जिनमें श्रीकृष्णकालीन लीलाओं के चित्रों की बहुतायत है।
फतेहपुर में नंदलाल डेबडा की हवेली, कन्हैयालाल गोयनका की हवेली, नेमीचंद चौधरी की हवेली और सिंघानियों की हवेली देखना पर्यटक पसन्द करते हैं। महनसर में सेजराम पोद्दार की हवेली की सोने-चांदी की दुकान, पोद्दारों की छतरियां और गढ भव्य इमारतें हैं तो बिसाऊ में सीताराम सिगतिया की हवेली और पोद्दारों की हवेली का जवाब नहीं है। रामगढ शेखावाटी में रामगोपाल पोद्दार की छतरी में रामकथा चित्रांकित है। घनश्याम दास पोद्दार की हवेली आकर्षक और कलात्मक है तो ताराचंद रुड्या और रामनारायण खेमका हवेली के अपने आकर्षण हैं। झुंझनूं में टीबडे वालों की हवेली और ईसरदास मोदी की सैंकडों खिडकियों वाली भव्य हवेलियां हैं। मंडावा में सागरमल लडिया की हवेली, रामदेव चौखानी की हवेली, मोहनलाल नेवटिया की हवेली, रामनाथ गोयनका की हवेली, हरिप्रसाद ढेंढारिया की हवेली और बुधमल मोहनलाल की हवेली भी दर्शनीय हैं। चूडी में शिवप्रसाद नेमाणी की हवेली भी कलात्मकता का परिचय देती है जहां शिवालय की छतरी में रासलीलाएं संगमरमरी पत्थरों पर अंकित हैं। चुरू में भी मालजी का कमरा, सुराणों का हवामहल, रामविलास गोयनका की हवेली, मंत्रियों की बडी हवेली और कन्हैयालाल बागला की हवेली दर्शनीय हैं।
यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 सितम्बर 2008 को प्रकाशित हुआ था।
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