केदार की चढाई चारों धामों में से सबसे कठिन है। इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि गौरीकुण्ड करीब 5000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। वहां से आप करीब 7000 फुट चढकर मन्दिर के पट तक पहुंचते हैं। आस्था के इस सफर पर निकली पल्लवी शर्मा का वृत्तान्त:
केदारनाथ जाने की प्रबल इच्छा क्यों थी इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। किसी तीर्थ पर जाने में मुझे विशेष रुचि कभी नहीं थी। पर केदारनाथ की बात अलग है। मेरे पति माइकल तीर्थ आदि जाने में विश्वास नहीं करते। जब मैंने उन्हें अपनी इच्छा बताई तो उनका जवाब था- हां, और वहां जाकर गंदगी और कूडा फैलाना- मैं उनकी भावनाओं को समझती थी और उनसे सहमत भी थी। पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदनशीलता से मैं वाकिफ थी और उनमें यकीन भी रखती हूं। लोग तीर्थ पर तो जाते हैं लेकिन वहां की सफाई पर ध्यान नहीं देते। अधिकतर तीर्थ स्थान कूडे के ढेर बन गये हैं। सभी जगह संचालन समितियां तो हैं, पर कोई भी कूडा प्रबंधन पर ध्यान नहीं देता।
धीरे-धीरे, मैं माइकल को समझाने में कामयाब हो गई कि केदार जाने में कोई विशेष अभिप्राय है। कई महीने बीतने और बार-बार याद दिलाने के बाद आखिर हमारे जाने का दिन तय हो पाया, पर जाने के दो दिन पूर्व बारिश शुरू हो गई। हिमालय की ऊंची चोटियों पर मौसम की पहली बर्फ गिरी। पहाडों पर बारिश में सफर करना खतरों से खेलना है। पहाड गिरने से जगह-जगह रास्ते बन्द हो गये। एक बार हमने यात्रा स्थगित करने की सोची पर बाद में विचार आया कि बारिश से क्या डरना। हम तय कार्यक्रम के अनुसार ही तैयारी करते रहे।
रवानगी के दिन सुबह साफ मौसम और नीले आसमान में सूरज ने अपनी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा स्वागत किया। हमने चैन की सांस ली और घर से निकल गये। हरी घास और बारिश से धुले पेडों से ढके पर्वत पन्ने से तराशे लग रहे थे। हमें कहीं रास्ता बन्द नहीं मिला। हम उत्तरकाशी लम्बगांव होते हुए पीपलडाली पर बने पुल से भागीरथी पार कर मंदाकिनी घाटी पहुंचे। शाम तक हम रामपुर में थे। रात हमने गढवाल मण्डल विकास निगम के होटल में बिताई। कमरा आरामदायक और सुविधाओं से पूर्ण था। रामपुर से गौरीकुण्ड, जहां से केदारनाथ का पैदल रास्ता शुरू होता है, करीब 15 किलोमीटर दूर है। रात बिताने के बाद हम सुबह साढे पांच बजे गौरीकुण्ड पहुंचे।
जब हम बाजार पहुंचे उस समय तक यात्रियों की भीड नहीं शुरू हुई थी। हम फिर पैदल चलने की तैयारी करने लगे। मेरा मन पूरे 14 किलोमीटर चलने का था। माइकल इससे सहमत नहीं थे, मुझे दमा है, कुछ ही दिन पहले मैं बीमारी से उठी थी, कमजोरी तब भी थी। वह चाहते थे कि मैं घोडे पर जाऊं पर मैं जितना सम्भव हो, पैदल चलना चाहती थी। तय हुआ कि जब मुझसे नहीं चला जायेगा तो हम घोडा कर लेंगे। हम सूरज निकलने से पहले ही चढने लगे। पहाडों की तेज धूप में चढते समय व्यक्ति जल्दी थकता है, इसलिये जितना सफर सूर्योदय से पहले हो जाये, अच्छा है। 12000 फुट की ऊंचाई पर अत्यधिक ठण्ड होती है। साल में छह महीने यहां बर्फ का साम्राज्य होता है। यहां घास और कुछ प्रकार के फूलों के अलावा कोई पेड-पौधे नहीं मिलते। आधी चढाई तो जंगलों से होकर है पर उसके बाद के रास्ते में छाया के लिये टीन की चादरों से बने होटलों और चाय की दुकानों के अलावा कुछ नहीं।
जल्दी मुझे कमजोरी महसूस होने लगी। सांस लेने में कठिनाई होने लगी, जगह-जगह रुक कर आराम करना पड रहा था। मन्दाकिनी घाटी की सुन्दरता देखकर मन को जो शान्ति मिल रही थी, वही आगे बढने की शक्ति दे रही थी। हमारे साथ-साथ अन्य यात्री भी चढ रहे थे। कुछ डण्डी पर, कुछ कण्डी पर, कुछ घोडे पर तो कुछ हमारी तरह पैदल। डण्डी वहां पालकी को कहते हैं जिसे चार कहार कंधे पर उठाकर यात्रियों को ले जाते हैं। वहीं कण्डी बांस की बनी टोकरी होती है, जिसमें कुली लोग सामान और यात्रियों को पहुंचाते हैं। इस सफर को पूरा करने में उन्हें केवल चार घण्टे लगते हैं। इतने कडे श्रम के बाद भी कुलियों और कहारों के चेहरे पर आपको हमेशा मुस्कान मिलेगी।
गौरीकुण्ड से केदारनाथ के बीच में सात किलोमीटर पर रामबाडा है। रामबाडा पहुंचने तक मुझे यकीन हो गया था कि मैं पैदल नहीं चल पाऊंगी। यहां तक तो मैं धीरे-धीरे कर किसी तरह पहुंच गई। करीब डेढ किलोमीटर और चलने के बाद हमें दो घोडे मिले। हम उन पर सवार होकर आगे बढे। करीब डेढ बजे हम गरुड चट्टी पहुंचे। आगे का रास्ता मन्दिर तक समतल था। 500 मीटर और आगे जाने के बाद हमने घोडे छोड दिये और फिर पैदल चलने लगे। मन्दिर डेढ किलोमीटर दूर था। सामने बर्फ से ढके पहाडों के बीच सुन्दर घाटी थी, यही हमारा गंतव्य था। दूर से हमें मन्दिर का शिखर दिखाई दिया और सारी थकान जैसे दूर हो गई। केदारनाथ बाजार पहुंचकर हमें काली कमली धर्मशाला में 250 रुपये में बढिया कमरा मिल गया। धर्मशाला के मैनेजर ने बताया कि मन्दिर के पट ढाई बजे बन्द हो जाते हैं और फिर संध्या दर्शन और आरती के लिये शाम पांच बजे खुलते हैं। हमने तय किया कि पट खुलने तक आराम करेंगे।
मन्दिर के रास्ते के दोनों तरफ दुकानें, धर्मशालाएं और होटल थे। हर जगह यात्रियों की भीड थी। जब हम मन्दिर की ओर बढे तब सूरज ढलने वाला था। उठते बादलों के पर्दे में से झांकता केदार पर्वत का शिखर स्वर्ण जडित पगोडा प्रतीत हो रहा था। मन्दिर के पीछे आदि शंकराचार्य का समाधि स्थल है, हम पहले वहां गये। समाधि-स्थल एक विशाल हॉल के भीतर स्थित है जहां शंकराचार्य की स्मृति में शिवलिंग स्थापित है। मान्यता है कि शंकराचार्य शिव के अवतार थे और वह केदारनाथ में आकर यहां से अंतर्ध्यान हो गये थे। शिवलिंग के निकट ही शंकराचार्य की प्रतिमा स्थापित है। हमने कुछ अगरबत्तियां जलाकर शिवलिंग और प्रतिमा दोनों की विधिवत पूजा की और कुछ देर ध्यान लगाकर बैठ गये। पूजा समाप्त कर बाहर जाने लगे तो पास में खडे साधु ने मुझे प्रसाद रूप में रुद्राक्ष दिया। समाधि स्थल से बाहर आकर मन्दिर की तरफ बढे जहां दर्शनार्थियों की लम्बी कतार थी। हम भी अगरबत्तियां पकडे गर्भगृह के द्वार से केदारनाथ के दर्शन के लिये अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। आखिर दर्शन की बारी आ ही गई। पीले रेशमी वस्त्र और सोने-चांदी के आभूषणों से सजे केदारनाथ को देखकर मन श्रद्धा से भर गया। हमने अगरबत्तियां द्वार पर खडे रावल को दे दीं और अन्दर जाने की अनुमति मांगी। रावल ने मना करते हुए बताया कि अन्दर केवल दोपहर दो बजे तक ही जा सकते हैं, शाम को अन्दर जाने के लिये विशेष पर्ची बनवानी पडती है। मैं मायूस हो बाहर आने के लिये मुडी ही थी कि तभी रावल ने धीरे से कहा- आप द्वार के पास रुकिये मैं अन्दर पहुंचा दूंगा। मैं मन्दिर में खडी होकर रावल के बुलावे की प्रतीक्षा करते हुए मन्दिर की बनावट निहारने लगी। बाहर से तो मन्दिर में अधिक नक्काशी नहीं है, मन्दिर के भीतर बहुत बारीक कारीगरी की गई है। पत्थरों के बने विशाल खम्भों पर सजीव आकृतियां उकेरी गई हैं।
करीब दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद रावल ने मुझे अन्दर आने का इशारा किया। एक अन्य परिवार के साथ में गर्भगृह के अन्दर जाकर बैठ गई। मेरे एकदम सामने शिवलिंग था, आरती देखने के लिये सबसे अच्छी शायद ही कोई जगह हो सकती थी। वातावरण शिवमय था। इतने में पीछे से हलचल सी हुई और मन्दिर के महन्त आरती की सामग्री लेकर अन्दर आये। उनके पीछे महारावल ने प्रवेश किया। रेशम का कुर्ता और पीली धोती पहने महारावल लिंग के चारों ओर घूमकर आरती करते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे कोई नर्तक अनोखा नृत्य कर रहा हो। आरती करीब 15 मिनट चली फिर प्रसाद बंटने लगा और महारावल खास श्रद्धालुओं के मस्तक पर बाबा का भभूत लगाने लगे। मैं बाहर की ओर जाने लगी तो जिस रावल ने मुझे अन्दर जाने दिया था, आये और बोले कि आप रुकिये, मैं आपको विशेष प्रसाद दूंगा। कुछ देर में मन्दिर खाली हो गया। महन्त, रावल और मन्दिर समिति के कार्यकर्ता के अलावा कोई नहीं था। रावल और महन्त सब मन्दिर साफ कर बन्द करने की तैयारी कर रहे थे। इतने में महारावल अन्दर से आये, उनके हाथ में भभूत का कटोरा था, उन्होंने आकर मेरे सिर पर एक मुट्ठी भभूत डाल दिया और लिंग पर से उतारे हुए कुछ फूल दिये। मैंने उनका आशीर्वाद लिया। इतने में वो रावल, जिन्होंने मुझे रुकने को कहा था, आ गये। वह मुझे गर्भगृह में ले गये और वहां लिंग से उठाकर फूल और प्रसाद दिया। मैंने लिंग को प्रणाम किया और शान्ति से खडी होकर अपने इष्ट को निहारती रही। इस अदभुत दर्शन के लिये मैंने रावल को धन्यवाद दिया और कुछ दक्षिणा देनी चाही, उन्होंने इंकार कर दिया। बहुत आग्रह पर ही उन्होंने दक्षिणा स्वीकार की।
केदारनाथ में छोटी से छोटी वस्तु भी गौरीकुण्ड से घोडे, खच्चर या कण्डी पर आती है, फिर भी आपको यहां किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। सभी जरूरी वस्तुएं मिल जाती हैं। सुबह सूर्योदय से पहले ही हम उठकर मन्दिर में दर्शन करने चले गये। शंकराचार्य समाधि पर एक बार फिर पूजा कर हम 6:30 बजे लौट आये। हमारी केदार यात्रा सकुशल पूरी हो गई। दो दिन में 22 किलोमीटर चलने से पैर तो दर्द कर रहे थे, पर मन जोश से भरा था। फिर आने का संकल्प कर हम लौट आये।
यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 31 अगस्त 2008 को प्रकाशित हुआ था।
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