लाहौर! बचपन से ही मन में बसा एक नाम- बडा मजबूत सा- शायद लोहा से मिलता-जुलता होने के कारण, जैसे बचपन में कराची और रांची मेरे लिये एक ही जगह थी। मां ने जब बताया कि रांची हिन्दुस्तान में और कराची पाकिस्तान में है तो उस समय भी लगा कि इतने एक जैसे नाम दो देशों में क्यों? मोहन जोदडो और हडप्पा सभ्यता और तक्षशिला के बारे में इतिहास में पढा तो, मगर तब यह नहीं समझ में आया कि यह पाकिस्तान में हैं, जैसे बचपन में यह कभी समझ में नहीं आया कि टैगौर या बंकिम बांग्ला के लेखक हैं।
बहरहाल... पाकिस्तान देखने, घूमने की तमन्ना अन्य किसी भी देश जाने से ज्यादा थी। बिटिया की पढाई के सिलसिले में वहां जाने से यह इच्छा और बलवती हुई। लोगों की भवें और सिकुडीं- ‘अच्छा! पाकिस्तान में पढाई भी होती है? वहां इंडिया से ज्यादा स्टडी इन्फ्रास्ट्रक्चर है?’ आज से बीस साल पहले चीन जाते समय भी भवें तनी थीं- ‘और कोई देश नहीं मिला तुम्हे?’ पाकिस्तान से लौटने पर लोगों ने कहा- ‘शुक्र है, जिंदा लौट आई!’
कितना कम और कितना गलत जानते हैं हम अपने ही पडोसी और एशियाई मुल्कों के बारे में। पश्चिमी मीडिया को धन्यवाद कि वह हमारे इन भ्रमों को, सन्देहों को बढाने में और भी मदद करता है। लाहौर यात्रा ने हमारे इन भ्रमों को तोडा। वीजा की औपचारिकता निभाने के बाद हम चार अप्रैल को आखिरकार लाहौर पहुंच ही गये। ‘जिस लाहौर नई देख्या, समझो जन्मयाई नहीं।’ हमने लाहौर देखा। देखने के बाद इस बात पर यकीन हुआ।
इतनी चौडी-चौडी सडकें- आठ भागों में बंटीं- सर्विस रोड ग्रीन बेल्ट- नहर मुख्य सडक- यही दोनों तरफ। ड्राइविंग बाईं तरफ की ही है। साफ-सफाई के मामले में दिल्ली से भी आगे। मुम्बई की तो बात ही न की जाये। भीतरी सडकें भी यहां के बडे शहरों की मुख्य सडकों जितनी चौडी। रिहाइशी इमारतों का प्रचलन ही नहीं। शहर क्षैतिजाकार में फैला हुआ- लोगों के अपने-अपने घर- ज्यादा से ज्यादा दो मंजिल तक- घरों के क्षेत्रफल देखने के लिये केवल आंखें नहीं, गर्दन दाये से बायें घुमानी पडतीं। मुम्बई की रिहाइशी इमारतों के बडे-बडे गेट जैसे इन घरों के गेट।
लाहौर कभी पुराना सांस्कृतिक गढ रहा- विभाजन ने इस गढ में भयानक सेंध लगाई और धीरे-धीरे कला की धरोहरें गायब होने लगीं- कभी यहां फिल्मों का गढ था- आज की पुरानी बडी-बडी हस्तियां, प्राण, देवानन्द वगैरा लाहौर से ही थे। भीष्म साहनी और बलराज साहनी यहां के गवर्नमेण्ट कॉलेज की देन थे। फैज अहमद फैज की बेटी और बीकन हाउस नेशनल यूनिवर्सिटी की डीन सलीमा हाशमी कहती हैं- मेरी बेटी हिन्दी जानती है- भीष्म जी के बच्चों के साथ उसने हिन्दी सीखी और बाद में भीष्म जी की चीजें यहां की यूनिवर्सिटी से निकलवाने में बिटिया की हिन्दी बहुत काम आई।
विभाजन के बाद लोगों का इधर से उधर और उधर से इधर का विस्थापन हुआ- मंटो और नूरजहां जैसी हस्तियां उधर चली गईं। सियासी मसलों ने एक दूसरे के प्रति और ज्यादा जहर बोया, काटा और उगला। जानकार कहते हैं कि 1965 तक लाहौर में हिन्दी और पाक की फिल्में आमने सामने मुकाबले पे लगती थीं। तब कई बार हिन्दी फिल्में रोक देनी पडती थीं। 1965 के बाद हिन्दी फिल्मों पर बैन लगा और इस्लाम और सियासतदानों के जानिब से फिल्में बनने की संख्या कम होती चली गई। तब ग्यारह स्टूडियो होते थे, जो आज घटकर दो-तीन रह गये हैं। इनमें भी टेलीविजन कार्यक्रमों के शूट होते हैं।
हम भी दिमाग में यह तसव्वुर बनाकर चले थे कि लाहौर एक बन्द, घुटा-घुटा सा शहर होगा- गरीबों, मजलूमों से घिरा, खातूनों के पर्दों से जकडा, मौलवियों, मुल्लाओं की टोपियों, चोगों से घिरा... मगर ऐसा कुछ न था। यहां भी उसी वर्ग की औरतें बुर्का पहनती हैं जिस वर्ग की अपने यहां। लडकियां जींस में, खुले सर इधर से उधर रंग-बिरंगे फूलों और तितलियों की तरह लहराती, बलखाती मिलीं। हां, स्कर्ट अलबत्ता नहीं दिखी और ना ही खुली पोशाक- तंग मोहरी की शलवार और उसके ऊपर कमीज और दुपट्टा... दुपट्टा सर पर अपने अपने पारिवारिक चलन के मुताबिक। बीएनयू की गर्ल्स हॉस्टल की वार्डन गजाला बताती हैं- जब हम इंडिया गये, तब हमने सोचा था, सबकुछ अलग होगा, पर हमारी लडकियों ने कहा- ‘हाय अल्ला! यहां की भैंसें तक हमारी भैंसों जैसी ही हैं।’
बाजार, दुकान, लोगों के आपसी हंसी-मजाक, शोहदे और मनचले सभी एक ही जैसे। हमें कभी नहीं लगा कि हम इनसे कुछ अलग हैं। हकीकत तो ये थी कि दिखना भी नहीं चाहते थे। पहले दिन बिन्दी लगाई, दूसरे दिन से छोड दी। साडी हमारी राष्ट्रीय पोशाक है, वहां साडियां अब केवल किसी खास मौके पर पहनी जाती है। कमर, पीठ, पेट आदि के दिखने के कारण इसे बहुत अच्छा नहीं माना जाता- मगर पसन्द सभी को है। पुरुषों की पोशाक कुर्ता-शलवार (पठान सूट) है और हर तबके के लोग इसे पहनते हैं- पैंट शर्ट पढा-लिखा तबका ज्यादा पहनता है। पाकिस्तान उच्चायोग में तो यह वर्दी ही थी। एक डेलीगेशन वहां मिलने आया। पूरे ग्रुप ने कुर्ता, शलवार, जैकेट पहन रखा था।
लडकियां पढ रही हैं, मगर ख्वातीनों के अधिक काम करने का चलन कम है। इसीलिये मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि मैं क्या करती हूं। लेकिन तथाकथित ऐसे बन्द मुल्क में महिला ट्रैफिक पुलिस और होटल में वेट्रेसेस भी मिलीं। टेलीविजन पर अब खबरें पढने वाली या एंकरिंग करने वालियों के सरों पर चादरें नहीं होतीं।
पंजाब होने के कारण लहजा ठेठ पंजाबी है- मगर तकल्लुफ बिल्कुल साफ। मुल्क बनने के बाद उर्दू में तर्जुमा और आम जिन्दगी में उनका इस्तेमाल बढा है- ‘एक्सक्यूज मी’ की जगह ‘बात सुनें’ और सिग्नल और रेड, यलो, ग्रीन लाइट के बदले इशारा। लाल, पीली और सब्ज बत्तियां, लेफ्ट और राइट के बदले उल्टे और सीधे हाथ कहने का प्रचलन है। बोलने से पहले ‘अस्सलाम वालेकुम’ बोलना जिन्दगी का हिस्सा है। यहां तक कि फोन पर भी हैलो के बदले अस्सलाम वालेकुम।
मजबह और अल्लाह खून के कतरे की तरह समाया हुआ है- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, अल्लाह की मेहरबानी, अल्लाह का शुक्र वगैरह सहज तरीके से जबान में बस गये हैं। बोलने वालों को एहसास भी नहीं होता कि वह इन अल्फाजों का इस्तेमाल कर रहा है। मैंने गौर किया कि यहां भी भगवान मालिक है, भगवान की दया से आदि खूब बोला जाता है। बस पढा-लिखा तबका और धर्म से तथाकथित परहेज रखने वाले इसे नहीं बोलते। मुल्कों की समानता में एक बडी समानता है- भिखारियों की और धार्मिक स्थलों पर तथाकथित लोगों द्वारा आपको घेर लेने की। हर मोड पर, बाजार में, होटलों के आसपास- मसलन यहां की तरह वहां भी... यह नजारा बेदह उदास करता है- भीख ही मांगनी थी तो अलग ही क्यों हुए? वाघा बॉर्डर पर यह सवाल बार-बार मन को मथता रहा- रोजाना की झण्डा उतारने की 25 मिनट की परेड देखने लायक है। जवानों की आवाज से उडते परिन्दों को देखकर यह गीत याद आता रहा-
‘पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इसे रोके, सरहद इंसानों के लिये है, सोचो तुमने और हमनें क्या पाया इंसां होके’ परेड के दौरान दोनों ओर के हुजूम के जज्बात से लगे कि काश- यह गेट हमेशा के लिये खुल जाता। दोनों ओर के लोग एक-दूसरे से मिल जाते, दूरियां खत्म हो जातीं। वाघा पर ही हमें इंडियन नेटवर्क भी मिल गया। दिलों के नेटवर्क मिले और 50 मिनट की हवाई यात्रा की दूरी और अमृतसर से लाहौर की 60 किलोमीटर की दूरी- सबकुछ नामालूम सी, मगर दो मुल्कों के कायदे-कानूनों में फंसकर इतना बडा मसला हो जाता है कि हिम्मत जवाब देने लगती है। यह खत्म हो जाये तो कितना अच्छा हो।
पडोस का सफरनामा
कैसे पहुंचें:
लाहौर देखने, महसूस करने में किसी उत्तर भारतीय शहर जैसा तो है ही, वहां पहुंचना भी उतना ही सहज है जितना कि हमारे पंजाब के किसी शहर में जाना। आखिरकार अमृतसर के उस पार ही तो है लाहौर। वैसे लाहौर के लिये दिल्ली से इस्लामाबाद होते हुए उडान भी पकडी जा सकती है। यह रास्ता कम समय वाला बेशक सही लेकिन नजदीकी का एहसास लेना हो तो दिल्ली से चलने वाली समझौता एक्सप्रेस या सदा-ए-सरहद बस बेहतर विकल्प हो सकता है। अमृतसर के उस पार वाघा बॉर्डर से लाहौर के लिये 20 रुपये में बस और 400 रुपये में टैक्सी मिल सकती है। आसपास के शहरों को जाने के लिये लाहौर से अच्छी बसें उपलब्ध हैं। रास्ता भी अच्छा है। मिनी बसों के अलावा स्काईवे, नियाजी एक्सप्रेस, दाइवू आदि की लग्जरी बसें भी खूब मिलती हैं।
क्या देखें:
हमारे पुरखे एक रहे हैं, इसलिये पुराने लाहौर में कहीं आपको दिल्ली के चांदनी चौक व जामा मस्जिद इलाके की झलक मिलेगी तो ऐतिहासिक इमारतों को देखते हुए बरबस आपके मुंह से निकल पडेगा कि यह तो हमारे आगरे के किले, फतेहपुर सीकरी या लालकिले से काफी कुछ मिलता जुलता है। लाहौर के किले में मुगलों के साथ-साथ सिखों के इतिहास की झलक भी आपको मिल जायेगी। लाहौर में ही राजा रणजीत सिंह की समाधि भी है। बादशाही मस्जिद मुगल बादशाह औरंगजेब ने बनवाई थी और लम्बे समय तक यह दुनिया की सबसे बडी मस्जिद थी। इनके अलावा भी कई मुगलकालीन ऐतिहासिक इमारतें यहां हैं। शाही हम्माम, आसिफ जाह हवेली इनमें शामिल हैं। दाता दरबार हजरत दातागंज बख्श की याद में बना है तो मीनार-ए-पाकिस्तान अलग मुल्क की मांग उठाने की याद में। इसे पाकिस्तान का एफेल टॉवर भी कहते हैं। लाहौर म्यूजियम में कंधार के बुद्ध मिल जायेंगे तो पंजाब यूनिवर्सिटी का पुराना कैम्पस भी देखने लायक है।
गवालमण्डी के बिना लाहौर का जिक्र अधूरा है। खोमचों, ठेलों, दुकानों से फली-फूली यह सडक कोई खास लम्बी तो नहीं लेकिन शाम आठ बजे के बाद यहां खाने-पीने के शौकीन लोगों का हुजूम उमडने लगता है। आधी रात यहां कब होती है, इसका एहसास तक नहीं होता और कोई हैरत की बात नहीं कि भोर की पहली किरण आपको याद दिलाये कि अब जाने का वक्त हो गया।
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