उत्तराखण्ड हिमालय की तलहटी में स्थित कार्बेट नेशनल पार्क दुनिया के चर्चित राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है। कुदरत ने यहां जमकर अपना वैभव बिखेरा है। हरे-भरे वनों से आच्छादित पहाडियां, कल-कल बहते नदी नाले, चौकडी भरते हिरणों के झुण्ड, संगीत की तान छेडते पंछी, नदी तट पर किलोल भरते मगर, चिंघाडते हुए हाथियों के समूह और शेर की दहाड से गूंजते जंगल कार्बेट नेशनल पार्क की सैर को अविस्मरणीय बना देते हैं।
कार्बेट नेशनल पार्क को देश का पहला राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है। इसकी स्थापना 8 अगस्त 1936 में हुई। ब्रिटिश शासन से पूर्व यह क्षेत्र पाताली दून के स्थानीय शासक के अधीन था। सन 1820 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने पर इमारती लकडी के लिये यहां वनों में भारी कटान किया गया। सन 1858 में मेजर रैमजे के प्रयासों से यहां के वनों को सुरक्षित रखने के लिये व्यवस्थित कदम उठाये गये। इसी क्रम में सन 1861-62 में ढिकाला और ‘बोक्साड के चौडों’ (घास के मैदान) में खेती, मवेशियों को चराने और लकडी कटान पर रोक लगा दी गई। सन 1868 में इन वनों की देखभाल का जिम्मा वन विभाग को सौंपा गया और 1879 में इसे आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया।
सन 1907 में सर माइकल कीन ने इन वनों को वन्य प्राणी अभयारण्य बनाने का प्रस्ताव रखा किन्तु सर जौन हिवेट ने इसे अस्वीकृत कर दिया। इसके पश्चात सन 1934 में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर मैल्कम हेली ने इसे अभयारण्य बनाने की योजना बनाई और इसी दौरान लन्दन में सम्पन्न संगोष्ठी में संयुक्त प्रान्त के पर्यवेक्षक स्टुवर्ड के प्रयासों से राष्ट्रीय उद्यान का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। इस तरह सन 1936 में राष्ट्रीय पार्क की स्थापना हुई और इसे हेली नेशनल पार्क के नाम से जाना जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद इसका नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखा गया किन्तु 1955 में मशहूर अंग्रेज शिकारी जिम कार्बेट के निधन के पश्चात श्रद्धांजलि स्वरूप इस पार्क को कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान नाम दे दिया गया। जिम कार्बेट ने इस उद्यान के सीमांकन और इसे स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गढवाल और कुमाऊं की पहाडी जनता को नरभक्षी बाघों से मुक्ति दिलाने के कारण कार्बेट अपने जीवन काल में ही एक दन्त कथा बन चुके थे। जानवरों और पक्षियों की बोली समझने में उन्हें महारथ हासिल था। पगडंडियों पर दबी घास, पंजे और खुरों के निशान से ही वह यह पता लगा लेते थे कि कौन सा जानवर कब उस राह से गुजरा था। जंगल और शिकार की कई लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक जिम कार्बेट ने अपने आखेट जीवन में सिर्फ उन्हीं शेर या तेंदुओं का शिकार किया जो आदमखोर थे।
शुरू में यह उद्यान 323.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था। वन्य जन्तुओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सन 1916 में इसमें 197.07 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र और मिलाया गया। इस तरह इसका क्षेत्रफल बढकर 520.82 वर्ग किलोमीटर हो गया।
पहली अप्रैल 1973 को प्रोजेक्ट टाइगर नामक महत्वाकांक्षी परियोजना का श्रीगणेश भी कार्बेट नेशनल पार्क से किया गया। सन 1991 में कार्बेट टाइगर रिजर्व का विस्तार किया गया। राष्ट्रीय उद्यान के अतिरिक्त इसमें सोना नदी वन्य जन्तु विहार और कालागढ आरक्षित वन क्षेत्र मिलाकर इसका क्षेत्रफल बढकर 1318.54 वर्ग किलोमीटर हो गया है। कार्बेट के इस नये स्वरूप की अधिकांश पर्यटकों को अभी जानकारी नहीं है। यही वजह है कि विस्तृत टाइगर रिजर्व में आवासीय सुविधाओं के बावजूद भी पर्यटन गतिविधियां नगण्य हैं।
कब जायें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान अथवा टाइगर रिजर्व की सैर 15 नवम्बर से 15 जून के बीच कभी भी की जा सकती है। नवम्बर से फरवरी के मध्य यहां तापमान 25 से 30 डिग्री, मार्च-अप्रैल में 35 से 40 तथा मई-जून में 44 डिग्री तक पहुंच जाता है। इनमें से आप अपना पसंदीदा मौसम चुन सकते हैं।
कैसे जायें: यह सभी प्रमुख शहरों से सडक मार्ग से जुडा हुआ है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से गाजियाबाद, हापुड होकर मुरादाबाद पहुंचने के बाद यहां से स्टेट हाइवे 41 को पकडकर काशीपुर, रामनगर होते हुए यहां पहुंच सकते हैं। लखनऊ से भी राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से सीतापुर, शाहजहांपुर, बरेली होते हुए मुरादाबाद और वहां से उपरोक्त मार्ग से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान पहुंचा जा सकता है।
निकटतम रेलवे स्टेशन रामनगर है जो दिल्ली, लखनऊ और मुरादाबाद से जुडा हुआ है। वायु मार्ग से यहां पहुंचने के लिये फूलबाग (पन्तनगर) निकटतम हवाई अड्डा है जो 115 किलोमीटर दूर है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 290 किलोमीटर, लखनऊ 503 किलोमीटर, देहरादून 203 किलोमीटर।
कहां ठहरें: कार्बेट नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व में पर्यटकों के आवास के लिये ब्रिटिशकालीन वन विश्राम गृहों से लेकर आधुनिक पर्यटक आवास गृह और स्विस कॉटेज टैंट आदि की समुचित व्यवस्था है। सुविधाओं की दृष्टि से ढिकाला पर्यटकों के ठहरने की पसन्दीदा जगह है। इसके अतिरिक्त लोहा चौड, गैरल, सर्पदुली, खिनानौली, कण्डा, यमुनाग्वाड, झिरना, बिजरानी, हल्दू पडाव, मुडिया पानी और रघुवाढाव समेत 23 वन विश्राम भवन भी हैं। पर्यटक इन स्थानों में आवासीय सुविधा पाने के लिये सम्बद्ध वन प्रभाग कार्यालयों से समुचित जानकारी व अग्रिम आरक्षण करवा सकते हैं।
क्या देखें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान की जैव विविधता देखते ही बनती है। साल, शीशम, खैर, ढाक, सेमल, बेर और कचनार आदि वृक्षों से जंगल भरा पडा है। रामगंगा के इर्द-गिर्ग फैले ‘चौडों’ और ‘मंझाडे’ (जल के मध्य स्थित जंगल) में सैंकडों की तादाद में हिरणों के झुण्ड सहजता से नजर आ जाते हैं। ये स्थान पाडा, सूअर और हाथियों की भी पसन्दीदा जगह हैं। पार्क की छोटी-छोटी पहाडियां घुडल और काकड को देखने के लिये उपयुक्त हैं।
यदि आप सौभाग्यशाली हैं तो घनी झाडियों के पीछे छिपे रहने वाले बाघ, तेंदुए और भालू भी आपको नजर आ जायेंगे। पार्क में मौजूद हजारों लंगूर और बंदरों की उछल-कूद बच्चों का खूब मनोरंजन करती है।
रामगंगा नदी में, विशेष रूप से गहरे कुण्डों में शर्मीले स्वभाव के घडियाल और तटों पर समाधि में लीन मगर पाये जाते हैं। ऊदबिलाव और कछुए भी बहुतायत में हैं। रामगंगा और उसकी सहायक नदियों में महासीर (स्पोर्टिंग फिश), गूंज, रोहू, ट्राउट, काली मच्छी, काला वासु और चिलवा प्रजाति की मछलियां भी देखी जा सकती हैं। किंग कोबरा, कैरेट, रूसलस, वाइपर और विशालकाय अजगर जैसी सर्प प्रजातियों के दर्शन भी यहां सम्भव हैं।
कालाढूंगी में एक संग्रहालय भी है जहां जिम कार्बेट की स्मृतियों को संजो कर रखा गया है। यह संग्रहालय उसी भवन में बनाया गया है जिसमें कभी कार्बेट रहा करते थे। इस भवन के अहाते में जिम के प्रिय कुत्ते की भी कब्र है। इस संग्रहालय के अलावा पार्क में आप कालागढ बांध देखने भी जा सकते हैं। यह बांध अपने आप में एक अजूबा है क्योंकि इसका निर्माण सिर्फ मिट्टी से किया गया है।
लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
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