पूर्वोत्तर भारत का मनोरम पहाडी प्रान्त मणिपुर अपनी समृद्ध लोक-नृत्य परम्परा के लिये प्रसिद्ध है। यहां के मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति का एक-एक अंग नृत्य के आगोश में समाया रहता है। यहां तक कि मणिपुरी हिरण संगाई भी हरदम नाचने-कूदने में ही मशगूल रहता है। इसीलिये इसे डांसिंग डियर भी कहा जाता है। पूरी दुनिया में सिर्फ मणिपुर में पाये जाने वाले हिरण की इस दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण के लिये केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई। सिर्फ 40 वर्ग किलोमीटर दायरे में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान अपनी किस्म का अनूठा उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा झील में तैरता रहता है। इसीलिये इसे फ्लोटिंग पार्क यानी कि तैरता हुआ उद्यान भी कहा जाता है।
कब जायें: केबुल लामजाओ की यात्रा के लिये अक्टूबर से अप्रैल का समय सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में केबुल लामजाओ का सौन्दर्य और भी निखर उठता है।
कैसे जायें: केबुल लामजाओ जाने के उत्सुक पर्यटकों के लिये दिल्ली, कलकत्ता और गुवाहाटी से इम्फाल तक वायुसेवा उपलब्ध है। इम्फाल से दीमापुर का निकटतम रेलवे स्टेशन 125 किलोमीटर दूर है, किन्तु यात्रा की दृष्टि से यह सुविधाजनक नहीं है। आप गुवाहाटी तक ट्रेन से आने के बाद वहां से डीलक्स बस अथवा टैक्सी के जरिये इम्फाल पहुंच सकते हैं। सडक मार्ग से यात्रा के दौरान आपको नागालैण्ड से होकर गुजरना पडेगा, जिसके लिये ‘इनर लाइन परमिट’ बनाना आवश्यक है। ये परमिट नागालैण्ड सरकार के नई दिल्ली, कलकत्ता, गुवाहाटी, शिलांग और दीमापुर स्थित कार्यालयों से प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 2611 किलोमीटर, कलकत्ता 1728 किलोमीटर, शिलांग 677 किलोमीटर, दीमापुर 160 किलोमीटर, इम्फाल 45 किलोमीटर।
कहां ठहरें: पर्यटकों के आवास के लिये यहां समुचित प्रबन्ध है और वन विभाग की ओर से दो विश्रामगृह बनाये गये हैं। इसके अतिरिक्त झील के बीच में बना सैन्द्रा टूरिस्ट सैंटर और मोईरांग में भी ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। वैसे आप इम्फाल में रहकर भी सुगमतापूर्वक केबुल लामजाओ पहुंच सकते हैं। मणिपुर स्टेट ट्रांसपोर्ट के ओर से पर्यटकों के भ्रमण के लिये इम्फाल से यहां के लिये टूरिस्ट बस अथवा टैक्सी की भी व्यवस्था है।
क्या देखें: संगाई केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की बेशकीमती सौगात है। यह विश्व की सबसे संकटापन्न हिरण प्रजाति है। संगाई मणिपुरी नाम है। हिन्दी में इन्हें थामिन और अंग्रेजी में ब्रो एंटलर्ड डियर कहा जाता है। यह नाम इसलिये रखा गया क्योंकि इन हिरणों के सींग, भौहों के करीब से निकलते हैं। वैसे इनका वैज्ञानिक नाम है- सरकस एल्डी। बडी संख्या में मानव द्वारा आहार बनाये जाने के कारण संगाई हिरणों की संख्या निरन्तर घटती चली गई और 1951 में मणिपुर सरकार ने इनके विलुप्त होने की घोषणा कर दी किन्तु बाद में व्यापक खोज के बाद कुछ संगाई पाये गये और इन्हें बचाने के उद्देश्य से 1954 में केबुल लामजाओ अभयारण्य की स्थापना की गई।
अभयारण्य बनने के बावजूद भी केबुल लामजाओ में संगाई हिरणों के अवैध शिकार पर पूरी रोक नहीं लग पाई और 1977 की गणना में यहां सिर्फ 18 संगाई पाये गये। वन्य जन्तु प्रेमियों और अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की चिन्ता पर केन्द्र सरकार ने 1977 में केबुल लामजाओ को नेशनल पार्क का दर्जा दे दिया। संगाई हिरणों के संरक्षण के लिये सभी संभव प्रयास किये गये और इसके लिये पर्याप्त संख्या में वन्य जन्तु रक्षकों की व्यवस्था की गई। इन सब का नतीजा यह हुआ कि 1986 में संगाई हिरणों की संख्या 18 से बढकर 95 हो गई। मार्च 1995 की नवीनतम गणना के अनुसार यहां 152 संगाई हैं जिनमें 58 नर, 69 मादा और 25 बच्चे हैं।
सचमुच केबुल लामजाओ और संगाई एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। दलदली क्षेत्र में धंसते हुए पांवों के बीच जब ये अपने शरीर को सन्तुलित करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ये नाच रहे हों। केबुल लामजाओ के दलदली टापुओं पर जब संगाई हिरणों का झुण्ड नृत्य करता है तो ऐसा लगता है जैसे कृष्ण की गोपियां रास रचा रही हों।
निःसन्देह संगाई केबुल लामजाओ का मुख्य आकर्षण है लेकिन इनके अलावा भी यहां कुछ और वन्य प्राणी निवास करते हैं। इनमें 118 हॉग डियर और 100 जंगली सूअरों के साथ ही ऊदबिलाव, गिलहरी, लंगूर और दर्जनों किस्म के जलीय पक्षी शामिल हैं। यदि आप प्रवासी पक्षियों को देखने के उत्सुक हैं तो नवम्बर से मार्च का समय यहां विहंगावलोकन के लिये सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में साइबेरियन पक्षियों के कलरव से केबुल लामजाओ की सूनी वादियां गूंज उठती हैं।
दुर्लभ पशु-पक्षियों के अलावा अपार जल-राशि, मछलियां, कछुए, हरी-भरी वनस्पतियां, हर मौसम में खिलने वाले लोक लेई, पुलैई व खोयमौम जैसे जंगली फूल और चारों ओर छोटी-बडी पहाडियों का अलौकिक सौन्दर्य केबुल लामजाओ को बेहद आकर्षक बना देता है।
केबुल लामजाओ दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा लोकताक झील में छोटे छोटे टापुओं के रूप में तैरता रहता है। सडी घास-फूस से बने ये टापू कुदरत की अनूठी देन हैं। इनका पांचवां भाग जल के ऊपर तथा शेष भाग जल में समाया रहता है। वन्य प्राणियों के लिये ये उत्तम चरागाह भी हैं। इनमें 15 फीट ऊंची घास उग आती है, जिसे ‘फुमदी’ कहा जाता है।
जब कभी भी आप केबुल लामजाओ आयें, लोकताक झील के बीचोंबीच स्थित सैंद्रा कैफेटेरिया और निकटवर्ती मोईरांग कस्बे की सैर अवश्य कीजियेगा। यह ऐतिहासिक नगर ‘खुंबा-थोईबी’ की याद दिलाता है जिनके अमर प्रेम की कहानी मणिपुर के हर घर में कही सुनी जाती है।
लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
kyaa bat hai neeraj jee, lage raho, or nai jagah ke baare men batate raho.
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