शनिवार, जून 25, 2011

सांची- बौद्ध कला की बेमिसाल कृतियां

ललित मोहन कोठियाल

भारत में बौद्ध कला की विशिष्टता व भव्यता सदियों से दुनिया को सम्मोहित करती आई है। इनमें गया के महाबोधि मन्दिर और सांची के स्तूप जहां विश्व विरासत में शुमार हैं वहीं अन्य अनेक स्थानों पर निर्मित स्तूप, प्रतिमाएं, मन्दिर, स्तम्भ, स्मारक, मठ, गुफाएं, शिलाएं उस दौर की उन्नत प्रस्तर कला की अन्य विरासतें हैं।

सांची के स्तूप दूर से देखने में भले मामूली अर्द्धगोलाकार संरचनाएं लगें लेकिन इसकी भव्यता, विशिष्टता व बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है। इसीलिये देश-विदेश से बडी संख्या में बौद्ध मतावलम्बी, पर्यटक, शोधार्थी, अध्येता इस बेमिसाल संरचना को देखने चले आते हैं। सांची के स्तूपों का निर्माण कई कालखण्डों में हुआ जिसे ईसा पूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी के मध्य में माना गया है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिये उनके अनुयायी राजा आपस में लडने झगडने लगे। अन्त में एक बौद्ध सन्त ने समझा-बुझाकर उनके शरीर के अवशेषों के हिस्सों को उनमें वितरित कर समाधान किया। इन्हें लेकर आरम्भ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर होने लगा।

बौद्धधर्म व उसकी शिक्षा मे प्रचार-प्रसार में मौर्यकाल के महान राजा अशोक का सबसे बडा योगदान रहा। बुद्ध का सन्देश दुनिया तक पहुंचाने के लिये उन्होंने एक सुनियोजित योजना के तहत कार्य आरम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया। उन्होंने पुराने स्तूपों को खुदवा कर उनसे मिले अवशेषों के 84 हजार भाग कर अपने राज्य सहित निकटवर्ती देशों में भेजकर बडी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया। इन स्तूपों को स्थायी संरचनाओं में बदला ताकि ये लम्बे समय तक बने रह सकें।

सम्राट अशोक ने भारत में जिन स्थानों पर बौद्ध स्मारकों का निर्माण कराया उनमें सांची भी एक था। तब यह बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। ह्वेन सांग के यात्रा वृत्तान्त में बुद्ध के बौद्ध गया से सांची जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भव है सांची की उज्जयिनी की निकटता और पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण जाने वाले यात्रा मार्ग पर होना भी इसकी स्थापना की वजहों में से रहा हो। सांची का उस दौर में कितना महत्व रहा होगा, इसका अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि अशोक के पुत्र महेंद्र व पुत्री संघमित्रा श्रीलंका में धर्म प्रचार पर जाने से पूर्व यहां मठ में रहते थे जहां पर उनकी माता का भी एक कक्ष था।

हर धर्म की भांति बौद्ध कालीन संरचनाओं को उनकी मान्यताओं के अनुसार बनाया गया। इन संरचनाओं में मन्दिर से परे स्तूप एक नया विचार था। स्तूप संस्कृत व पाली से निकला माना जाता है जिसका अर्थ होता है ढेर। आरम्भ में केन्द्रीय भाग में तथागत (महात्मा बुद्ध) के अवशेष रख उसके ऊपर मिट्टी डालकर इनको गोलाकार आकार दिया गया। इनमें बाहर से ईंटों व पत्थरों की ऐसी चिनाई की गई ताकि खुले में इन स्तूपों पर मौसम का कोई प्रभाव न हो सके। स्तूपों में मन्दिर की भांति कोई गर्भगृह नहीं होता। अशोक द्वारा सांची में बनाया गया स्तूप इससे पहले के स्तूपों से विशिष्ट था।

सांची में बौद्ध वास्तु शिल्प की बेहतरीन कृतियां हैं जिनमें स्तूप, तोरण, स्तम्भ शामिल हैं। इनमें स्तूप संख्या 1 सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था जिसमें महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे गये। करीब में यहां पर दो अन्य छोटे स्तूप भी हैं जिनमें उनके दो शुरूआती शिष्यों के अवशेष रखे गये हैं। पहले स्तूप की वेदिका में जाने के लिये चारों दिशाओं में तोरण द्वार बने हैं। पूरे स्तूप के बाहर जहां पहले कठोर लकडी हुआ करती थी आज पत्थरों की रेलिंग है। अन्दर वेदिका है व कुछ ऊंचाई तक जाने के लिये प्रदक्षिणा पथ है। स्तूप के गुम्बद पर पत्थरों की वर्गाकार रेलिंग (हर्मिका) बनी है व शिखर पर त्रिस्तरीय छत्र है। स्तूप की वेदिका में प्रवेश के लिये चार दिशाओं में चार तोरण (द्वार) हैं।

पत्थर से बने तोरणों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झांकी व जातक प्रसंगों को उकेरा गया है। यह कार्य इतनी बारीकी से किया गया है कि मानो कारीगरों ने कलम कूंची से उनको गढा हो। इस स्तूप के दक्षिणी तोरण के सामने अशोक स्तम्भ स्थापित है। इसका पत्थर आसपास कहीं नहीं मिलता। माना जाता है कि 50 टन वजनी इस स्तम्भ को सैकडों कोस दूर चुनार से यहां लाकर स्थापित किया गया। यहां पर एक मन्दिर के अवशेष हैं जिसे गुप्तकाल में निर्मित माना जाता है। सांची के स्तूपों के समीप एक बौद्ध मठ के अवशेष हैं जहां बौद्ध भिक्षुओं के आवास थे। यही पर पत्थर का वह विशाल कटोरा है जिससे भिक्षुओं में अन्न बांटा जाता था। यहां पर मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन व गुप्तकालीन अवशेषों सहित छोटी बडी कुल चार दर्जन संरचनाएं हैं।

शुंग काल में सांची में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप को विस्तार दिया गया जिससे इसका व्यास 70 फीट से बढकर 120 फीट व ऊंचाई 54 फीट हो गई। इसके अलावा यहां पर अन्य स्तूपों का निर्माण कराया गया। सांची में इन स्तूपों का जीर्णोद्धार लम्बे समय तक चला। इसके बाद शुंग व कुषाण नरेशों ने अपने काल में यहां पर अन्य स्तूप निर्मित करवाये।

मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन व गुप्तकाल तक बौद्धधर्म फला-फूलता रहा किन्तु इसके पतन के उपरान्त राजकीय कृपादृष्टि समाप्त होने से बौद्ध धर्म का अवसान होने लगा। लेकिन बाद के शासकों ने बौद्ध स्मारकों व मन्दिरों को यथावत रहने दिया। सांची की कीर्ति राजपूत काल तक बनी रही किन्तु पहले तुर्कों के आक्रमण और बाद में मुगलों की सत्ता की स्थापना के बाद यह घटने लगी। औरंगजेब के काल में बौद्ध धर्म का केंद्र सांची गुमनामी में खो गया।

19वीं सदी में कर्नल टेलर यहां आये तो उन्हें सांची के स्तूप बुरी हालत में मिले। उन्होंने उनको खुदवाया और व्यवस्थित किया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उन्होंने इसके अन्दर धन-सम्पदा के अंदेशे में खुदाई की जिससे इसकी संरचना को काफी नुकसान हुआ। बाद में पुराविद मार्शल ने इनका जीर्णोद्धार करवाया। सारे निर्माण का पता लगाना और उनका जीर्णोद्धार कराके मूल आकार देना बेहद कठिन था, किन्तु उन्होंने बखूबी से इसकी पुरानी कीर्ति को कुछ हद तक लौटाने में मदद की।

धर्म व पर्यटन का संगम

1989 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल होने के बाद से सांची का महत्व बहुत बढा। बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां पर देशी व विदेशी मतावलम्बियों का जमावडा लगा रहता है। सांची की भव्यता को देखने प्रतिदिन हजारों पर्यटक पहुंचते हैं जिनमें विदेशी सैलानियों की बडी संख्या होती है। इस सारे परिसर के प्रबंधन व संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है। यहां का पुरातत्व संग्रहालय भी दर्शनीय है। आरम्भ में वर्ष 1919 में इसे स्तूपों के निकट बनाया गया था किन्तु जैसे-जैसे सामग्री की प्रचुरता होने लगी इसे 1986 में सांची की पहाडी के आधार पर नये संग्रहालय भवन में स्थानान्तरित कर दिया गया। इस संग्रहालय में मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्तकालीन प्रस्तर कला के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख आदि देखने को मिलते हैं। सांची के इन स्मारकों की भव्यता तो आगंतुकों को चमत्कृत करती ही है, साथ में यहां का शान्त वातावरण बुद्ध के शान्ति के सन्देश को समझने में मदद देता है।

कैसे पहुंचे

सांची रायसेन जिले का एक छोटा सा कस्बा है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल निकट होने के कारण यहां पर पर्यटक भोपाल से ही आते हैं, जहां हर प्रकार की नगरीय सुविधाएं उपलब्ध हैं। कुछ पर्यटक यहां सीधे भी आते हैं। सांची सडक या रेल मार्ग, दोनों से आया जा सकता है। भोपाल कई नगरों से वायु सेवा से भी जुडा है। सांची भोपाल से दिल्ली जाने वाले मुख्य रेल मार्ग पर है। एक ऊंची पहाडी पर स्थित होने से यह उत्तर से भोपाल आते समय बायें हाथ की ओर नजर आता है। सांची में अधिकतर सुपरफास्ट रेलें नहीं रुकती हैं। इसलिये ज्यादातर लोग भोपाल से यहां आने की योजना बनाकर आते हैं, जो यहां से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है। सामान्य मेल व एक्सप्रेस रुकती हैं। रेल स्टेशन से इन स्तूपों की दूरी लगभग चार किलोमीटर है। इस विरासत स्थल के करीब तक सडक मार्ग बना है। सांची में पर्यटन विभाग का यात्री आवास व रेस्तरां है। आस-पास कुछ होटल भी हैं। यहां आने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के मध्य होता है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 25 जनवरी 2009 को प्रकाशित हुआ था।


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2 टिप्‍पणियां:

  1. sath hi sath itihas bhi chal raha hai|

    bahut aachchhe||

    मेरे सुपुत्र का ब्लॉग |

    ओये घुमक्कड़ ! घूमीं जरुर ||
    http://kushkikritiyan.blogspot.com/

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